कैंपस में पहुँचते ही बीस साल पुराने दिन एक-एक कर याद आने लगे हैं... बीस साल पहले लुटियंस जोन को दिखाने और राजधानी में कलम घिसने का जरिया बनने का बहाना यही
कैंपस बना था... भारतीय जनसंचार संस्थान... अँग्रेजीकरण के मौजूदा दौर में इतने बड़े नाम की अब शायद ही किसी को जरूरत पड़ती हो... सभी आईआईएमसी से ही काम चला
लेते हैं... लेकिन बीस साल पुराने वे दिन याद आ गए... तब हिंदी पत्रकारिता विभाग के प्रमुख डॉक्टर रामजी लाल जांगिड़ हुआ करते थे... ज्ञान का भंडार... लेकिन
अक्खड़ता की प्रखर मूर्ति... हिंदी वाले छात्रों को बार-बार अपनी हिंदीवाली नाक ऊँची रखने की ताकीद करते... इस ताकीद का असर हर उस छात्र पर रहा, जिसने डॉक्टर
जांगिड़ से पढ़ाई की... संस्थान की पूछताछ होते ही उनके मुँह से निकलता भारतीय जनसंचार संस्थान... दो दिनों के मीडिया चौपाल ने जैसे उन दिनों को एक बार फिर जीने
का मौका दे दिया है...
भारत में दूसरी आजादी दिलाने वाली हस्ती जयप्रकाश नारायण की जयंती यानी 11 अक्टूबर... भारतीय राजनीति के शीर्ष पर बेशक भारतीय जनता पार्टी पहुँच चुकी है...
लेकिन एक दौर था... जब उसकी स्वीकार्यता दूसरी राजनीतिक जमात में नहीं थी... नानाजी देशमुख ऐसी शख्सीयत रहे... जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अवतार
भारतीय जनसंघ के दौर में ही अपनी राजनीतिक विचारधारा को सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने की कवायद शुरू कर दी थी... इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दुर्घस प्रसार के दौर में
11 अक्टूबर सिर्फ और सिर्फ बिग बी यानी अमिताभ बच्चन के जन्मदिन के तौर पर याद किया जा रहा है... इस वक्त नानाजी देशमुख भी याद आ रहे हैं... देशभर में सरस्वती
शिशुमंदिरों का जाल फैलाने वाले नानाजी भी इसी दिन पैदा हुए थे और यह संयोग ही है कि स्पंदन वाले भाई अनिल सौमित्र ने इसी दिन को दिल्ली में मीडिया चौपाल की
शुरुआत का कार्यक्रम रखा है... अनिल सौमित्र भी हिंदी की नाक ऊँची रखने वाले भारतीय जनसंचार संस्थान के छात्र हैं... उन्हें भी डॉक्टर जांगिड से भी हिंदी की नाक
ऊँची रखने की वैसी ही तालीम मिली है... यह बात और है कि अपनी निरभ्र विनम्रता के बीच वे आज भी हिंदी की इस नाक को ऊँची रखने की कोशिश कर रहे हैं... यह नाक ऊँची
रखने का उपक्रम ही है कि लगातार तीन साल से मीडिया चौपाल का आयोजन उनकी हिम्मत से संभव हो पा रहा है... 11 अक्टूबर की सुबह भारतीय जनसंचार संस्थान के प्रांगण
में पहुँचते ही उन्हे भी अपने 18 साल पुराने दिन याद आने लगे हैं... याद तो इस कैंपस से ढेरों हैं... यह याद तब और छलक आती है... जब मीडिया चौपाल के उद्घाटन
सत्र की शुरुआत होती है... मंच संचालन का दायित्व निभाने की जिम्मेदारी पहली बार सँभालने को मिला है... सामान्य छात्रों, हिंदी अधिकारियों और मीडिया प्रोफेशनल
की सैकड़ों कक्षाओं को संबोधित करने... कुछ सभा-गोष्ठियों में बोलने के अनगिन मौके आए हैं... लेकिन संचालन की जिम्मेदारी... थोड़ी थरथराहट तो है... आत्मविश्वास
की वजह है यह संस्थान... उसी संस्थान के हॉल के मंच पर कार्यक्रम है... जब हम विद्यार्थी थे... तब यहाँ पहाड़ी होती थी... जाड़े के दिनों में दोपहर के खाने के
वक्त धूप सेंकते हम छात्र यहाँ बैठा करते थे... वह धूप... उसके बीच कभी-कभी सरसराते हुए साँप का गुजर जाना और उसी बीच मोर का भागना... एक-एक कर याद आने लगते
हैं... उन्हें याद करते ही जैसे आत्मविश्वास जागने लगता है... तभी सामने श्रोताओं में डॉक्टर हेमंत जोशी नमूदार होते हुए दिखते हैं... आत्मविश्वास बढ़ जाता
है... डॉक्टर जोशी अब डॉक्टर जांगिड़ की जगह हिंदी विभाग को सँभाल रहे हैं... और तब से लेकर अब तक हिंदी पढ़ाने... हिंदी की इज्जत बढ़ाने और छात्रों का भाषा
ज्ञान माँजने का काम कर रहे हैं... श्रोताओं में अपना गुरु हो तो आत्मविश्वास बढ़ना ही है और उद्घाटन सत्र की औपचारिकता शुरू हो जाती है...
