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कविता

कविताएँ पढ़ने वाली लड़कियाँ

शिरीष कुमार मौर्य


( शालिनी को समर्पित)
 

कम ही सही पर वे हर जगह हैं
इस महादेश की करोड़ों लड़कियों के बीच अपने लायक जगह बनाती
घर से कालेज और कालेज से सीधे घर आने के
सख़्त
पारिवारिक निर्देशों को निभातीं
वे हर कहीं हैं

मैं सोचता हूँ कि हिंदुस्तान के बेहद करिश्माई सिनेमा
और घर-घर में घुसी केबल की सहज उपलब्ध अंतहीन रंगीन दुनिया के बावजूद
वे क्यों पढ़ती हैं
एक बेरंग पत्रिका में छपी
जीवन के कुछ बेहद ऊबड़खाबड़ अनुभवों से भरी
हमारी कविताएँ

जिन पच्चीस रुपयों से ली जा सकती हो
गृहशोभा
मेरी सहेली
वनिता
बुनाई - कढ़ाई या सौंदर्य विशेषांक
या फिर फेमिना जैसी कोई चमचमाती
अँग्रेजी पत्रिका
क्यों बरबाद कर देती हैं उन्हें वे
हिंदी की
कुछेक कविताओं की खातिर ?

कल फोन पर मुझसे बात की थी एक ऐसी ही लड़की ने
पूर्वांचल के एक दूरस्थ सामंती कस्बे से आती उसकी आवाज़ में
एक अजीब-सा ठोस विश्वास था
और थोड़ा-सा तयशुदा अल्हड़पन भी
वह धड़ाधड़ देती जा रही थी प्रतिक्रिया मेरी महीना भर पहले छपी
एक कविता पर
जो प्रेम के बारे में थी

मैं लगभग हतप्रभ था उसकी उस निश्छल आवाज़ के सामने
वह बांज के जंगल में छुपे किसी पहाड़ी सोते-सी मीठी
और निर्मल थी
और वैसी ही छलछलाती भी

मैं चाहता था कि उससे पूछूँ
वही एक सवाल -
कि दुनिया की इतनी सारी मज़ेदार चीज़ें को छोड़ आख़िर तुम क्यों पढ़ती हो कविताएँ ?

लेकिन काफी देर तक मैं चुपचाप सुनता रहा उसकी बात
उसमें एक गूँज थी
जो कालेज से घर लौटती सारी लड़कियों की आवाज़ में होती है
घर लौटने के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद
जो रुक जाती हैं थोड़ी देर
गोलगप्पे खाने को
और साथ ही खरीद लाती हैं
वह पत्रिका भी
जिसमें मुझ जैसे ही किसी नौजवान कवि की कोई कविता होती है

वे पढ़ती हैं उसे
बैठकर घर की खामोशी में
किसी तरह समझातीं और चुप करातीं अपने भीतर बिलख रहे संसार को
छुपातीं अपने सपने
अपने दुख
अपनी यातनाएँ
और कभी अमल में न लाई जा सकने वाली
अपनी योजनाएँ

वे कविताएँ पढ़ती हैं
घर के सारे कामकाज और कालेज की ज़रूरी पढ़ाई के
साथ-साथ
किसी तरह मौका निकालकर

अंत पर पहुँचाते हुए इस बातचीत को जब पूछ ही बैठा मैं
तो पलटकर बोली वह
बड़ी निर्दयता से
कि पहले आप बताइए
आप क्यों लिखते हैं कविताएँ ?

अब अगर किसी पाठक की समझ में आ गया हो
तो वह कृपया मुझको भी समझाए
कि बाहर की सारी लुभावनी चकाचौंध से भागकर
हर बार
अपने भीतर के घुप अँधेरों में
कहीं किसी बचे-खुचे प्रेम की थोड़ी रोशनी जलाए
ये कुछ लड़कियाँ

आख़िर क्यों पढ़ती हैं
कविताएँ ?

 


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हिंदी समय में शिरीष कुमार मौर्य की रचनाएँ