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कविता संग्रह

द्विजेश दर्शन

द्विजेश

अनुक्रम 5. विविध पीछे    

जीवन की नश्‍वरता

1

जन्‍म दियो जो अजन्‍म ने मोंहि,
   दई चिर जीवनी जन्‍म दिए की।।
जीविका के संग जी विका जाकी,
   भई चिरजीव का आस किए की।।
जीव मैं ब्रह्मको पीव सों पेखि,
   'द्विजेश' जो है ना पियूष पिए की।
चूक अचूकैं दियो जो न फूँकि,
   सो चूक की हूक न जात हिए की।।

2

जीव के संग लगी जब जीवनी,
   जीवनी के लगे जीविकैं लाग्‍यो।।
जीविका लागी तो लागी जुवा, वो-
   जुबा के लगे जुवती संग लाग्‍यो।।
जाके लगाये लगा लगी यों,
   तिन तें लगि प्रेम 'द्विजेश' ना लाग्‍यो।।
अंत मैं अंत सों ऐसे लगे, की-
   न तो ये लगे न इन्‍हैं कोऊ लाग्‍यो।।

3

पाते 'द्विजेश' जबै नर जन्‍म, सु-
   आतै इतै सब को अपनाते।
खेलते खाते बिताते समैं,
   परिपूरित कै अपकर्म के खाते।।
देखते जाते हैं जाते कितेक,
   तऊ नर मूढ़ ये नाहि लजाते।।
आती जरा नित जाते जरा, पै जरा-
   अजरा हरि नाम ना गाते।।

4

मार है बैठी जहाँ चिड़ीमार सों,
   मारिवे को मन ऐसे सुखीन को।।
बाल को जाल रच्‍यो है जँजाल सों,
   त्‍यों कुच कम्‍पा किए पुरखीन को।।
जारिहै जीह बिसारिहै जौ हरि,
   ओंठ अँगारन के चिनगीन को।।
चित्त-चकोर चुचात रे क्‍यों,
   दिन चंद की चंदिका चंदमुखीन को।।

5

मुकुट मँदीर बाँधे भूपन सरीर बाँधें,
   चीर बाँधे चेरे जहाँ चाकरी बजाते हैं।।
द्वार जे मतंग बाँधे तरल तुरंग बाँधे
   संग बाँधे सेना सेनापति जे कहाते हैं।
नारी संग नेम बाँधे, हरि सों न प्रेम बाँधें,
   आकवत बाँधे यों 'द्विजेशैं' दरसाते हैं।
जिन रात बाँधे तिन्‍हैं बाँधे बाँधे बॉंस बीच,
   काँधे लै कहार चार कँहरत जाते हैं।

6

ताने साहम्‍याने जे जरी के नमगीर ताने,
   ताने चौक-चाँदनी विचित्र छत्र ताने हैं।
सेर सम सिर ताने, समसेर कर ताने,
   तिय सों नजर ताने मद सों मताने हैं।।
येतो सब ताने अंत आनि धरि ताने जबै,
   तब तो 'द्विजेश' मानो कछू ये न ताने हैं।।
दीप सों बुताने सो दखिन पाँयताने ताने,
   ताने एक चादर तें सोवत उताने हैं।

7

भूपति को ठाट कीने संपति को पाट कीने,
   हय गज हाट कीने उन्‍नत कपाट को।।
मिबन सों साट कीने बैरिन पै काट कीने,
   रन मैं निपाट कीने ऊँचो कै ललाट को।।
नारिन मैं नाट कीने भाइन मैं बाँट कीने,
   कीने सभी ठाट एक चीन्‍हें ना विराट को।।
जग सों उठाठ कीने उलटी सु खाट कीने
   पावक की चाट कीने कीने बाट घाट को।।

8

माटी सों प्रगति पुनि माटी पै प्रगट भए,
   पुनि पै 'द्विजेश' लागे पावन सु माटी मैं।।
माटी बीच खेलि खाय माटी उपजत अन्‍न,
   ह्वै प्रसन्‍न मन को लगाये प्रिया माटी मैं।
जातें अस माटी ताहि माटी सों न जाने मूढ़,
   माटी करि जिंदगी बिताई बृथा माटी मैं।।
सो ये नर माटी नर माटी सम सोये, चार-
   काँधे नर माटी मिले जात नर माटी मैं।

उपदेशात्‍मक

1

पाए हौं मनुष्‍य तन यारो बड़ी भागिन तें,
   धरम 'द्विजेश' या कोचित सों चितै चलो।।
काहू सों न रूठो कहो झूठो मति काहू संग,
   काहू सौंह काहू की न निन्‍दा हू कथै चलो।।
माया-जल बिंदु की सी जिंदगी जरी सी जानि,
   बन्‍दगी गोविंद ही मैं बासर बितैं चलो।।
स्‍वप्‍न सी चरित्र मित्रताई ममता कों छाड़ि,
   भाई जग आइकै भलाई कछू कै चलो।।

