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					रामनवमी (31-3-36) 
					श्री गणेशायनम: 
					सुदामा    चरित 
					दोहा - श्री गनेस सुमिरन करूं, उपजै बुद्धि प्रकास।सो चरित्र बरनन करूं, जासों दारिद नास ।।1।।
 
					        प्रकास = उज्ज्वल 
					       ज्यों गंगा जल पान तें, पावत पद निर्वान ।त्यों सिन्धुर- मुख बात तें, मूढ़ होत बुधिवान ।।2।।
 
					        निर्वान = इस शब्द का प्रयोग पहले पहल बुद्ध भगवान ने किया था; परन्तु मुक्ति के अर्थ में नहीं। उनके बाद प्राय: इसका अर्थ लोग मुक्ति ही समझते हैं।सिन्धुरमुख बात = श्री गणेश जी की कथा।
 
					        कृस्न मित्र कै जन्म को, ताको बरनन कीन्ह ।सुख सम्पति माया मिलै, सो उपदेस जु दीन्ह । ।।3।।
 दूसरे चरण में 'जु' शब्द बिल्कुल ही अर्थहीन है।
 सुदामा और कृष्ण के विषय में कथा प्रचलित है कि ये अनादि काल से एक दूसरे के मित्र होते चले आए हैं।
 
					       बिप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम।भिक्षा करि भोजन करैं, हिये जपैं हरि नाम ।।4।।
 ताकी धरनी पतिव्रता, गहे वेद की रीति ।
 सुलज, सुसील, सुबुद्धि अति, पति सेवा में प्रीति ।।5।।
 कही सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र ।
 करत रहति उपदेस तिय, ऐसो परम विचित्र ।।6।।
 महाराज जिनके हितू, हैं हरि यदुकुल चन्द ।
 ते दारिद सन्ताप ते, रहैं न क्यों निरद्वंद ।।7।।
 
					        निरद्वंद = बेफिक्र 
					       कह्यो सुदामा बाम सुनु, वृथा और सब भोग ।सत्य भजन भगवान को, धर्म सहित जप-जोग ।।8।।
 
					        भोग=सांसारिक सुख - भगवान का भजन तथा उनके पवित्र नाम का स्मरण यही सत्य है। इसमें भक्तिमार्ग का ऊँचा उपदेश सन्निहित है। 
					       लोचन-कमल दुखमोचन तिलक भाल,स्रवननि कुण्डल मुकुट धरे माथ हैं।
 ओढ़े पीत बसन गरे मैं बैजयन्ती माल;
 संख चक्र गदा और पद्म धरे हाथ हैं ।।
 कहत नरोत्तम सन्दीपनि गुरू के पास,
 तुमही कहत हम पढ़े एक साथ हैं।
 द्वारिका के गए हरि दारिद हरैंगे पिय,
 द्वारिका के नाथ वे अनाथन के नाथ हैं ।।9।।
 
					        रूपक - 'छेकानुप्रास', वृत्यानुप्रास तथा श्रुत्यानुप्रास क्रम से लाए गए हैं। 
					        प्रथम चार पंक्तियों में श्री कृष्ण जी का रूप विष्णु के अवतार का ध्यान रखकर वर्णित किया गया है। 
					        पाँचवीं पंक्ति में 'कहत' शब्द की पुनरुक्ति हुई है जो काव्य की दृष्टि से दोष युक्त है। 
					        संदीपनि = एक प्रकार की विद्या, परन्तु कुछ टीकाकारों ने इसे गुरु का नाम लिखा है। 
					       सिच्छक हौं सिगरे जग को,तिय ! ताको कहा अब देति है सिच्छा ।
 जे तप कै परलोक सुधारत,
 सम्पति की तिनके नहीं इच्छा ।।
 मेरे हिये हरि के पद पंकज,
 बार हजार लै देखु परिच्छा ।
 औरन को धन चाहिये बावरि,
 बांझन के धन केवल भिच्छा ।।10।।
 
					        सिगरे = समस्त के लिए ब्रजभाषा में सिगरे का ही प्रयोग करते हैं। 
					        बावरी = वास्तविक अर्थ है पागलपन; परन्तु यहाँ अज्ञान के अर्थ में इसका प्रयोग किया गया है। 
					        भिच्छा = भिक्षा - अर्थात् विशेष धन तथा वैभव की ब्राह्मण को आवश्यकता नहीं रहती। 
					        सिच्छक = शिक्षक। सिच्छा = शिक्षा। हिये = ह्दय में। परिच्छा = परीक्षा। बांझन = ब्राह्मण । 
					       दानी बड़े तिहुँ लोकन में,जग जीवत नाम सदा जिनको लै।
 दीनन की सुधि लेत भली विधि,
 सिद्ध करौ पिय मेरो मतौ लै।
 दीनदयाल के द्वार न जात सो,
 और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै।
 श्री जदुनाथ से जाके हितू सो,
 तिहुँपन क्यों कन माँगत डोलै ।।11।।
 
					        लै = लेकर। मेरो मतौ लै = मेरी राय मानकर। दीन ह्वै बोले = दीन होकर बोलता है। हितू = मित्र। तिहुँपन क्यों कन माँगत डोलै = अब   तीसरेपन में अर्थात् वृद्धावस्था में भी दाना माँगता फिरे। 
					        कन = अन्नकण। माँगत डोलै = माँगता फिरै। तिहूँ = तीनों। 
					       क्षत्रिन के पन जुद्ध जुवा,सजि बाजि चढ़े गजराजन ही ।
 बैस के बानिज और कृसी पन।
 सूद को सेवन साजन ही।
 विप्रन के पन है जु यही,
 सुख सम्पति को कुछ काज नहीं।
 कै पढ़ियो कै तपोधन है,
 कन माँगत बांभनै लाज नहीं ।।12।।
 
					        इसमें 'पन' शब्द, जिसका शुद्ध रूप है 'प्रण', जीवन व्ययसाय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ब्रजभाषा में इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में होता है अत: इसे लौकिक प्रयोग कहना चाहिए। 
					        छत्रिन = क्षत्रियों के। जुद्ध = युद्ध। जुवा = द्यूत। बैश = वैश्य। बानिज = वाणिज्य। कृसी = कृषी। सूद = शूद्र। सेवन = सेवा। कन = कण। बांभनै = ब्राह्मण को। लाज = लज्जा। 
					       कोदों सवां जुरतो भरि पेट,न चाहति हौं दधि-दूध मिठौती।
 सीत वितीत भयो सिसियातहि;
 हौं हठती पै तुम्हैं न पठौती।
 जौ जनती न हितू हरि सों,
 तुम्हें काहे को द्वारिका ठेलि पठौती।
 या घरतें न गयो कबहूँ, पिय !
 टूटो तवा अरु फूटी कठौती ।।13।।
 