प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है... प्रेमचंद के जमाने यह भले ही सही रहा हो... लेकिन हमने देखा है... साहित्य और संस्कृति की
बड़ी-बड़ी नामचीन हस्तियों को राजनीति के आगे निस्तेज होते हुए... घिघियाते हुए... लगता है कि हमारा हिंदी समाज राजनीति को सिर्फ हेय नजरिये से ही देखता है...
यह बात और है कि उसके कार्यक्रमों की कामयाबी सिर्फ राजनीतिक हस्तियों की मौजूदगी और उनकी उपस्थिति के दम पर आँकी जाती है... मुझे लगता है कि हिंदी वालों को
अपना नजरिया बदलना चाहिए... राजनीति के बिना कुछ भी संभव नहीं... इसलिए राजनीति को अपने साथ जोड़ना चाहिए... सहज भाव से... इसलिए नहीं कि उसकी मौजूदगी ताकत का
पर्याय बने... बल्कि समाज में उसे भी रचाने-बसाने के स्तर तक स्वीकार करना चाहिए... जब राजनीति को यह अहसास होगा कि सचमुच संस्कृति आगे चलने वाली मशाल है तो वह
भी पीछे चलने लगेगी... महाराष्ट्र का मराठी राजनेता हो या केरल का मलयाली या फिर बंगाल का बंगाली... वहाँ की राजनीति इसे स्वीकार कर चुकी है और वह उस मशाल के
पीछे चलने की कोशिश करती है... लेकिन इसके लिए वहाँ के समाज ने भी काम किया है... पहल की है... हम हिंदी वाले कम से कम इस मामले में पीछे ही हैं... बहरहाल
उद्घाटन सत्र की शुरुआत होती है तो पता चलता है कि कोई संत भी किसी नदी को जिंदा कर सकता है... पंजाब के सुल्तानपुर से आए संत सिंचेवाल ने वहाँ की मर चुकी
कालीबेई नदी को जिंदा कर दिया है... वह अपनी कहानी सुनाने लगते हैं... पंजाबी वर्चस्व वाली उनकी हिंदी श्रोताओं के पल्ले नहीं पड़ती... लेकिन मीडिया चौपाल की
चर्चा के मूल बिंदु नद्यः रक्षति रक्षिता: को सही मायने में चरितार्थ करती है... लोग सुनते हैं उनका अनुभव जानते हैं और प्रेरित होते हैं कि जल की स्रोत सदानीरा
अपनी नदियों को कैसे बचाया जा सकता है... संत सिंचरेवाल के अनुभवों की गूंज देर तक सुनाई देती रहती है... उद्घाटन सत्र के बाद भोजन के वक्त लोग आपस में बात कर
रहे हैं... कोई इंदौर से आया है तो कोई भोपाल से तो कोई अहमदाबाद से... इंदौर से आए वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश हिंदुस्तानी अपने एक साथी से कहते हैं कि यार बाबा
जबर्दस्त आदमी है... जबर्दस्त बोला...। अपनी राजनीति के बारे में मान्यता है कि वह हमेशा झूठ और गलतबयानी करती है... लेकिन मीडिया चौपाल जैसे मौके इस मान्यता को
