बीच राह की बहुत देर की गपशप से थकी हुई-सी
वह जाती थी सिर पर आटे का थैला लादे
थोड़ी शर्माई-सी
घर को
अम्मा देती आवाज़ दूर से उसको
उसी सांकरी प्रिय पगडंडी पर
किलमोड़े* के फल के गाढ़े गहरे लाल रंग से
अपने अंग्गूठे पर मैंने
झूटा नकली घाव बनाया
लग जाने का अभिनय कर उसे बुलाया
वह पलटी
रक्ताक्त अँगूठा देख तुरत ही झपटी
अपने सर्दी से फटे होंट पर धर कर
छोटी-सी गरम जीभ से
जैसे ही अँगूठा चूसा
खट्टा-कड़वा स्वाद झूट का उसने पाया
झट से प्रेम समझ में आया
हाय, क्यों झूटा घाव बनाया
देखा कितनी-कितनी बार
मगर फिर अपने निकट न उसको पाया
इतने बरसों बाद
अब भी जीवन है भरपूर
और प्रेम भी है जीवन में
पर झूट धँसा है
गहरा कहीं रक्त-सा रिसता है मन में।
* एक पहाड़ी झरबेरी