शंकर पढ़ना चाहता था। कुछ बनना चाहता था वह। दिक्कत बस यही थी कि वह सब कुछ फकत चाहना चाहता था। रामदीन उसे अक्सर लताड़ता, 'पढ़ाई के लिए काया गलानी पड़ती है, मन
मारना पड़ता है। पाउडर मलकर और बूट कसकर सायकिल भगाने से नहीं आ जाती है विद्या।'
शंकर बाप की बातों को अनसुना करके टरक जाता। रोज सुबह ही तो एक बार कलेजा कड़ा करना पड़ता है। फिर तो रामदीन दुकान पर और शंकर लड़कियों के पीछे-पीछे सायकिल की घंटी
टुनटुनाता हुआ सड़क पर। रामदीन जब दुकान बढ़ाकर घर पहुँचता तो शंकर अपनी आँखें किताब में ऐसे गाड़ लेता जैसे दीवार में कील ठुकी होती है। रामदीन को रत्ती भर भी
गुमान न होता कि उसका बेटा मोटी-मोटी पोथियों के बीच में करीने से छुपाकर पतली-पतली टीकाएँ बाँचता रहता है। खाने के बाद बाप के बिस्तर पकड़ते ही शंकर भी धराशायी
तो जाता। फिर तो उसकी रात होती, मन की बात होती... दिन भर जतन से देखी गई लड़कियों को आहें भर-भरकर पुकारता और टीका में पढ़ी गई कहानियों के साथ उनका तुलनात्मक
अध्ययन करता। सुबह होते ही स्वप्न-भंग की स्थिति रहती। पिता से दस मिनट का कव्वाली मुकाबला होता और फिर रामदीन दुकान पर और वह सायकिल के साथ सड़क पर।
जीवन में कई चीजें हादसे के साथ दाखिल होती हैं। शंकर के जीवन में भी कुछ ऐसा ही हुआ। एक रोज उसकी जवानी की पोल बीच-बाजार खुल गई। एक लड़की पर वह कुछ महीनों से
लगातार मेहनत करता आ रहा था और अब वह मेहनत रंग भी ला रही थी। उस लड़की का घर एक टुटपुंजिया रेस्टॉरेंट के ऊपर था। रेस्टॉरेंट के बगल में एक सायकिल की दुकान थी
जहाँ से खड़े होकर शंकर अपने दीदार-कार्यक्रम को अंजाम देता था। लड़की छत पर खड़ी होकर मुस्कुराती थी और वह अपनी सायकिल पर टेढ़ा होकर अकड़ता था। कमबख्त को इतना तो
पता कर ही लेना चाहिए था कि वह टुटपुंजिया रेस्टॉरेंट उसके भाई का है। हालाँकि रेस्टॉरेंट का मालिक जिस तैश में उसकी ओर बढ़ा था, उसे यह समझने में देर नहीं लगी
थी कि केस अब हाथ से निकल चुका है। अंतिम प्रयास के रूप में उसने पलक झपकते ही पास पड़े पंप से हवा भरना शुरू कर दिया था। पीठ दिखाकर भागने से महीनों की मेहनत पर
पानी फिर जा सकता था। रेस्टॉरेंट का मालिक जितना करीब आता जा रहा था, उतनी ही ज्यादा पंप के हत्थे पर शंकर की पकड़ कसती जा रही थी, किंतु उसके ऐन सामने आते ही
इसके हाथ-पाँव काँपने लग गए। पंप किस करवट गिरा और सायकिल किस करवट, यह सब देखने की फुर्सत ही कहाँ थी शंकर को!
उस वक्त तो उसकी पुरजोर धुनाई चल रही थी। कोढ़ में खाज की भाँति किसी ने उसे पिटते वक्त ही पहचान लिया और रामदीन को खबर कर दी। रामदीन के आते ही लड़की के भाई ने
हाथ का काम बंद करके जबान से काम लेना शुरू कर दिया। उसने आक्रामक गालियों के बाद रामदीन को बहुत सख्त हिदायत दी कि अपने सपूत को सँभालकर रखे, वरना किसी दिन
उसकी जान लेने में भी वह संकोच नहीं करेगा। शंकर का गिरेबान झटककर वह रामदीन के सामने से छाती और तोंद फुलाए हुए गुजरा और रेस्टॉरेंट के टेबल पर बैठकर ताड़ के
पंखे से हवा करने लगा। रामदीन ने बिना सिर उठाए हुए ही शंकर की गिरी हुई सायकिल उठाई और धीरे-धीरे आगे बढ़ गया। पीछे-पीछे शंकर भी बढ़ चला, अपने पिता के पदचिह्नों
का पीछा करता हुआ-सा।
शंकर बहुत घबराया हुआ था कि अब बची-खुची कसर बापू निकालेगा, किंतु रामदीन ने इस बारे में शंकर से एक लफ्ज भी न कहा। शंकर पहले यह नहीं समझ पाता था कि प्रेम करना
गुनाह क्यों है! मगर उस दिन जब अपने बापू का झुका हुआ सिर देखा तो उसे सब समझ में आ गया था। उस दिन से बाप-बेटे का संबंध अचानक ही बदल गया था। रामदीन ने उसे कुछ
भी कहना-सुनना छोड़ दिया था और शंकर चाहता कि बापू उसे खूब फटकार लगाए। पहले वह उन लड़कियों की नजर से खुद को देखा करता था जिनके पीछे दिन भर भागता फिरता था। अब
हर पल वह खुद को बापू की नजर से देखता और अपने में ऐब ही ऐब पाता। हालाँकि यह बात तो वह बहुत बाद में समझ पाया था कि पिता के सामने ही कोई उसके बच्चे पर हाथ
उठाए तो पिता के ऊपर क्या गुजरती है। कॉलेज तो पहले भी वह रस्म अदा करने भर को ही जाता था, अब जाकर क्या करता। लेकिन अब वह रोज तीन-चार घंटे दुकान पर बैठने लगा
था। रामदीन उसे दुकान में बैठे देखता तो मन मसोस कर रह जाता कि यह भी दुकानदारी में ही खप जाएगा। परंतु उसे कुछ खुशी भी होती कि आँखों के सामने तो रहेगा। इकलौती
संतान था वह रामदीन की।
शंकर ने जब पढ़ना-लिखना पूरी तरह से छोड़ दिया (उन क्षीणकाय पोथियों के सिवा), तो रामदीन ने धूमधाम से उसकी शादी कर दी और कुछ ही दिनों बाद उसकी एक अलग दुकान
खुलवा दी। दुकान का नाम रखा 'शंकर किराना स्टोर'। शंकर अपने पिता के प्यार का पूरी तरह कायल हो गया। शुरू-शुरू में शंकर का जी दुकान में नहीं लगता था। एक तो नई
पत्नी पर ध्यान लगा रहता, दूसरे अपनी जान-पहचान वाली लड़कियों को देखकर उसे शर्म भी बहुत आती थी। कई बार तो वह उन लड़कियों को दूर से देखते ही किसी-न-किसी बहाने
से ग्राहकों की बगल में आकर खड़ा हो जाता, मानो वह भी ग्राहक ही हो। फिर धीरे-धीरे ठीक होते चला गया। जल्द ही शंकर को एक बेटा भी हो गया जिसका नाम रामदीन ने
प्यार से मुन्नू रखा था। समय मानो पंख लगाए उड़ता चला जा रहा था और शंकर था कि अब भी पहले की ही तरह बेपरवाह-सा बना रहता। रामदीन को उसकी बहुत फिक्र होती,
क्योंकि वह काम-धंधे में मन नहीं लगाता था। महँगाई रोज-ब-रोज बढ़ती जा रही थी और उसी रफ्तार से कमाई घटती जा रही थी। अभी तो उसकी भी एक दुकान है तो घर चल रहा है।
जब वह नहीं रहेगा तो क्या होगा!
शंकर उन चिंताओं को लापरवाही में उड़ा देता - 'चिंता मत करो बापू, अपना मुन्नू भी एक दुकान कर लेगा।'
'मुन्नू के समय तक दुकान हुआ भी करेगी कि नहीं, यह कौन जानता है!' रामदीन भुनभुनाता।
'दुकान नहीं होगी! तुम भी कैसी बातें करते हो बापू! दुकान नहीं होगी तो क्या होगा?'
'मॉल होगा, मॉल!' रामदीन कराहता।
'हाँ, तुम भी बुढ़ापे में सठिया गए हो। इस कस्बे में मॉल होगा? कौन बेवकूफ यहाँ मॉल खोलेगा?'
भले ही शंकर रामदीन की बातों को हवा में उड़ा देता, मगर रामदीन की चिंता दिनोंदिन बढ़ती जाती थी। उसे मालूम हो चुका था कि उसकी दुकान से थोड़ा ही आगे एक विशाल सुपर
मार्केट खुलने वाला है। उस दिन भी शंकर ने शाम ढलने से पहले ही दुकान बढ़ा दी थी और अभी चाभी की नोक से सायकिल के ताले का छेद टटोल ही रहा था कि पीछे से मुरारी
ने एक छेड़ लगाई - 'यह दिन-दुपहर दुकान बंद करके कहाँ गायब हो जाते हो, शक्कू? क्या बाप ने इसीलिए दुकान खुलवाई थी?'
