पर्यावरणीय आंदोलनों के विशेष संदर्भ में
भारत में जन-आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है। पिछले दो-तीन दशकों में शहरी एवं शिक्षित मध्यवर्गीय लोगों के बीच इस मसले पर सचेत समझदारी विकसित हुई है। विकास
के आधुनिक संस्करण ने पारिस्थितिकीय संतुलन एवं विकास प्राथमिकताओं के मध्य द्वंद्व की स्थिति खड़ी कर दी है। इसने कई जन आंदोलनों को जन्म दिया है। इस आलेख
में संदर्भ के रूप में चिपको आंदोलन से जुडे सरोकारों को चिन्हित करने का प्रयास किया गया है। यहाँ महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या दार्शनिक दृष्टि से
पर्यावरणीय आंदोलनों के मूल गांधी दृष्टि में तलाशे जा सकते हैं? यदि हाँ, तो क्या ये आंदोलन गांधी को एक नाम की तरह इस्तेमाल करते हैं या उसे एक रणनीति मात्र
मानते हैं अथवा ये आंदोलन गांधी दृष्टि को एक जीवन दर्शन के रूप में अंगीकार करते है? इन्हीं प्रश्नों के इर्द गिर्द यह आलेख गांधी दृष्टि को पर्यावरणीय
आंदोलनों के संदर्भ में समझने का प्रयास करता है।
70 का दशक सामाजिक आंदोलनों के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है। सामाजिक आंदोलनों के संदर्भ में इसे पैराडाइम शिफ्ट की तरह देखा जाता है। इसी दशक में महाआख्यानों
के बरक्स छोटे मुद्दों ने वैश्विक स्तर पर अपनी छाप छोड़ी। चाहे वह महिला आंदोलन हो या फिर मानवाधिकार आंदोलन या फिर मध्य वर्ग के आंदोलन हो या शांति आंदोलन।
पर्यावरणीय आंदोलन इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण कड़ी समझी जाती है। 1972 में स्टॉकहोम में हुए सम्मेलन ने वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों पर पर्यावरण की दशाओं और
उसके प्रभावों से संबंधित कई आंदोलनों/अध्ययनों के लिए मार्ग प्रशस्त किया। सुविधा के लिए पर्यावरणीय आंदोलनों को पाँच श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। 1
1.
वन आधारित वन नीति, वन संसाधनों का उपभोग।
2.
भूमि उपयोग औद्योगीकरण और खेतिहर भूमि की हानि, अंधाधुंध रासायनिक सामग्री को लोकिप्रय बनाना, भूमि का क्षय, खनिज संसाधनों का दोहन।
3.
बड़े बांधों के पास ऐसे जनजातीय और गैर-जनजातीय लोगों के अनैच्छिक विस्थापन की समस्या, जो नदी की धारा के प्रतिकूल दिशा में रहते हैं का विरोध।
4.
उद्योगों द्वारा उत्पन्न किए गए प्रदूषण का विरोध।
5.
