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कविता

कबंध

प्रीतिधारा सामल


अपमान की आग पी कर धू-धू जलती आत्मा
वह केवल,
वयहीन, अस्तित्वहीन
प्राणहीन, मनहीन, परिचयहीन
मांस पिंड में योनि का कबंध
उसकी वय कितनी ?
सात या सत्तर? पूछने की जरूरत नहीं
तुम्हारे सुख के लिए उसकी देह ही यथेष्ट है

वह अकेली प्रतिध्वनि बनकर
धक्के खाती रहे पहाड़ की छाती पर
सूनी रुलाई बन झूलती रहे
मशान के बरगद की डाल पर,
जंगल की आग बन खुद को जलाते-जलाते
पवित्र करती रहे स्वयं को,
तुम्हारा कुछ आता-जाता नहीं

तुम्हारे खून की नदी नहीं, वह मांस का पिंड
यंत्रणा का लाक्षागृह नहीं उसकी योनि,
युग-युग का मौन ही उसकी सामर्थ्य
अंतर में भरी घृणा विद्वेष उसका अस्त्र

अब की वह हाथ जोड़, पाँव पकड़
कृपा नहीं माँगेगी किसी के,
धर्षिता की चिता से खोजेगी नहीं अधिकार

फिर एक बार ग्रीवा, वक्ष, नाभि, कमर, पाद
ले कर वह खड़ी होगी
संपूर्ण उलंग,
उसके आमंत्रण में हतवाक महिषासुर
मरेगा,
जरूर मरेगा


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