					        कोदों सवां = एक प्रकार के सस्ते अन्न जो देहातों में ग़रीब किसान खाया करते हैं। 
					        जुरतो भरि पेट = पेट भर के मिल जाता है। मिठौती = मिठाइयाँ। हैं हठती पै = तो क्या मैं कभी हठ करती। ठेलि पठौती = ठेल कर भेजना पूर्वीय बोलियों में मुहावरा है जिसका अर्थ होता है ज़बरदस्ती भेजना। 
					        वितीत = व्यतीत। हितू = इष्ट करने बाले मित्र। कठौती = काष्ठ का बना हुआ बरतन 
					       छांड़ि सबै जक तोहि लगी बक,आठहु जाम यहै जिय ठानी।
 जातहिं दैहैं लदाय लढ़ाभरि,
 लैहों लदाय यहै जिय जानी।
 पैहौं कहाँ ते अटारी अटा,
 जिनके विधि दीन्ही है टूटी सी छानी।
 जो पै दरिद्र लिख्यो है लिलार,
 तो काहू पै मेटि न जात अजानी ।।14
 
					        लढ़ाभरि = ब्रजभाषा में 'लढ़ा' कहते हैं माल ढोने वाली गाडि़यों को, सुदामा उसी मुहावरे को लेकर तानेजनी करते हैं कि जाते ही शायद मित्र कृष्ण गाड़ियाँ भर कर सारा सामान देंगे। फिर कहते हैं कि उन सब सामानों को रखने के लिये कमरे और गोदाम कहाँ से आवेंगे क्योंकि वहाँ पर तो टूटी सी झोपड़ी है। 
					        आठहु याम = आठों पहर। जिय ठानी = मन में निश्चय सा कर चुकी है। जातहि = पहुँचते ही । दैहैं लदाय = लदा देंगे। लैहौं लदाय = लदा ले आऊँगा। पैहौं कहाँ ते = कहाँ से पाऊँगा। अटारी अटा = कोठे और अटृालिका। छानी = झोपड़ी। लिलार = ललाट-भाग्य। अजानी = अज्ञान। 
					       पूरन पैज करी प्रहलाद की,खम्भ सों बांध्यो पिता जिहि बेरे।
 द्रौपदी ध्यान धर्यो जबहीं
 तबहीं पट कोटि लगे चहुँ फेरे।।
 ग्राह ते छूटि गयन्द गयो पिय,
 याहि सो है निह्चय जिय मेरे।
 ऐसे दरिद्र हजार हरैं वे
 कृपानिधि लोचन-कोर के हेरे।।15।।
 
					        पैज = टेक, प्रतिज्ञा। जिहि बेरे = जिस समय। चहुँ फेरे = चारों ओर। याहि सो है = जरा सी दया दृष्टि से देखकर ही। 
					        [गयन्द = गजेन्द्र। निह्चय = निश्चय] 
					        इसमें प्रह्लाद, द्रोपदीचीरहरण, गज और ग्राह के प्रसंग क्रम से आये हैं। 
					       चक्कवै चौकि रहे चकि से,तहाँ भूले से भूप कितेक गिनाऊं।
 देव गन्धर्व औ किन्नर जच्छ से,
 सांझ लौं ठाढ़े रहैं जिहि ठांऊ।।
 ते दरबार बिलोक्यों नहीं अब,
 तोही कहा कहिके समझाऊं
 रोकिए लोकन के मुखिया,
 तहँ हौं दुखिया किमि पैरुन पाऊं ।।16।।
 
					        चक्कवै = चक्रवर्ती। चौकि = चौकी का प्रयोग डयोढ़ी के अर्थ में बोलियों में किया जाता है। अत: यहाँ इसका अर्थ है कि चक्रवर्ती महाराजे जहाँ पर द्वारपालों के समान खड़े रहते हैं। 
					        भूले से = अचम्भित होकर। कितेक = कितने। सांझ लौ = प्रात: काल से शाम तक। ते दरबार बिलोक्यों नहीं अब = ऐसे दरबार की ओर मैंने अब तक आँख क्यों नहीं उठाई यह तुझे कैसे समझाऊँ ! 
					        लोकन के मुखिया = बड़े-बड़े लोकों के अग्रणी मुखिया जहाँ द्वार पर ही रोक लिए जाते हैं। 
					       भूल से भूप अनेक खरे रहौ,ठाढ़े रहौं तिमि चक्कवे भारी ।
 देव गन्धर्व औ किन्नर जच्छ से,
 मेलो करैं तिनकौ अधिकारी ।।
 अन्तरयामी ते आपुही जानिहैं
 मानौ यहै सिखि आजु हमारी।
 द्वारिकानाथ के द्वा गए,
 सब ते पहिले सुधि लैहैं तिहारी ।।17।।
 
					        इसमें ह्दय का स्वाभाविक संबंध स्पष्टता से वर्णित किया गया हैा 
					        खरे रहौं = खड़े रहें। जच्छ = यक्ष। मेलो करैं = ढकेला करते हैं। लैहैं = लेंगे। 
					       दीन दयाल को ऐसोई द्वार है,दीनन की सुधि लेत सदाई।
 द्रौपदी तैं गज तैं प्रह्लाद तैं,
 जानि परी ना बिलम्ब लगाई।।
 याही ते भावति मो मन दीनता-
 जौ निबहै निबहै जस आई।
 जौ ब्रजराज सौं प्रीति नहीं,
 केहि काज सुरेसहु की ठकुराई ।।18।।
 
					        18 - तैं = से। मो मन = मेरे मन में। जौ = जो; यदि 
					        निबहै = निभ जाए, निर्बाह हो जाए। ठकुराई प्रभुता । 
					       फाटे पट टूटी छानि खाय भीक मांगि मांगि,बिना यज्ञ विमुख रहत देव तित्रई।
 वे हैं दीनबन्धु दुखी देखि कै दयालु ह्रैहैं,
 दै हैं कछु जौ सौ हौं जानत अगन्तई।।
 द्वारिका लौं जात पिया! एतौ अरसात तुम,
 काहे कौ लजात भई कौनसी विचित्रई।
 जौ पै सब जन्म या दरिद्र ही सतायौ तोपै,
 कौन काज आई है कृपानिधि की मित्रई।।19।।
 