समुद्री संसाधनों के अति दोहन का विरोध।
प्रस्तुत आलेख में भारत के एक प्रमुख पर्यावरणीय आंदोलन - 'चिपको आंदोलन' की प्रविधि को समझने का प्रयास किया जाएगा कि क्या ये आंदोलन गांधीवादी दृष्टि से
संपोषित है। इस आंदोलन ने पारिस्थितिक संतुलन और विकास के सवाल खड़े किए हैं। चिपको आंदोलन पर हुए विभिन्न अध्ययनों ने इसकी बारीकी से व्याख्या की है।
सन 1973 में उत्तरांचल के चमोली जिले में वनों को कटने से बचाने के लिए 'चिपको आंदोलन' की शुरुआत हुई। इस आंदोलन का नामकरण हिंदी भाषा के शब्द 'चिपको' के आधार
पर हुआ है जिसका अर्थ है 'चिपक जाना' पेड़ों को कटने या गिरने से बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपक जाते थे। अहिंसक और सत्याग्रही प्रवृत्ति के इस आंदोलन की 'पेड़
नहीं काटेंगे, पेड के पहले हम कटेंगे' की घोषणा ने सरकार, वन मंत्रालय, मीडिया, ठेकेदार, राजनीतिक दल, गाँवों के अनपढ़ों से लेकर विश्वविद्यालय तथा वैज्ञानिकों
तक का ध्यान अपनी तरफ खींचा। जंगल से जुडे हर वर्ग को इस आंदोलन ने किसी न किसी तरफ प्रभावित किया। यह आंदोलन सन 1973 में एक सुबह शु्रू हुआ जब चमेली जिले के
सुदूर पहाड़ी कस्बे गोपेश्वर में इलाहाबाद की खेल का सामान बनाने वाली फैक्ट्री के लोग देवदार के दस वृक्ष काटने के उद्देश्य से पहुँचे। आरंभ में ग्रामीणों ने
अनुरोध किया कि वे वृक्ष ना काटें परंतु जब ठेकेदार नहीं माने तब ग्रामीणों ने चिन्हित वृक्षों का घेराव किया और उससे चिपक गए। पराजित ठेकेदारों को विवश होकर
वापस जाना पड़ा। लगभग 300 वर्षों पूर्व राजस्थान के बिश्नोई समाज के 363 लोगों ने इसी शैली में अपने जीवन का बलिदान 'खेजर' नामक वृक्ष को बचाने के लिए दे दिया।
जोधपुर के महाराज के वृक्ष काटने के आदेश का विरोध करते हुए वे वृक्षों से चिपक गए थे। चिपको आंदोलन को इसी इतिहास की निरंतरता में देखा जाता है।
कुछ सप्ताह बाद ठेकेदार पुनः वापस आए और उन्होंने फिर पेड़ काटने की कोशिश की। 50 वर्षीय गौरा देवी के नेतृत्व में स्त्रियों ने इसका प्रतिरोध करते हुए जंगल जाने
वाले मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। उनका कहना था कि 'यह जंगल हमारा मायका है और हम पूरी ताकत से इसे बचाएँगी'। ठेकेदार एक बार फिर उनके इस दृढ़ निश्चयी आंदोलन के
कारण वापस जाने को विवश हो गए। 'संघर्ष के बीज संघर्ष के बीच' नामक पुस्तक में विमला बहुगुणा ने इस आंदोलन का वर्णन करते हुए अपने आलेख में लिखा है : "सुदूर
हिमालय की पहाड़ियों में वनों की रक्षा के लिए हुए चिपको आंदोलन का समाचार जब बाहर की दुनिया में पहुँचा तो उसे सुनकर लोग आश्चर्यचकित हो गए क्योंकि प्रायः यह
माना जाता था कि नए विचारों तथा नए आंदोलनों जन्म शहरों में होता है, जहाँ बुद्धिजीवी रहते है। इसमें और भी चौंकने वाली बात यह थी कि इस आंदोलन की अग्रिम पंक्ति
की सैनिक महिलाएँ थीं जिनका कार्यक्षेत्र घर के अंदर चौके और चूल्हे तक सीमित माना जाता है"।
भारत में जंगल को लेकर दो तरह के दृष्टिकोण विद्यमान हैं। पहला है जीवनोत्पादक तथा दूसरा है जीवन विनाशक जिसे दूसरे शब्दों में 'औद्योगिक भौतिकवादी दृष्टिकोण'
