''चाचा! चाचा! सब मिट्टी हो गया! जो खिलौना आप दिल्ली से लाए थे, उसे श्रीधर ने तोड़ फोड़कर मिट्टी कर दिया!''
एक दिन मैं अपने घर में अकेला बैठा दिल्ली के भारतधर्म महामंडल का 'मंतव्य' पत्र पढ़ रहा था। मेरा ध्यान उसमें ऐसा लग रहा था कि मानो कोई उपासक अपने उपास्य का साक्षात्कार कर रहा है। इसका कारण यह था कि मेरी इस सभा पर बहुत दिनों से विशेष भक्ति-भावना हो रही थी, क्योंकि यह महासभा मारवाड़ी बाबुओं के बगीचे की सभा न थी, जिसमें नाच-कूद के शौकीन, लड्डू-कचौरी के यार केवल भोजन-भट्ट मित्रों का स्वागत समागम ही बड़ी वस्तु समझी जाती है, और न यह 'थियेटर' के राजा इंद्र का अखाड़ा था, जिसका उद्देश्य यह होता था कि थोड़ी देर के लिए नयनाभिराम मनोहर दृश्य दिखाकर अर्थोपार्जन वा कौतुकप्रिय अमीरों को खुश किया जाय।
यह सभा सनातन धर्म की सभा थी। जननी जन्मभूमि की सुसंतान की महासभा थी। यह वह सभा थी, जिसके अग्रगंता एक दिन धन को धर्म पर वार च्रुके थे, प्रतिष्ठा को कर्तव्य के हाथ बेच चुके थे, इंद्रियासक्ति को स्वयं ही दबा चुके थे। इनकी शत्रुता-मित्रता धर्म पर स्थित थी, व्यवहार पर नहीं। इंद्रियलोलुप बड़े आदमियों पर इनकी घृणा थी और धर्मात्मा दरिद्र भी इन्हें प्यारे थे।
यह सभा वही विख्यात सभा थी, जो बारह वर्षों से भारतवर्ष में सनातन धर्म और संस्कृत विद्या के प्रचार करने का बीड़ा उठाए फिरती है। इसलिए महासभा से पुराने वृद्ध पंडित और धर्मात्मा जन आशा करते थे कि यह देश के अनाचार दुराचार आदि की तो निवृत्ति करेगी और सदाचार की प्रवृत्ति। इसमें धर्म की जय होगी और साथ ही धर्म प्रचारक लंपटों को भय होगा। बालक सुरक्षित बनेंगे और स्त्रियाँ निंदित न होंगी। मूर्खों की धृष्टता बढ़ने न पावेगी और विद्वानों का तिरस्कार न होगा। पापियों की प्रतिष्ठा न होगी और धार्मिकों का उत्साह बढ़ेगा।
इस महासभा में अबकी बार दरभंगा और अयोध्या के महाराज बहादुर का बहुमूल्य और अव्यर्थ शुभागमन सुनकर यह नतीजा मेरे सरल अंतःकरण ने पहले ही से निकाल लिया था कि इस बार केवल पुराने प्रस्तावों का पिष्टपेषण वा मंतव्य-पत्र का शुष्क पाठ मात्र ही न होगा, कोई सच्ची उदारता का मूर्ति-मान उदाहरण भी दृष्टिगोचर होगा। अतएव मैं मंतव्य पत्र को पाकर उत्कंठित हो मंतव्य के मर्म पर ध्यान दे रहा था। अकस्मात ऊपर लिखे हुए शब्द कान में पहुँचे, जिनसे एक बार ही मेरा ध्यान भंग हो गया।
आँख उठाकर देखा तो सामने छह वर्ष के बालक हरदयाल को पाया। हरदयाल मेरे बड़े भाई का बड़ा लड़का है। इस समय वह अपने छोटे भाई की शिकायत कर रहा है। यह देखकर मुझे बड़ी हँसी आई कि खिलौना फूट गया है, इसलिए बालक हरदयाल ने 'सब मिट्टी हो गया' इत्यादि वाक्यावली भूमिका बना कर अपने छोटे भाई श्रीधर के नाम अभियोग खड़ा किया है। इस समय हँसकर मैं एक बात कहना चाहता था, किंतु यह सोचकर चुप रह गया कि ऐसा करने से कहीं बालक की ढिठाई को सहारा न मिले और धमकाना इसलिए उचित नहीं समझा कि मनमौजी बालकों के आनंद में विघ्न करने से क्या मतलब। खैर! दोनों प्रकार की व्यवस्था से मन हटाकर हरदयाल से कहा - ''श्रीधर बहुत बिगड़ गया है। उसको आज से कोई खिलौना न देंगे।'' हरदयाल अपने इच्छानुकूल उत्तर पाकर बहुत प्रसन्न हुआ और हँसता हुआ श्रीधर को यह संवाद सुनाने दौड़ गया।