'हाँ, इसीलिए तो, ताकि किसी का नौकर न रहूँ, अपनी मर्जी से जी सकूँ, जैसे मेरा बापू जीता है।'
'लेकिन वह तो इतनी जल्दी दुकान बंद नहीं करता!'
'वह उसकी मर्जी है। जीता तो अपनी मर्जी से ही है न?'
शंकर मुस्कराता हुआ ताला खोलकर सायकिल पर बैठा ही था। मुरारी ने उसके जाते-जाते हाँक लगाई - 'शक्कू मेरी जान! अब तो सुधर जा।'
'चुप बे प्यासा कौआ, तू पहरेदारी कर मेरी दुकान की, आज पेट भरने लायक कमाई हो गई है।'
शंकर सायकिल उड़ाता निकल गया और थोड़ी दूर जाकर गुब्बारे वाले के पास रुका। वहाँ उसने पाँच रुपये का एक गुब्बारा खरीदा और सायकिल आगे बढ़ा दी। गुब्बारे के बिना वह
मुन्नू से आँखें मिलाने का साहस नहीं कर पाता था। मोम का दिल था शंकर का जो बेटे की याद में दिनभर पिघलता रहता। यादें जब नियंत्रण रेखा की हदें लाँघ जातीं तो
शंकर जेब में पड़ी सायकिल की चाबी टटोलने लगता था। टीकाओं का नियमित अध्ययन तो संभव नहीं रह गया था, इसीलिए सारी कसर अब अखबार पर निकलने लगी थी। दुकान में जब भी
खाली वक्त मिलता तो वह पढ़े हुए अखबार को ही दुहराने-तिहराने लगता। उसके बाद पड़ोस के दुकान वाले अकरम और मुरारी से जी भर बहसें करता।
उस दिन अखबार खोला तो तीसरे ही पृष्ठ पर सुपर-मार्केट के खुलने की खबरें दीदा फाड़कर शंकर को चिढ़ा रही थीं। उस सुपर-मार्केट का विज्ञापन अलग-अलग तरह की खबरों की
शक्ल में पूरे पृष्ठ पर पगलाए साँड़ की भाँति कहर बरपा कर रहा था। शंकर कुढ़ कर रह गया और आगे पढ़े बिना ही अखबार बंद करके दुकान से बाहर निकल आया। झाँककर देखा तो
मुरारी की दुकान में भी कोई ग्राहक नहीं था। उसने वहीं से हाँक लगाई - 'प्यासा कौआ, बाहर आ जाओ। अब दुकान में बैठे रहने से प्यास नहीं बुझेगी।' मुरारी अनमना-सा
बाहर निकल आया।
'पता नहीं आज लोग कहाँ चले गए हैं! सुबह से अभी तक पाँच रुपए की भी बोहनी नहीं हुई।'
'अपना भी वही हाल है बेटा। जब नून-तेल नहीं बिक रहा तो तुम्हारा क्रीम-पाउडर खरीदने कौन आएगा?'
'हाँ यार, पता नहीं, आज लोग देर तक क्यों सो रहे हैं।'
'सो नहीं रहे हैं, बल्कि कहीं और से खरीद रहे हैं।'
'अच्छा? सारे ग्राहक सौदा खरीदने के लिए दिल्ली-बंबई चले गए?'
'दिल्ली-बंबई ही समझो।'
'देख शक्कू, सीधे-सीधे बता। पहेलियाँ मुझे समझ में नहीं आती हैं।'
'बात यह है प्यासे कि यहाँ से थोड़ा ही आगे जो मोड़ दिख रहा है, वहाँ पर एक सुपर-मार्केट खुल गया है। सभी ग्राहक वहीं जा रहे हैं।'
'तेरा दिमाग सटक गया है क्या? इस कस्बे में सुपर-मार्केट क्यों खोलेगा कोई?'
'जिस कारण से शहर में खोलता है।'
'लेकिन यहाँ उसमें जाएगा कौन बेवकूफ?'
मुरारी भी इस खबर से घबरा गया था। मानो जंगल का कोई हिंसक शेर बस्ती में आ गया हो और जो कभी भी किसी को चबा जाने को तैयार हो। उसके मन का चोर शंकर से सारी बातें
जल्द से जल्द उगलवा लेना चाहता था।
'यहाँ उसमें तेरे सास-ससुर जाएँगे। बल्कि गए हुए होंगे, मिल आओ वहाँ जाकर।'
मुरारी शंकर के उत्तर से कुढ़कर रह गया। कुछ देर तक दोनों अकारण ही सड़क पर गुजरती गाड़ियों को ध्यान लगाकर देखते रहे। थोड़ी देर बाद शंकर मुरारी की ओर मुड़ा - 'सुनो
प्यासा, बोहनी मेरी भी नहीं हुई है। अपनी जमा पूँजी से मैंने चार रुपये में अखबार खरीदा है, लेकिन तुम उसे मुफ्त में पढ़ सकते हो। उसमें सुपर-मार्केट की सारी
खबरें विस्तार से छपी हैं।'
मुरारी बिना हिले-डुले वहीं खड़ा रहा। उसका सारा उत्साह मर चुका था। थोड़ी देर बाद दोनों अकरम की दुकान पर गए। अल्लाहताला की दुआ से उसकी दुकान में दो ग्राहक
मौजूद थे। ग्राहकों के रुखसत होते ही मुरारी ने अकरम की ओर एक जुमला उछाला - 'खूब चाँदी काट रहे हो मियाँ।'
इन दोनों को बाहर खड़ा देखकर अकरम काउंटर की हदों से छलाँग मारकर बाहर निकल आया - 'हाँ, चाँदी तो खूब कट रही है। एक ने दो माचिस खरीदी और दूसरे ने एक रिन साबुन।
इससे कितनी चाँदी कटेगी?'
'बोहनी तो हो गई न मेरे लाल, हम तो उतने के लिए भी तरस गए हैं आज।'
शंकर पता नहीं किस ध्यान में चुपचाप खोया हुआ-सा था। अकरम ने टोका... 'क्यों शंकर, बहुत चुप-चुप से हो? आज का अखबार नहीं पढ़ा?'
'अखबार ने ही तो चुप करवा दिया है, दोस्त। क्या होगा, कुछ समझ में नहीं आ रहा है।'
'तुम सुपर-मार्केट के कारण तो परेशान नहीं हो?'
'तुमने सही समझा।'
'इतना निराश नहीं होते यार। दो-चार महीनों में सुपर-मार्केट का बुखार उतर जाएगा।'
'भगवान करे ऐसा ही हो।' शंकर ने उदास-सा जवाब दिया।
'और लोग सारी चीजें लेने सुपर-मार्केट ही तो नहीं जाएँगे न! हमारी दुकानें भी चलती रहेंगी और उनकी भी।
'अगर दो माचिस और दो साबुन बेच लेने से गुजारा चल सकता है तो बेशक हमारी दुकानें चलती रहेंगी।'
अकरम की हौसला बढ़ाने वाली बनावटी बातों से शंकर को चिढ़ हो रही थी। एक व्यक्ति को अपनी दुकान की ओर बढ़ता देख शंकर तेजी से अपनी दुकान की ओर लपका। अकरम और मुरारी
बातों को बढ़ाने में लगे रहे। एकाध हफ्ते बाद फिर से सुपर-मार्केट की खबरें अखबार में छाई हुई थीं। एक मंत्री ने उसकी बहुत तारीफ की थी और यह खबर अखबार के पहले
पृष्ठ पर बहुत प्रमुखता से छापी गई थी। ऐसी खबर बनाई जा रही थी मानो इसके खुल जाने से पूरे शहर में खुशहाली छा गई हो। जब से सुपर-मार्केट खुला था तब से मुरारी
भी अखबार में दिलचस्पी लेने लगा था। उस दिन भी शंकर को अखबार में डूबा देखा तो काउंटर पर टिककर खड़ा हो गया... 'क्या छपा है, शक्कू?'
'हमारी बर्बादी का जश्न मना रहे हैं लोग, उसी की खबर आई है।' शंकर ने अखबार मोड़कर मुरारी की ओर बढ़ा दिया। मुरारी ने अखबार खोलकर काउंटर पर बिछा दिया और खड़े-खड़े
ही पढ़ने लगा। थोड़ी देर बाद शंकर बोला... 'जो छापना है छापें, लेकिन दो लाइन में कहीं पर इतना-सा भी तो लिख दें कि इस सुपर-मार्केट की वजह से दो-तीन सौ
दुकानदारों के घरों में मातम छाया हुआ है! सबके-सब चमचे हो गए हैं।'
'हमारी हालत की जानकारी नहीं होगी उन्हें।'
'अच्छा! हम इतने सालों से यहाँ हैं और उन्हें हमारी ही हालत की जानकारी नहीं है?'