(Industrial material Standpoint) भी कहा जाता है। जीवनोत्पादक दृष्टिकोण जंगल तथा नारीत्व के दर्शन से बँधा हुआ जंगल के संसाधनों को निरंतरता में तथा नवीन
संभावनाओं के साथ चाहता है ताकि भोजन तथा जल संसाधनों का कभी ना खत्म होने वाला भंडार बना रहे है। जीवन विनाशक दृष्टिकोण कारखानों तथा बाजार से बँधा हुआ है जो
जंगल के संसाधनों का अधिकाधिक दोहन अपने व्यावसायिक लाभ के लिए करना चाहता है। संसाधनों का अधिकाधिक दोहन उसके नवीनीकरण की संभावनाओं को समाप्त करता है। जब
ब्रिटेन ने भारत को अपना उपनिवेश बनाया तो उनका सबसे पहला निशाना यहाँ के जंगल तथा उससे प्राप्त होने वाले बहुमूल्य संसाधन (मसाले, महँगी, लकड़ी, जड़ी-बूटी तथा
औषधीय पौधे) बने। उन्होंने यहाँ के स्थानीय निवासियों के समृद्धि तथा जंगलों के बारे में उनके समृद्ध ज्ञान पंरपरा को नजरंदाज किया। उनके अधिकार, उनकी
आवश्यकताएँ तथा उनकी समझ को क्षीण करते हुए उनके जीवन के प्राथमिक को जंगल से 'जंगल खदान' में बदलना शुरू कर दिया। स्त्रियों के जीवन निर्वाह के साधन जंगलों ने
ब्रिटिश उपनिवेशवाद की व्यावसायिक अर्थव्यवस्था का स्थान ले लिया। मालाबार के 'टीक', मध्य भारत के 'शाल' तथा हिमालय के 'शंकु वृक्ष' का उपयोग ब्रिटिश उपनिवेशकों
ने अपनी सेना, छावनी तथा रेलमार्गों के निर्माण के लिए किया। हालाँकि जंगलों को नष्ट करने का दोषारोपण हमेशा से स्थानीय लोगों के ऊपर लगाया जाता है। परंतु सत्य
यह है कि व्यावसायिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हमेशा बड़े पैमाने पर वनों की कटाई की जाती है। हिमालय के क्षेत्रों में व्यापक पैमाने पर हुई वनों की कटाई इस
बात का सबूत है कि ब्रिटिश साम्राज्य की जरूरत के लिए यह वनोन्मूलन किया गया था।
प्राचीन भारतीय परंपरा में जंगलों की अहमियत को समझते हुए उसके संरक्षण के लिए हमेशा प्रतिबद्ध रहने की बात की गई है। चिपको आंदोलन के दौरान महिलाओं ने इसी
परंपरा के तहत जीवन विनाशक दृष्टिकोण का पुरजोर विरोध किया था। इस पर्यावरणीय आंदोलन का इतिहास में मील का पत्थर साबित होना स्त्रियों के नैतिक सरोकार तथा
पर्यावरणीय दृष्टि था। आजीविका के सवाल को लेकर पैदा हुए चिपको आंदोलन ने बाद में चल कर वन संरक्षण आंदोलन का रूप धारण कर लिया। यह आंदोलन जिस समय शुरू हुआ उस
समय विकासशील दुनिया में पर्यावरण को लेकर कोई आंदोलन शुरू नहीं हुआ था।
वंदना शिवा ने अपनी कृति 'स्टेइंग एलाइव : वुमॅन, इकोलॅजी एंड सरवाइवल इन इंडिया' में चिपको आंदोलन के इतिहास की चर्चा करते हुए लिखा कि स्त्री शक्ति को उभारने
तथा उनमें पर्यावरणीय सरोकारों को जगाने में कई घटनाओं तथा व्यक्तियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। गौरी देवी, सरला बहन, विमला बहन, हिमा देवी, गंगा देवी, इतवारी
देवी तथा अन्य कई पहाड़ी स्त्रियों ने चिपको के दौरान प्रतिरोध की संस्कृति की मशाल जलाई। इसके अतिरिक्त चंडी प्रसाद भट्ट, सुंदरलाल बहुगुणा, घनश्याम सैलानी आदि
पुरुषों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। आंदोलन कुमाऊँ गढ़वाल से होता हुआ उत्तराखंड के विभिन्न भागों में फैलने लगा। हर जगह वहाँ की स्थानीय महिलाओं ने इस आंदोलन
