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कविता

माइग्रेन

शिरीष कुमार मौर्य


किसी बिगबैंग से नहीं
शायद दिन भर के काम में खटी एक स्‍त्री के माइग्रेन से उपजा होगा ब्रह्मांड
आधा बनता और आधा तबाह होता हुआ

दर्द की इन्‍हीं नई-नई लहरों की तरह
उमड़ती हुई
अस्तित्‍व में आई होंगी आकाशगंगाएँ
कई-कई

ज़रूर किसी स्‍त्री की वंचनाओं के प्रतिकार में बने होंगे
निर्लिप्‍त भाव से हर चीज़ को अपने भीतर
सोख लेने वाले ब्‍लैक-होल तमाम

मैं जो तथाकथित रूप से कहलाता हूँ
युवा कवि
और भूतपूर्व छात्र भौतिक विज्ञान का
मुझे माफ़ करें
अंतरिक्षीय शोध में लगे दुनिया भर के सभी मेधावी खगोलशास्‍त्री
करोंड़ों डालर की बनी
एकाग्र हो दिन-रात फ़क़त एक शून्‍य को ताकने वाली
बड़ी-बड़ी दूरबीनें

पृथ्‍वी की वे मशहूर वेधशालाएँ मुझे माफ़ करें
मैं देख नहीं पा रहा हूँ
फिलहाल
उस अनोखी दुनिया के पार
जो मेरे ताक़तवर लेकिन बेबस हाथों के बीच
छटपटा रही है लगातार
एक अज्ञात नींद
और राहत के किसी बड़े चमत्‍कार की तलाश में

सन् 2007 के इस गर्म जून में
जबकि हमारे घरों में मौजूद झिलमिलाते सूचनापटों पर
अब आने लगी है
मानसून के आ पहुँचने की ख़बरें भी
भरपूर -

प्रो. हाकिंग, कृपया मुझे माफ़ करें
ख़ुदा करे मेरा कोई शब्‍द न पहुँचे आपकी उस विशिष्‍ट कुर्सी
और कंप्यूटर तक
जिसमें निढाल होकर बैठे और बँधे
आप
मुझे दरअसल उतने ही निरीह और आश्‍वस्‍त लगते हैं
जितना कि एक हिंदुस्‍तानी माइग्रेनग्रस्‍त स्‍त्री का
यह तात्‍कालिक संसार
और बहुत जल्‍दी में उसी के लिए अभी-अभी गढ़ी गई
मेरी यह एक नितांत अवैज्ञानिक और अल्‍पजीवी
स्‍थापना भी ...
 


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