घर फिर निस्तब्ध हो गया, किंतु अंतःकरण निस्तब्ध नहीं हुआ। 'सब मिट्टी हो गया है,' इस बात ने मन में एक दर्द पैदा कर दिया। अच्छा, मैं हँसकर बालक से क्या कहना चाहता था, वह तो सुन लीजिए। कहना चाहता था, 'जब वस्तु मिट्टी की है, तो मिट्टी हुई किस प्रकार?' जो हो, वह बात तो हो च्रुकी। अब सोचने लगा कि जो नष्ट वा निकम्मा हो जाता है उसी का नाम है, मिट्टी होना। क्या आश्चर्य है! मिट्टी के घर को कोई घर नहीं कहता, किंतु घर के गिर जाने पर लोग कहते हैं कि 'घर मिट्टी हो गया!' हमारा यह मकान, सब मिट्टी का बना हुआ है दीवारें तो मिट्टी की हैं। पर ईंटें तो केवल पकी हुई मिट्टी के सिवा और क्या है? पर अब किसी से पूछिए इसे मिट्टी नहीं कहेगा, फिर गिर जाने पर सब कहेंगे कि 'मकान मिट्टी हो गया।'
लोग केवल घर ही के नष्ट होने पर 'मिट्टी हो गया' नहीं कहते हैं। और जगह भी इसका प्रयोग करते हैं। किसी का बड़ा भारी परिश्रम जब विफल हो जाय, तब कहेंगे कि 'सब मिट्टी हो गया'। किसी का धन खो जाय, मान-मर्यादा भंग हो जाय, प्रभुता और क्षमता चली जाए तो कहेंगे कि 'सब मिट्टी हो गया'। इससे जान गया कि नष्ट होना ही मिट्टी होना है। किंतु मिट्टी को इतना बदनाम क्यों किया जाता है? किसी वस्तु के नष्ट होने पर केवल मिट्टी ही तो नहीं होती। मिट्टी होती है, जल होता है, अग्नि होती है, वायु और आकाश भी होता है। फिर अकेली मिट्टी ही इस दुर्नाम को क्यों धारण करती है? यदि किसी की वस्तु अच्छे भाव पर बिकती नहीं है तो कहेंगे मिट्टी की दर पर माल जा रहा है। वह माल चाहे राख के बराबर - कितना ही निकम्मा, कितना ही बुरा क्यों न हो, निकृष्ट और अगौरव के स्थान पर तुरंत उसकी मिट्टी के साथ तुलना होती है! क्या सचमुच मिट्टी इतनी ही निकृष्ट है? और क्या केवल मिट्टी ही निकृष्ट है और हम कुछ निकृष्ट हैं नहीं? भगवती वसुंधरे! तुम्हारा 'सर्वसहा' नाम यथार्थ है।
अच्छा माँ! यह तो कहो तुम्हारा नाम 'वसुंधरा' किसने रखा? यह नाम तो प्राचीन समय का नाम है। मालूम होता है, यह नाम व्यास, वाल्मीकि पाणिनि, कात्यायन आदि सुसंतानों का दिया हुआ है। केवल यही नाम क्यों वसुंधरा, वसुमती, वसुधा, विश्वंभरा प्रभृति कितने ही आदर के और भी अनेक नाम हैं। तुम्हें वे तुम्हारे सुपुत्र न जाने कितने आदर, कितनी श्लाघा और कितनी श्रद्धा से पुकारते थे। क्यों माता, तुम्हारे पास ऐसा धन क्या धरा है, जिससे तुम वसुंधरा वसुधा के नाम से विख्यात हो? कहो तो ऐसा सर्वोत्तम रत्न क्या है, जिससे तुम 'वसुमति' कहला रही हो? माँ! कुछ तो है, जिससे इस दुर्दिन के घोर अंधकार में भी तुम्हारे मुख पर उजाला हो रहा है।
जिन सत्पुत्रों ने तुम्हारे ये नाम रखे हैं, वे ही तो श्रेष्ठ रंत हैं। व्यास, वाल्मीकि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, कपिल, कणाद, जैमिनि, गौतम इसकी अपेक्षा और कौन रत्न है? माँ! भीष्म, द्रोण, बलि, दधीच, शिवि, हरिश्चंद्र इनके सदृश्य रत्न और कहाँ हैं? अनसूया, अरुंधती, सीता, सावित्री, सती, दमयंती इनके तुल्य रत्न और कहाँ मिल सकते हैं? हम लोग अकृतज्ञ हैं, सब भूल गए। अब हमें उनका स्मरण ही नहीं; मानो वे एक बार ही लोप हो गए हैं। यदि कहीं लीन हुए होंगे, तो वे तुम्हारे अंग में लीन हुए हैं। जननी! जरा देखें तो सही, तुम्हारे किस अंग में लीन हुए हैं। माँ! वह तेज, वह प्रतिभा, कहाँ समा सकती है? माँ! आकाश के चंद्र-सूर्य क्या मिट्टी में सो रहे है? माँ! एक बार तो अभागी संतान को उसके दर्शन कराओ?
