ढेरावीर बाबा के उस अड़भंगी पत्थर पर पहला दिया शीतला चाची ने ही जलाया था। चाची से ही आग पाकर बाबा स्पंदित हुए और फिर उसी के जीवन की बलि पाकर सिद्ध भी बने।
पता नहीं यह कैसी उलटबाँसी थी! तब सोचा न था कि देवता बनाना इतना जोखिम भरा है। क्या सचमुच, देवता, अपने निर्माता मनुष्य के प्रति बिलकुल कृतज्ञ नहीं होते?
चाची की आत्मा पर इस जीवन का गहरा निशान शायद यही होगा की बाबा के ठीक सामने उसके साथ ऐसा व्यभिचार कैसे हो पाया? यही वेदना ले कर उसकी आत्मा आज गंगा के इस कछार
में भटकती होगी। किंतु उसकी इस पीड़ा से भला बाबा को क्या मतलब! देवताओं को, मनुष्य की पीड़ाओं से भला कब मतलब रहा है!
पर, आज गाँव भर में, किस्सा भर बचा, पीड़ा का वह अतीत मेरे सामने गंगा के पानी जितना ही साफ है! और मेरे लिए वह पवित्रता से अधिक प्रायश्चित का पानी है।
दरअसल, अपने बचपन में उस अड़भंगी पत्थर को अनायास मैंने ही वहाँ रखा था। तब मैं कक्षा पाँच में था और पैदल अपने गाँव वेदपुर से दो कोस दूर रामपुर गाँव के
प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाता था। बीच में गंगा का हरियल कछार था। हर वर्ष बाढ़ के बाद गंगा जब पीछे लौटतीं तो रेत के लुड़ियाए कच्चे पत्थरों को यहाँ पीछे छोड़
जातीं। इन्हें हम ढेरा या ढेला कहते। हम बच्चे इन्हें आसमान में ऊँचा फेंकने का खेल खेलते।
तब नहीं पता था की इनमें देवता भी उतरते हैं!
कछार के ही किनारे, टीले पर बरगद का एक पेड़ था जिसकी जड़ों तक आकर बाढ़ी गंगा न जाने क्यों हर वर्ष रुक जाती थीं!
अक्सर आते-जाते, उन ढेरों पर अचानक पैर पड़ जाने से मैं फिसल कर कई बार गिरा और चोट खाया। अतः एक दिन गुस्से में आकर मैंने इन्हें बीन-बीन कर बरगद के चारों ओर रख
दिया। वह अड़भंगी पत्थर, जिसके सामने बाद में भक्त-गण दंडवत होने लगे, उसे भी, वहाँ बीचोंबीच, मैंने ही रखा था, पर रखते समय उसकी आकृति और स्थान पर मेरा ध्यान न
था। वह मेरे लिए अन्य ढेलों के समान ही था। गंगा और रेत के लिए भी वह विशेष शायद न रहा हो।
पर लोग हैं कि बाद में उसमें हनुमान और गणेश देखने लगे।
अभी उन ढेलों में देवता नहीं उतरे थे। उन्हें, आग देकर सबसे पहले चाची ने, और आग लगाकर बाद में पंडित कामेश्वर पांडे ने उतारा।
मुझे आज भी वह शाम याद है जब मैं स्कूल से घर लौट रहा था। दूर से चाची बरगद तले उन्ही ढेरों के पास बैठी नजर आयी। मुझे ताज्जुब हुआ। मैं जल्दी-जल्दी चल उसके पास
पहुँचा। मुझे देख वह खुश हुई, फिर गोदी में बिठा बोलीं - 'आते-जाते यहाँ जरूर मत्था टेका करो लल्ला।' फिर मैंने वहाँ देखा - गोबर से लिपी मिट्टी, इंगुर,सिंदूर,
फूल, अगरबत्तियाँ, बतासे...! चाची ने उस अड़भंगी पत्थर पर एक लंबा तिलक लगाकर एक जलता दिया रख दिया था। उसे देख जिज्ञासा में मैंने हाथ जोड़ लिए थे।
मुझे नहीं पता की चाची ने ऐसा क्यों किया था? कहते हैं वह बहुत वहमी थी। उस बरगद से थोड़ी ही दूर पर खड़े उस आम के पेड़ पर चुड़ैल केवल उसे ही दिखती थी। क्या उसी
वजह से? या चाचा की बंबई से वापसी के लिए वह जान-बूझकर एक नए देवता की थापना कर रही थी क्योंकि अन्य देवताओं से माँगते-माँगते वह शायद थक चुकी थी? भला एक बच्चे
के असंकल्पित कर्म में आखिर क्यों शामिल हो गई चाची?
चाची के इसी कृत्य का फायदा बाद में पंडित ने उठाया, जो क्षेत्र भर में विदेशिया चोर के रूप में बदनाम था। उसने अचानक चोला बदला। इस जगह को अपना अड्डा बनाया और
धीरे-धीरे धर्म का तिकड़म फैला इसे 'ढेरावीर बाबा धाम' के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।
पर केवल तिकड़म, डर और झूठ से बाबा नहीं बने। बिना मानुष बलि के देवताओं का ऐश्वर्य भला कब फला! पर कैसा विपर्यय कि वहाँ बलि भी चाची की ही हुई, और वह भी ठीक
बाबा के सामने!!