'हो सकता है न हो। देखा नहीं था, सुपर मार्केट वालों ने कितनी घूमधाम से अपनी दुकान का उद्घाटन किया था? हजारों रुपए की तो मिठाइयाँ ही बाँटी थीं। इसीलिए उनकी
खबर सबको लग गई।'
'जो भी हो प्यासा, हमारी खबर भी अखबार में आनी चाहिए।'
'इससे क्या हो जाएगा? सुपर-मार्केट वाले अपनी दुकान बंद कर लेंगे?'
'न करे बंद, पब्लिक तो कुछ सोचेगी और पब्लिक सोचने लगी तो उसके डर से सरकार भी कुछ सोचेगी।'
'हाँ यार, यह बात तो है। चलो अकरम से बात करते हैं।'
अकरम ने बताया कि उसके मुहल्ले में ही एक पत्रकार कमलेश जी रहते हैं। अगर चाहो तो उनसे बात की जा सकती है। इन लोगों की बातें सुनकर अकरम की दुकान पर साबुन
खरीदने आए एक व्यक्ति ने पूछा, 'क्यों भैया, सुना है वो सुपर मार्केट वाले अपनी दुकान में मांस-मछली भी बेचते हैं?'
'मांस-मछली ही नहीं, साग-भाजी भी। लेकिन तुम यह क्यों पूछ रहे हो?' शंकर ने उससे पूछा।
'मेरा नाम तैयब है भैया जी। मैं उधर सड़क पर मछली बेचता हूँ। अभी तो मेरा धंधा ठीक चल रहा है, लेकिन जब सबको वहाँ के बारे में पता चल जाएगा तो मेरे यहाँ से कौन
खरीदेगा?'
'क्यों नहीं खरीदेगा?' मुरारी ने उससे जानना चाहा।
'क्यों खरीदेगा भैया जी, आप ही बताइए। बड़ी दुकान से लेने में लोगों की इज्जत भी तो बढ़ती है। कल मैंने भी वहाँ से बच्चे के लिए बिस्कुट खरीदी थी। पूरी दुकान ठंडी
लगती है। पंखा चलाने की भी जरूरत नहीं। साथ में लॉटरी जैसा एक टिकट भी दिया था।'
'सही कहते हो तैयब। चलो, बाहर आ जाओ, दुकान बढ़ानी है।' अकरम ने सबको बाहर निकलने का इशारा किया।
'अभी सुबह ही सुबह दुकान बढ़ानी है?' तैयब हैरान हो रहा था।
'सुना नहीं अभी, हमलोग एक पत्रकार से मिलने जा रहे हैं?' अकरम ने कहा।
'और दुकान में अब आते भी कितने लोग हैं! चाहे खुला रखो, चाहे बंद, क्यों प्यासा?' मुरारी से शंकर ने पूछा।
'सही कहते हो भाई।' मुरारी ने सहमति जताई।
'मैं भी चलूँ आप लोगों के साथ? आज नहीं तो कल मेरा भी तो वही हाल होने वाला है।' तैयब ने साथ चलने की इच्छा जताई।
'चलो तुम भी। देखें क्या हो सकता है।'
अकरम ने दुकान बंद करने की व्यस्तता के बीच जवाब दिया। चलते-चलते लगभग बीस लोग साथ हो गए थे। यहाँ तक कि पानवाला विनोद भी साथ लग गया था - 'क्या पता, साले किसी
दिन पान भी बेचने लगें।'
कमलेश जी घर पर ही थे। बीस लोगों के इस हुजूम को देखकर के घबरा-से गए कि ये लोग किसी गलत इरादे से तो नहीं आए हैं! अकरम ने उनके बाहर आते ही साफ कर दिया था कि
सभी लोग उनसे कुछ विनती करने आए हैं। यह जानकर कमलेश जी सहज हो गए थे। शंकर ने सबसे आगे बढ़कर अपनी नाराजगी प्रकट की - 'आपने इतनी बड़ी-बड़ी खबरें छाप दीं
सुपर-मार्केट की और हमारी बर्बादी पर एक शब्द भी नहीं मिला?'
'क्या बर्बादी हुई तुम लोगों की?'
'हम सब भूखों मरने को मजबूर कर दिए गए हैं, यह कोई खबर नहीं है आपके लिए?'
'सुपर-मार्केट वाले कोई जबर्दस्ती तो करते नहीं हैं। ग्राहकों की जहाँ मर्जी होगी वहाँ जाएँगे।'
'बस, इतनी-सी बात है?' मुरारी चिढ़ गया था कमलेश जी की बातों से।
'और क्या है?'
'और क्या है यह तो आप जैसे पढे-लिखे लोग ही समझते होंगे सर, हमें तो केवल इतनी-सी बात समझ में आ रही है कि एक दुकान के कारण जब हजार से ज्यादा लोग भूख से मरने
को मजबूर हो रहे हैं तो कुछ गलत जरूर है।' अकरम ने जवाब दिया।
'इसमें गलत क्या है मेरे भाई? तुम्हीं लोगों की दुकानें बड़ी-छोटी नहीं हैं? किसी की ज्यादा चमक-दमक वाली तो किसी की उजड़ी-उजड़ी सी नहीं है?'
'लेकिन इससे किसी परिवार का पेट तो नहीं कटता था, साहेब?' मछलीवाला तैयब भी बहस में शामिल हो गया था।
'हम एक ही दुकान में सारी चीजें नहीं बेच सकते थे। सबकी अलग-अलग तरह की दुकानें थी, इसलिए सबलोग कमा-खा लेते थे।' अकरम ने कहा।
'यह तो अपनी-अपनी औकात की बात है। उनकी हैसियत बड़ी है, इसलिए दुकान भी बड़ी है। इसमें जोर-जुलुम कहाँ से आ गया?' कमलेश जी ने जवाब दिया।
'आप हमें केवल यह समझा दीजिए कि इस एक दुकान के खुलने के कारण हम भूखे मरने पर क्यों मजबूर हो गए?' मुरारी यह जानने को बेताब हो रहा था।
'अपने ग्राहकों से कहो कि पुराने रिश्तों की लाज रखें और सामान तुम्हारी दुकान से ही खरीदें।'
'यह कोई कैसे कह सकता है कमलेश जी?' अकरम ने बात स्पष्ट करनी चाही - 'वे लोग हजारों रुपये के लड्डू बाँट सकते हैं, दुकान के आगे दो जोकर नचवा सकते हैं, दस तरह
की छूट और लौटरी के कूपन दे सकते हैं, हम कैसे पकड़ कर रखें ग्राहकों को?'
'तुम लोग भी लगाओ कुछ तिकड़म।' कमलेश जी सुपर-मार्केट के पक्ष में मजबूती से डटे थे।
'कैसे लगाएँ सर!' शंकर गिड़गिड़ाया - 'हमारे पास इन तिकड़मों के लिए पैसे कहाँ हैं? वे पैसे वाले हैं, कुछ दिन तक अपना सामान मुफ्त में भी लुटा सकते हैं...'।
'मगर मैं क्या करूँ? मैं तो उस दुकान का मालिक हूँ नहीं!' कमलेश जी इन लोगों की बातों से अब खीझ रहे थे।
'आप हमारी मजबूरी लिख तो सकते हैं?' शंकर ने निवेदन किया।
'मेरे लिख देने से क्या छप जाएगा?'
'क्यों नहीं छपेगा?' सभी एक साथ चौंक पड़े।
'बस, समझ लो कि कुछ हमारी भी मजबूरी है।'
कमलेश जी अपनी बात खत्म करके रहस्य भरी मुसकान फेंकते रहे। थोड़ी देर तक ये लोग उनके आगे रोने-गिड़गिड़ाने के बाद अपनी-अपनी दुकानों में आकर विराज गए और आँखें
फाड़कर ग्राहकों की राह तकने लगे। कुछ दिनों से शंकर शाम ढलने तक ही नहीं, बल्कि रात उतरने तक भी दुकान खोलकर बैठा रहता था। ग्राहक आएँ - न आएँ, वह इंतजार करता
रहता था। दिनभर में इतनी भी कमाई नहीं हो पाती थी कि रात के लिए अच्छी सब्जी ले जा सके, तो वह घर जाकर करता भी क्या! दूसरे, वह मुन्नू का सामना करने से भी डरता
था। अब रोज पाँच रुपये का गुब्बारा ले जाना संभव नहीं रह गया था। वह सोचता, इतने में तो थोड़ी सब्जी हो जाएगी। किंतु गुब्बारा लिए बिना मुन्नू के सामने जाने की
उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ती थी। दुकान उसके लिए इन समस्याओं से मुँह छुपाकर पड़े रहने की शरणस्थली भी बन गई थी। रात के नौ बजे वह दुकान बंद करता और इधर-उधर टहलते
हुए एक घंटा घर पहुँचने में लगाता। तब तक मुन्नू सो चुका होता था। शंकर भी दो-चार रोटी पेलकर सजनी के बगल में लेट जाता। सजनी पहले तो इसके नींद आने पर भी बातें
कर-करके जगाए रखती, जब तक कि शंकर उसे सुला नहीं देता था। लेकिन जब से कमाई गिरने लगी थी तब से शंकर अपनी निद्रा में भी अकेला होता था और जागरण में भी। कभी-कभी
व्यग्र होकर वह सजनी के गिरेबान में हाथ डाल भी देता तो वह भुनभुनाकर करवट बदल लेती। शंकर अपना-सा मुँह लेकर रह जाता।
किंतु शंकर सबसे ज्यादा बेबस सुबह के समय होता था, जब वह मुन्नू को जी भर के प्यार करना चाहता मगर करने का हौसला न जुटा पाता। एक पिता के रूप में मुन्नू के आगे
स्वयं को वह बहुत लाचार पाता था। उस दिन भी आँख खुलते ही मुन्नू पिता के पेट पर सवार हो गया था। शंकर अभी बहुत नींद में था। बदन थकान से टूट रहा था। रात में
बहुत देर तक चिंता के मारे नींद नहीं आ रही थी। किंतु बेटे को देखते ही उसे लाड़ करने को ललक उठा। झुकाकर उसे छाती से लगा लिया और उसका मुँह चूमने लगा, बाल
सहलाने लगा। मुन्नू ने बड़े अधिकार से पूछा - 'पापा, कल मेरे लिए गुब्बारा लाए थे?'
