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कविता

लोकगीत में स्त्री’ विषयक राष्ट्रीय सेमीनार में नहीं दिया जा सका एक संबोधन

शिरीष कुमार मौर्य


देवियो और सज्जनो !
हिंदी की राष्ट्रव्यापी गोष्ठियों से गदगद इस समय में
मैं आप सबको अभिवादन करता हूँ !

मैं कहीं चूक भी सकता हूँ इसलिए पहले ही माफ़ी की दरकार करता हूँ
चूँकि बड़े-बड़े विद्वज्जनों को मैंने बोलते या बोलने का अभिनय करते देखा और सुना है
इसलिए जानता हूँ
कि गोष्ठियों में
इस तरह की 'एंटीसिपेट्री बेल' का विशेष प्रावधान होता है

हमारे बेहद ऊबड़खाबड़ प्रदेश
और उसके इस महान कठिन परिवेश के लोकगीतों में आख़िर कहाँ है स्त्री
यह खोजने हम और आप आए हैं
उत्तराखंड की
समतल
सपाट
चपटी समझ वाली राजधानी में
जहाँ शराब और भू-माफियों का राज है

राजनीति है
विधानसभा है

मैं आपसे ही पूछता हूँ इस धन्य-धन्य वातावरण में
जंगल से घास काटकर आती
थक जाती
ढलानों पर सुस्ताती
और तब अपनी बेहद गोपन आवाज़ में
लोकगीत सरीखा कुछ गाती आपकी वो प्रतिनिधि औरत
आख़िर कहाँ हैं ?

मेरा यह कहना गोष्ठी के सफल संचालन में कुछ ख़लल डाल सकता है
पर कवि हूँ मैं यह कहना मेरी ज़िम्मेदारी है
गीत को छोड़िए पहले लोक को खोजिए हमारे बदहाल होते गाँवों में
बीमार उपेक्षित बूढ़ों में -
उम्र के अंतिम मोड़ पर प्रेत की तरह गाँव के ढहते घर की हिफाजत करने को
अकेली छोड़ दी गई बूढ़ी औरतों में

आपके शहर की शाहराहों पर दम तोड़ते शब्दों में कहाँ पर खड़ा है यह शब्द - लोक
बिग बाज़ार में बिकती चीज़ों में कहाँ पर पड़ा है यह शब्द - लोक

चलिए
बचे हुए लोक को
एक परिभाषा दीजिए

क्या कहेंगे आप देहरादून में रहते हुए
उसके बारे में?
कौन बचाता है उसे जब हम-आप विमर्श कर रहे होते हैं
ऐसे ही किसी सभागार में बैठ कर

बालों में सरसों का तेल डालकर रिबन बाँध स्कूल जाती एक किशोरी बचाती है उसे

घुघुती से न बोलने की गुहार लगाती एक विरहिणी बचाती है उसे जिसका पति फ़ौज में है
और ससुराल में प्यार नहीं
धीरे-धीरे धूमिल होते
बाज़ार में बदलते कौथीग बचाते हैं उसे किसी हद तक
गाँव की बटिया पर बीड़ी पीते एक आवार छोकरे की किंचित प्रदूषित आत्मा भी बचाती है उसे

कोई बचाए पर हम नहीं बचाते उसे
देवियो और सज्जनो !

बुरा न मानें तो कहूँगा कि हमें तो जुगाली तक करनी नहीं आती
हम अपने भीतर के ज्ञान को भी नहीं पचा पाते

और कितना भी छुपाना चाहें छुपा नहीं पाते अपना अज्ञान

तो ज्ञान और अज्ञान की इस संधि पर मुझे माफ़ करें
देवियो और सज्जनो !
मैं अधिक कुछ बोल पाने में तो समर्थ हूँ
पर आप सबकी भावनाओं को समझ पाने में असमर्थ

इस बार जब गाँव जाऊँगा
तो आप सबको याद रखूँगा
याद रखूँगा हमारी इस असफल बौद्धिक चर्वणा और विमर्श को
आपकी विराट आयोजकीय शक्ति को याद रखूँगा

इस सबसे बढ़कर वहाँ
जब जाऊँगा जँड़दा देवी के कौथीग में
मैं याद रखूँगा अपनी शर्म को
जो मुझे अभी 'लोकगीत में स्त्री' विषयक सेमीनार के इस पोडियम पर
खड़े होकर आई है

और यक़ीन करें मेरे साथ सैकड़ों किलोमीटर दूर जंगल में घास कटी रही
एक बूढ़ी औरत भी शर्माई है

हालाँकि
यह किसी भी तरह की अकादमिक जानकारी नहीं है
तब भी अगर जानना चाहे कोई
तो धीरे से बता दूँ उसे
कि लोकगीतों के भीतर और बाहर वह मेरी विधवा ताई है!
 


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