वह मुझ पर
उम्र में काफी बड़ी किसी सुंदर स्त्री की तरह
झुक जाती है
उसे मेरे होंठ
मेरी आवाज़ चाहिए
उसके चेहरे पर अकसर एक मायूस हँसी होती है
वह मानो अपने एकांत के अँधेरे से
ख़ूब रोकर आती है
पहले उसमें मंद्र का भारीपन होता है
फिर मध्य का संतुलन
और फिर तार का एक अटूट शानदार तनाव
लेकिन वह कुछ घोषित-अघोषित नियमों के अधीन भी है
इसलिए वापस मध्य और मंद्र में लौट जाती है
मैं उसे शास्त्रीय राग में निबद्ध किसी लंबे ख़याल
तो कभी
ठुमरी और दादरा की गाना चाहता हूँ
पर क्या करूँ एक लगभग कवि हूँ मैं
और वह समूची कविता
मुझे संगीत तो आता है
पर उसे स्वर देना नहीं आता।