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कविता

सलप का पेड़

प्रीतिधारा सामल

अनुवाद - शंकरलाल पुरोहित


कितनी है उमर उसकी मैं नहीं जानती
- होश सँभाला तब से देखती आई,
आकर्षित किया
उसने सपने भरे, पुलकित किया
और किया विमोहित
वही खड़ी है आकाश संग आमने-सामने
जड़ें फैल गई अतल पाताल तक
किस दधीचि की हड्डियों से बनी उसकी मज्जा
कि कितने झड़, तूफान, वात्या में किरच भर
झुका नहीं कभी,
बिखरे केश उड़ते हवा में

तपस्या में स्थिर संन्यासिनी
कीड़े को कहे आ, पक्षी को पुकारे आ
साँप को कहे आ, नेवले गिलहरी को बुलाती
सबके सहावस्थान के लिए जुगा दे
छाती की सुरक्षित भूमि, सबके आधार को
झरा देगी देह का रस

माथे पर असंख्य तारों संग उसकी बातें
सनसनाती हवा संग उसकी भाव-दोस्ती
वह गाए विजन सुख संगी
उसका कुछ नहीं आता-जाता, उसके लिए
कहाँ लड़ाई हुई, कितने सिर कटे
कोई माताल हुआ, किसका घर टूटे

कुछ-कुछ मरण में नित वह मरती
कटता नित उसकी देह से कुछ
वहीं से झरता रस, अमृत, जीवन, स्वप्न
सूर्य, चंद्र, तारांकित आकाश, मीठे मधु की

कोमल गांधार, खो जाती दीर्घ साँस, अभिशाप
आर्तनाद और अँधेरी रात विस्मय की

आज कोई डाल काट बांधी मटकी
तो कल एक और डाल,
योग साधती निर्लिप्त योगिनी
धीरे-धीरे रस सूखता, मधु सूख जाता

देह सूखती, सूखते डाल-पात,
सूख जाता मंत्रमय स्वप्न का झरना

कट-कट चुक रहे
मर-मर बच रहे
निर्जन ठूँठ पेड़ की सूखी डाल पर
पक्षी एक बैठा होता रिक्त विमर्ष मुद्रा में


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