माँ! देखें उस कुरुक्षेत्र में कितनी कठोर मृत्तिका हो गई? भीष्मदेव का पतनक्षेत्र किन पाषाणों में परिणत हो गया। कपिल गौतम की शेषशय्या का कितना ऊँचा आकार हो रहा है? उज्जयिनी की विजयिनी भूमि में कैसी मधुमयी धारा चल रही है? आहा! तुम्हारे अंग में किस प्रकार पादस्पर्श करें? माँ! तुम्हारे प्रत्येक परमाणु में जो रत्न-कण हैं, वे अमूल्य हैं और अतुल हैं!
जगदंबा पति के पादस्पर्श से जो मृत्तिका पवित्र हुई है, पतिनिंदा को सुनकर जहाँ सती का शरीर धरती में मिला है, वे सभी क्षेत्र तो वर्तमान हैं। माँ! फिर पैर कहाँ रखा जाय? वृंदावन-विपिन में अभी भी तो वंशी बज रही है। माँ! किस सह्दय के, किस सचेतन के कान में यह वंशी नहीं बजती? अब तक भी यमुना का कृष्ण जल है। माँ! वियोगिनी ब्रज-बालाओं की कज्जलाक्त अश्रुधारा का यह माहात्म्य है! गृहत्यागिनी प्रेमोन्मादिनी राधिका की अनंत प्रेमधारा ही मानो यमुना 'कल कल' शब्द के व्याज से हा कृष्ण! हा कृष्ण! पुकार कर इस धारा को सजीव कर रही है। यह देख अभागिनी जनक-तनया की दंडकारण्य-विदारी हाहाकार-ध्वनि भवभूति के भवनपार्श्व के भवनपार्श्व वाहिनी गोदावरी के गद्गद नाद में अच्छी तरह सुन पड़ती है।
और उस अभागिनी तापसकन्या शकुंतला ने जो कुछ दिन के लिए राज-रानी हुई थी एवं अंत में उस राजराजेश्वर पति से अपमानित उपहासित हो कर परित्यक्त दशा में पालक पिता के शिष्यों से रूखे और मर्मभेदी शब्दों से धमकायी और त्यागी गई कहीं भी आश्रय न पा, कुररी की तरह विकल कंठ से जो तुमसे कहा था - 'भगवति वसुंधरे! देहि में अंतरम्' वह आज भी कानों में गूँज रहा है। माँ! वह शब्द अब भी हृदय को व्यथित कर रहा है।
माँ! तुम्हारे रत्न कहाँ है, किस रेणु में तुम्हारे रत्न नहीं हैं?
