| 
					ग़ज़लले चला जान मेरी रूठ के जाना तेरा
 ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा
 
 अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा
 सब ने जाना जो पता एक ने जाना तेरा
 
 तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परेशान रहा करती है
 किस के उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा
 
 आरज़ू ही न रही सुबहे वतन की मुझको
 शामे ग़ुरबत है अजब वक़्त सुहाना तेरा
 
 ये समझकर तुझे ऐ मौत लगा रक्खा है
 काम आता है बुरे वक़्त में आना तेरा
 
 ऐ दिले शेफ़्ता में आग लगाने वाले
 रंग लाया है ये लाखे का जमाना तेरा
 
 तू ख़ुदा तो नहीं ऐ नासहे नादाँ मेरा
 क्या ख़ता की जो कहा मैंने न माना तेरा
 
 रंज क्या वस्ले अदू का जो तअल्लुक़ ही नहीं
 मुझको वल्लाह हँसाता है रुलाना तेरा
 
 काबा ओ देर में या चश्म ओ दिलेआशिक़ में
 इन्हीं तीन-चार घरों में है ठिकाना तेरा
 
 तर्के आदत से मुझे नींद नहीं आने की
 कहीं नीचा न हो ऐ गौर सिरहाना तेरा
 
 मैं जो कहता हूँ उठाए हैं बहुत रंजेफ़िराक़
 वो ये कहते हैं बड़ा दिल है तवाना तेरा
 
 बज़्मे दुश्मन से तुझे कौन उठा सकता है
 इक क़यामत का उठाना है उठाना तेरा
 
 अपनी आँखों में अभी कून्द गई बिजली सी
 हम न समझे के ये आना है या जाना तेरा
 
 यूँ वो क्या आएगा फ़र्ते नज़ाकत से यहाँ
 सख्त दुश्वार है धोके में भी आना तेरा
 
 दाग़ को यूँ वो मिटाते हैं, ये फ़रमाते हैं
 तू बदल डाल, हुआ नाम पुराना तेरा
 
					ग़ज़ल 
					रंज की जब गुफ्तगू होने लगीआप से तुम तुम से तू होने लगी
 
 चाहिए पैग़ामबर दोने तरफ़
 लुत्फ़ क्या जब दू-ब-दू होने लगी
 
 मेरी रुस्वाई की नौबत आ गई
 उनकी शोहरत की क़ू-ब-कू होने लगी
 
 नाजिर बढ़ गई है इस क़दर
 आरजू की आरजू होने लगी
 
 अब तो मिल कर देखिए क्या रंग हो
 फिर हमारी जुस्तजू होने लगी
 
 'दाग़' इतराए हुए फिरते हैं आप
 शायद उनकी आबरू होने लगी
 
					ग़ज़ल 
					उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहींबाइसे तर्के मुलाक़ात बताते भी नहीं
 
 
 मुंतज़िर हैं दमे रुख़सत के ये मर जाए तो जाएँ
 फिर ये एहसान के हम छोड़ के जाते भी नहीं
 
 
 सर उठाओ तो सही, आँख मिलाओ तो सही
 नश्शाए मैं भी नहीं, नींद के माते भी नहीं
 
 
 क्या कहा फिर तो कहो; हम नहीं सुनते तेरी
 नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं
 
 
 ख़ूब परदा है के चिलमन से लगे बैठे हैं
 साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं
 
 
 मुझसे लाग़िर तेरी आँखों में खटकते तो रहे
 तुझसे नाज़ुक मेरी आँखों में समाते भी नहीं
 
 
 देखते ही मुझे महफ़िल में ये इरशाद हुआ
 कौन बैठा है इसे लोग उठाते भी नहीं
 
 
 हो चुका तर्के तअल्लुक़ तो जफ़ाएँ क्यूँ हों
 जिनको मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं
 
 
 ज़ीस्त से तंग हो ऐ दाग़ तो जीते क्यूँ हो
 जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं
 
 
 ग़ज़ल
 
					हुस्न-ए-अदा भी खूबी-ए-सीरत में चाहिए,यह बढ़ती दौलत, ऐसी ही दौलत में चाहिए।
 
 आ जाए राह-ए-रास्त पर काफ़िर तेरा मिज़ाज,
 इक बंदा-ए-ख़ुदा तेरी ख़िदमत में चाहिए ।
 
 देखे कुछ उनके चाल-चलन और रंग-ढंग,
 दिल देना इन हसीनों को मुत में चाहिए ।
 
 यह इश्क़ का है कोई दारूल-अमां नहीं,
 हर रोज़ वारदात मुहब्बत में चाहिए ।
 
 माशूक़ के कहे का बुरा मानते हो 'दाग़',
 बर्दाश्त आदमी की तबीअत में चाहिए ।
 
 
					