					        19- छानि = झोपड़ी। पित्रई= पित्रगण। अगन्तई= पहले से ही। अरसात = आलस्य करते हो। 
					        विचित्रई और मित्रई ये केवल तुक बैठाने के लिए प्रयुक्त किए गए हैं अन्यथा इनका शुद्ध रूप होता है 'विचित्रता' और 'मित्रता'। परन्तु 'मित्रई' का रूप आगे चलकर 'मिताई' हो जाता है और यह ब्रजभाषा में काफी प्रचलित हैा 
					       तैं तो कही नीकी सुनु बात हित ही की।यही रीति मित्रई की नित प्रीति सरसाइए।
 चित्त के मिलेते चित्त धाइए परसपर,
 मित्र के जौ जेइए तौ आपहू जेंवाइए।।
 वे हैं महाराज जोरि बैठत समाज भूप,
 तहाँ यहि रूप जाइ कहा सकुचाइए ।
 दुख सुख के दिन तौ अब काटे ही बनैगे भूलि,
 बिपत परे पै द्वार मित्र के न जाइए।।20।।
 
					        20 - तैं = तूने । सरसाइए = बढ़ाइए। जेंइए = भोजन कीजिए। 
					       विप्रन के भगत जगत के विदित बन्धुलेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं।
 पढ़े एक चटसार कही तुम कय बार,
 लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं।।
 एक दीनबंधु, कृपासिंधु केरि गुरुबन्धु,
 तुम सम को दीन जाहि निजजिय जानिहैं।
 नाम लेत चौगुनी, गए ते द्वार सौगुनी सो,
 देखत सहस्रगुनी प्रीति प्रभु मानिहैं।।21।।
 
					        चटसार =गुरुगृह। 
					       प्रीति में चूक नहीं उनके हरि,मो मिलि हैं उठि कण्ठ लगाय कै।
 द्वार गए कछु दै हैं पै दै हैं,
 वे द्वारिका द्वारिका जू हैं सब लायकै।।
 जै बिधि बीति गए पन दै,
 अब तो पहुँचो बिरधापन आय कै।
 जीवन शेष अहै दिन केतिक,
 होहुँ हरी सें कनावड़ो जाए कै।।22।।
 
					        चूक = कमी। मो = मुझसे। दैहैं पै दैहैं = अवश्य देंगे। लाय कै = लायक़, योग्य। केतिक = कितना। कनावड़ो = आभारी। 
					       हुजै कनावड़ो बार हजार लौं,जौ हितू दीन दयालु सों पाइए।
 तीनिहु लोक के ठाकुर जे,
 तिनके दरबार न जात लजाइए।।
 मेरी कही जिय मैं धरि कै पिए,
 भूलि न और प्रसंग चलाइए।
 और के द्वा सों काज कहा पिय,
 द्वारिका नाथ के द्वारे सिधाइए।।23।।
 
					        हूजै= हो जाना चाहिए। ठाकुर = स्वामी। सिधाइए = जाइए। 
					       द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जू,आठहु जाम यहै झक तेरे।
 जौ न कहौ करिए तौ बड़ो दुख,
 जैये कहां अपनी गति हेरे।।
 द्वार खड़े प्रभु के छरिया तहं,
 भूपति जान न पावत नेरे।
 पांचु सुपारि तौ देखु बिचारि कै,
 भेंट को चारि न चांवर मेरे।।24।।
 
					        जाम = याम। झक = हट, रट। जौ न कहौ करिए = यदि तेरा कहा न मानै। हेरे = देख कर। छरिया = द्वारपाल, जो दण्ड धारण किए रहते हैं। नेरे = समीप। 
					       यहि सुनि कै तब ब्राह्मणी, गई परोसिन पास।पाव सेर चाउर लिए आई सहित हुलास।।25।।
 सिद्धि करी गनपति सुमिरि, बांधि दुपटिया खूंट।
 मांगत खात चले तहां, मारग बाली-बूंट ।।26।।
 
					        दुपटिया = पगड़ी। खूंट = पोटली। मारग बाली-बूंट = गेंहूँ की बालैं तथा चने का बूट। [मारग का शुद्ध रूप है मार्ग] 
					       तीन दिवस चलि विप्र के, दूखि उठे जब पांय।एक ठौर सोए कहूँ, घास पयार बिछाय।।27।।
 अन्तरजामी आपु हरि, जानि जगत की पीर।
 सोबत लै ठांढ़ो कियो, नदी गोमती तीर ।।28।।
 
					        अन्तरजामी = अन्तरयामी 
					       प्रात गोमती दरस तें, अति प्रसन्न भो चित्त।विप्र तहां असनान करि, कीन्हो नित्त निमित्त ।।29।।
 
					        दरस = दर्शन। असनान = स्नान। नित्तनिमित्त = नैमित्तिक। 
					       भाल तिलक घसि कै दियो, गही सुमिरिनी हाथ।देखि दिव्य द्रारावती, भयो अनाथ सनाथ ।।30।।
 
					        सुमिरनी = माला। द्वारावती = द्वाकापुरी। 
					       दीठि चकाचौंधि गई देखत सुबर्नमई,एक ते आछे एक द्वारिका के भौन हैं।
 पूछे बिनु कोऊ कहूँ काहू सों बात करै,
 देवता से बैठे सब साधि साधि मौन हैं।।
 देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पांय,
 कृपा करि कहो विप्र कहां कीन्हों गौन हैा
 धीरज अधीर के हरन पर पीर के,
 बताओ बलबीर के महल यहाँ कौन है।।31।।
 
					        दीठि = दृष्टि। सुबर्नमयी= स्वर्णमयी। भौन = भवन। कहाँ कीन्हों गौन = कहाँ चले। 
					       दीन जानि काहू पुरुस, कर गहि लीन्हो आय।दीन द्वार ठाढ़ो कियो, दीन दयाल के जाय।।32।।
 
					        पुरुस = पुरुष। गहि लीन्हो = ग्रह से; पकड़ लिया। 
					       द्वारपाल द्विज जानि कै, कीन्ही दण्ड प्रनाम।विप्र कृपा करि भाषिए, सकुल आपनो नाम ।।33।।
 
					  भाषिए = कहिए। 
					       नाम सुदामा, कृस्न हम, पढ़े एकई साथ।कुल पांडे वृजराज सुनि, सकल जानि हैं गाथ ।।34।।
 
