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कविता

खिलना

शिरीष कुमार मौर्य


पुरानी उम्रों में एक उम्र थी
जब मैं किशोर था
एक लड़की थी उर्मिला जिससे मैं भागता था दूर
शरारत से कहती थी -

अचानक सर उठा कर जब देखता है तू
तेरी आँखें फूल की तरह खिलती हैं

बीच की उम्रों में एक उम्र है यह
जब वो खुलती हैं घाव की तरह

चेहरे पर दो घाव हैं

ज़र्द
मानो मवाद से भरे
इनमें से रक्त-सा रिसता है
जो देखने में पानी-सा लगता है

ग़नीमत है
मेरा मुँह खुलता है अब भी मुँह की तरह
बोलता है पूरी बची हुई ताक़त से
उतना सब कुछ
जितना बोला जाना ज़रूरी है
लोगों से भरे इस उजाड़ में
जिसे नए-पुराने दार्शनिक सभी
संसार कहते हैं

हमारे भीतर के नदी-नाले सब
इसी में बहते हैं
उस उम्मीद की तरह जो कहती है -

ये आँखें फिर फूल हो जा एँ गी
बाद की उम्रों में कभी वो पुरानी उम्र वापस आएगी

यक़ीन है मुझे
मैं देखूँगा मृत्यु की आँखों से
दो बुझती आँखों का
अचानक फूल की तरह खिलना ...


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