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कविता

एक अविवाहिता का अविस्मरण

शिरीष कुमार मौर्य


जहाँ पशु-पक्षियों में भी जोड़ा बनाने का विधान हो
हमारी उस नर-मादा दुनिया में
उसने
सिर्फ मनुष्य बनने और अकेले रहने का
विकट फैसला लिया

अपने चुने हुए एकांत में
अपने बुने हुए सन्नाटे में
उसने चाहा कि कोई उसे तंग न करे
और यह
एक ऐसी कार्रवाई थी
जिसे उसके अपने घेरे के बाहर
लोगों ने
विवाह विरोधी
परिवार विरोधी
समाज विरोधी
और अंत में चल कर
स्वैराचार करार दिया

अब
उसकी उम्र के पाँचवे दशक में
उसका वह एकांत अचानक ही घुस पड़ा है
कई-कई विस्फोटों से भरे
मेरे जीवन में

उसका वह ज़बरदस्त सन्नाटा भी
गूँजता है
मुझसे जुड़े दूसरे रिश्तों के आत्मीय
कोलाहल के बीच

उसे पता नहीं
या फिर शायद जानबूझ कर वह चली आई है
एक ऐसी ख़तरनाक़ जगह पर
जो ख़ुद मुझे पाँव देने को तैयार नहीं
और
जिसका
कोई स्मरण
कभी
बाक़ी न रहेगा

मालूम होना चाहिए उसे
कि मुझ जैसा कायर कवि नहीं
उसके इस तरह अविस्मरणीय होने की कथा तो
उस जैसा
कोई मनुष्य ही कहेगा !
 


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