ईद के चाँद का दीदार करने जैसी बात होती तो मैं अपना सब कुछ ठहराकर हर साल उसका दीदार कर ही लेता। मेरी जिंदगी किसी चाँद के लिए नहीं अपने दिन और रात को कम से
कम दस आना भी मिल जाए, ऐसी चाहत के लिए तड़प रही थी। हालाँकि मेरी रातें जयंती अपने चेहरे से रोशन कर रही थी और मेरे दिल में उसकी साँसें छाया बनकर मेरे धूप को
मात दे रही थी फिर भी मेरे जेहन में ये बातें धुंध की तरह उठती थीं कि जयंती की जिंदगी में मेरी वजह से जो कुछ भी छूट गया है क्या उसके लिए मैं ही जिम्मेदार
हूँ? सैकड़ों क्या हजारों बार जयंती ने मेरी धुंध से परदा हटाया है और मुझे ऐसा न सोचने की चेतावनी के साथ अपनी प्रीत की दुहाई दी है। मैं भी चाहता हूँ कि इसे
किसी भी तरह से भूल जाऊँ। मगर जयंती की आँखें कभी-कभी अपने मायके की याद में इस तरह भरी हुई दिखतीं कि मेरा सागर सूखने लगता।
जयंती दस सालों से अपने मायके नहीं गई थी। दस साल हो गए थे उसे उम्मीद में जीते हुए कि मेरे लिए वह एक दिन रिश्तों का घेरा देगी। रिश्तों का घेरा वाली बात बस दस
साल की होती तो कोई बात नहीं थी। दस साल का यह आँकड़ा मेरे दस साल की उम्र से जुड़ा है। जब मैं दस साल का था एक खतरनाक बीमारी में माँ चल बसी। माँ का जाना हम
भाई बहनों के लिए जो था सो था पापा तो एक दम से टूट गए थे और एक साल पूरा होने के दूसरे दिन ही, वो भी चल बसे। मानो उन्होंने माँ से कभी वादा किया हो कि एक साल
से ज्यादा वो उसके बिना नहीं रह सकते। तब से ही दुख और उपेक्षा मेरा साया बना हुआ है। दस साल का यह अँधेरा जयंती के लिए हो सकता है। मैं तो तब से ही धरती के
नीचे रह रहा था।
घर में भइया सबसे बड़े थे और उनके नीचे तीन बहनें और सबसे छोटा भाई मैं। माँ की बीमारी को देखते हुए माँ के आग्रह पर पापा ने भइया की शादी माँ के रहते ही कर दी
थी। पापा भइया की शादी कर के दुनिया पार चले गए और अपने पीछे एक पुराना घर और अपने बैंक की गाढ़ी कमाई छोड़ गए थे। मुझ से दस साल बड़े भइया के ऊपर मुझे बड़ा
करने के अलावा तीन बहनों की शादी करने की जिम्मेदारी आ गई थी। कंपन्शेसन के आधार पर पापा के बदले भइया की नौकरी बैंक में मिल गई थी और पापा के बचाए हुए पैसों से
भइया ने बहनों की शादी कर दी थी। मैं भइया के कमाई पर बड़ा हो रहा था और मेरे साथ भइया के दो लड़के भी बड़े हो रहे थे। कच्ची उम्र में जिम्मेदारी की वजह से भइया
की समझदारी बढ़ गई थी जिसमें भाभी ने घर की मालकिन बन कर उनकी समझदारी में दुनियादारी का रंग भर दिया था।
इन सब के बीच मैंने हाई स्कूल पास कर लिया था और इतना सयाना होता जा रहा था कि भइया के कपड़े मुझ में फिट होने लगे थे। मैं कपड़े का शौकीन कभी नहीं रहा फिर भी
होली, दिवाली, छठ जैसे बड़े त्योहारों पर पापा ने जो अपनी पसंद के कपड़े खरीदने का चलन बना रखा था उससे इन अवसरों पर ऐसी चाहत बनी रहती। भइया जब ऐसे मौकों पर
मेरी अनदेखी करने लगे और भाभी उनके पुराने कपड़ों को मुझे सौंपने लगी तो मुझे अच्छा नहीं लगता। भाभी मुझे कपड़े देते हुए कहती कि आप में ये कपड़े आपके भइया से
ज्यादा अच्छे लगेंगे क्योंकि वो अब पहले से दुबले हो गए हैं। हालाँकि भाभी मेरे मोटे होने की बात नहीं करती लेकिन मेरे चुप रहने के बाद भी वह समझ जाती कि मैं
उनसे पूछ रहा हूँ कि क्या मैं मोटा हो गया हूँ? तभी तो अपने आप कहती "आप का शरीर अच्छा है। वह मर्द क्या जो मर्द की तरह नहीं दिखे।" फिर मेरे अच्छे शरीर होने का
मतलब बताती, "आपकी नौकरी तो फौज में रखी हुई है। बस अपने दौड़ने का रियाज बनाए रखिएगा।"