2

धिक वह धाम जामैं धन को न धूम-धाम,
   धिक वह नाम नेक नाम जो लखावै ना।
धिक गात विद्या ना 'द्विजेश' जामैं बिलगात,
   धिक वह बात सत्‍य बात जो सुनावै ना।
धिक वह दान जाको निन्दित निदान, धिक-
   अभिमान जातें अपमान अरिपावै ना।।
धिक वह ज्ञान आतमा को नहिं जामैं ज्ञान,
   धिक वह गान जो गोविंद गान गावै ना।।

3

नर तन पाए को प्रधान पुरुपत्‍व यही,
   तन-मन जीहा को विधान इतना करी।
हरि सों सदा ह्वै लीन गुन सों सदा प्रवीन,
   देखि दीन द्वारे पै न कबहूँ मना करी।
युद्ध के अरूझें धीर जूझें हूँ कही ना पीर,
   बूझें वो समूझें बिनु बेगि ही न हाँ करी।
हाँ जो पुनि हाँ करी हया के जुत, हाँ करी,
   नहीं तो अस हाँ करी ते नीको बरू ना करी।

4

ऊँचे कुल के कहाय विद्या सों विहाय हाय,
   हा 'द्विजेश'ये तो किए हालत अजीब का।।
ह्वै के मद मस्‍त खूब मानों परे अन्‍ध कूप,
   आलस के रूप दोष देते हैं नसीब का।।
देखैं जब मोजरा न आवै लाज तो जरा,
   मनोज मन ज्‍यों जुरा जुरा त्‍यों ख्‍याल नीबि का।।
फेरि ऐसे जीव का न आस चिरजीवि का,
   बिकेगी क्‍यों न जीविका जु वीबी हाथ जी बिका।।

5

रसिक रसीले हे छबीले छैल भारत के,
   काहे झलकाते यों अवन्‍नति की झंडी को।।
मद्य ओ मदक भंग पीके हो न मति भंग,
   आतश की बाजी ताहि जानो ज्‍वाल चंडी को।।
ब्‍याह को करार तकरार जानो संपति को,
   बाल-बालिका को ब्‍याह कोप झारखंडी को।।
भैया भर्तखंडी छात्रपन के पखंडी,
   जस जाने जूठि हंडी तस जानो रूप रंडी को।।

6

होरी ना जरै है मिस होरी के जरै है समै,
   दिन गुजर है आयु संख्‍या ग्रंथ साल की।
जामैं मद भंग पीके होते सबै मति भंग,
   भक्ति भूलि रंग मैं त्रिभंगी नंदलाल की।।
गारी बकते हैं पर नारी तकते हैं, नहीं-
   जान सकते हैं काह होनी अग्रसाल की।
ऐहे जब काल तो लगोंगी मैं न भाल,
   अस भाखै चढ़ी भावी भाल गरद गुलाल की।।

मुद्रालंकार बिरक्‍त भावनिर्वेद

1

बसती गोरखपूर मथरा जबलपूर
   भोजपूर बलिया केराँची श्रीनगर को।।
जौनपूर गुजरात मदरास कलकत्ते,
   कालपी गया फीरोजपूर पेशावर को।।
कानपूर करनाल खानदेस लाहौर,
   सूरत उनाव अम्‍बाले अमृतसर को।।
आगरे अलीगढ़ बनारस इलाहाबाद,
   लखनऊ दिली मेरठ बम्‍बई शहर को।।

गोरक्षा

1

गो मय जाको बनावतो गौरि, ओ-
   मूत्र ही लौं पँच गच्‍य बनाई।।
दूध दधी सों रच्‍यो पनचामृत,
   जामैं गोविंद जू लेते अन्‍हाई।।
बैतरनी सों 'द्विजेश' किते,
   तरि नीके रहे सुरलोक मैं छाई।।
है सुरभी की बड़ी महिमा,
   उपमा जग याकी कहूँ नहीं पाई।।

2

राज औ काज सबै गज बाजि,
   'द्विजेश'जो सेन हू साजि दयो।।
तिन्‍हें पालिवे को करि कर्म कृपी,
   सुरभी सुत सों धन अन्‍न लयो।।
करि आए जु तीरथ हू कितने
   ब्रत कीने अनेकन पीके पयो।।
सुरभी को कियो प्रतिपाल न जो,
   धिक जीवन जन्‍म वृथा ही भयो।।

3

जाके छीर पान सों भए हैं आप बाँके बीर,
   पीर हर कै सरीर सूरत सिपैया को।।
खान अरु पान अनुपान औपधी सों जाको,
   लाखन प्रमान दूध माखन मलैया को।।
पकरत जाकी पूँछ, जम हू करै ना पूँछ,
   होती जो समूच हित कूच के समैया को।।
भैया भलेमानुष बसेया बसुधा के यार,
   जानि जग मैया सों सहैया करो गैया को।।