					  गाथ = विवरण, हाल। 
					       द्वार पाल चलि तहं गयो, जहाँ कृस्न यदुराय।हाथ जोरि ठाढ़ो भयो, बोल्यो सीस नवाय ।।35।।
 सीस पगा न झँगा तन में,
 प्रभु ! जाने को आहि बसे केहि ग्रामा ।
 धोती फटी-सी लटी-लुपटी अरु,
 पांय उपानह की नहिं साम।।
 द्वार खरो द्विज दुर्बल एक,
 रह्यो चकि सो बसुधा अभिरामा ।
 पूछत दीन दयाल को धाम,
 बतावत अपनो नाम सुदामा ।।36।।
 
					        पगा = पाग, साफा। झगा = पुराने ढंग का कुर्ता। लटी-लुपटी = जीर्ण अगोछा। उपानह की नहिं साम = जूते - पैर में जूते भी नहीं हैं। रह्यो चकि सो बसुधा अभिरामा = यहां के ठाट बाट से चकित सा हो जाना। 
					       बोल्यो द्वारपालक 'सुदामा नाम पांडे' सुनि,छांड़े काज ऐसे जी की गति जानै को?
 द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पांय,
 भेटे भरि अंक लपटाय दुख साने को।
 नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि,
 विप्र बोल्यो विपदा में मोहि पहिचानै को?
 जैसी तुम करी तैसी करी को दया के सिन्धु,
 ऐसी प्रीति दीनबन्धु ! दीनन सों मानै को ? 37।।
 
					  गहे = पकड़ लिए। 
					       लोचन पूरि रहे जलसों,प्रभु दूरि ते देखत ही दुख भेट्यो।
 सोच भयो सुरनायक के,
 कलपद्रुम के हिय माझ खसेट्यो1।।
 कम्प कुबेर हिये सरस्यो,
 परसे पग जात सुमेरु समेट्यो।
 रंक ते राउ भयो तबहीं,
 जबहीं भरि अंक रमापति भेट्यो ।।38।।
 
					        सुरनायक = इन्द्र, जो सदा ही इर्षालु है। हिय माँझ खसेट्यो = ह्दय में खरोंच सी लग गई। सरस्यो = प्रवेश कर गया। समेट्यो = सिमटता जाता था, संकुचित होता जाता था। 
					       भेंटि भली विधि विप्र सों, कर गहि त्रिभुवनराय ।अन्त:पुर को लै गए, जहाँ न दूजो जाय।।39।।
 मनि मंडित चौकी कनक, ता ऊपर बैठाय।
 पानी धर्यो परात में पग धोवन को लाय ।।40।।
 
					        मनि मंडित = मणियों से जडी हुई। 
					       राजरमनि सोरह सहस, सब सेवकन समीत2।आठों पटरानी भईं, चितै चकित यह प्रीति ।।41।।
 
					       समीत = सहेलियों सहित। चितै = देख कर 
					       जिनके चरनन को सलिल, हरत जगत सन्ताप।पांय सुदामा विप्र के धोवत ते हरि आप।।42।।
 
					  सलिल = जल 
					       ऐसे बेहाल बिवाइन सों,पग कंटक जाल लगे पुनि जोए।
 हाय महा दुख पायो सखा तुम,
 आए इतै न कितै दिन खोए।।
 देखी सुदामा की दीन दसा,
 करुना करि कै करुना-निधि रोए ।
 पानी परात को हाथ छुयौ नहिं,
 नैनन के जल सों पग धोए ।।43।।
 
					        बेहाल = बुरी दशा। नंगे पैर इधर उधर घूमने से पैरों में दरारें सी पड़ जाती हैं जिनसे कष्ट भी होता है इसे 'बिवाई' कहते हैं। जोए = देखा। 
					  नोट- प्रीति तथा करुणा की पराकाष्ठा इस वर्णन में हो गई है। 
					       धोय पाँय पट-पीत सों, पोंछत हैं जदुराय।सतिभामा सों यों कही, करो रसोई जाय।।44।।
 
					  पट-पीत सों = पीताम्बर से। 
					       तन्दुल तिय दीने हते, आगे धरियों जाय।देखि राज सम्पत्ति विभव, दै नहिं सकत लजाय।145।।
 
					  लजाय = लज्जित होकर। 
					       अन्तरजामी आपु हरि, जानि भगत की रीति।सुह्द सुदामा विप्र सों, प्रकट जनाई प्रीति ।।46।।
 कछु भाभी हमको दियो, सो तुम काहे न देत।
 चाँपि पोटरी काँख में, रहो कहो केहि हेत ।।47।।
 
					  चाँपि पोटरी काँख में = बगल में चाँवलों की पोटली दबाए हुए हो। 
					       आगे चना गुरुमातु दए ते,लए तुम चाबि हमें नहिं दीने।
 स्याम कह्यो मुसुकाय सुदामा सों,
 चोरी की बानि में हौ जू प्रवीने।।
 पोटरी काँख में चाँपि रहे तुम,
 खोलत नाहिं सुधारस भीने।
 पाछिली बानि अजौं न तजी तुम,
 तैसई भाभी के तन्दुल कीने ।48।।
 
					  ते = वे; थे। बानि = आदत। प्रवीने = कुशल। 
					       खोलत सकुचत गाँठरी, चितवत हरि की ओर।जीरन पट फटि छुटि पख्यो, बिथरि गये तेहि ठौर।।49।।
 
					  चितवत = देखते हैं। ओर = तरफ। ठौर = स्थान पर। 
					       एक मुठी हरि भरि लई, लीन्हीं मुख में डारि।चबत चबाउ करन लगे, चतुरानन त्रिपुरारि।।50।।
 
					  चबा = कानाफूसी करना। 
					       कांपि उठी कमला मन सोचत,मोसों कहा हरि को मन ओंको?
 ऋद्धि कँपी सब सिद्धि कँपी;
 नवनिद्धि कँपी बम्हना यह धौं को?
 सोच भयो सुरनायक के,
 जब दूसरी बार लियो भरि झोंको।
 मेरु डस्यो बकसे निज मेहिं,
 कुबेर चबावत चाउर चोंको ।।51।।
 