शंकर ने घबराकर अपनी आँखें मींच लीं, मानो बहुत नींद में हो। ढाई साल का मुन्नू उसके इस अभिनय को खूब समझता था। वह झकझोरने लगा था शंकर को - 'पापा, तुम सोओ
नहीं, पहले बताओ कि गुब्बारा लाए थे?'
'हाँ बेटा, लाया था।'
'लाए थे! वाह!!'
मुन्नू की खुशी देखकर शंकर कराह उठा। हाय री जिंदगी! इस लायक भी नहीं रखा तूने!
'कहाँ है पापा! दे दो।'
'तुम सो रहे थे बेटा। मैंने यही रखा था गुब्बारा। ढूँढ़ो तो, यहीं कहीं होगा।'
मुन्नू फुर्ती से शंकर के पेट से उतरकर गुब्बारा ढूँढ़ने में लग गया। पूरे उत्साह से वह दौड़-दौड़कर सारे घर में गुब्बारा ढूँढ़ रहा था। मुन्नू जितना थक रहा था,
उतना ही ज्यादा शंकर का दिल बैठता जा रहा था। थोड़ी देर बाद मुन्नू नमूदार हुआ, 'पापा, नहीं मिल रहा है गुब्बारा। तुम ढूँढ़ो तो।'
'यहीं तो रखा था बेटा, पता नहीं कहाँ गया।' शंकर व्यर्थ में चादरें फटकराने लगा।
'मुन्नू बेटा, लगता है तुम्हारा गुब्बारा बिल्ली लेकर भाग गई है।'
'हाँ पापा, बिल्ली ही ले गई है। बहुत शैतान है बिल्ली।'
'छोड़ो जाने दो, मैं दूसरा ला दूँगा।'
'ठीक है पापा, तुम आज फिर ले आना गुब्बारा। आज मैं रात होने पर भी नहीं सोऊँगा।'
'ठीक है बेटा।'
'पापा, तुम कितने प्यारे हो!' मुन्नू शंकर के गाल पर चूमने लगा था। मुन्नू के अलग होते ही शंकर अपनी छलक आई आँखों को पोंछकर बिस्तर से उठ गया। रामदीन की दुकान
सुपर-मार्केट के बिल्कुल बगल में ही थी। उसकी दुकानदारी तो पूरी तरह ठप हो गई थी। अब वह दुकान पर बैठने से घर में ही पड़े रहना ज्यादा ठीक समझता था। मुन्नू के
कारण घर में मन भी बहल जाता था, वरना अचानक टूट पड़ी इस विपत्ति से वह पूरी तरह हिल गया था। उसे इस तरह के खतरे की आशंका तो थी, किंतु वह भाँप नहीं पाया था कि
मुसीबत ठीक सर पे आकर खड़ी हो गई है। कुछ दिनों से सभी दुकानदार फुर्सत में होते थे, इसलिए आपस में बैठकर गप्पें मारते रहते। इसी में अपनी समस्याओं पर सब मिलकर
विचार-विमर्श भी कर लिया करते थे। समस्या सब की एक ही थी, अचानक पैदा हुई बदहाली की। दूसरा कोई रोजगार कर लेना इतना आसान नहीं था। दुकान कहीं और हटा भी लेते तो
भी क्या जरूरी था कि वहाँ सुपर-मार्केट जैसा कुछ न खुल जाता। कोई रास्ता नजर नहीं आता था। लगता था कि कोई गला घोंटे जा रहा है और घुटन लगातार बढ़ती जा रही थी।
पता नहीं, किसका दम कब निकल जाए!
शंकर ने अखबार मोड़कर एक तरफ फेंकते हुए कहा - 'रोज अखबारों में किसानों की आत्महत्या की खबरें छपती थीं। हम पढ़ते थे और उसमें सौदा बांधकर देने के लिए अखबार
फाड़कर रख देते थे। टीवी में किसानों की जमीन हड़पे जाने की खबरें देखते थे, मजदूरों पर लाठियाँ बरसाने की खबरें देखते थे और मजे से आँखें मूँदकर सो जाते थे। हमने
अगर किसानों का दुख समझा होता तो आज हमारी यह हालत नहीं होती।'
'उससे क्या फर्क पड़ जाता?' मुरारी ने पल्ला झाड़ते हुए कहा।
'बहुत फर्क पड़ जाता। आज किसान हमारे साथ होते। वे अपनी फसलें सुपर-मार्केट वालों को नहीं, हमें बेचते।'
'शंकर ठीक कहता है।' अकरम ने शंकर की बात का समर्थन किया, 'हमारी बहुमत की लड़ाई सफल भी हो सकती थी। हम मुट्ठीभर दुकानदार कैसे लड़ सकते हैं इनसे?'
'सड़कों पर किसानों-मजदूरों का जुलूस गुजरता था तो हम अपनी-अपनी दुकानों से झाँककर तमाशा देखते थे। आज हम दुकानों के भीतर मरते रहें, कोई तमाशा देखनेवाला भी नहीं
होगा।'
शंकर बोलता ही चला जा रहा था। शंकर की बातों से मुरारी की घबड़ाहट बढ़ रही थी। वह जल्दी-से-जल्दी परिणाम जानना चाहता था - 'ऐसे तो ज्यादा दिन नहीं चल सकता शक्कू,
आगे क्या होगा?'
'पता नहीं प्यासा, क्या होगा!'
हर दिन यही होता था। बातें चाहे जहाँ से शुरू हों, खत्म यहीं पर होती थीं। किसी को यह समझ में नहीं आता था कि कल क्या होगा। सभी पस्त और हताश थे।
अभी हफ्ता-भर भी न बीता था कि मुरारी के बगल वाले एक दुकानदार धनराज साहू ने सल्फास खाकर आत्महत्या कर ली। पैंसठ वर्ष के करीब उम्र थी उसकी। घर में तीन कुँवारी
बेटियाँ और पत्नी रह गई थीं। कमानेवाला वह अकेला था। इस घटना से लोगों का धैर्य जवाब दे गया। आसपास के लगभग सभी दुकानदार अपनी-अपनी दुकान बंद करके धनराज के घर
की ओर चल पड़े। घर के भीतर से धनराज की पत्नी और बेटियों की दबी-दबी-सी रुलाई सुनाई दे रही थी जो बार-बार चीख में बदल जाती थी और चीख दुबारा घुटन में। अंदर मातम
था तो बाहर रोष। धनराज की मौत के आईने में सभी अपना चेहरा निहार रहे थे। इसी माहौल में अकरम ने प्रस्ताव रखा कि 'चलो, धनराज की लाश के साथ सुपर-मार्केट के आगे
धरने पर बैठते हैं। या तो मुख्यमंत्री आकर हमसे बात करें, नहीं तो हम भी वहीं पर अपनी जान दे देंगे।'
'हाँ चलो, आत्महत्या करने से अच्छा है, वहीं जाकर मरें।'
सबने अकरम के प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया। शंकर, अकरम, मुरारी और विनोद ने आगे बढ़कर धनराज की अर्थी को कंधे पर उठा लिया, बाकी लोग नारे लगाते हुए
पीछे-पीछे चल पड़े। रामदीन भी शंकर के बगल में आगे-आगे चल रहा था, अपने आक्रोश की पूरी ताकत से गला फाड़कर नारे लगाते हुए। भीड़ के बीच में रोती हुई धनराज की पत्नी
और बेटी चल रही थी। दो सौ से कुछ अधिक ही लोग इस जुलूस में चल रहे थे। सभी बहुत क्रोधित और संतप्त थे। न जाने किस मोड़ से पुलिस का एक दल भी साथ चल पड़ा था। सभी
सुपर-मार्केट के ठीक सामने जाकर बैठ गए थे। अर्थी को भी वहीं नीचे रख दिया गया था और पूरी ताकत से नारेबाजी करने लगे थे। इस भीड़ को देखने के लिए लोगों का हुजूम
टूट पड़ा था। अर्थी के सिरहाने धनराज की पत्नी और बेटी बैठकर रो रही थी, धूप-बत्ती जल रही थी। स्थिति तनावपूर्ण होकर भी नियंत्रण में थी। सुपर-मार्केट का मैनेजर
इस जुलूस को देखकर तिलमिला उठा। वह बाहर निकलकर पुलिस को फटकारने लगा कि जल्दी से इन लोगों को यहाँ से मार भगाए। पुलिस भीड़ को अनियंत्रित करने का कोई जोखिम मोल
नहीं लेना चाहती थी क्योंकि धनराज का शव भी वहीं था। लोग कभी भी आपे से बाहर हो सकते थे। मैनेजर को देखते ही शंकर, मुरारी, अकरम और तैयब आगे बढ़कर नारे लगाने
लगे, 'सुपर-मार्केट बंद करो।'
पीछे खड़े लोग पूरी ताकत जुटाकर चिल्लाए, 'बंद करो बंद करो!'
