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कविता

मोचग्रस्त यह पाँव

शिरीष कुमार मौर्य


आज मोचग्रस्त है उन पाँवों में से एक पाँव
कुछ बरस पहले
जो दाखिल हो गए थे मेरे जीवन में
प्रेम की पहली बारिश से तर भीतर की गाढ़ी मिट्टी पर
छप्प... से
छोड़ते हुए
अपने होने की भरपूर छाप

दरअसल इससे पहले भी बरसों इन्होंने मेरा पीछा किया
बहुत धूल उड़ती थी तब मेरे भीतर
संकल्पों की चट्टानें टूटने की हद तक तपती थीं
ज्वालामुखियों-से
जब तब फूट पड़ते थे
मन के पठार
दिनों-दिन क्षीण होती जाती थी
जीवन की जलधार

उन दिनों मैं नहीं देख पाता था अपने ही बनाए
एक प्रतिरोधी
और प्रतिहिंसक संसार के पार
मेरे आगे उड़ते रहते थे
धुएँ के ग़ुबार
उस आग के पीछे-पीछे ही
शीतल बौछारों से भरा एक बवंडर लिए
आते थे दो पाँव

एक दिन अचानक मैंने देखा इन्हें क़रीब आते
ये बहुत गोरे-पतले और सुंदर थे
लेकिन
एक अजीब-सी चमक और ताक़त भी दिखती थी इनमें
बहुत ध्यान से देखने पर

मै लगभग बेबस था इनके आगे
प्रेम के इस औंचक आगमन की हैरत से भरा और बहुत ख़ुश
दरअसल मुझे बेबस होना ही अच्छा लगा

देखता हूँ आज
कितने बरसों और कितनी जोखिमभरी यात्राओं की थकान है
प्यारी
कि टिक नहीं पा रहा धरती पर तेरा यह सूजा हुआ पाँव
मेरे जीवन के बीहड़ में चलकर भी
लगातार
मुझको साध न सकने की पीड़ा से भरा

बेवक़्त ही इस पर दीखते हैं नीली नसों के जाल
अपनी इस अविगत गति से डरा मैं
बेहद शर्मिंदा-सा बुदबुदाता हूँ
कि अब
ज़रूर कुछ न कुछ करूँगा और कुछ नहीं तो कम से कम
आगे की लंबी और ऊबड़-खाबड़ यात्रा में
धीरे ही चलूँगा

पीड़ा और चिंता को आँखों तक भरकर
अपलक
ताकती
मुझको
वह सोचती है शायद - क्या सचमुच
मैं कुछ करूँगा ?

और अगर धीरे ही चला तो तेज़ी से भागती इस दुनिया में
कितनी दूर चलूँगा?

सोचता हूँ मैं
क्यों बनाते हैं इतनी दूर हम मंज़िलें अपनी
जो सदा ओझल ही रहती हैं

अपने आसपास को भूल देखते हैं स्वप्न झिलमिलाते ऐसे मानो जीवन और भी हो कहीं
ब्रह्मांड में
कई-कई आकाशगंगाओं के पार

क्यों तय कराते हैं खुद को इतने लंबे फासले
किसी भी क़ीमत पर
क्यों हो जाते हैं उतावले
कहलाने को क़ामयाब
जबकि
क़ामयाबी ही सबसे कमीनी चीज़ है इस धरती पर
जिसका सबूत
फिलहाल
कुल इतना है मेरे पास -

ख़ुद को छुपा पाने में विफल
अब मेरे हाथों में आने से भी डरता
काँपता
झिझकता
मुश्किलों के ठहर चुके
जमे हुए
गाढ़े-नीले रक्त से भरा तेरा
मोचग्रस्त
यह पाँव !
 


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