"कोटि कोटि ऋतु पुरुष तन, कोटि कोटि नृप सूर।
कोटि कोटि बुध मधुर कवि, मिले यहाँ की धूर।।"
इसलिए तुम्हारी समस्त भूमिका पवित्र है, रज मस्तक पर चढ़ाने योग्य है। तुम्हारे प्रत्येक रेणु के ज्ञान, बुद्धि, मेधा, ज्योति, कांति, शक्ति स्नेह भक्ति प्रेमप्रीति विराज रही है! तुम्हारे प्रत्येक रेणु में धैर्य, गांभीर्य, महत्व औदार्य, तितिक्षा, शौर्य देदीप्यमान हो रहा है; तुम्हारी प्रत्येक रज में शांति, वैराग्य विवेक, ब्रह्यचर्य, तपस्या और शौर्य निवास कर रहे हैं। हम अंधे हैं, इन सबको देखकर भी नहीं देख सकते। गुरुदेव ने सुना दिया है, सुनकर भी नहीं सुनते। नित्यकृत्य प्रातःकृत्य स्मरण करके भी स्मरण नहीं करते। हा! माँ! तुम्हारी पवित्र मृत्तिका मस्तक पर चढ़ा, एक बार भी तो मुख से नही करते-
'अश्वक्रान्ते, रथक्रान्ते विष्णुकान्ते वसुंधरे।
मुत्तिके हर में पाप यन्मया दृष्कृतं कृतम्।
प्रभात के समय क्या कहकर तुम्हारा वंदन करें। शय्या त्यागकर नीचे पैर रखते हुए प्रणाम कर कहना चाहिए -
'समुद्रमेखले देवि ! पर्वतस्तन-मंडले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे।'
देवि! इस समय मैं पैर से तुम्हारा अंगस्पर्श करूँगा। तुम्हें स्पर्श न करें, ऐसा उपाय ही क्या है। समुद्रांत जितना विस्तृत स्थान है, सभी तो तुम्हारा अंग है। इस स्थान को छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ? इस समुद्रांत भूमि पर जितने प्राणी रहते हैं, सभी को तुम्हारे शरीर पर पैर रखना होगा। माँ! तुम इस अपराध को क्षमा करो। तुम जननी हो, तुम क्षमा न करोगी तो कौन करेगा? यह विशाल पर्वतसमूह स्तन-मंडल है। इस पर्वत समूह से जितनी स्रोतस्विनी नदियाँ निकल रही है ये तुम्हारी ही स्तन की दुग्धधारा है। इन्हीं से सब प्राणी प्राणवान् है। जननी विष्णुपत्नि। संतान का यह अपराध क्षमा करो। हम भक्तिप्रवण चित्त से तुम्हें नमस्कार करते है।
हाय माँ! आज से सब रत्न जीवित नहीं हैं, इसी से तो तुम बदनाम हो रही हो। आज तुम्हारी संतान मिट्टी हो रही है, इसीलिए तुम्हारा भी यह वसुंधरा नाम विलुप्तप्राय है। देवी! अब के मटियल कवियों को तो यही सूझता है कि -
समझ के अपने तन को मिट्टी, मिट्टी, जो कि रमाता है।
मिट्टी करके अपना सरबस, मिट्टी में मिल जाता है।।
इसी समय हरदयाल फिर जा पहुँचा। कहने लगा - चाचा! खूब हुआ, अब उसे कुछ न मिलेगा - यह सुनकर वह रो रहा है। मैं बोला - देख हरदयाल! मैं भी तो रो रहा हूँ। वस्तुतः इस समय मैं भावविह्वल रो रहा था। दोनों नेत्र जल से छल-छल कर रहे थे। हरदयाल ने मेरी देखकर कहा - क्यों चाचा! तुम रोते क्यों हो। खिलौना फूट गया है, इसीलिए क्या? खिलौना तो खरीदने पर भी मिल जाएगा, इसलिए नहीं रोता। जो खरीदने पर फिर नहीं मिलता, उसी के लिए रोता हूँ।
दूसरी ओर से श्रीधर के रोने की आवाज आई। बालक की सांत्वना के निमित्त स्वयं मुझको उठाना पड़ा। मैंने विषयांतर में मन लगाया। इस प्रकार मेरी चिंता का स्रोत अर्द्धपथ ही में आकर रुक रहा। रुक जाय, समझानेवाले इसी से एक प्रकार का सिद्धांत निकाल सकते है। अर्थात 'सब मिट्टी हो गया' इस बात को लोग जिस प्रकार कहते है, 'मिट्टी से सब होता है, 'यह बात भी उसी प्रकार कही जा सकती है। कोई कंचन को मिट्टी करता है और कोई मिट्टी का कंचन बना डालता है। सब समझ की बलिहारी है। अच्छा जरा बालक को समझा जाऊँ।