अपवाद साबित करने के लिए ही शायद होते हैं... मंच पर भारतीय जनता पार्टी के उपाध्यक्ष प्रभात झा राजनीति की सीमाएँ और उसके काले सच को उद्घाटित करने से पीछे
नहीं रहते... नदियों को बचाने के लिए राजनीति के आगे आने का स्वागत तो वे करते है... लेकिन उन्हें भी उम्मीद मीडिया और समाज से कहीं ज्यादा है। वे भी जोर देते
हैं कि लोक के शामिल हुए बिना नदियों को सदानीरा नहीं बनाया जा सकता और उन्हें बचाया भी नहीं जा सकता।
मीडिया चौपाल दो साल तक भोपाल में कामयाबी के साथ पूरा हो चुका है... उद्घाटन सत्र में इसकी बार-बार चर्चा होती है। सभी वक्ता इस कामयाबी को याद करते हैं... उसे
भी जाहिर करते हैं कि कैसे इस आयोजन का विचार आया। दो साल पहले सिर्फ ब्लॉगरों और सोशल मीडिया को जोड़ने के नाम पर यह आयोजन शुरू हुआ और यह अब मीडिया की उस
पीढ़ी के विमर्श का माध्यम बन गया है, जो पीढ़ी सोशल मीडिया से लेकर मीडिया के पारंपरिक उपादानों तक में अपनी पैठ और पहुँच रखती है। बहरहाल उद्घाटन सत्र में
सबसे शानदार भाषण रहता है हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार जवाहर लाल कौल का... दिनमान के विशेष संवाददाता और जनसत्ता के सहायक संपादक रहे जवाहर लाल कौल मूलतः कश्मीरी
हैं... कश्मीर में हाल में झेलम ने जो कहर मचाया... उससे वे भी चिंतित हुए... लेकिन उन्होंने साफ कर दिया कि दरअसल प्रकृति के जिस आँगन में झेलम सदियों से मुक्त
तरीके से खेलती और विचरण करती रही है... उस आँगन को राजनीति और समाज ने छोटा कर दिया है... लिहाजा अब वहाँ कहाँ खेले तो उसने अपना मैदान ढूँढ़ लिया... उन्हें
पानी रोकने के लिए बांध बनाने का तरीका भी गलत लगता है... यानी नदियों को बहने दो... सदानीरा नदिया बहती हैं तो जिंदगी चलती है... लेकिन हम ऊर्जा जरूरतों के
लिए,पानी के लिए नदियों को बांध रहे हैं... तो मौका लगते ही नदियाँ इससे विद्रोह कर देती हैं... फिर क्या होता है... कोशी उफनती है और बिहार कराहता है...
वितस्ता अपना आँगन ढूँढ़ती है और ऐसे ढूँढ़ने लगती है कि हाहाकार मच जाता है... जवाहर लाल कौल ने एक और दिलचस्प बात बताई है... वह कि जब लोक और समाज नदियों का
ध्यान रखना बंद कर देता है... नदियाँ अपनी तरफ समाज का ध्यान आकर्षित करने के लिए तटबंध तोड़ती हैं...