					        ओंको = फिर गया है। धौंको = ब्रज और अवधी में यह एक प्रश्नवाचक महावरा है। झोंको = मुठृी। बकसे = बख्श (फ़ारसी) देना अर्थात बचा देना। चाउर = चावल। चोंको = चौंक गया, अचम्भित हो गया। 
					       हूल हियरा में सब कानन परी है टेर,भेंटत सुदामा स्याम चाबि न अघात ही।
 कहै नर उत्तम रिधि सिद्धिन में सोर भयो,
 ठाढ़ी थर हरै और सोचे कमला तहीं।।
 नाक लोग नाग लोक, ओक-ओक थोक-थोक,
 ठाढ़े थरहरे मुख सूखे सब गात ही।
 हाल्यो पर्यो थोकन में, लालो पर्यो लोकन में
 चाल्यो पर्यो चक्रन में चाउर चबात ही ।।52।।
 
					        हूल हियरा = ह्दयों में घबड़ाहट उत्पन्न हो गई। टेर = हाँक। न अघात = सन्तुष्ट नहीं होते। थरहरै = कम्पित होती है। नाक लोक = स्वर्ग लोक। ओक = स्थान। थोक = झुंड के झुंड । हाल्यो पर्यो = शोर मचा हुआ है। चाल्यो पर्यो चक्रन = कालचक्र भी विचलित हो उठे क्यों कि यहीं से तो दीन सुदामा का भाग्य पलटा खाता है अत: कालचक्र का चलायमान हो जाना स्वाभाविक ही है। 
					       भौन भरो पकवान मिठाइन,लोग कहैं निधि हैं सुखमा के।
 साँझ सबेरे पिता अभिलाखत,
 दाखन चाखत सिन्धु छमा के।।
 बाभन एक कोउ दुखिया सेर-
 पावक चाउर लायो समा के।
 प्रीति की रीति कहा कहिए,
 तेहि बैठि चबात है कन्त रमा के।।53।।
 
					        दाखन = मुनक्का, एक प्रकार का मेवा। चाखत = चखते हैं। सिन्धु छमा के = क्षमा के सागर अर्थात श्रीकृष्णजी। पावक = लगभग सवा सेर। समा = सांवा का एक प्रकार का चावल। 
					       मुठी तीसरी भरत ही, रुकमिनि पकरि बांह।ऐसी तुम्हें कहा भई, सम्पति की अनचाह।।54।।
 कही रुकमिनि कान में, यह धौं कौन मिलाप।
 करत सुदामा आपु सों, होत सुदामा आपु।।55।।
 क्यों रस में विष बाम कियो,
 अब और न खान दियो एक फंका।
 विप्रहिं लोक तृतीयक देत,
 करी तुम क्यों अपने मन संका।।
 भामिनि मोहि जेंवाइ भली विधि,
 कौन रह्यौ जग में नर रंका।
 लोक कहै हरि मित्र दुखी,
 हमसों न सहृो यह जात कलंका ।।55अ।।
 भार्गव हू सब जीति धरा,
 दय विप्रन को अति ही सुख मानो।
 विप्रन काढ़ि दियो तुमको,
 निशि तादिन को बिसरो खिसियानो।।
 सिन्धु हटाय करो तुम ठौर,
 द्विजन्म सुभाव भली विधि जानो।
 सो तुम देत द्विजै सब लोक,
 कियौ तुमने अब कौन ठिकानो ।।55ब।।
 भामिनि देव द्विजै सब लोक,
 तजौं हट मोर यहै मन भाई।
 लोक चतुर्दस की सुख सम्पति,
 लागत विप्र बिना दुखदाई।।
 जाय रहौं उनके घर में,
 औ करौं द्विज दम्पति की सेवकाई
 तो मन माहि रुचै न रुचै,
 सो रुचै हम कौ वह ठौर सुहाई।।55स।।
 भामिनि क्यों बिसरीं अबहीं,
 निज ब्याह समय द्विज की हितुआई।
 भूलि गईं द्विज की करनी,
 जेहि के कर सों पतिया पठवाई।।
 विप्र सहाय भयो तेहि औसर,
 को द्विज के समुहे सुखदाई।
 योग्य नहीं अर्द्धांगिनी है,
 तुमको द्विज हेतु इती निठुराई ।।55द।।
 
					        नोट - ये चार छन्द अति प्राचीन प्रतियों में तो मिलते नहीं परन्तु बाद की प्रतियों में मिलते हैं। परन्तु शैली तथा शब्दावली देखकर यह कहना कठिन है कि ये कविवर नरोत्तमदास के ही हैं अथवा अन्य किसी कवि के । 
					       यहि कौतुक के समय में कही सेवकनि आय।भई रसोई सिद्ध प्रभु, भोजन करिये आय ।।56।।
 विप्र सुदामहि न्ह्याय कर धोती पहिरि बनाय।
 सन्ध्या करि मध्यान्ह की, चौका बैठे जाय ।।57।।
 
					        विप्र सुदामहि न्ह्याय कर = सुदामा जी को अपने हाथों से नहला कर। चौका = भोजन गृह में। 
					       रूपे के रुचिर थार पायस सहित सिता,सोभा सब जीती जिन सरद के चन्द की।
 दूसरे परोसो भात सोंधो सुरभी को घृत,
 फूले फूले फुलका प्रफुल्ल दुति मन्द की।।
 पापर मुंगोरीं बरा व्यंजन अनेक भांति
 देवता विलोक रहे देवकी के नन्द की।
 या विधि सुदामा जु को आछे कै जेंवायें प्रभु,
 पाछै कै पछ्यावरि परोसी आनि कन्द की।।58।।
 
					        रूपे = चांदी। पायस = खीर। सोंधों = सोंधा। फुलका = रोटियां। आछै = भली प्रकार। जेंवायें = भोजन कराया। पछयावरि = जो वस्तु अन्त में परसी जाती है यह प्राय: कोई न कोई मीठी वस्तु होती है। भोजन के अन्त में मीठी वस्तु खाने से पाचन शक्ति ठीक रहती है। 
					       सात दिवस यहि विधि रहे, दिन दिन आदर भाव।चित्त चल्यो घर चलन को, ताकौ सुनहु हवाल।।59।।
 
					        ताको = उसका। हवाल = समाचार। 
					       दाहिने वेद पढ़ै चतुरानन,सामुहें ध्यान महेस धर्यो है।।
 बाँए दोउ कर जोरि सुसेवक,
 देवन साथ सुरेस खर्यो है।।।
 एतइ बीच अनेक लिए धन,
 पायन आय कुबेर पर्यो है।
 देखि विभौ अपनो सपनो,
 बापुरो वह बांभन चौंकि पर्यो है।।60।।
 