 ग़ज़ल
 तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
 न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था
 
 वो क़त्ल कर के हर किसी से पूछते हैं
 ये काम किस ने किया है ये काम किस का था
 
 वफ़ा करेंगे ,निबाहेंगे, बात मानेंगे
 तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था
 
 रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
 मुक़ीम कौन हुआ है मुक़ाम किस का था
 
 न पूछ-ताछ थी किसी की वहाँ न आवभगत
 तुम्हारी बज़्म में कल एहतमाम किस का था
 
 हमारे ख़त के तो पुर्जे किए पढ़ा भी नहीं
 सुना जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था
 
 इन्हीं सिफ़ात से होता है आदमी मशहूर
 जो लुत्फ़ आप ही करते तो नाम किस का था
 
 तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़
 कहो, वो तज़्किरा-ए-नातमाम किसका था
 
 गुज़र गया वो ज़माना कहें तो किस से कहें
 ख़याल मेरे दिल को सुबह-ओ-शाम किस का था
 
 अगर्चे देखने वाले तेरे हज़ारों थे
 तबाह हाल बहुत ज़ेरे-बाम किसका था
 
 हर इक से कहते हैं क्या 'दाग़' बेवफ़ा निकला
 ये पूछे इन से कोई वो ग़ुलाम किस का था
 
 
 ग़ज़ल
 ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया
 तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया
 
 
 हंसा हंसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया
 तसल्लिया मुझे दे-दे के बेकरार किया
 
 
 हम ऐसे मह्व-ए-नज़ारा न थे जो होश आता
 मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होशियार किया
 
 
 फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को एक कहानी थी
 कुछ ऐतबार किया और कुछ ना-ऐतबार किया
 
 
 ये किसने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया
 कि दिल से शोर उठा, हाए! बेक़रार किया
 
 
 तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादां, कि ग़ैर कहते हैं
 आख़िर कुछ न बनी, सब्र इख्तियार किया
 
 
 भुला भुला के जताया है उनको राज़-ए-निहां
 छिपा छिपा के मोहब्बत के आशकार किया
 
 
 तुम्हें तो वादा-ए-दीदार हम से करना था
 ये क्या किया कि जहाँ के उम्मीदवार किया
 
 
 ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मालन्देश
 उन्हों ने वादा किया हम ने ऐतबार किया
 
 
 न पूछ दिल की हक़ीकत मगर ये कहते हैं
 वो बेक़रार रहे जिसने बेक़रार किया
 
 
 कुछ आगे दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे
 कुछ आप ने मेरे कहने का ऐतबार किया
 
 
 ग़ज़ल
 अच्छी सूरत पे ग़ज़ब टूट के आना दिल का
 याद आता है हमें हाय! ज़माना दिल का
 
 तुम भी मुँह चूम लो बेसाख़ता प्यार आ जाए
 मैं सुनाऊँ जो कभी दिल से फ़साना दिल का
 
 पूरी मेंहदी भी लगानी नहीं आती अब तक
 क्योंकर आया तुझे ग़ैरों से लगाना दिल का
 
 इन हसीनों का लड़कपन ही रहे या अल्लाह
 होश आता है तो आता है सताना दिल का
 
 मेरी आग़ोश से क्या ही वो तड़प कर निकले
 उनका जाना था इलाही के ये जाना दिल का
 
 दे ख़ुदा और जगह सीना-ओ-पहलू के सिवा
 के बुरे वक़्त में होजाए ठिकाना दिल का
 
 उंगलियाँ तार-ए-गरीबाँ में उलझ जाती हैं
 सख़्त दुश्वार है हाथों से दबाना दिल का
 
 बेदिली का जो कहा हाल तो फ़रमाते हैं
 कर लिया तूने कहीं और ठिकाना दिल का
 
 छोड़ कर उसको तेरी बज़्म से क्योंकर जाऊँ
 एक जनाज़े का उठाना है उठाना दिल का
 
 निगहा-ए-यार ने की ख़ाना ख़राबी ऎसी
 न ठिकाना है जिगर का न ठिकाना दिल का
 
 बाद मुद्दत के ये ऎ दाग़ समझ में आया
 वही दाना है कहा जिसने न माना दिल का
 
 ग़ज़ल
 
					मुहब्बत में करे क्या कुछ किसी से हो नहीं सकतामेरा मरना भी तो मेरी ख़ुशी से हो नही सकता
 
 न रोना है तरीक़े का न हंसना है सलीके़ का
 परेशानी में कोई काम जी से हो नहीं सकता
 
 ख़ुदा जब दोस्त है ऐ 'दाग़' क्या दुश्मन से अन्देशा
 हमारा कुछ किसी की दुश्मनी से हो नहीं सकता
 |