दूसरे सत्र में इसी विषय पर पानी पर काम के लिए मशहूर हो चुकी दो शख्सियतें मंच पर मिलती हैं... दिनेश मिश्र और अनुपम मिश्र का नाम पानी पर काम के लिए जाना जाता
है। एक पेशे से इंजीनियर रहा है तो दूसरा सिर्फ गांधीवादी... लेकिन दोनों के अनुभवों का निचोड़ एक ही है... यह कि पानी के व्यवस्थापन से जैसे-जैसे लोक दूर होता
गया, पानी की समस्याएँ बढ़ती गईं। फिर उन्होंने यह भी जाहिर किया कि लोक परंपराओं से पानी की जरूरतों को जानता-समझता है और उसे पता है कि कितनी बारिश होगी तो
उसके अपने व्यवस्थापन से उसके समाज की पानी की जरूरत पूरी हो जाएगी। 'राजस्थान की रजत बूँदें' और 'आज भी खरे हैं तालाब' जैसी अनमोल पुस्तकें लिख चुके अनुपम
मिश्र जैसलमेर के अपने किसी दोस्त और पानी कार्यकर्ता का उदाहरण देते हैं कि जैसलमेर में महज आठ मिलीमीटर पानी हुआ... लेकिन वहाँ के लोग संतुष्ट हैं... कि उनका
काम चल जाएगा... यानी वहाँ के लोक ने पानी का अपना इंतजाम करने और उसे व्यवस्थित करने का ढर्रा तैयार कर लिया है... वे लोक में प्रचलित बादलों के लिए बीसियों
शब्दों का उदाहरण देते हुए समझाते हैं कि लोक किस कदर पानी के व्यवस्थापन से गहरे तक जुड़ा रहा है और इसी वजह से उसने उपमाएँ, उपमान और तरह-तरह की संज्ञाएँ गढ़ी
हैं। दिनेश मिश्र तो मानते हैं कि पानी की समस्याओं के लिए आधुनिक सोच और उस पर काम करने वाला आज का इंजीनियर वर्ग ज्यादा जिम्मेदार है। उसे पानी के व्यवस्थापन
की चिंता बाद में होती है... पहले उसका ध्यान अपनी कमाई पर होता है। राजनीति, अफसरशाही और ठेकेदार का गठजोड़ दरअसल सारी समस्याओं की जड़ है।
भारतीय नौकरशाही के बारे में माना जाता है कि वह कल्पनाशील नहीं है... बंधे-बंधाए विचारों के इर्द-गिर्द घूमने के लिए वह नियमों और उपनियमों का जमकर सहारा लेती
है। परंपराएँ और रूढ़ियों को वह नियमों और फाइलों के लिए जरूरी मानती है। लीक तोड़कर व्यवाहारिकता से समस्याओं के समाधान में नौकरशाही आगे बढ़कर कम ही काम करती
है... लेकिन मीडिया चौपाल को धन्यवाद कि उसने पानी पर काम करने वाले एक ऐसी शख्सियत से मुलाकात कराई, जो इसी नौकरशाही का अंग रहते हुए बदलाव लाने में कामयाब रहा
है... आईएएस अफसर उमाकांत उमरांव इन दिनों मध्य प्रदेश के आयुक्त आदिवासी विकास हैं... वे देवास के जिला कलेक्टर रह चुके हैं... जब देवास वे पहुँचे तो उन दिनों
देवास में मालगाड़ी के टैंकरों के जरिए पानी लाया जाता था... उसी देवास में अपने प्रयासों, सामाजिक सहयोग और लोक के अनुभव को जोड़कर छोटे-छोटे तालाबों के जरिए
देवास की पानी की समस्या पर काबू पाने की कामयाब कोशिश की है... इस कामयाबी का असर है कि वहाँ जिंदगी पटरी पर लौट आई है... किसानों के चेहरे पर चमक है और कम से
कम पेट भरने के लिए यहाँ को लोगों को अब पलायन नहीं करना पड़ता। हमारा समाज ऐसे अफसरों को याद तो रखता है... लेकिन मीडिया भूल जाता है... देश में ऐसे कई अफसर
हैं... उन्होंने अपने तईं अपनी तैनाती वाले इलाकों में छोटी ही सही क्रांतियाँ की हैं... पेंगुइन ने उन पर एक किताब ही प्रकाशित की है... इनसे सीखें। उमरांव का
काम याद दिलाता है कि ऐसे अफसरों को सामने लाया जाय... उन्हें नियंत्रित करने वाली राजनीति पर लोक और समाज की तरफ से दबाव बने कि उनके रचनात्मक काम को जारी रखने
के लिए मौके दिए जाएँ... तभी देश में बदलाव संभव है... पानी पर अपने अनुभवों से अर्घ्यम के निदेशक विश्वदीप घोष और पंकज चतुर्वेदी ने भी विभिन्न सत्रों में अपनी
बात रखी है और सबके अनुभव का निचोड़ यही है कि पानी को बचाना है... उसका बेहतर व्यवस्थापन करना है तो लोक की तरफ लौटना होगा... लोक का सहयोग लेना होगा और लोक की
परंपराओं में ही राह तलाशनी होगी...