गाँव के लोग इस रहस्य को शायद आज तक नहीं समझ पाए।
मुझे याद है, उस साल गाँव में प्रधानी के चुनाव का जोर था। कई लोग मैदान में थे पर मुख्य मुकाबला ठाकुर कामेश सिंह और चाची के बीच था। ठाकुर ने पंडित को पटा
लिया था। पूरे गाँव में यह फूँक दिया गया कि पंडित के सपने में ढेरावीर बाबा ने ठाकुर को प्रधानी का आशीष दे दिया है। पर यह सुन चाची घूम-घूम ठहाके लगाती। वह
रोज शाम बाबा को दिया देती रही और ताल ठोंककर अपना प्रचार करती रही। मतदान के दो दिन पहले उसका टैंपो हाई भी हो चुका था। बाबा अभी नए थे शायद इसीलिए बेअसर साबित
हो रहे थे।
कहते हैं उस रात बेचैन ठाकुर और पंडित ने, बाबा की छाती पर बैठ, खूब शराब पी और शातिर चालें सोचते रहे। ठाकुर गिडगिडाया - 'कुछ करो पंडित, यदि जीत गए तो
तुम्हारे इस बाबा की कच्ची झोपड़ी को महल बना देगें'।
और आहि रे चाची! ठीक उसी समय तुम वहाँ दिया जलाने आई और पंडित ने तुम्हे देख लिया। उसकी आँखें चमक उठी। उसने ठाकुर के कान में मंत्र फूँका - 'शिकार सामने है
ठाकुर, पर तरीका केवल एक कि - न रहे बाँस और न बजे बाँसुरी। चलो ससुरिया पर चढ़ लेते हैं और ढोंकरिया दबाय देते हैं'। फिर बाबा की आसनी पर ही उन दोनों ने चाची को
दबोच लिया और बारी बारी से उसकी इज्जत लूटते रहे। उसके प्रतिरोध ने उनकी आग और भड़काई तथा उन्होंने उसकी योनि में उसी अड़भंगी पत्थर से हमला किया जिसे कभी मैंने
वहाँ जमाया था, और जिसमें चाची ने ही देवता की प्राण-प्रतिष्ठा की थी। फिर उन्होंने उसकी गरदन दबाकर उसे कछार में फेंक दिया।
सुबह चाची की लाश को घेर सारा गाँव खड़ा था। पंडित आवेश में चीख रहा था - 'देखा बाबा का प्रताप! और है किसी में हिम्मत!' उधर ठाकुर उस अड़भंगी पत्थर पर मत्था रख
घडियाली आँसू बहाते कह रहा था - 'शीतला भौजी का जीवन लौटा दो बाबा, मैं अपना नाम वापस लेता हूँ।'
और तभी लोगों में यह किस्सा भी बड़ी तेजी से फैला कि पंडित जब रात नौ बजे बाबा को सुलाकर अपने गाँव वाले घर लौट रहा था तो उसने शीतला को वहाँ दिया जलाते देखा था।
जब भोर में वह फिर वहाँ वापस आया तो उसने देखा की वह मिर्गी के मरीज की तरह जमीन में लोट रही थी और अपनी ही गर्दन दबोच रही थी। पर, पंडित के पहुँचते-पहुँचते
बाबा ने उसके प्राण हर लिए।
यह देख,सुन, पूरे गाँव को मानो लकवा मार गया था।
उस साल कामेश सिंह प्रधानी का चुनाव जीत गए और महीनों में उन्होंने बाबा का महल बनवा दिया। बाबा के प्रताप से आजकल वे जिला पंचायत के अध्यक्ष पद पर विराज रहे
हैं। उधर, पं. कामेश्वर पांडे अब करोड़पति हैं तथा स्कार्पियों में बैठ कई गाड़ियों के काफिले में चलते हैं।
ढेरावीर बाबा, तब से एक सिद्ध-पीठ के रूप में स्थापित हो गए।
चाची अगर आज जिंदा होतीं तो एक नए ईश्वर का निर्माता होने की बात पर जरूर मैं अपनी पीठ ठोकता, पर उसकी हत्या ने देवताओं के प्रति मेरे मन में घृणा भर दी। अड़भंगी
उन मूरतों से ज्यादा मोह मुझे उसकी निर्दोष पर दबंग सूरत से रहा।
इसीलिए, जब पिछली बार मैं गाँव गया तो साहस कर अमावस की रात में चुपके से उन ढेलों को चुन चुन कर बरगद के किनारों से हटाया और कछार में उन्हें वहाँ रख दिया जहाँ
कभी चाची का मृत शरीर फेंका गया था। फिर एंगुर, सिंदूर, फूल आदि चढ़ा मैंने वहाँ एक शिलापट्ट टाँग दिया - 'माँ शीतला धाम'।
और, उस अड़भंगी पत्थर के कई टुकड़े कर मैंने गाँव के उस पुराने कुएँ में फेंक दिया, जिसमें साँप लोटते हैं।
मुझे तब बेहद ख़ुशी हुई जब अगले ही दिन मैंने वहाँ गाँव की औरतों को आँचल छुआते और बच्चों को मत्था टेकते देखा। आश्चर्य की बात यह भी हुई की उस साल बढ़ी हुई गंगा
भी बरगद की जड़ों तक नहीं पहुँची बल्कि चाची के धाम को चूम कर लौट गईं। इससे उत्साहित हो मैंने उस पूरी जमीन को ही खरीद लिया। अभी पिछले ही महीने मैंने वहाँ
बच्चों के एक स्कूल की बुनियाद रखी जिसका नाम सुन चाची की आत्मा को शायद बेहद संतोष हो - 'शीतला शिशु मंदिर'।
सुना है की यह सब देख, ठाकुर और पंडित को साँप सूँघ गया है।
देखता हूँ चाची कि उन कच्चे पत्थरों के मन में अब क्या है?