हालाँकि बात नए पुराने कपड़ों और मुझे अच्छा न लगने की नहीं थी। अगर यह बात हो भी तो अच्छी बात नहीं है। मगर भाभी का कुछ और ही मतलब होता। वह हमेशा, हर बात में
घर की जिम्मेदारी उठा रहे भइया के संघर्षों को बीच में ला देतीं, बहनों की शादी करने का अहसान जताती और क्रिकेट खेलने की वजह से मुझे एक नाकारा के रूप में
देखती। इतना ही नहीं वह बार बार मेरे माँ-बाप न होने का अहसास करातीं। उनका मानना था कि जिसके माँ-बाप न हो उसे खेल-वेल, घूमने-फिरने से दूर ही रहना चाहिए। उनका
मानना कितना सही था या गलत यह मैं नहीं जानता था लेकिन यह बात मेरे दिल में घर करने लगी थी कि माँ-पापा होते तो घूमना-फिरना, खेलना कूदना सही होता। ये बातें जब
मेरे मन में उठने लगी तो भइया भाभी और बहनों के बीच रहते हुए जिन मरे हुए माँ-बाप को मैं भूल गया था वह फिर से याद आने लगे थे।
जब भइया समझदार हो रहे थे, भाभी उनमें दुनियादारी भर रही थी और मेरी तीनों बड़ी बहनें भइया-भाभी के कहने पर मुझे समझाइश की चिट्ठियाँ लिखा करतीं तब मैं चीजों को
याद करने में विश्वास करने लगा था। वह अहसास जो दस साल की उम्र से ही माँ-पापा के न रहने से रिक्त हो गया था मैं उसे भरने के पीछे पड़ गया। मैं फिर से दस साल
छोटा बच्चा बन कर उन स्मृतियों में डूबने उतराने लगा। पापा जब बनारस से गाँव आते उनके साथ गंगा किनारे टहलने जाता। मकई की बालियों पर बैठे तोते को उड़ाता।
नीलकंठ और पंडुकों के पीछे भागता। वे मुझे अपने गमछे से पगड़ी बाँधते और मैं उनके हाथ से लाठी लेकर अपने कंधों पर रखता और बाँह भाँजते हुए घर आता। मैं सबकुछ से
बेपरवाह घर आकर कभी माँ तो कभी पापा का हँसता हुआ चेहरा देखता रहता।
यादें मेरी पढ़ाई को खा रही थीं फिर भी मुझे उसमें डूबे रहना अच्छा लगता। जब इंटर में जैसे तैसे पास हुआ तब पता चला कि अच्छा लगने और न लगने से परे एक जिंदगी
होती है जिसका दाँव कभी खाली नहीं जाता। मेरी यह धारणा तब और सही साबित हुई जब भइया ने आकर फरमान सुनाया कि तुम्हारी इस तरह से पढ़ाई रही तो मैं अब और सँभाल
नहीं पाउँगा। हालाँकि मैं अपनी इस तरह की पढ़ाई को उस तरह की पढ़ाई में बदलना चाहता था लेकिन फौज में जाकर जल्दी नौकरी नहीं करने से नाराज भाभी ने जब सुझाव के
लहजे में आदेश दिया कि आजकल तो लड़के ट्यूश्न पढ़ाकर अपनी पढ़ाई करते हैं तब मैंने सोचा कि जब बात इतनी तक आ ही गई है तो पढ़ाई को उस तरह करने के बजाय इस तरह से
ही करते हैं और अपने घर की यादों में फिर से सफर करते हैं।
बनारस से मेरा गाँव बस चालीस किलोमीटर की दूरी पर था। इस वजह से यह शहर बड़ा होने के बाद भी बहुत छोटा लगता। मगर जब ट्यूशन पढ़ा कर पढ़ने की बात आई तो मेरे लिए
बनारस दुनिया का सबसे बड़ा शहर लगने लगा। मरता क्या नहीं करता। मुझे यादों में जीना अच्छा लगने लगा था और अपने इस अच्छा लगने के लिए ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। हर
काम की तरह मेरी शुरुआत बिल्कुल अच्छी नहीं रही और मैं हार कर भइया भाभी का पैर पकड़ लेना चाहता था कि मुझे कुछ दिन और सँभाल लो।
भीतर से बहुत जोर का उबाल आता कि भइया भइया ही नहीं होता पापा के बाद पापा भी होता है इसलिए जैसे पापा की पीठ पर लद जाया करता था वैसे ही अपनी ख्वाहिशों के लिए
भइया की पीठ ही सही जगह है और उस पर लद जाना चाहिए। मगर अपनी जिंदगी को संघर्षहीन बनाने के लिए भइया भाभी के पैरों पर गिरने की बात दिल से निकल ही नहीं पा रही