					        सामुहें = सन्मुख। सुरेस = सुरेश। एतइ बीच = इसी बीच। बापुरो = बेचारा। 
					       देनो हुतो सो दै चुके, विप्र न जानी गाथ।मन में गुनो गुपाल जू, कछु ना दीनो हाथ।।61।।
 
					        गाथ = बात। गुनो = बिचार किया। 
					       वह पुलकनि वह उठि मिलन, वह आदर की बात।यह पठवनि गोपाल की, कछू न जानी जात।।62।।
 घर घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।
 कहा भयो जो अब भयो, हरि को राज-समाज ।।63।।
 
					        कर ओड़त फिरे = हाथ फैलाते फिरे = अर्थात भीख मांगते फिरे। तनक = जरा से। 
					       हौं आवत नाहीं हुतौ, वाहि पठायो ठेलि।अब कहि हौं समुझाय कै, बहु धन धरौ सकेलि।।64।।
 बालापन के मित्र हैं, कहा देउँ मैं साप।
 जैसो हरि हमको दियौ, तैसो पैइहैं आप।।64।।
 
					        साप =श्राप। 
					       नौ गुन धारी छगन सों, तिगुने मध्ये जाय।लायो चापल चौगुनी, आठों गुननि गंवाय।।66।।
 
					        नौ गुन धारी = ब्राह्मण (नौ तार का यज्ञोपवीत धारण करने वाला)। छगुन सों = ब्राह्मण के छ: कर्म छोड़ कर। तिगुने मध्ये = तीन गुण (यजन, पटन, दान) वाले क्षत्रिय के यहाँ जाकर। चापल चौगुनी = अधिक मात्रा चपलता की ही ले आया है। अर्थात चित्त की स्थिरता को खोकर केवल अशान्ति ला सका। 
					       और कहा कहिए जहाँ, कंचन ही के धाम।निपट कठिन हरि को हियो, मोको दियो न दाम।।67।।
 
					        निपट = अत्यन्त। हियो = हृदय। मोको = मुझको। 
					       बहु भंडार रतनन भरै, कौन करै अब रोष।लाग आपने भाग को, काको दीजै दोस।।68।।
 
					        रोष = क्रोध। लाग आपने भाग को = भाग की लगाय। यह एक बोली का महावरा है जिसका अर्थ होता है भाग्य का दोष। काको = किसको। 
					       इमि सोचत-सोचत झखत, आये निज पुर तीर।दीठि परी एक बार ही, हय गयन्द की भीर ।।69।।
 
					        झीखत = झीकते हुए। तीर = समीप। दीठि = दृष्टि। गयन्द =हाथी। 
					       हरि दरसन से दूरि दुख, भयो गये निज देस।गौतम ऋषि को नाउँ लै, कीन्हो नगर प्रवेस।।70।।
 
					        हरि = कृष्ण से मिलकर यही लाभ हुआ कि अपना स्थान भी चला गया। 
					       वैसोइ राज समाज बनो गज,बाजि घने मन सम्भ्रम छायो।
 कैधौ पर्यो कहुँ मारग भूलि,
 कि फेरि कै मैं अब द्वारिका आयो।।
 भौन बिलोकिबे को मन लोचत,
 सोचत ही सब गांव मंझायो।
 पूछ़त पांड़े फिरे सब सों पर,
 झोपरी को कहुँ खोज न पायो।।71।।
 
					        सम्भ्रम = आश्चर्य। कैधौं = क्या। फेरि कै = फिर से। मंझायो =घूम डाला। 
					       देव नगर कै जच्छ पुर, हौं भटक्यो कित आय।नाम कहा यहि नगर को, सो न कहौ समुझाय।।
 सो न कहौ समुझाय नगर वासी तुम कैसे।
 पथिक जहाँ झंखाहिं तहाँ के लोग अनैसे।।
 लोग अनैसे नाहिं, लखौ द्विज देव नगर तैं
 कृपा करी हरि देव, दियौ है देव नगर कै।।72।।
 
					        जच्छपुर = यक्षपुर, कुबेर की नगरी। झंखाहिं = इधर उधर टकराते फिरते हैं। अनैसे = खोटे, अविचारशील। तै = तरफ, नगर की तरफ। कै = कर दिया। 
					       सुन्दर महल मनि-मानिक जटिल अति,सुबरन सूरज-प्रकास मानो दै रह्यौ ।
 देखत सुदामा जू को नगर के लोग धाये,
 भेंटें अकुलाय जोई सोई पग छूवै रह्यौ ।।
 बांभनी के भूसन विविध विधि देखि कह्यौ
 जैहौं हौं निकासो सो तमासो जग ज्वै रह्यौ ।
 ऐसी दसा फिरी जब द्वारिका दरस पायो,
 द्वारिका के सरिस सुदामापुर ह्वै रह्यौ । ।।73।।
 
					        मनि-मानिक = मणि-माणिक। सुबरन = स्वर्ण। भेंटें अकुलाय = आतुरता से मिल रहे हैं। छवै रह्यौ = स्पर्श कर रहे हैं। भूसन = भूषण। के सरिस = के सदृश। 
					       कनक दण्ड कर में लिए, द्वारपाल हैं द्वार।जाय दिखायो सबनि लै, या हैं महल तुम्हार।।74।।
 कही सुदामा हँसत हौ, ह्वै करि परम प्रवीन।
 कुटि दिखावहु मोहिं वह, जहाँ बाँझनी दीन।।75।।
 द्वारपाल सो तिन कही, कहि पठवहु यह गाथ।
 आये विप्र महाबली, देखहु होहु सनाथ।।76।।
 
					        तिन = उन्होंने। 
					       सुनत चली आनन्द युत, सब सखियन लै संग।नूपुर किंकिनि दुन्दुभी, मनहु काम चतुरंग।।77।।
 
					        काम चतुरंग = चतुरंगिणी सेना कामदेव की। 
					       कही बाँभनी आय कै, यहै कन्त निज गेह।श्रीजदुपति तिहुँ लोक में, कीन्हो प्रकट सनेह ।।78।।
 
					        तिहुँ लोक = त्रैलोक में। सनेह = स्नेह, प्रेम। 
					       हमै कन्त जनि तुम कहौ, बोलौ बचन सँभारि।इहैं कुटी मेरी हती, दीन बापुरी नारि।।79।।
 
