वे करते रहते तरह तरह के प्रयोग
लौकी कुम्हड़ा आलू प्याज कभी आटे का गोल पिंड दाल में
इस घालमेल में खोजते थे गँवार विकल्प
कह सकते हैं, तब उन्हें गठबंधन की नहीं थी समझ
दल विशेष के आधिपत्य और जादुई नारों का था जमाना
तर्जनी से चखते हुए अंदाज नहीं था
इतनी गरम होगी दाल अगियाने लगी उँगली
और जैसे निकलकर आने लगीं बेतरतीब चीजें
मेला झूला जलेबी और चर्खी की जिद
चवन्नी की खोज में ताखे में बिच्छू का डंक
बिना बताए घर से भागना
महानगर में अपना जवान होना
जुलूस और आंदोलन प्रदर्शन और धरना
नया नर्क उतना बुरा नहीं था
यहाँ फिर भी गुंजाइश थी, बिके,
हालाँकि चाहकर भी बहुत कुछ खरीद नहीं सके,
आटे की संगत में दाल को हासिल जमीन
क्रमशः सिकुड़ती जा रही थी
अब पता लग रहा था भाव
सस्ते और पेटभरुए की तलाश में धीरे-धीरे वंचित होते गए
सूक्ष्म लेकिन जीवन के लिए जरूरी तत्वों से
घट गया अंदर का लोहा प्रतिरोध की ताकत
गिरी गिरी सी रहती है तबीयत घटती जाती जीने की चाहत
बढ़ती जाती है एक अजब सी लाचारी
दालों को दलों के भरोसे छोड़कर कभी कभी सोचते हैं दुखहरन
अकेली जान के लिए कौन करे रोज रोज इतना टिटिम्मा
कोक-पेप्सी में सानकर खा लें दो मुट्ठी भात और पड़े रहें
मौके की नजाकत भाँपकर कुछ लोग कोरस में गा रहे हैं
सब कुछ चमकदार है कितना सुहाना !