थी। हिम्मत जवाब दे रही थी और मुझे हिम्मत से यारी करना था इसलिए अपनी इस स्थिति को मैं तीन माह तक टालता रहा।
किसी भी कठिन काम को करने से पहले ही मैं काँप जाया करता था और ट्यूशन पढ़ा कर पढ़ना मेरे लिए बहुत ही कठिन होता जा रहा था। मैं काँपता हुआ अपने घर को स्मृतियों
में नया कर रहा था। ऐसे में मैं जिन यादों के सहारे जी रहा था वो यादें चटकने लगी थी और मेरे नए घर में दरारें पड़ने लगी थीं। इसलिए पुराने घर को देखने गाँव चला
गया। सोचा था कि भइया भाभी मेरे खर्च को लेकर कुछ बात करेंगे लेकिन चार दिन बाद मैं बनारस आने लगा तो भाभी ने बस मुस्कुराते हुए पूछा कि फिर कब आएँगे? उस समय
मैं कुछ कहता तो शायद रो पड़ता। मैं महसूस कर रह था कि मैं अगर रो दिया तो एक असाध्य ख्वाहिश हासिल हो जाएगी लेकिन मुझे कुछ हासिल नहीं करना था। मुझे तो बस घर
चाहिए था जिसे मैं बना रहा था, जिसमें दरारें पड़ रही थीं इसलिए मैं चुप रहा और मुस्कराने भर की कोशिश की। भाभी की गोद में उनका छोटा लड़का जिसकी उम्र गोद में
खेलने की नहीं थी फिर भी खेल रहा था और भाभी उसके बालों में हाथ फेरते हुए कुछ कुछ बोल रही थी - मसलन सेहत का ध्यान रखिएगा, दोस्तों पर पैसा मत उड़ाइएगा, अब तो
आप को समझ में आ ही गया होगा कि घर का खाना ऐसे नहीं बनता हैं, देखिए मेरे हाथ कितने भद्दे हो गए हैं। भाभी की ऐसी बातों से मैं दुखी होने का आदी हो गया था पर
ना जाने क्यों भाभी के चेहरे में मैंने अपनी माँ को पहली बार इतनी तीव्रता से देख रहा था।
यादों मे जीने की आदत पड़ने के बाद यह पहला अवसर था जब भाभी को देखते हुए माँ को भूल जाना चाहता था। मेरी तीव्र इच्छा हुई कि मैं जा कर भाभी से लिपट जाऊँ। लेकिन
भाभी ने इतनी लाइनें खींच रखी थी कि मैं ऐसा कर नहीं पा रहा था। लकीरें मोटी होती जा रही थीं फिर भी मेरी तड़प कम नहीं हो रही थी। अपने भतीजे के हाथों में थूक
मलने के लिए जैसे जैसे भाभी और भतीजे के करीब जा रहा था, वैसे वैसे उन यादों के करीब चला गया जहाँ मैं अपनी माँ के गोद में बैठा हुआ हूँ और वो मेरे बालों को
सँवार रही है। मेरी आँखें भर आई थीं। मैंने आँसू को थाम रखा था कि कहीं मेरे नए घर के दरार पड़ी दीवारों में सीलन न आ जाए। रुलाई रुलाई होती है जो कहीं होती
नहीं बस आती है। बाहर वह आ न जाए इसलिए भाभी के पास जाते ही मुझ से रहा नहीं गया और मैं अपने भतीजे के हाथों में थूक मलने के बजाय भाभी के माथे को चूम लिया।
मुझे लगा कि माँ-पापा के दुनिया पार जाने के बाद मैं धरती के अंदर चला गया था, अब बाहर आ गया हूँ। मगर भाभी ने चूमने को चूमने की तरह ही लिया। वह हल्की घबराहट
के साथ अपने बेटे को उठाते हुए खड़ी हो गईं। फिर मेरी तरफ अनमने ढंग से देख कर कहने लगीं - "आप सयाने हो गए हैं। मेरी बात माने होते तो अब तक आप फौज में नौकरी
कर रहे होते, फिर मैं अपने से भी सुंदर लड़की छाँट कर आपकी शादी करवा देती। तब आपको मेरी तरफ ऐसे देखने की जरूरत नहीं होती।" मैं सन्न रह गया था। इस सन्न होने
ने, मेरे खून को जमा दिया था। मैं कहना चाहता था कि नहीं भाभी आप गलत सोच रही हैं लेकिन मैं तो अरसे बाद धरती के नीचे से आया था और दुनिया पार जाने के बाद भी इस
दुनिया में माँ के माथे को चूमा था इसलिए गलत सही की बात करना मुझे घृणा जैसा लगने लगा। मैंने उस आरोपित चुंबन को अपनी स्मृतिय़ों में जज्ब किया और बनारस चला
आया।
समय बीतता गया और मेरे साथ दो चीजें अच्छी हुईं। मुझे अब ट्यूशन वाला कठिन काम करने में मजा आने लगा और मैंने एक कोचिंग खोल लिया। घर से पैसा भले नहीं मिलता,