					        जनि = मत: (निषेधात्मक)। दीन बापुरी नारि = ग़रीब स्त्री। 
					       मैं तो नारि तिहारि पै, सुधि सँभारिये कन्त।प्रभुता सुन्दरता सबै, दई रुक्मिनी कन्त।।80।।
 
					        तिहारियै = आप ही की। सुधि सँभारिये = याद तो कीजिए। रुक्मिनी कन्त = श्रीकृष्ण। 
					       टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौर,तामे परी दुख काटे कहा हेम धाम री।
 जेवर जराऊ तुम साजे सब अंग अंग,
 सखी सोहैं संग वह छूछी हुती छामरी।।
 तुम तो पटम्बर सो ओढ़े हौ किनारीदार,
 सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी।
 मेरी पंडिताइनि तिहारे अनुहारि पतो
 मोको, बतलाओ कहाँ पाऊँ वाहि बामरी ।।81।।
 
					        मड़ैया = झोपड़ी। परी हुती याही ठौर = यहीं पड़ी हुई थी। हेम धाम = सोने के महल। छामरी = दुर्बल। पटम्बर = रेशमी साड़ी। बामरी = उस स्त्री को; बामा को। 
					       ठाढ़ी है पँड़ाइन कहत मंजु भावन सोंप्यारे परौं पाइन तिहारोई जु घरू है।
 आए चलि हरौं श्रम कीन्हो तुम भूरि दुख,
 दारिद गमायो यों हँसत गहृो करू है।।
 रिद्धि सिद्धि दासी करि दीन्हीं अविनासी कृस्न,
 पूरन प्रकासी, कामधेनु कोटि बरू है।
 चलो पति भूलो मति तुम्हें दीन्हों जदुपति,
 सम्पति सो लीजिए समेत सुरतरु है।।।82।।
 
					        मंजु भावन सों = कोमल भावनाओं से प्रेरित होकर। जु = यह। बरु = सुन्दर। सुरतरु = कल्पबृक्ष। 
					       समुझायो निज कन्त को, मुदित गई लै गेह।अन्हवायो तुरतहिं उबटि, सुचि सुगन्ध सो देह।।83।।
 
					        उबटि = उबटन; उदबर्तन लगाकर। सुचि = शुचि। 
					       पूज्यो अधिक सनेह सों, सिंहासन बैठाय।सुचि सुगन्ध अम्बर रचे, वर भूसन पहिराय ।।84।।
 
					        अम्बर = कपड़े। भूसन = भूषण। 
					       सीतल जल अँचवाइ कै, पानदान धरि पान।धर्यो आय आगे तुरत, छबि रवि-प्रभा समान।।85।।
 भरहिं चौंर चहुँ ओर ते, रम्भादिक सब नारि।
 पतिबृता अति प्रेम सों ठाढ़ी करै बयारि।।86।।
 
					        चौंर = मुर्छल। बयारि = हवा। 
					       स्वेत छत्र की छाँह में, राजत शक्र समान।बाहन गज रथ तुरँग वर, अरु अनेक सुभ वान।।87।।
 
					        रजत = शोभायमान। शक्र = इन्द्र। बान = वाहन। 
					       कामधेनु सुरतरु सहित, दीन्ही सब बलबीर।जानि पीर गुरु बन्धु हरि, हरि लीन्ही सब पीर।।88।।
 बिबिध भाँति सेवा करी, सुधा पियायो बाम।
 अति विनीत मृदु वचन कहि, सब पूरो मन काम।।89।।
 लै आयसु तिय स्नान करि, सुचि सुगंध सब लाइ।
 पूजी गौरि सोहाग हित, प्रीति सहित सुख पाइ।।90।।
 
					        आयसु = आज्ञा। लाई = लगाकर। सोहाग = सौभाग्य। 
					       षटरस विविध प्रकार के, भोजन रचे बनाय।कंचन थार मँगाय के, रचि रचि धरे बनाय।।91।।
 चन्दन चौकी डारि कै, दासी परम सुजान।
 रतन जटित भाजन कनक, भरि गंगाजल आन ।।92।।
 घट कंचन को रतन युत, सुचि सुगन्धि जल पूरि।
 रच्छा धान समेत कै, जल, प्रकास भरपूरि ।।93।।
 
					        युत = युक्त। कै = करके। 
					       मंगल घट का विस्तृत वर्णन है।रजन जटित पीढ़ा कनक, आन्यो बैठन काम।
 मरकत मनि चौकी धरी, कछुक दूरि छबि धाम ।।94।।
 
					        पीढ़ा = पटा अथवा लकड़ी का बना हुआ आसन। 
					       चौकी लई मँगाय कै, पग धोवन के काज।मनि पादुका पवित्र अति, धरी विविध विधि साज ।।95।।
 चलि भोजन अब कीजिए, कहृो दास मृदु भाखि।
 कृस्न कृस्न सानन्द कहि, धन्य भरी हरि साखि।।96।।
 
					        भाखि = कह कर। भरी हरि साखि = हरि को साक्षी करके सुदामा जी ने धन्य धन्य कहा। 
					       बसन उतारे जाइ कै, धोवत चरन सरोज।चौकी पै छबि देत यों, जनु तनु धरे मनोज।।97।।
 पहिरि पादुका विप्र जब, पीढ़ा बैठे जाय।
 रति ते अति छबि आगरी,पति सों हँसि मुसकाय।।98।।
 
					        पादुका = खड़ाऊँ। 
					       विविध भाँति भोजन धरे, व्यंजन चारि प्रकार।जोरी पछिऔरी सकल, प्रथम कहे नहिं पार।।99।।
 हरिहिं समर्पो कन्त अब, कही मन्द हँसि बाम।
 करि घंटा को नाद त्यों, हरि समर्पि लै नाम।।100।।
 अगिनि जेंवाय विधान सों, वैस्व देव करि नेम।
 बली काढ़ि जेंवन लगे, करति पवन तिय प्रेम।।101।।
 
					        विधान सों = नियमपूर्वक। तिय = पत्नी। 
					       बार बार पूछति प्रिया, लीजै जै रुचि होय।कृष्ण कृपा पूरन सबै, अबैं परोसो सोय।।102।।
 
					        अबैं = अभी। 
					       जेंइ चुके अँचवन लगे, करन गए विस्राम।रतन जटिल पलका कनक, बुनी सुरेशम दाम।।103।।
 
					        जेंइ चुके = भोजन कर चुके। अँचवन = हाथ धोना। बुनी = बुनी हुई। दाम = रस्सी। 
					       ललित बिछौना, बिरचि कै, पाँयत कसि के डोरि।राखे बसन सुसेवकनि, रुचिर अतर सों बोरि।।104।।
 