'धनराज की मौत का मुआवजा दो!'
'मुआवजा दो मुआवजा दो।'
'दुकानदारों की आत्महत्या पर मुख्यमंत्री जवाब दो।'
'जवाब दो, जवाब दो।'
मैनेजर इन चारों को घूरता हुआ अंदर चला गया। वस्तुस्थिति समझने के बाद बहुत सारे तमाशा देखनेवाले लोग भी इनके साथ हो गए थे। दुकानदारों का हौसला बढ़ चला था।
लोगों ने सड़क को जाम कर दिया था और सड़क के दोनों सिरों पर टायर जला दी गई थी। लोगों का रुख देखकर लग रहा था कि आज सुपर-मार्केट का भी दाह-संस्कार धनराज के साथ
ही कर दिया जाएगा। विपक्षी पार्टी के एक विधायक भीड़ के बीच भाषण देने पहुँच गए थे। लोग मुख्यमंत्री से बात किए बिना वहाँ से टलने को तैयार नहीं थे। पुलिस
मान-मनौवल करना चाह रही था, लेकिन मनाती किसे! उस भीड़ का नेतृत्व करने वाला तो कोई था नहीं। भीड़ का नेतृत्व लोगों के आक्रोश के हाथों में था। थोड़ी देर बाद
जिलाधिकारी भी आ गए थे। सिटी एस.पी. काफी देर से लोगों को समझाने की कोशिश कर रहे थे कि दुकान के आगे से जल्दी से जल्दी हट जाएँ। अपनी माँगें लिखकर दें, उसे वे
मुख्यमंत्री के पास भिजवा देंगे। एस.पी. की बातों से लोगों का रोष घटने की जगह और बढ़ गया था। विपक्ष के विधायक का भाषण आग में घी का काम कर रहा था। दिन चढ़ आया
था लेकिन कोई समाधान निकलता नहीं दिख रहा था। फिर एक-एक करके सभी बड़े अधिकारी वहाँ से हटने लगे। पुलिस की कई गाड़ियाँ अचानक ही प्रकट हुईं और पुलिस अफसरों के बीच
खुसर-फुसर होने लगी। नेताजी वक्त की नजाकत को भाँपने में बड़े माहिर थे। भीड़ के बीच से वे कब और कहाँ लुप्त हो गए यह लोग अभी समझ भी नहीं पाए थे कि चारों तरफ से
धुएँ से घिर गए। यह धुआँ सैकड़ों राक्षसों से भी अधिक क्रूर था जिसकी वजह से न आँखें खोलना संभव हो पा रहा था और न साँस लेना। सभी लोग बचने के लिए आँखें मींचे
इधर-उधर भागने लगे। मगर वे जिस डगर पर भी पड़ते उधर पुलिस की लाठियाँ उनसे जोंक की तरह लिपट जातीं। चारों तरफ से हाय-हाय की चीखें सुनाईं पड़ रही थीं। शंकर ने
बहुत हिम्मत करके एक बार सुपर-मार्केट की ओर देखा, शीशे के भीतर मैनेजर जहरीली मुस्कान फेंक रहा था। उसने पास पड़ा ईंट का एक टुकड़ा उठाया और पूरी ताकत से उस
मुस्कान पर दे मारा। मगर अफसोस कि उस मुसकान पर कोई असर न हुआ। ईंट का टुकड़ा शीशे के दरवाजे से टकराकर थोड़ा-सा पीछे लौट आया, शीशे पर एक खरोंच तक नहीं आई।
दुबारा प्रहार करने की नौबत ही नहीं आई क्योंकि तब तक वह खुद ही पुलिस के प्रहार की चपेट में आ गया था। इसी भगदड़ के बीच पुलिस ने धनराज के शव के साथ पाँच-छह
लोगों को उठाया और सबको श्मशान में ले जाकर पटक दिया। धनराज की पत्नी को दाह-संस्कार के लिए कुछ रुपये देकर इंस्पेक्टर अपने लाव-लश्कर के साथ लौट गया।
जिनका बिगड़ना था, उनका कुछ न बिगड़ा। जिनकी पहले ही बिगड़ी हुई थी, उनकी ही थोड़ी और बिगड़ गई थी। सबसे ज्यादा चोट रामदीन को आई थी। सिर फट गया और एक पैर की हड्डी
टूट गई। शंकर और तैयब अपनी चोट की परवाह किए बगैर रामदीन को उठाकर अस्पताल ले गए।
सुपर-मार्केट के मैनेजर ने अपने सभी सेल्स-मैन को बाहर की सफाई में लगा दिया था ताकि आज की तबाही का कोई प्रमाण शेष न रहे।
जब तकदीर मुँह फेर लेती है तो हर कदम पर आदमी केवल परास्त ही हो सकता है। रामदीन के इलाज के लिए अब घर के बचे-खुचे जेवर बेचने के सिवा और कोई चारा न था। शंकर ने
मन मारकर सजनी से जेवर माँगे और बेचने निकल पड़ा। डॉक्टर ने ऑपरेशन की जरूरत बताई थी। हाथ में कुछ पैसा रखना जरूरी था। अगले दिन दुकान खोलते ही शंकर नीचे पड़ा
अखबार खोलकर कल की खबर तलाशने लगा, मगर उसमें खबर होती तब तो मिलती। हाँ, सुपर-मार्केट की खबर जरूर छपी थी जिसमें सभी सामानों पर पंद्रह प्रतिशत छूट की घोषणा की
गई थी। यह छूट केवल तीन दिनों के लिए थी। तड़प कर रह गया था शंकर। भागा-भागा वह अकरम के पास गया। वहाँ अकरम और मुरारी भी यही बातें कर रहे थे। शंकर ने अपनी खीझ
निकाली, 'हमारे महान पत्रकारों की संवेदना देख रहे हो न, प्यासा? ये हैं हमारे लोकतंत्र का खंभा!'
'सच में यार, यह तो हद ही हो गई।' अकरम ने जवाब दिया।
'कैसी लाचारी है कि हमलोग कुछ नहीं कर पा रहे हैं! धनराज चाचा की मौत ने तो बहुत डरा दिया है, दोस्त।' शंकर वास्तव में बहुत भयभीत लग रहा था।
'चलो, कमलेश जी से मिलते हैं।' मुरारी ने प्रस्ताव रखा।
'कोई फायदा नहीं होगा।' शंकर और भड़क उठा - 'कह देंगे कि हमारी भी कुछ मजबूरी थी।'
'फिर भी शक्कू, एक बार बात तो कर ही सकते हैं।' मुरारी ने आग्रह किया।
'हाँ यार, एक बार चलते हैं।' अकरम भी जाने को तैयार था। अंत में शंकर और विनोद भी साथ चल दिए। संयोग अच्छा था कि कमलेश जी बाहर दरवाजे पर ही मिल गए थे। अगर दो
मिनट की भी देरी हो जाती तो वे ऑफिस निकल जाते। उस दिन इन लोगों को देखते ही कमलेश जी की निगाहें झुक गईं। अकरम ने ही पहले बात शुरू की, 'आप तो समझ ही गए होंगे
कि हम लोग क्यों आए हैं!'
'बताओ, क्या बात है?' कमलेश जी ने कतराते हुए जवाब दिया।
'क्या कल की घटना भी आपकी समझ से कोई खबर नहीं थी?' शंकर ने पूछा।
'ऐसा तो मैंने नहीं कहा!'
'लेकिन आपने कोई खबर भी तो नहीं छापी हमारी। इसे हम क्या समझें?' शंकर अड़ा रहा, 'आपने तो उस दुकान से भारी मात्रा में नकली माल बरामद होने की भी खबर नहीं बनाई।
तीन दिन पहले ही वहाँ पुलिस की छापामारी में नकली माल पकड़ा गया है।'
'और हम हैं कि सही माल रखकर भी नहीं बेच पा रहे।' अकरम ने कहा।
पीछे से तैयब बोला, 'भाई, तुम माल बेचते हो, वे मॉल बेचते हैं।'
'देखो दोस्त, कल की घटना से मैं भी बहुत दुखी हूँ। इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कह सकता।' अब कमलेश जी ने थोड़ी स्पष्ट बात की।
'यह तो कोई बात नहीं हुई! आपके दुखी होने से ही बात खत्म हो गई?'