मेरे मकान मालिक के पास भइया-भाभी का फोन जरूर आता। वे मेरे हाल चाल लेकर मुझे जिंदा पाकर खुश हो जाते लेकिन गाँव आने के लिए कभी नहीं कहते। इस बीच मुझे फोन आया
कि भैया अपने हिस्से की जमीन बेच रहे है। मैं कुछ कहना चाह रहा था लेकिन उन्होंने गाँव की बदहाली और शहरों की चमक को लेकर ऐसा समझाया कि मैं समझ गया कि यह
समझाइश मुझे चुप कराने के लिए है। मैं चुप रहा और भइया ने गाँव की कुछ जमीनें बेच कर अपने ससुराल वालों के साथ मिलकर लखनऊ में जमीन खरीद ली। मेरे रिश्तेदार और
गाँव वाले इस बाबत मुझे भड़काते लेकिन मुझे अच्छा लगता कि भइया घर की जिम्मेदारियों से अलग अपनी जिंदगी के लिए कुछ कर रहे थे।
दूसरी चीज मेरे साथ अच्छी हो रही थी कि मेरे पास पैसे रहने लगे थे। पर दुख इस बात का होता कि मैं अपना पैसा खर्च नहीं कर पाता। जो दोस्त थे, वे गाँव में थे और
मेरा गाँव फलक के पार चला गया था, जहाँ जाने की इजाजत मेरा वक्त नहीं दे रहा था। घर में उपेक्षा मिलने की वजह से मेरे अंदर एक बेरुखी आ गई थी जिससे मैं दोस्त भी
नहीं बना पाया था। भइया-भाभी को मैं पैसे भेजना चाहता लेकिन मेरे भविष्य को लेकर उन्होंने कहा कि आगे तुम्हारे काम आएँगे सँभाल कर रखो। मैं कहना चाहता था कि मैं
एक बार अपने अतीत को जीना चाहता हूँ लेकिन वे मुझ से अब बात करने से बचने लगे थे। उन्हें लगने लगा था कि मैं उनके साथ रहूँगा तो लखनऊ वाली जमीन के लिए हिस्से की
बात करूँगा जिसकी कीमत दो लाख रुपये के हिसाब से सालाना बढ़ रही थी। एक तरह से अघोषित रूप से मुझे अलग कर दिया गया था।
मैं बिल्कुल अकेला होता जा रहा था। न जाने क्यों वैसी लड़कियाँ भी मुझे नहीं मिलती जिनके बारे में सुन रखा था कि दुनिया में अय्याश लड़कियों की एक अलग जमात हुआ
करती हैं जिन्हें पैसे वाला यार चाहिए होता है। कहते है ना कुत्ते का भी एक दिन आता है। कुछ वैसा ही दिन था। उस दिन मैं बीएचयू के गेट से जब बाहर निकल रहा था।
बीए का एनट्रेंस देने के लिए आई एक लड़की मेरे बगल से गुजर रहे एक आदमी से आईटी फेकल्टी का पता पूछ रही थी। उस राही को धन्यवाद जिसको यह पता मालूम नहीं था। मैं
हालाँकि अस्सी घाट पर बैठने जा रहा था मैंने पता बताने के बजाय कहा "कि चलिए उधर मुझे भी जाना है।" उस छोटी सी दूरी में मैंने अपना नाम प्रेममणि बताया और उसका
नाम जाना कि वो जयंती है। नाम के बाद कहाँ से है आप और हम की बात उठी तो पता चला कि वो मेरे भाभी के गाँव की है। वह लड़की मेरे भाभी की पसंद की लड़की नहीं थी
लेकिन भाभी से एक हद ज्यादा सुंदर थी। पता नहीं क्यों उन दिनों लगने लगा था कि भाभी से एक हद आगे की चीजों में मेरे प्राण बसते हैं।
उस पहचान को एक नींव देने के लिए मेरी तरफ से यह बड़ी बात थी। इसलिए मैं जयंती के पेपर का हाल चाल लेने के लिए, आईटी फैकल्टी पर छोड़ते हुए कहा कि आप एक्जाम देकर
आइए, मैं आपका कैंपस के विश्वनाथ मंदिर के पास इंतजार करूँगा। वो एक्जाम देकर मुझे खोजते हुए आई शायद उसका पेपर अच्छा गया था। मैं पेपर का हाल चाल लेने के बाद
जयंती को अपने कमरे पर ले जाने के बारे में सोचा और जब सोची बात मेरी जबान पर आई तो पहली बार उसकी आँख चमकी और बुझ गई। मैं बात को समझ गया था लेकिन बात निकल गई
थी सो उसे सँभालते हुए अपने निमंत्रण के पहले वाक्य में एक वाक्य और जोड़ना चाहते हुए कहा कि - "अगर आपको दिक्कत न हो तो।" अभी "तो" के आगे मेरी बात जुड़ने वाली
ही थी कि जयंती ने अचानक से आप से तुम पर आते हुए कहा कि "मैं क्यों चलूँ तुम्हारे कमरे पर?"