					        पाँयत = पैर की तरफ। 
					       पानदान नेरे धर्यो, भरि वीरा छबि धाम।चरन धोय पौढ़न लगे, करन हेत विश्राम।।105।।
 
					        नेरे = समीप। 
					       कोउ चँवर कोउ बीजना, कोउ सेवत पद चारु।अति विचित्र भूसन सजे, गजमोतिन के हारु।।106।।
 
					        बीजना = पंखा। गजमोतिन = गजमुक्ता। 
					       करि सिंगार पिय पै गई, पान खाति मुसुकात।कह्यौ कथा सब आदि तें, किमि दीन्हों-+ सौगाति ।।107।।
 
					        सौगाति = विभूति। 
					       कही कथा सब आदि ते, राह चले की पीर।सोवत जिमि ठाढ़ो कियो, नदी गोमती तीर।।108।।
 
					        तीर = किनारे। 
					       गए द्वार जिमि भाँति सों, सो सब करी बखान।कहि न जाय मुख लाख सों, कृस्न मिले जिमि आन1।।109।।
 
					        करी बखान = वर्णन किया। जिमि = जिस प्रकार। 
					       कर गहि भीतर लै गए, जहाँ सकल रनिवास।पग धोवन को आपुही, बैठे रमा निवास
 देखि चरन मेरे चल्यो, प्रभु नयनन ते बारि।
 ताही सों धोए चरन, देखि चकित नर नारि।।111।।
 
					        बारि = जल बह चला अर्थात उनके नेत्रों में अश्रु भर आए 
					       बहुरि कही श्रीकृस्न जिमि, तन्दुल लीन्हें आप।मेरे ह्रदय लगाइ कै, मेटे भ्रम सन्ताप।।112।।
 
					        बहुरि = उसके उपरान्त। जिमि = जिस प्रकार। 
					       बहुरि करी जेवनार सब, जिमि कीन्हीं बहु भाँति।।बरनि कहाँ लगि को कहौ, सब व्यंजन की पाँति।।113।।
 
					        जेवनार = भोज। व्यंजन = विविध पकवान तथा भोजन सामग्री। पाँति = पंत्ति। 
					       जादिन अधिक सनेह सों, सपन दिखायो मोहिं।सो देख्यो परतच्छ ही, सपन न निसफल होहिं।।114।।
 बरनि कथा यहि विधि सबै, कह्यो आपनो मोह।
 कृस्न कृपानिधि भगत हिय, चिदानन्द सन्दोह।।115।।
 
					        सन्दोह = समूह। 
					       साजे सब साज बाज बाजि गज राजत हैं,विबिध रुचिर रथ पालकी बहल हैं।।
 रतन जटित सुभ सिेंहासन बैठिबे को,
 चौक प्रति कामधेनु कल्पतरु लहल हैं।।
 देखि-देखि भूसण बसन दासि दासन के,
 सुखपाल सासन के लागत सहल हैं।।
 सम्पति सुदामाजू को कहाँ लौं दई है प्रभु,
 कहाँ लौं गिनाऊँ जहाँ कंचन महल हैं।।116।।
 
					        साजबाज = सजावट। बाजि गज = घोड़े और हाथी। राजत हैं = सुशोभित होते हैं। बहल = एक प्रकार की बैलगाड़ी जिसका उपयोग आज भी संयुक्त प्रान्त की देहातों में किया जाता है। चौक प्रति = घर का आँगन, चौक प्रति का अर्थ होगा आँगन में। लहल हैं = लहलहाते हैं अर्थात् अवस्थित हैं। 
					        सासन = शासन। कंचन = सुवर्ण। 
					       बाजिसाला गजसाला दीन्हें गजराज खरे,गजराज महाराज राजन-समाज के
 बानिक विविध बाने मन्दिर कनक सोहैं,
 मानिक जरे से मन मोहैं देवतान के।
 हीरालाल ललित झरोखन में झलकत,
 झिमि-झिमि झूमत झूमत मुकतान के।
 जानी नहिं विपति सुदामाजू की कहाँ गई,
 देखिए विधान जदुराय के सुदान के ।।117।।
 
					        खरे = उत्तम। राजत-समाज = जो केवल राजाओं के समाज में ही मिल सकते हैं। बानिक = प्रकार। बाने = बनावट। मानिक जरे से मन मोहैं देवतान के = मानो माणिक से जड़े हुए हैं। झरोखन = घरों में वायु और प्रकाश के लिए जो मार्ग रखा जाता था उसे झरोखा कहते थे। झलकता = चमकते हैं। झूमक = गुच्छे। 
					       कहूँ सपनेहूँ सुबरन के महल होते,पौरि मन मण्डप कलस कब धरते?
 रतन जटित सिंहासन पर बैठिबे को,
 खरे हैं खवास मोपै चौंर कब ढरते?
 देखि राजसामा निज वामां सो सुदामा कहैं,
 कब ये भण्डार मेरे रतनन से भरते?
 जो पै पतिबरता न देतो उपदेस तू तौ,
 एती कृपा मो पै कब द्वारिकेस करते? ।।118।।
 
					        पौरि = द्वा। खवास = सेवक। मो पै = मेरे ऊपर। राजसामा = राजसी ठाट। 
					       उठे पहिरि अम्बर रुचिर, सिंहासन पर आय।बैठे प्रभुता देखि कै, सुरपति रह्यौ लजाय ।।119।।
 कै वह टूटी सी छान हती,
 कहँ कंचन के अब धाम सुहावत।
 कै पग में पनही न हती,
 कहँ लै गजराजहु ठाढ़े महावत।
 भूमि कठोर पै राति कटै,
 कहँ कोमल सेज पै नींद न आवत।
 कहि जुरतो नहिं कोदौ सवाँ,
 पभु के परताप ते दाख न भावत।।120।।
 
					        छान = झोपड़ी। हती = थी। महावत = हाथी को देखने वाला। दाख = मेवा। 
					       धन्य-धन्य जदुवंस मनि, दीनन पै अनुकूल।धन्य सुदामा सहित तिय, कहि सुर बरसंहि फूल।।121।।
 
					
						        · ललिता प्रसाद सुकुल ने दो अन्य संस्करणों के पाठांतर का विवरण दिया है, जिसे हमने हटा दिया है। - संपादक, हिंदीसमय |