का नेतृत्व किया। इस आंदोलन ने लगभग सभी पहाड़ी स्त्रियों को एक सूत्र में बांध दिया था। घनश्याम रतूडी के लोकगीतों तथा भट्ट, बहुगुणा, नेगी जैसे पर्यावरणीय
कार्यकर्ताओं ने चिपको के संदेश तथा घटनाक्रम को गाँव-गाँव में पहुँचाया।
पहाड़ी इलाकों में स्त्रियों के जीवन की सारी गतिविधियाँ जंगलों से जुड़ी होती है इसलिए जंगलों का लगातार होता क्षय तथा बढ़ता हुआ जल संकट उनके जीवन से जुड़ा हुआ
मसला था। हजारों की संख्या में स्त्रियों ने उन व्यावसायिक कंपनियों के विरुद्ध आंदोलन छेड़ा दिया था। जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों से न सिर्फ उनका
अधिकार छीन रहे थे बल्कि अपने व्यापरिक हित के लिए उसे नष्ट भी कर देना चाहते थे। चिपको आंदोलन की शुरुआत उत्तर प्रदेश में बढ़ रहे पर्यावरण दोहन पर प्रतिबंध
लगाने की माँग के साथ हुई। पहाड़ी इलाकों में हर जगह के बहुतायत संख्या में काटे जाने के कारण पहाड़ों में कटाव और भू-स्थलन की घटनाएँ लगातार बढ़ रही थीं। 1975 तक
300 से ज्यादा गाँव इन पहाड़ी हादसों का शिकार हो चुके थे। उत्तरकाशी में मतली तथा धराली, टेहली में पिल्खी तथा नांदागाँव, चमोली में चिमटोली तथा खिंझानी,
अल्मोड़ा में बाघर तथा जागेश्वर जैसे कई इलाकों में पहाड़ों के भूस्खलन के कारण असंख्य जानें गई थीं। महिलाओं ने इन कंपनियों पर पूर्णतः प्रतिबंध लगाने की माँग
शुरू की।
वनों के समाप्त होने का संकट दरअसल औद्योगिक भौतिकवादी दृष्टिकोण का परिणाम था जिसने जंगल को मिट्टी तथा जल के प्राकृतिक संरक्षक की बजाय उसे 'लकड़ी खदान' के रूप
में देखना शुरू कर दिया था। वनों के जीवन प्रदान करने वाले तथा जीवन को बनाए रखने वाले कार्य को विभाजित करना व्यावसायिक हितों की अनिवार्यता थी परंतु इस
दृष्टिकोण के कारण जंगल तथा वृक्षों की पारिस्थितिकीय प्रक्रियाओं को नष्ट किया जाने लगा। किसान, आदिवासी तथा महिलाओं का संघर्ष जंगल के इसी जीवन प्रदान करने
वाली व्यवस्था को नष्ट करने के विरोध में था। निश्चित रुप से महिलाएँ आंदोलन की प्रणेता थी और उनके लिए यह प्राकृतिक संसाधनों तथा जीवन के बचाव का आंदोलन था।
आंदोलन के आरंभिक दिनों बाहरी ठेकेदारों को भगाने में स्थानीय ठेकेदारों ने भी इनका भरपूर सहयोग किया क्योंकि इनके व्यावसायिक हित भी बाधित हो रहे थे, परंतु
उनके जाने के बाद एक सरकारी निकाय (द फॉरेस्ट डेवेलपमेंट कारपोरेशन) ने फिर वहाँ के स्थानीय ठेकेदारों की सहायता से लकड़ी कटाई का कार्य शुरू किया। स्त्रियों ने
यह देखते हुए अपने आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए जंगल के दोहन के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा। उनके लिए यह महत्वपूर्ण नहीं था कि जंगल बाहरी लोग काट रहे थे या
स्थानीय लोग। उनकी तकलीफ यह थी कि जंगल कट रहे थे, जलस्तर लगातार नीचे जा रहा था। वे जंगलों के बारे में वे इतना जानती थीं कि जंगल के पास क्या हैं? मिट्टी, जल
और शुद्ध वायु और मिट्टी, जल और मिट्टी, जल और शुद्ध वायु पृथ्वी को सदा हरा-भरा रखते हैं।