इस बिहैव में हुए अचानक तब्दीली देखकर मुझे हैरान होना चाहिए था। घबराने की हद तक घबराना चाहिए था और अपने पैरों के नीचे की जमीन तलाशनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा कुछ
भी महसूस नहीं हुआ क्योंकि मैं भाभी द्वारा चूमने को चूमना ही मानते हुए देख चुका था। इसलिए भाभी वाले अहसास के बरक्स जयंती का आप से तुम पर आना भीड़ भरे रास्ते
में किसी से स्वाभाविक तौर पर टकराने से ज्यादा कुछ नहीं था मेरे लिए। इसलिए जयंती के जवाब में हकलाते हिचकिचाते यह दलील देना कि आप मेरी भाभी के गाँव की है।
कुछ तो आदर करना चाहिए। ऐसी दलील के बजाय मैंने बिना मिर्च मसाला लगाते हुए, हल्की मुस्कान के सहारे से कहा कि "चाय पीने के लिए और किस लिए? इस बात पर उसकी बुझी
आँखें एक बार और चमकीं। फिर उसने इधर-उधर देखा। आस-पास चाय की दुकाने सजी हुई थी और लोग भी वैसे ही भरे हुए थे। कुछ पल देखने और सोचने के बाद अचानक से वो फिर
तुम से आप पर आ गई - "चलिए आप के यहाँ चाय पीना ही अच्छा होगा।"
चाय बनाते हुए मैं हवा के झोंके से बार बार बंद हो जा रहे दरवाजे को बार-बार खोलता ताकि बंद कमरे की फैंटसी कमरे में न रह जाए और जयंती मेरे बारे में सोचने के
अलावा कुछ और न सोच पाए। फिर भी उसने मेरे कमरे पर बहुत डरते हुए चाय पी। मैं उसे छोड़ने गया तो वह खुश थी। मैंने इस खुशी को उस दिन कुछ और समझ लिया था लेकिन
उसने बाद में मुझ से बताया कि उस दिन मैं इसलिए खुश थी कि तुमने मुझे सही सलामत छोड़ दिया था।
हम एक ही जाति के थे फिर भी प्रेम हमारे समाज में हैसियत और माँ-बाप की गठरी में ही बँधे हुए होते थे। इसीलिए जब जयंती और मैंने शादी करने की बात की तो जयंती के
घर में बवाल हो गया। जयंती के घर वालों ने मेरे बारे में पता किया तो पता चला कि लड़के के पास गाँव में बचे पुराने घर के अलावा कुछ नहीं है। जो है सब इसके भइया
के पास। भाभी जयंती के गाँव की थीं और भइया उस गाँव के दामाद इसलिए मेरे अनैतिक कर्म के बरक्स भाभी को अपना नइहर रास आया और भइया ने दामादगिरी का नमक अदा किया।
दोनों जयंती के परिवार की सामूहिक तस्वीर में शामिल हो गए थे और हम दोनों को किसी भी तस्वीर में एक साथ नहीं देखना चाहते।
एक कहावत है कि दोस्त तो दोस्त भगवान दुश्मन को भी बेवकूफ ना बनाए। इसलिए भाभी की समझदारी मेरे हक में चली गई थी। वरना मैंने तो जब से जयंती के पापा की धमकी सुन
रखी थी तब से ही मेरी तरफ देख लेने वाला हर आदमी मुझे हत्यारा दिखाई देने लगा था। मेरी काली करतूत से भाभी किसी खिचखिच में न पड़ जाए और उनके मायके वालों की
जयंती के घरवालों से कुछ अनबन न हो इसलिए सबको समझा दिया कि "बाँधी तो गाय ही जाती है साँड़ को कहीं बँधा हुआ देखा है किसी ने? हो हल्ला करने से अच्छा रहेगा कि