'लेकिन मैं और कुछ कर नहीं सकता हूँ यार। खबर मैंने बनाई थी मगर संपादक ने हटा दिया।'
'अच्छा? संपादक ने हटा दिया? क्यों?'
'यह तो उसी से जाकर पूछो।'
शंकर चुप रह गया। इससे ज्यादा जिरह करने की स्थिति में वह नहीं था। अकरम ने आगे आकर पूछा - 'मगर कमलेश जी, संपादक से हम कैसे मिल सकते हैं, हमलोग तो आपको ही
जानते हैं।'
'फिर मैं क्या करूँ, बताओ। मैं जो प्रयास कर सकता था वह किया। मेरी क्षमता इससे अधिक नहीं है।'
'तो आप हमें संपादक से मिलवा दीजिए। हम लोग उनसे ही निवेदन करेंगे।' मुरारी ने आग्रह किया।
'हाँ कमलेश जी, आप इतनी कृपा कर दीजिए।' अकरम ने हाथ जोड़ दिए।
'ठीक है, चलो, मैं प्रयास करता हूँ। तुम लोग मुझसे दफ्तर के नीचे पहुँचकर संपर्क करो, मैं वहीं मिलूँगा।'
संपादक से मिलवाने का आश्वासन देकर कमलेश जी स्कूटर में किक मारने लगे और ये चारों सड़क की ओर बढ़ गए। कमलेश जी ने सचमुच अपना वादा निभाया और इनलोगों को प्रधान
संपादक से मिलवा दिया। संपादक इन लोगों को देखकर कुछ हैरान-सा था. 'क्यों मिलना चाहते थे तुम लोग?'
'सर, हम लोग अपनी समस्याएँ आपके अखबार में उठाना चाहते हैं।' अकरम ने बात रखी।
'अच्छा? तुम लोग भी खबरें छपवाना चाहते हो?' संपादक आश्चर्य से मुस्करा रहा था।
'जी सर, हमलोग बहुत मुसीबत में पड़ गए हैं।' शंकर गिड़गिड़ाया।
'किसी की मुसीबत से कुछ लेना-देना नहीं है हमारा। इस अखबार में खबर छपवाने की हैसियत है तुम्हारी?'
'मैं समझा नहीं, सर।' अकरम हकलाया।
'मतलब कि तुम किस हैसियत से खबर छपाना चाहते हो? क्या हक रखते हो इस अखबार पर?'
'हम लोग वर्षों से यही अखबार खरीदते हैं। इस नाते तो कुछ हक बनता है हमारा?' शंकर ने अकड़ते हुए पूछा। शंकर की बात अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि संपादक ठहाका लगाकर
हँसने लगा - 'कमलेशवा, तुम किन नमूनों को उठा लाए हो रे? मैंने तो अपनी जात बिरादरी का जानकर तुम्हें प्रधान संवाददाता बना दिया था और तुम मेरा ही नाम डुबोने
में लगे हो!'
'सॉरी सर, दरअसल, ये लोग बहुत अधिक परेशान थे और...'
कमलेश जी की बात काटते हुए संपादक चिल्लाया - 'शटअप यार, तू फालतू बातें मत किया कर मेरे सामने।'
कमलेश जी सिटपिटाकर रह गए। किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। शंकर ने बहुत हिम्मत करके फिर से अपनी बात दुहराई, 'सर, हम इस अखबार को क्या
इसीलिए खरीदते हैं कि इसमें हमारी बात भी न छपे?'
'देखो भाई, यह अखबार तुम्हारे खरीदने से नहीं चल रहा है। छापने के बाद एक अखबार की लागत आती है पैंतीस रुपये, और तुम्हें बेचता हूँ पाँच रुपये में। तो बाकी के
इकत्तीस रुपये की जो व्यवस्था करता है उसकी खबर ज्यादा जरूरी है या पाँच रुपये वाले की! तुम ही सोचकर बताओ, किसका हक इस अखबार पर ज्यादा बनता है?'
संपादक की बात सुनकर सबको साँप सूँघ गया। शंकर की अकड़ एक ही झटके में ढीली हो गई थी। मुरारी हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए बोला - 'हम सब बेमौत मर जाएँगे सर, आपके पास
बहुत उम्मीद लेकर आए थे।'
'मैं समझ रहा हूँ' लेकिन कुछ कर नहीं सकता।'
'अच्छा! आप भी कुछ नहीं कर सकते?' मुरारी समझ नहीं पा रहा था कि लोकतंत्र के चौथे खंभे में कौन-सा तिलिस्म समा गया है।
'हाँ, मैं भी कुछ नहीं कर सकता। कुछ करना चाहूँगा तो तुमसे पहले मैं मर जाऊंगा।'
'सर आप तो बड़े आदमी हैं, आपका कुछ नहीं बिगड़ेगा। हमारे लिए कुछ करिए,' मुरारी गिड़गिड़ा रहा था।
'यार, तुमलोग बात को समझ नहीं पा रहे हो। तुम्हारी बात छापने से सुपर-मार्केट वाले नाराज हो जाएँगे और उनके कहने पर मेरा मालिक मुझे निकाल बाहर करेगा। प्रत्येक
हफ्ते में दस लाख से ज्यादा का विज्ञापन सुपर मार्केट से आ रहा है। बताओ तुम ही, इस अखबार का मालिक तुम्हारी खबर के लिए यह घाटा उठाने को तैयार होगा?'
'तो हम लोग क्या करें, सर?' अकरम ने पूछा।
'अपनी सरकार से पूछो कि वह ऐसी दुकानें खोलने की इजाजत क्यों दे रही है?'
'सरकार से हमलोग क्या पूछेंगे, वह भी कोई मजबूरी बता देगी! उसके ऊपर क्या कोई नहीं होगा?' शंकर ने व्यंग्य से उत्तर दिया।
'तो धंधा बदल लो। रिक्शा चलाना शुरू करो।' संपादक ने भी तंज कस दिया।
'रिक्शा कहाँ चलाएँगे अब?' शंकर बुदबुदाया।
'क्यों? इज्जत चली जाएगी?' शंकर की अक्खड़ता पर संपादक का आक्रमण जारी था।
'जहाँ जान जा रही हो वहाँ इज्जत का ध्यान भी कहाँ आता है सर, जी। मैं तो यह कह रहा हूँ कि सभी सड़कों पर ऑटो चलने लगा है, रिक्शे पर कौन बैठेगा?' शंकर ने लाचारी
बतायी।
'हाँ, बात तो तुम्हारी सही है।' संपादक ने बनावटी चिंता के साथ कहा - 'अब तो केवल एक ही रास्ता है।'
'क्या सर?' मुरारी ने चौंकते हुए पूछा।
'आत्महत्या कर लो। मरने के सिवा अब और कोई रास्ता नहीं बचा है।' संपादक का ठहाका फिर से कान फाड़ने लगा था।
आत्महत्या की बात सुनते ही शंकर बुरी तरह सिहर गया। उसकी आँखों में धनराज का शव और उसकी बीवी-बच्चों के विलाप का दृश्य कौंध गया। वह हड़बड़ाकर संपादक के कमरे से
बाहर निकल आया। शंकर के पीछे-पीछे बाकी लोग भी निकल आए। कोई किसी से नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। कुछ दूर जाकर अकरम ने सड़क पर थूकते हुए कहा,
'साला, आत्महत्या की बात करता है, खुद क्यों नहीं कहीं डूब मरता। दलाल कहीं का।'
'मैं तो वहीं उसका गला दबा देता, लेकिन बर्दाश्त करके रह गया कि कमलेश जी की नौकरी चली जाएगी।' शंकर ने भी अपनी भड़ास निकाली।
'हाँ यार, उससे उलझने पर कमलेश जी के साथ बुरा होता।' विनोद भी शंकर से सहमत था कि संपादक से उलझना ठीक नहीं होता। मुरारी, अकरम और विनोद वापस दुकान पर आ गए थे
और शंकर अस्पताल चला गया था। रामदीन को सिर में बहुत गंभीर चोटें आई थीं। काफी खून निकल गया था। शंकर अपने पिता की हालत देखता तो उसकी रुलाई निकल जाती। सरकारी
अस्पताल के जनरल वार्ड का रख-रखाव बहुत खराब था। डॉक्टर को भी मरीजों की ज्यादा परवाह नहीं थी। लेकिन शंकर के पास और कोई विकल्प भी नहीं था। घर में पहले से
कंगाली छाई हुई थी, ऐसे में प्राइवेट नर्सिंग होम में इलाज करवाने के पैसे वह कहाँ से जुटाता! शंकर रामदीन के सिरहाने पड़े स्टूल पर बैठ गया और पिता का सिर थपकने
लगा। रामदीन ने अपनी डबडबाई आँखों से एक बार बेटे को निहारा और फिर आँखें बंद कर लीं। कुछ कहने-सुनने की जरूरत नहीं थी। शंकर बहुत देर तक पिता का सिर थपकते हुए
बैठा रहा, फिर यह कहकर उठा कि खाना लेकर आ रहा है। वह अभी दरवाजे तक ही पहुँचा था कि मुरारी और अकरम मिल गए। शंकर चौंक गया - 'तुम लोग यहाँ? सब ठीक तो है?'