4

जौलों तुम्‍हें देती दूध दुहति न जाती कूद,
   सूध ह्वै 'द्विजेश' सौहैं सटि-सटि जाती है।
होती जो जरा मैं तो जरा भी नहिं बासों प्रेम,
   खाय सूखोबजरा सु लटि-लटि जाती है।।
जाको देखते बेकाम बेंचते हैं थोरे दाम,
   ऐसी दसा देखि छाती फटि-फटि जाती है।
धटि-घटि जाती जो इसाइन के सौहैं जाय,
   निकट कसाइन के कटि कटि जाती है।।

देश भक्ति

मातृ-भूमि

1

मातृ-भूमि तूही आदि मातृ जग जीवन की,
   लख चवरासी जोनि तोपै जनमत जूमि।।
अन्‍न-जल हेम-रत्‍न, रुई रूप के प्रयत्‍न,
   मेवा मूल फूल-फूल घर-घर देती घूमि।।
जोगिन को जुक्ति जोग, भोगिन को भुक्ति भोग,
   रोग के प्रयोग देती औषधि चरन चूमि।।
तेराई अधार धार गंगा प्रन धारि,
   देती अधम उधारि धन्‍य धार्य तेरो मातृभूमि।।

2

कौन अस देव जो न बसत सदैव तोपै,
   कौन अस मेव जौन तोपै ना जमत जूमि।।
सप्‍तद्वीप, नवो खंडी, सातो सिंधु, गिरिवृंद,
   इंदु रवि, तेरोई परिक्रमा करता घूमि।।
जन मातृ, धेनु मातृ, मातृ भाषा, राज मातृ,
   सारी मातृ ताई तेरी गोद मैं झुकति भूमि।।
जेती मातृ मातृ, ताकी तेरी समता है कहा,
   जब जगमातृ जानकी की तुही मातृ भूमि।।

3

तेरे कारनै सों कै प्रतच्‍छ प्रथमैं जो कच्‍छ,
   कच्‍छ हू पै कोल, कोलहू पै शेष रहे जूमि।।
जाके अंक मैं पयंक कैके पद्मनाभी तहाँ,
   नाभी पै विरंचि हूँ 'द्विजेशी' त्‍यों रहे हैं झूमि।।
ऐसो गौर तौर देखि तौ कुमारी ताही ठौर,
   जगदीस्‍वरी हूँ जगदीस पद रही चूमि।।
ऐसे दोऊ ईस जो अहीस अंक ही मैं आप,
   तोहिं घारे सीस धन्‍य ऐसी तुही मातृ भूमि।।

लाजपतिराय के निधन पर

1

भारत को आरत उतारतै उतारत ही,
   धर्म निज धारत सुधारतै भले गए।।
देश के हितारथ कृतारथ 'द्विजेश' करि,
   पारथ लौं प्रन कै प्रभूति सों पले गए।।
जेल दुख झेलि तबौ सत्‍य को न लाग्‍यो सेल,
   खेल जानिवे यों जन्‍म फल सों फले गए।।
राखिबे को लाज, पति राय ऐसो देन हेतु,
   लाजपति राय हरि हिय मैं चले गए।।

2

उदय उदण्‍ड ह्वै उद्योग उदयाचल सों,
   मही मारतएड मरिएड छिति सों छले गए।।
छात्रन पै सिसिर हेमन्‍त हिन्‍दू मात्रन पै,
   देश प्रेमी पात्रहिं वसंत सों फले गए।।
बैरी सौंह ग्रीषम 'द्विजेश' प्रजैं पावस लौं,
   नृप सौहैं सरद महान मचले गए।।
गस्‍त कै समस्‍त भूमि मस्‍त लाजपति राय,
   लाजपति ही के अस्‍ताचल मैं चले गए।

15 अगस्‍त

जाकी राजधानी मैं स्‍वराज धानी रंग आज,
   जो राजेंद्र भूपति को प्रभुता अनन्‍य की।
जाहिर जवाहिर की जगमग जामैं जोति,
   जो ह्वै रही माहिर महान् महि मन्‍य की।।
जाके अनुयायी पंत श्री गोविंद बल्‍लभ जू,
   आज तिथि पंद्रह अगस्‍त जस जन्‍य की।।
येती विधि विधि की बँधाई ध्‍याई हिन्‍द बीच,
   धाई रूप धाई सी बधाई धन्‍य धन्‍य की।।

2

धनि सन जो उनीस सत संग सैंता‍लीस,
   ईस ईसवी सों जाकी प्रभुता प्रसस्‍त को।।
जातें देस भारत जो अब नहिं आरत मैं,
   गारत गुमान आज युरोप समस्‍त को।।
ताही के समान वर्तमान को प्रमान ऐसो,
   जासों अरिवृंद को पराजय अस्‍त पस्‍त को।।
जातें ह्वै जयन्‍ती मस्‍त भारत मैं कैके गस्‍त,
   पुत्र कैसो पेखि रही पंद्रह अगस्‍त को।।


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