इज्जत बचाई जाय और बिगड़े को बनाया जाय।" इसलिए मैं अपने गुनाह के साथ परिधि में चला गया मगर गाय को फिर से बाँधा गया, उसे समझाया गया, पीटा गया, सरकारी नौकरी
वाले लड़के से शादी तय की गई। मगर जयंती गाय हो तब तो बँधी रहे। उसके पास चार पैरों के बजाय दो ही पैर थे लेकिन दो हाथ ज्यादा थे जो किन्हीं और दो हाथों से
मिलने के लिए बेचैन रहते थे। जयंती मेरे पास चली आई और अपनी बीसों अँगुलियों को मेरी बीसों अँगुलियों में पिरोने लगी।
मेरा घर तो छूट ही गया था। जयंती के इस फैसले ने जयंती के घर को भी छुड़ा दिया था। मैंने जिस नए घर की कल्पना कर रखी था वह समय के साथ इतना एकाकी हो जाएगा मुझे
नहीं पता था। मेरे हाल-चाल की खबर कभी कभार भइया भाभी ले लिया करते थे लेकिन जयंती को पूछने वाला कोई नहीं रह गया था। भाभी मेरी इतनी शुभचिंतक हो गई थी कि वह
मुझसे जताने की कोशिश करतीं कि आप को उस लड़की ने बहका दिया नहीं तो आप की शादी ऐसी होती की दुनिया देखती। शायद इसीलिए जयंती को वह देखना नहीं चाहतीं। जयंती ने
मानो जिंदगी के हर नुक्ते को पहचान लिया था इसलिए ऐसी सहूलियतों से बचने की कोशिश करती। उसे पढ़ना और आगे बढ़ना अच्छा लगता लेकिन जब गलियाँ होली के रंगों से भर
जाती, दीवाली में दीवारें रोशनी पर खड़ी नजर आतीं और छठ में सारा शहर दियों पर चलता नजर आता तो उसके आँखों के कोरों से प्यासे बादल की नमी ढुलकने लगती।
समय बीतता जा रहा था लेकिन आनेवाले हर समय में कुछ अधूरा बीत जाने की कशिश साथ चलती। फिर भी हम खुश रहने की कोशिश करते। जयंती मुझे मेरे घर के नाम मुन्ना से
पुकारती और मैं उसे चलनी पुकारता जो उसका घर का नाम था। वह कभी मेरा भइया बनती, कभी भाभी, तो कभी अपनी माँ तो कभी कुछ और मैं भी कुछ और बनकर जवाब दिया करता।
दिनों के ऊब के बाद जब वह कहती "मुन्ना तुम क्या दिनभर कोचिंग के पीछे भागते रहते हो। जाओ जयंती को कहीं घुमा लाओ, तुम्हें सोचना चाहिए तुम्हारे लिए घर से भाग
आई है। मैं उसे गंभीरता से लेता और जयंती को तैयार होने के लिए कहता तो वह भाभी बन जाती - "बीवी को ज्यादा सर पर मत चढ़ाइए देवर जी, नहीं तो साँस लेने के लिए
तरस जाएँगे।" तब मैं कहता - "तो क्या भइया साँस नहीं लेते हैं भाभी?" इस पर वह गुस्साते हुए कहती "जाइए जो मन करे वो करिए, मेरी सुने होते तो आपकी ऐसी हालत
होती?" या फिर जब कभी जयंती मुझ से नाराज हो जाती तो मैं उसकी मम्मी बन के कहता -
"चलनी पति से नाराज हुआ जाता है कहीं जाओ उसके पास... खुद बात करो, देखो तो वो कितना अकेला है? "
"अरे वाह मैं कितनी अकेली हूँ इसकी परवाह है किसी को?"
"तो क्यों अकेली हो? मुन्ना तेरे साथ नहीं है?"
"मुन्ना को क्या चाहिए उसे पता चले तब तो वो साथ रहेगा या कहीं रहेगा?"
