उस दूरस्थ पहाड़ी इलाके में कँपकँपाती सर्दियों के बाद
आते वसंत में खुलते थे स्कूल
जब धरती पर साफ सुनाई दे जाती थी
क़ुदरत के क़दमों की आवाज़
गाँव-गाँव से उमड़ते आते
संगी
साथी
यार
सुदीर्घ शीतावकाश से उकताए
अपनी उसी छोटी-सी व्यस्त दुनिया को तलाशते
9 किलोमीटर दूर से आता था टीकाराम पोखरियाल
आया जब इस बार तो हर बार से अलग उसकी आँखों में
जैसे पहली बार जागने का प्रकाश था
सत्रह की उमर में
अपनी असंभव-सी तीस वर्षीया प्रेयसी के वैभव में डूबा-डूबा
वह किसी और ही लोक की कहानियाँ लेकर आया था
हमारे खेलकूद
और स्थानीय स्तर पर दादागिरी स्थापित करने के उन थोड़े से
अनमोल दिनों में
यह हमारे संसार में सपनों की आमद थी
हमारी दुबली-पतली देहों में उफनती दूसरी किसी ज़्यादा मजबूत और पकी हुई देह के
हमलावर सपनों की आमद
घेरकर सुनते उसे हम जैसे आपे में नहीं थे
उन्हीं दिनों हममें से ज़्यादातर ने पहली बार घुटवाई थी
अपनी वह पहली-पहली सुकोमल
भूरी रोएँदार दाढ़ी
बारहवीं में पढ़ता
हमारा पूरा गिरोह अचानक ही कतराने लगा था
बड़े-बुज़ुर्गों के राह में मिल जाने से
जब एक बेलगाम छिछोरेपन
और ढेर सारी खिलखिलाहट के बीच
जबरदस्ती ओढ़नी पड़ जाती थी विद्यार्थीनुमा गंभीरता
सबसे ज़्यादा उपेक्षित थीं तो हमारी कक्षा की वे दो अनमोल लड़कियाँ
जिनके हाथों से अचानक ही निकल गया था
हमारी लालसाओं का वह ककड़ी-सा कच्चा आलंबन
जिसके सहारे वे आतीं थीं हर रोज़
अपनी नई-नई खूबसूरत दुनिया पर सान चढ़ातीं
अब हमें उनमें कोई दिलचस्पी नहीं थी
टीका हमें दूसरी ही राह दिखाता था जो ज़्यादा प्रशस्त
और रोमांच से भरी थी
हम आकुल थे जानने को उस स्त्री के बारे में जो दिव्य थी
दुनियावी तिलिस्म से भरी
बहुत खुली हुई लगभग नग्न भाषा में भी रह जाता था
जिसके बारे में कुछ न कुछ अनबूझा - अनजाना
टीका के जीवन में पहली बार आया था वसंत इतने सारे फूलों के साथ
और हम सब भी सुन सकते थे उसके इस आगमन की
उन्मादित पदचाप
लेकिन
अपने पूरे उभार तक आकर भी आने वाले मौसमों के लिए
धरती की भीतरी परतों में कुछ न कुछ सहेजकर
एक दिन उतर ही जाता है वसंत
उस बरस भी वह उतरा
हमारे आगे एक नया आकाश खोलते हुए
जिसमें तैरते रुई जैसे सम्मोहक बादलों के पार
हमारे जीवन का सूर्य अपनी पूरी आग के साथ तमतमाता था
अब हमें उन्हीं धूप भरी राहों पर जाना था
टीका भी गया एक दिन ऐसे ही
उस उतरते वसंत में
लैंसडाउन छावनी की भरती में अपनी क़िस्मत आजमाने
कड़क पहाड़ी हाथ-पाँव वाला वह नौजवान
लौटा एक अजीब-सी अपरिचित प्रौढ़ मुस्कान के साथ
हम सबमें सबसे पहले उसी ने विदा ली