'चाचा के लिए खाना लेकर आया हूँ। अब कैसी तबीयत है?' अकरम ने पूछा।
'अभी कुछ नहीं कह सकता। बहुत अधिक खून बह गया है।'
शंकर अपने दोनों मित्रों के साथ पिता के सिरहाने लौट आया था। अकरम और मुरारी ने बहुत जतन से रामदीन को बिठा दिया और शंकर पिता के मुँह में कौर देने लगा। रामदीन
की आँखें बहती जातीं और मुँह यंत्रवत चलता जाता। खाने के बाद रामदीन ने शंकर को भी जिद करके दुकान पर भेज दिया। भले ही दुकान न चले, लेकिन रामदीन का मानना था कि
दुकान जब तक बची हुई है तब तक रोज नियम से उसे खोलना और बंद करना चाहिए। पिता की बात मानकर भारी मन से शंकर अपने दोस्तों के साथ दुकान पर लौट आया था। कुछ दिनों
से शंकर बहुत अधिक परेशानी में पड़ गया था। उसका अखबार पढ़ना तो लगभग छूट ही गया था। अस्पताल से घर और घर से दुकान तक भागते-भागते उसकी आधी जान निकल जाती थी।
रामदीन की हालत दिनों-दिन बिगड़ती जा रही थी। घर में जो कुछ भी बेचा जा सकता था उसे बेचा जा चुका था। सजनी भी बहुत उदास रहती थी। रामदीन को वह पिता से बढ़कर मानती
थी और उसकी बिगड़ती हालत देखकर वह हर वक्त घबराई हुई-सी रहती थी। रोज दिन में मुन्नू को लेकर वह दो-तीन घंटे अस्पताल में बिताती थी। मुन्नू भी अचानक ही बड़ा हो
गया था। उसने गुब्बारे की जिद छोड़ दी थी। एक दिन अस्पताल से वापस आकर शंकर अभी दुकान खोल ही रहा था कि मुरारी ने हाँक लगायी - 'शक्कू, जरा सुनना।' शंकर वहाँ
पहुँचा तो उसने बैठने के लिए स्टूल बढ़ा दिया - 'अब कैसी हालत है चाचा की?'
'कुछ समझ नहीं आता यार। बार-बार बेहोश हो जाते हैं, चक्कर आता रहता है। डॉक्टर कुछ बताते नहीं हैं। जाँच और दवाएँ चल रही हैं।'
'खर्च भी तो बहुत हो रहा होगा!'
'बस, बापू जी जाएँ, घर में जो कुछ था वह सब बिक गया। अब कर्ज लेना पड़ रहा है।'
'हे भगवान!' मुरारी को इससे आगे समझ नहीं आ रहा था कि क्या बोले। थोड़ी देर तक दोनों चुपचाप बैठे रहे। इसी बीच अकरम आ पहुँचा - 'एक बात पता चली तुम लोगों को?'
'क्या?' मुरारी ने पूछा।
'जगदीश और किशन ने सुपर-मार्केट में सेल्समैन की नौकरी कर ली है।'
'अच्छा! वो रेडीमेड स्टोर वाला जगदीश?' मुरारी ने पूछा।
'हाँ, और गिफ्ट सेंटर वाला किशन।'
शंकर भी इस खबर से हैरान था - 'लेकिन उन लोगों ने इन्हें नौकरी कैसे दे दी? वे दोनों तो उस दिन के प्रदर्शन में हमारे साथ ही खड़े थे!'
'इसीलिए तो इन दोनों को रख लिया होगा कि हमारा विरोध कमजोर पड़ जाएगा। हम अपने जैसे लोगों को वहाँ नौकरी करते देखकर हार मान लेंगे।'
शंकर एक लंबी साँस छोड़कर रह गया।
'अच्छा, मैं वहाँ काम करना चाहूँ तो मुझे रख लेंगे?' मुरारी ने पूछा।
'अगर उन्हें आदमी की जरूरत होगी तो जरूर रख लेंगे।' अकरम ने जवाब दिया।
'जरूरत क्यों?' शंकर ने टोका, 'अगर हमारी लड़ाई को ही उन्हें कमजोर करना है तो दो-चार लोगों को हटाकर भी हमलोगों को रखना चाहेंगे।'
'तब तो ठीक है यार शक्कू, यहाँ बैठकर मक्खी मारने से तो अच्छा है उनके नौकर हो जाएँ। बहुत दिन जी लिए अपनी मर्जी से।' मुरारी बोला।
'मैं तो अपनी दुकान बंद नहीं करूँगा, भले ही भूखों मर जाऊँ।' शंकर अपनी जिद पर कायम था।
अकरम ने शंकर की बातों से अपनी असहमति जताई - 'यह तो अक्लमंदी नहीं है दोस्त। दुकान के लिए जान थोड़े ही दे देंगे। कुछ और काम करके जान तो बचानी होगी। अपनी जिद
में बच्चों की कुर्बानी तो मैं नहीं दे सकता।'
'हाँ, सही कहा।' मुरारी बोला - 'जान रहेगी तो हजार दुकानें खुल जाएँगी।'
'सब कहने की बाते हैं। तुम कौन-सा काम करने की बात करते हो?' शंकर ने अकरम से पूछा।
'सोचता हूँ, दिल्ली या कलकत्ता चला जाऊँ। बड़ा शहर है, मेहनत-मजूरी की कमी नहीं होगी।' अकरम ने कहा।
'तुम जा सकते हो तो जाओ, मैं तो अपना देस नहीं छोड़ सकता।' शंकर बोला।
'दिल्ली कोई परदेस थोड़े ही है, बेवकूफ। वह भी अपना ही देस है।' अकरम ने उसे समझाने की कोशिश की।
'मेरे लिए परदेस ही है। इस दुकान ने मुझे माँ-बाप की तरह पाला, मेरी गृहस्थी बसाई, मेरे बच्चे को पाला। ऐसे कैसे छोड़ दें इसे?' बोलते-बोलते शंकर का गला भर्रा
गया था।
तीन-चार दिनों बाद शंकर जब रात में रामदीन को खाना खिला रहा था तो देखा कि अस्पताल के सामने वाले दरवाजे से मुरारी चला आ रहा था। उसके साथ विनोद भी था। शंकर ने
उसके साथ आते ही आश्चर्य से पूछा - 'आज रात में कैसे आए?'
'अब तो हमलोग रात में ही आ पाएँगे।' विनोद ने जवाब दिया।
'ऐसा क्यों?'
'हमने सुपर-मार्केट में नौकरी कर ली है।'
'क्या?' खाते-खाते रामदीन चौंक उठा। बहुत दिनों बाद उसके गले से इतनी तेज आवाज निकली थी।
'क्या करें चाचा, दुकान तो अब नाम करने भर को चलती थी। खुद तो आधे पेट में भी गुजारा कर लें लेकिन बीवी-बच्चों को तो भूखा नहीं रख सकता था।' मुरारी ने उदासी के
साथ कहा।
'हाँ बेटा, सही कहते हो।' रामदीन ने परास्त स्वर में जवाब दिया और उसके बाद अंत तक चुप्पी साधे रखी। इसके बाद कहने को कुछ था भी नहीं। थोड़ी देर बैठकर मुरारी और
विनोद चले गए। शंकर ने पिता को लिटा दिया और पैर की तरफ बैठकर पैर दबाने लगा। थोड़ी देर बाद रामदीन ने धीरे-से कहा - 'तुम भी वहीं नौकरी क्यों नहीं कर लेते हो?'
शंकर पिता की बात से स्तब्ध रह गया - 'वहीं, जहाँ तुम्हारी यह दशा कर दी गई? मैं मर जाऊँगा लेकिन वहाँ नौकरी नहीं करूँगा।'
'जो समय के साथ नहीं बहते, वे टूट जाते हैं बेटा। समय बदल चुका है। जिस भी तरह से पेट भर जाय, वह कर लो।'
'समय बदलने का यह मतलब तो नहीं कि अपने दुश्मनों की चाकरी करूँ? मैं अपनी दुकान का मालिक रहूँगा, किसी का नौकर नहीं।'
'कैसी बातें करता है शंकर! हमारी-तुम्हारी हैसियत ही क्या है कि उनसे दुश्मनी करें? देखा नहीं था, उनकी एक फूँक से ही उड़ गए थे हम! सरकार उनकी, पुलिस उनकी,
कोट-कचहरी उनकी, कैसे लड़ोगे उनसे?'
शंकर चुप रह गया। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दे! थोड़ी देर बाद बोला, 'इससे तो अच्छा है दिल्ली चला जाऊँ।'
'दिल्ली जाकर क्या मिनिस्टर बन जाओगे? ऐसे ही किसी बड़े आदमी की चाकरी वहाँ भी करनी होगी। फिर यहीं क्यों नहीं?'