तब मैं उसके पास जाकर हौले से उसके हाथ को दबा देता और वह कहती कि हटिए मुझे हर समय मजाक अच्छा नहीं लगता। मैं उससे हर समय क्या अच्छा लगता है जानने के लिए जिद
करता और वह कुछ न बताने की जिद ठान लेती। इतने में हम इतने करीब आ जाते कि फलक के पार चले जाते और सुबह में हमारी उँगलियाँ फँसी हुई मिलतीं। कभी कभी की नाराजगी
और हर बार की करीबी से हम जी रहे थे लेकिन अपने-अपने घरों की याद मरने से कम नहीं अखरती और इसी बीच हमारे बीच नन्हीं परी आ गई।
जयंती की चार भाई-बहनों की शादी हुई। भतीजे का मुंडन हुआ। नए घर का गृह प्रवेश हुआ। फिर भी जयंती नहीं बुलाई गई। जयंती ने पहली बार में ही जब उसकी छोटी बहन की
शादी में उसे नहीं बुलाया गया तो उसने फैसला कर लिया था कि अब वह अपने मायके जाने की बात खुद नहीं करेंगी लेकिन मुझे गाँव चाहिए था, घर चाहिए था, ढेर सारे
रिश्ते चाहिए थे फिर मैंने सुन और भइया के मामले में देख रखा था कि सास-ससुर अपने दामाद को बेटे जैसा प्यार करते हैं। इसलिए हमेशा मैं जयंती को मायके जाने की
बात करता और फोन करवाता रहता जिसकी वजह से वह हर बार की हुई अपने फैसले को टालती रहती। फैसले टालने से उसे खुशी मिलती और मैं ये समझने से नहीं चूकता कि इस खुशी
में वह मेरी खुशी से ज्यादा अपने मायके जाने की खुशी महसूस करती। तब मुझे कचोट सी उठती कि जो घर मुझ से छीन गया है और जिसका दुख मुझे सालता रहता है, फिर कैसे
मैंने जयंती को भी वैसे दुख में डाल दिया था। तब तो वैसा लगता जैसे बुखार की तिखाई मेरे स्वाद पर जम जाती जब अहसास होता कि मैंने जयंती से प्यार किया था या अपने
अकेलापन से तंग आ कर अपने नए घर की नींव के लिए इस्तेमाल किया था। बहुत सहमते हुए जयंती से जब ऐसी बातें करता तो चहक जाती कि प्यार जो होता है वो होता होगा, तुम
नए घर के लिए फलक के पार जा रहे हो उसमें मैं भी तुम्हारे साथ जाना चाहती हूँ। बस! और किसी प्यार के होने की बातें मत करना।
जिंदगी में जो मुहावरे आते हैं उनके अर्थ देर से खुलते हैं और जब वे खुलते है जिंदगी महसूस होने लगती है। मैं कोचिंग से ऊब गया था और चीजों को मैनेज करते करते
थक गया था इसलिए जालंधर के एक प्राइवेट कॉलेज में मैथ का लेक्चरर बन कर चला गया। अभी एक साल भी काम नहीं किया था कि दिल्ली के सरकारी मगर अचर्चित कॉलेज में
लेक्चरर बन गया। खबर भइया-भाभी के पास भी पहुँची और जयंती के घर भी। जो भी हो मेरा वक्त आ गया था। भइया के बच्चे बड़े हो रहे थे और उन्हें ऊँची शिक्षा के लिए
बहुत पैसों की जरूरत थी। भाभी को और जमीन लेनी थी जिसके लिए पैसे कम पड़ रहे थे। मैंने इतना कहा कि पैसों के लिए मैं जयंती से बात करता हूँ। भाभी क्षण भर के लिए
चुप हो गईं लेकिन भाभी तो अपनी थी उनका चुप रहना शोभा नहीं देता। "जब जयंती से बात करनी है तो तुम क्या करोगे... फोन दो मैं ही करती हूँ।" मैंने फोन जयंती को
दिया और वो मैं... मैं... मैं... इसमें मुझ से क्या पूछना है। फोन रखने के बाद जयंती मुझ से नाराज हुई कि तुम्हें क्या लगता है मैं भी वैसी ही हूँ। मैंने मजाक
में कहा, "हाँ तुम भी वैसी हो"। मजाक की बात थी फिर भी झगड़े हो गए हमारे बीच। फिर हम एक दूसरे के मम्मी-पापा, भइया-भाभी बने और रात ढलने के बाद सुबह में हमारी
उँगलियाँ फँसी हुई पाई गईं।
बच्ची जब हमसे बात करने लगी, हमारी सुनने लगी और हमें परेशान करने लगी तो अब हम भइया-भाभी, मम्मी-पापा बनने से बचने लगे और हमें लगा कि हम कुछ खो रहे हैं। एक
दिन मैं कॉलेज की ओछी राजनीति से परेशान अपने फ्लैट पर आया कि जयंती की रुलाई सुनाई दी। जयंती को घरवालों ने बुलाया था। जयंती फफक फफक कर रो रही थी और मैं उसे