वन विभाग के कई अधिकारियों ने उन्हें यह समझाने का भी प्रयास किया कि जंगल लकड़ी का मुनाफा देते है। इसलिए उन्हें वे काट रहे हैं और जो लकड़ियाँ काटी जा रही है
उनका जंगल के लिए कोई उपयोग नहीं है। वे जर्जर और ठूँठ है। महिलाओं ने उन्हें समझाया कि दरअसल यह जंगल के नवीनीकरण की प्रक्रिया है जिसमें पुराने तथा जर्जर हुए
पेड़ नए पेड़ों के लिए जैविक खाद का कार्य करते हैं। जंगल के संबंध में महिलाओं की समझ ने चिपको आंदोलन को एक नई दिशा दी। आंदोलन के दर्शन तथा राजनीति में महिलाओं
वन संबंधी गहरी समझ तथा उनकी आवश्यकताओं को शामिल किया गया। एक तरफ जहाँ किसान महिलाएँ अब सामने आकर खुले तौर पर जंगलों के प्रति बाहरी विनाशकारी पूँजीवादी
दृष्टिकोण को चुनौती दे रही थी वहीं, दूसरी तरह अपने स्थानीय ठेकेदारों को भी जो इस व्यवस्था के आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से गुलाम हो चुके थे, उन्हें भी ललकार
रही थीं। आज भी इस इलाके में चिपकों आंदोलन की अनुगूँज सुनाई देती है और यहाँ के लोग वन संरक्षण तथा वृक्षारोपण जैसी गतिविधियों को लेकर अत्यंत सक्रिय रहते हैं।
चिपको आंदोलन पर एक महत्वपूर्ण कार्य रामचंद्र गुहा का है। गुहा अपने अध्ययन को कृषक प्रतिरोध से संबंधित मानते हैं जो परिस्थितिकीय आयाम पर प्रकाश डालती है।
उनका अध्ययन प्रभुत्व की संरचनाओं और सामाजिक विरोध के मुहावरों पर केंद्रित है। उनके शब्दों में ''यह क्षेत्र का पारिस्थितिकीय इतिहास है जो पर्यावरणात्मक
परिवर्तनों को बदलते हुए और प्रकृति के उपयोगों को प्रतिस्पर्धी मानवीय अनुभूतियों के साथ जोड़ता है।''2
चिपको आंदोलन गांधीवादी प्रविधि से प्रेरित था इसके निम्न आधार हैं :
1.
चिपको आंदोलन की सबसे खास बात यह थी कि जिसके विरुद्ध आंदोलन था उसे भी भरोसे में लेकर चलना। यह सिद्धांत गांधीवाद से प्रेरित था। जब साइमन कंपनी के अधिकारी
अंगु के पेड़ काटने के लिए रेणी के जंगलों में आए तो आंदोलनों के विश्राम भवन में ही ठहरे। यह बात कमोवेश अटपटी लगती है कि जिसके विरुद्ध इतना बड़ा आंदोलन खड़ा
किया गया उसे ही अपना मेहमान बनाया गया। इसके पीछे कारण यह है कि आंदोलन का शत्रु कोई ठेकेदार या वन विभाग नहीं था बल्कि उसका मुख्य सरोकार जंगलों की कटाई को
रोकना था। जब चिपको आंदोलन के दबाव में जाँच समिति गठित की गई तब सरकार के तरफ से एक पत्र आंदोलन के नाम आया कि चूँकि सरकार ने जाँच समिति की घोषणा कर दी है
इसलिए अब जंगल को काट लेने दिया जाए। क्योंकि कानूनी निरस्तीकरण से शासन को भारी मुआवजा देना पड़ेगा। इसके जवाब में आंदोलन ने बहुत ही छोटा सा जवाब भेजा -
''हमारा विरोध ना तो शासन से है, ना ही वन विभाग से और ना ठेकेदार से ही है, आंदोलन का भविष्य रेणी के भविष्य से जुड़ा हुआ है। यदि रेणी जाँच समिति की कटाई के
पक्ष में भी फैसला देती है तो भी हम उसे अस्वीकार करेंगे ओर पेड़ से चिपकेंगे।''3
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि आंदोलन का मुख्य सरोकार किसी ठेकेदार का विरोध नहीं वरन व्यापक स्तर पर जंगलों को बचाने से था।
2.