शंकर लाजवाब होकर रह गया था। रामदीन ठीक ही तो कह रहा था। पिता के सोने के बाद शंकर फर्श पर चटाई बिछाकर लेट गया और देर तक इन्हीं बातें पर विचार करता रहा। कब
नींद आ गई उसे पता भी न चला। देर रात गए उसे बापू के कराहने की आवाज सुनाई पड़ी। वह घबड़ाकर उठा और पिता का सिर थपकने लगा, लेकिन कुछ क्षण बाद ही वह समझा गया था
कि उसका बापू उसे अकेला छोड़कर इस दुनिया से जा चुका है। इतने दिनों से वह दिन-रात रोता रहता था और आज जब वह सबसे ज्यादा रोना चाह रहा था तो आँसू ही सूख गए थे।
अब मुन्नू को क्या जवाब देगा? हर रोज उससे यही वादा करता था कि उसके दादाजी को आज घर लेकर आएगा। भीतर-भीतर वह पागलों की तरह दहाड़ें मारकर रो रहा था। भारी मन से
डॉक्टर को बुलाने गया। डॉक्टर ने भी वही कहा जो शंकर ने पहले ही समझ लिया था। उसने अपने मित्रों को फोन करके इसकी सूचना दे दी और जल्दी से जल्दी अस्पताल पहुँचने
को कहा। अब शंकर, सजनी और मुन्नू बिलकुल बेसहारा हो गए थे। कोई राह बताने वाला न था। गिर जाने पर उठाने वाला न था।
शंकर ने दाह-संस्कार के वक्त अपना सिर नहीं मुँड़वाया था। लोगों ने इसके लिए उसे बहुत दुत्कारा, लेकिन वह भली-भाँति जानता था कि सिर मुँड़वाने पर वह बहुत बदसूरत
लगेगा और ऐसी सूरत लेकर जाने पर सुपर-मार्केट वाले किसी सूरत में उसे नौकरी पर नहीं रखेंगे। श्मशान से घर पहुँचकर शंकर बिना चाय पिए ही कपड़े बदलकर निकल पड़ा।
रोने तक की फुर्सत नहीं थी उसे। वह भी अपने बीवी-बच्चे को भूखा नहीं देख सकता था। सुपर-मार्केट में घुसते ही उसकी नजर मुरारी पर पड़ी। मुरारी के पास जाकर उसने
धीरे-धीरे से कहा, 'प्यासा, मुझे भी यहाँ काम दिला दो।'
मुरारी ने कोई सवाल नहीं किया। उसे शंकर की हालत खूब अच्छी तरह मालूम थी। वह उसे मैनेजर की केबिन में ले गया। मैनेजर ने शंकर को देखते ही चिर-परिचित जहरीली
मुसकान से उसका स्वागत किया, लेकिन शंकर आज उसका वह वार झेल गया।
'आज क्या बात है?' मैनेजर ने मुस्कुराते हुए शंकर से पूछा।
'सर, यह मेरा मित्र है, यहाँ काम करना चाहता है। बहुत मेहनती और ईमानदार लड़का है सर।' मैनेजर की बातों का जवाब मुरारी ने दिया।
'अच्छा है। एक आदमी की तो जरूरत है यहाँ।'
'सर, आप मुझे रख लीजिए। आपको मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं होगी।' शंकर ने बहुत दीन भाव से आग्रह किया।
'ठीक है, कल से आ जाना। इन लोगों को जितने रुपये मिलते हैं, उतने ही तुम्हें भी मिलेंगे। बोलो, मंजूर है?'
'सब मंजूर है, सर।' शंकर की आँखें छलछला आईं।
'केवल एक निवेदन करना चाहता हूँ, सर।' शंकर ने कुछ कहने की हिम्मत जुटाई।
'हाँ, कहो।'
'मैं दुकान में अपने कपड़े पहन सकता हूँ?'
'बाहर चले जाओ और जो पहनना है पहनो।'
शंकर अपमान से तिलमिला गया। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करे। वह दुकान से बाहर निकल आया। शंकर के पीछे-पीछे मुरारी भी आ गया था - 'क्यों बनी बात
बिगाड़ रहे हो शक्कू?'
'मैं क्या करूँ, प्यासा?' शंकर की आँखें भर आईं।
'फिलहाल मैनेजर की बात मान लो। हम फिर से खड़े होंगे, फिर हमारी दुकान होगी। उस दिन तक खुद को बचाए रखना होगा शक्कू। हम हारे नहीं हैं, समय की प्रतीक्षा कर रहे
हैं।'
'क्या यह सच भी हो सकता है?' शंकर मुरारी की बातों से अपनी हिम्मत जुटा रहा था।
'अगर इनकी अमीरी सच है तो हमारा हौसला भी सच है। हम इसी के सहारे जिएँगे।'
मुरारी शंकर को फिर से मैनेजर की केबिन में ले गया। शंकर ने अपनी बेवकूफी के लिए क्षमा माँग ली। मैनेजर ने इस शर्त पर उसकी माफी कबूल की कि वह सुपर-मार्केट की
कमीज घर से ही पहनकर आएगा। मैनेजर ने बड़े प्यार से शंकर को समझाया - 'यह तो हमारा विज्ञापन है, हम इसे कैसे छोड़ सकते हैं? इससे ग्राहकों में हमारा रुतबा बढ़ता
है। वह तुम्हारी कमीज पर हमारी दुकान का नाम देखकर गर्व से फूल उठेंगे कि यहीं से तो वे अपने सामान खरीदते हैं। कुछ दिनों बाद तुम्हें भी यह कमीज भली लगने
लगेगी। तुम भी इस दुकान के रुतबे से अपना रुतबा जोड़ने लगोगे।'
'ठीक है, सर।' शंकर बुदबुदाया।
मैनेजर ने एक पैकेट निकालकर शंकर की ओर बढ़ा दिया, 'लो, इसे पहनकर सुबह नौ बजे पहुँच जाना।'
'एक प्रार्थना कर सकता हूँ, सर?' शंकर ने दोनों हाथ जोड़ दिए। शंकर की बात पर मैनेजर और मुरारी, दोनों चौंक उठे।
'आप सौ रुपए एडवांस दे सकते हैं? उस पैसे में से पाँच रुपये का मैं अपने बेटे के लिए गुब्बारा खरीदना चाहता हूँ और बाकी से खाने का जुगाड़ करूँगा। घर में
बीवी-बच्चे भूखे बैठे होंगे...'
शंकर बहुत जब्त करके धीरे-धीरे बोल रहा था। लग रहा था कि अभी रो पड़ेगा। मुरारी ने आगे बढ़कर बात सँभाली - 'सर, कल रात में इसके बाबूजी की अस्पताल में मृत्यु हो
गई थी। अभी हमलोग उनका दाह-संस्कार करके ही आ रहे हैं।'
'ओह, कैसे हुआ यह सब?' मैनेजर दुखी दिखने की कोशिश कर रहा था।
'इसी दुकान के आगे पुलिस की लाठी से सिर में चोट लगी थी सर। सब कुछ बिक गया, कर्ज भी लेना पड़ा, फिर भी बापू को नहीं बचा सका।'
शंकर बिलख उठा था। मैनेजर की पेशानी पर कुछ सिलवटें पड़ गई थीं - 'यह तो सचमुच बहुत दुखद बात है।'
मैनेजर ने दराज खोलकर कुछ रुपये निकाले और शंकर की तरफ बढ़ाते हुए कहा - 'यह पाँच हजार रुपये तुम रख लो। यह तुम्हारा एडवांस या कर्ज नहीं है, इस दुकान की ओर से
छोटी-सी मदद है। हमें गैर मत समझो।'
शंकर को अब रुपये लेने की इच्छा नहीं हो रही थी। उसके बाप की जान की कीमत महज पाँच हजार रुपये लगाई गई थी। इससे ज्यादा कीमत के तो कुत्ते खरीदकर पालते हैं ये
लोग! लेकिन सजनी और मुन्नू का खयाल आया तो शंकर ने रुपये लेने के लिए हाथ बढ़ा दिए - 'बहुत-बहुत शुक्रिया, सर! कल समय से आ जाऊँगा।'
अगले ही दिन स्थानीय चैनलों और अखबारों में बड़ी-बड़ी खबरें आईं कि सुपर-मार्केट के खुलने से आसपास के लोगों में खुशहाली छा गई है। इससे शहर की खूबसूरती में भी
चार चाँद लग गए हैं। इसके अलावा सुपर-मार्केट ने बहुत-से लोगों को रोजगार भी दिया है। सरकार ने इसकी सफलता से उत्साहित होकर कई और कंपनियों को इस तरह की दुकानें
देश के कोने-कोने में खोलने की इजाजत दे दी है। इतना ही नही, सरकार ने विदेशी कंपनियों को भी अपने देश में ऐसी दुकानें खोलने के लिए आमंत्रित किया है ताकि आम
लोगों को विश्वस्तरीय चीजें आसानी से प्राप्त हो सकें। सरकार को उम्मीद है कि बहुत जल्दी ही पूरा देश सौंदर्य और समृद्धि से लहलहा उठेगा।