इसलिए चुप करा रहा था, ताकि पता कर सकूँ कि उसके साथ मुझे बुलाया गया है कि नहीं। वह बहुत मुश्किल से चुप हुई। उसके बाद कोई मेरी खुशी का हिसाब नहीं लगा सकता
था। मैं बनारस शहर में होता तो बस पकड़ कर तुरंत अपने ससुराल के लिए निकल जाता। मगर यह दिल्ली सच में बहुत दूर की कौड़ी है। मैं एजेंट को फोन करके दो-तीन दिन के
अंदर के दो टिकट बुक करना चाह रहा था कि जयंती ने कहा कि इतनी भी जल्दी क्या है कुछ भाव तो खाने दो। मैं फिर जयंती से लड़ बैठा और जो हासिल हुआ उसके अनुसार हमें
बीस दिन बाद जाना था।
ससुराल जाने के लिए मैंने कई सारी तैयारियाँ कर ली थीं। कभी मैं बाल कटवाने के अलावा दाढ़ी बनाने के लिए सैलून नहीं गया था। मगर बीस दिन के अंदर मेन्स पॉर्लर
में जा कर कई बार फेशियल करवा चुका था। अपने लिए हर तरह के कपड़े खरीद लिए थे जिसमें धोती कुर्ता तक को भी नहीं बख्शा था। और तो और मेरे पेट पर चर्बी न चढ़ जाए
इसके लिए भी जो इंतजाम हो सकता थे मैंने कर लिए थे। यह तैयारी सिर्फ अपने लिए ही नहीं जयंती के लिए और अपनी चार साल की बच्ची के लिए भी वैसे ही की थी। जयंती के
हाथ कहीं और खुरदरे न हो जाएँ इसलिए ज्यादातर बरतन मैं ही धुलने लगा था। जयंती के ना ना करने के बाद भी वाशिंग मशीन खरीद ली। मैं अपने ससुराल वालों को हर तरह से
जता देना चाहता था कि तुम्हारी बिटिया दुनिया के सबसे अच्छे लड़के के हाथ में गई हैं। मैं ऐसा करूँ भी तो क्यों नहीं। आखिर मुझे मेरा घर मिल रहा था।
जयंती मेरी खुशी को लेकर सवाल करती है और मैं एक चलताऊ जवाब की "तुम्हारी खुशी मेरी खुशी है" न दे कर जब मैं पूछता हूँ कि "क्यों तुम अपने मायके जाने को लेकर
खुश नहीं हो"? वह जवाब पाने की जगह मेरे इस सवाल से घबरा जाती है। उसे लगता है कि उसकी चोरी पकड़ में आ गई है या फिर वह अभी भी उस डर और उपेक्षा से निकल नहीं
पाई हैं। वह बात बदल के निकल जाना चाहती है। मैं भी कुछ ऐसा नहीं चाहता था कि बीती हुई बातों को फिर से उधेड़ा जाय और कहीं से कोई ऐसा सिरा निकल जाय जिससे मेरे
ससुराल जाने पर फिर से पानी फिर जाय।
कुछ दिनों से मेरे ससुर की तबीयत खराब चल रही थी और उन्हें मरने का डर सता रहा था। उपर से उनके और बेटे बेटियाँ उनसे दूर हैं और उनके पास न आने की उनकी अपनी कोई
मजबूरी है। शायद इसीलिए उन्हें अपनी नालायक बेटी को देखने की इच्छा अचानक से जाग गई थी। ऐसा होने में कुछ हद तक यह भी था कि मैं कोचिंग संचालक से कॉलेज में एक
लेक्चरर हो गया था और मेरी हैसियत बढ़ गई थी। जो भी हो मैं खुश था। बहुत खुश। बस एक चिंता सता रही थी कि मेरे सास-ससुर कही जयंती को पाकर मेरी बिल्कुल अनदेखी न
कर दें क्योंकि मैंने उनकी भोली भाली बच्ची को बहका लिया था।
मैंने ससुराल के हाते में दाखिल होने से पहले जयंती को देखा। उसने हल्की सुग्गापंखी रंग की साड़ी पहनी हुई थी। इससे मैं थोड़ा सशंकित था कि इस रंग में उसकी
उपेक्षा वाली उदासी कहीं बाहर न आ जाय। मैंने जयंती को इस बात के लिए इशारा किया। फिर बिटिया को हँसाने के लिए गुदगुदाने की कोशिश की। मगर जयंती फुदकती हुई घर
में दाखिल हो गई। भीतर से अचानक चिड़ियों की चहचहाहट जैसी ध्वनियाँ आने लगी। मैंने ससुर जी को "पापा प्रणाम" कहते हुए पाँव छुए और उन्होंने आशीर्वाद देने की
बजाय कहा कि "प्रेममणी अच्छा किए तुम आ गए।" फिर उन्होंने अपनी पत्नी को आवाज दिया। वह भागती हुई आई और मुझे देखते ही अपने बड़े लड़के का नाम लेते हुए कहा कि यह
बिट्टू जैसा ही है। मैं कहना चाह रहा था कि दस साल पहले आपने मुझे देखा होता तो आपके पास दस साल से दो बिट्टू होते लेकिन मैं कुछ कह नहीं पाया। मेरे अंदर खुशी
की भँवरे उठ रही थीं लेकिन मैं अभी अपनी माँ के माथे को चूमकर कोई रिस्क लेना नहीं चाहता था।