उसकी वह वसंतकथा मँडराई कुछ समय तक
बाद के मौसमों पर भी
किसी रहस्यमय साए-सी फिर धूमिल होती गई
हम सोचने लगे
फिर से उन्हीं दो लड़कियों के बारे में
और सच कहें तो अब हमारे पास उतना भी वक़्त नहीं था
हम दाख़िल हो रहे थे एक के बाद एक
अपने जीवन की निजता में
छूट रहे थे हमारे गाँव
आगे की पढ़ाई-लिखाई के वास्ते हमें दूर-दूर तक जाना था
और कई तो टीका की ही तरह
फ़ौज में जाने को आतुर थे
यों हम दूर होते गए
आपस में खोज-ख़बर लेना भी धीरे-धीरे कम होता गया
अपने जीवन में पंद्रह साल और जुड़ जाने के बाद
आज सोचता हूँ मैं
कि उस वसंतकथा में हमने जो जाना वह तो हमारा पक्ष था
दरअसल वही तो हम जानना चाहते थे
उस समय और उस उमर में
हमने कभी नहीं जाना उस औरत का पक्ष जो हमारे लिए
एक नया संसार बनकर आई थी
क्या टीकाराम पोखरियाल की वसंतकथा का
कोई समानांतर पक्ष भी था ?
उस औरत के वसंत को किसने देखा ?
क्या वह कभी आया भी
उस परित्यक्ता के जीवन में
जो कुलटा कहलाती लौट आई थी
अपने पुंसत्वहीन पति के घर से
देह की खोज में लगे बटमारों और घाघ कोतवालों से
किसी तरह बचते हुए उसने
खुद को
एक अनुभवहीन साफदिल किशोर के आगे
समर्पित किया
क्या टीका सचमुच उसके जीवन में पहला वसंत था
जो टिक सका बस कुछ ही देर
पहाड़ी ढलानों पर लगातार फिसलते पाँवों-सा ?
पंद्रह बरस बाद अभी गाँव जाने पर
जाना मैंने कि टीका ने बसाया हम सबकी ही तरह
अपना घरबार
बच्चे हुए चार
दो मर गए प्रसूति के दौरान
बचे हुए दो दस और बारह के हैं
कुछ ही समय में वह लौट आएगा
पेंशन पर
फ़ौज में अपनी तयशुदा न्यूनतम सेवा के बाद
कहलाएगा
रिटायर्ड सूबेदार
वह स्त्री भी बाद तक रही टीका के गाँव में
कुछ साल उसने भी उसका बसता घरबार देखा
फिर चली गई दिल्ली
गाँव की किसी नवविवाहिता नौकरीपेशा वधू के साथ
चौका-बरतन-कपड़े निबटाने
उसका बसता घरबार निभाने
यह क्या कर रहा हूँ मैं ?
अपराध है भंग करना उस परम गोपनीयता को
जिसकी कसम टीका ने हम सबसे उस कथा को कहने से पहले ली थी
उससे भी ली थी उसकी प्रेयसी ने पर वह निभा नहीं पाया
और न मैं
इस नई सहस्त्राब्दी और नए समय के पतझड़ में करता हूँ याद
पंद्रह बरस पुराना जीवन की पहली हरी कोंपलों वाला
वह छोटा-सा वसंतकाल
जिसमें उतना ही छोटा वह सहजीवन टीका और उसकी दुस्साहसी प्रेयसी का
आपस में बाँटता कुछ दुर्लभ और आदिम पल
उसी प्रेम के
जिसके बारे में अभी पढ़ा अपने प्रिय कवि वीरेन डंगवाल का
यह कथन कि "वह तुझे खुश और तबाह करेगा! "
स्मृतियों के कोलाहल में घिरा लगभग बुदबुदाते हुए
मैं बस इतना ही कहूँगा
बड़े भाई !
जीवन अगर फला तो इसी तबाही के बीच ही कहीं फलेगा !