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कविता

कैमरे के सामने

सर्वेंद्र विक्रम


कैमरे पर झुकते हुए उसने कहा, हँसो

स्त्री ने आदमी की ओर देखा वह देखने लगा कैमरे की आँख
बच्चे बीच में थे अचकचाए ताकने लगे कैसे दिखते हैं हँसते हुए पिता !
बच्चे देख रहे हैं, यह देखकर स्त्री का मन हुआ उन्हें गुदगुदा दे
यहाँ वहाँ जहाँ छूने के अभिनय भर से वे हो जाते थे हँसी से दुहरे

आदमी ने गहरी गहरी साँसें भरीं जैसे करता था दबाव में
डर लगा ऊटपटाँग हरकत न हो जाए धुकधुकी सी लगी रही
बच्चे भाँप रहे थे फिर भी दिखा रहे थे जैसे कुछ न समझते हों
शायद बचा रहे थे उन्हें

रोशनी की धार सीधे मुँह पर झर रही थी

दीवार पर मौजूद डिजाइनर हँसी अपनी उजास भर रही थी
और एक याद के लिए फोटो खिंचवाते मिलता नहीं था उसका कोई सूत्र
पकड़ में नहीं आ रही थी हँसी जैसे खो गई हो अँधेरे में

अभी उसी दिन किस बात पर हँसते हँसते पड़ गए थे पेट में बल
स्त्री ने उसे हैरानी से देखा, यह वही है! कहाँ से आती थी हँसी !

उसके बचपन में इतना फैल नहीं गया था बाजार
वक्त-बेवक्त पड़ोसियों से चलता था उधार
अंदेशा नहीं था वरना माँग ही लेती
लौटा देने के वायदे के साथ
किसी से थोड़ी सी कलकल हँसी इस कठिन वक्त में

झुके झुके उसने फिर कहा, हँसो
आखिर बात क्या है ? समय से है मानसून
मंडियों में आवक अच्छी रहने की उम्मीद
ब्रांड वाली चीजें भी मिल रहीं इफरात
अच्छा नहीं महसूस कर पा रहे हो या भूल गए हो हँसने की कला
क्या सचमुच कोई दुख है ?

उसने पल्लू फिर से ठीक किया, बेवजह
बच्चों के बालों में उँगलियाँ फिराईं करने लगी मन ही मन जप
लगा बस रो ही पड़ेगी सबके सामने
कैसे कहे इतनी सरल नहीं रही हँसी
 


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