मंच भारतीय जनसंचार संस्थान जैसे मीडिया के सबसे अगड़े संस्थान का है... फिर मीडिया चौपाल की शुरुआत अनिल सौमित्र ने न्यू मीडिया, सोशल मीडिया और ब्लॉगरों के
जरिए सामाजिक क्रांति लाने की कोशिश के तौर पर शुरू की थी... लिहाजा इस पर भी एक चर्चा हुई भी... ऐसी चर्चाओं में वेबदुनिया के संपादक जयदीप कार्णिक पूरा मजमा
लूट ले जाते हैं... वेबदुनिया के जरिए भाषाई मोर्चे पर वे क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के सहभागी रहे हैं... लिहाजा उनके अनुभव दिलचस्प हैं और विस्तृत भी...
लिहाजा वे सूत्र वाक्यों की जैसे लड़ी ही थमा देते हैं नई मीडिया के कलमकारों को... ऐसे मौकों पर डॉक्टर हेमंत जोशी अपने भाषाई ज्ञान और गहरे अनुभवों से मीडिया
कर्मियों को संपृक्त करने और हिंदी को बचाने का संदेश देने में पीछे नहीं रहते और इस बार भी पीछे नहीं रहे... वे बार-बार ये जुमला दोहराते हैं कि हिंदी हमारी
पहचान है और करीब 60 करोड़ हिंदी भाषियों के लिए इंटरनेट की दुनिया में क्रांति की बड़ी संभावनाएँ हैं... लिहाजा ऐसी संभावनाओं के लिए मौजूदा दौर के पत्रकारों
को लैस होना ही होगा... हिंदी विज्ञान लेखन में मनोज पटैरिया का नाम बहुत बड़ा है... फिलहाल वे दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक हैं... विज्ञान लेखन की संभावनाओं
के साथ ही बेहतर लेखन की ओर उन्मुख करने की दिशा में मीडिया चौपाल के हर कार्यक्रम में उनका जोर रहता है... उद्घाटन सत्र से लेकर हर सत्र में नए पत्रकारों को
प्रेरित करते रहना उनकी कोशिश में शामिल रहता है... जाहिर है कि इस बार भी वे अपनी इस भूमिका के साथ ही श्रोताओं की गैलरी में उत्साहवर्धन का काम करते रहे...
दिल्ली जहाँ वक्त की मारामारी है... हर शख्स वक्त की कमी का रोना रोता रहता है... इसके बावजूद दो दिनों तक यह सत्र चलता है... ना सिर्फ चलता है... बल्कि दिल्ली
से लेकर देश के कई और इलाकों के मीडिया कर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पानी के एक्टिविस्टों से गुलजार रहता है... भारतीय जनसंचार संस्थान के कर्मचारियों
खासकर रमेश जी इस कार्यक्रम से चमत्कृत नजर आते हैं... मीडिया से इतर होते हुए भी मीडिया से इतना गहरे तक संपृक्त कार्यक्रम और पूरे दो दिनों तक कामयाबी के साथ
चल सकता है... यह देखकर यहाँ पढ़ने वाले छात्र और ट्रेनिंग ले रहे भारतीय सूचना सेवा के अफसर हैरत में हैं... हैरत गुटनिरपेक्ष देशों के उन पत्रकारों को भी होती
है, जो यहाँ ट्रेनिंग ले रहे हैं... नेपाल के एक सूचना अधिकारी को जब पता चलता है तो वह नदी से जुड़ी चर्चा को लेकर मुतमईन हो जाते हैं... आखिर हो भी क्यों
नहीं... उन्हीं के यहाँ से आने वाली कोशी नदी तकरीबन हर दूसरे साल बिहार में कहर जो बरपाती है...
हम एक बार फिर बिछड़ जाते हैं... अपने उस संस्थान से... जिसकी सीख से ही आज जो कुछ भी थोड़ी-बहुत पहचान मिली है... लेकिन यह बिछड़ना फिलहाल भौतिक ही है...
आध्यात्मिक नहीं... दिल में तो हमारा भारतीय जनसंचार संस्थान हमेशा बसता है...