चिपको आंदोलन में शब्द शक्ति का विशिष्ट महत्व था और यह उसे उस नैतिक आग्रह के कारण प्राप्त हुआ था जिसमें अपने स्व तक का लोप करने की ताकत थी। इसे इस बात से ही
समझा जा सकता है कि साइमन के पास पेड़ काटने के आदेश थे, पेड़ों पर छापे लग चुके थे और कंपनी वाले उनकी कीमत भी जमा कर चुके थे पर जब वे पेड़ों को काटने आए तो
उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा।
3.
चिपको आंदोलन किसी अनुयायी-विहीन नेता के दिमाग की उपज नहीं थी इसके पीछे लोगों के सुख-दुख में मरने-खपने वाला एक संस्था (दशौली ग्राम स्वराज संघ) का 12 साल
पुराना ठोस इतिहास था।
4.
चिपको आंदोलन में नैतिकता अपने चरम पर थी। इसकी पुष्टि उस घटना से होती है जब अरण्यपाल का गोपेश्वर में घेराव होने वाला था तब चंडीप्रसाद से नहीं रहा गया। बिना
वक्त गँवाए उन्होंने सबसे पहले अरण्यपाल को खबर भेजी कि आपके घेराव की तैयारी हो रही है, आप यहाँ से एकदम रवाना हो जाएँ। आपने मुझे धोखा देकर यहाँ रोके रखा था
पर मैं आपको धोखा नहीं दूँगा। अरण्यपाल को एक आंदोलनकारी की ओर से ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं थी। इसका प्रभाव यह हुआ कि अरण्यपाल अपने व्यवहार पर बेहत लज्जित
हुआ।
5.
चिपको आंदोलन में महिलाओं ने जो भूमिका निभाई उसका उल्लेख महत्वपूर्ण है। 26 दिसंबर को गोपश्वर से आई पाँच महिलाओं ने रामपुर फाटा के आसपास के गाँवों की यात्रा
की और महिलाओं को भी इस आंदोलन में शामिल होने के लिए तैयार किया। औरतों को ही जंगल में चारापत्ती, आग के लिए लकड़ी आदि बटोरने जाना पड़ता है। हक-हकूकों के पुराने
पड़ चुके नियम इनका रास्ता रोकते हैं, फारेस्ट गार्ड इनके साथ इनसे बुरा बर्ताव करते है। इसीलिए पहाड़ी औरतों के लोकगीतों में 'पतरौला' (पत्तियों का रखवाला,
फारेस्ट गार्ड) खलनायक का दर्जा पाता रहा है। इसके बावजूद महिलाओं ने जिस दिलेरी के साथ जंगलों की रक्षा की वह सराहनीय है। इन लोगों ने ना तो गांधी को कभी देखा
था ना ही उनके विचारों से परिचित थी। लेकिन इन्होंने जो भूमिका निभाई वह इन्हें गांधी के बहुत करीब लाती है। इन्होंने गांधी को एक जीवन दर्शन के रूप में
इस्तेमाल किया।
संदर्भ :
1. Sethi,Harsh,1993.Survival and Democracy: Ecological Struggle sin India in New Social Movement in the South : Empowering the people ,Edited by Poona
Wignaraja, Vistaar Publication, New Delhi.
2. Guha,Ramchandra,1989.The Unquiet Woods: Ecological Change and Peasant Resistance in the Himalaya, Oxford University Press, New Delhi
3. मिश्र,अनुपम, चिपको आंदोलन, गांधी शांति प्रतिष्ठान,नई दिल्ली.