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यात्रावृत्त

चंबलं शरणं गच्छामि

राकेश तिवारी


1

 

ट्रकवाले ने सत्तर रुपए सँभाले और राजघाट के चंबल तट पर डोंगी उतारकर चला गया। जितना गहरा पानी, उतनी ही गहरी हमारी संतुष्टि। नहर के ढाई फुटे पानी का जंजाल छूटने के बाद सामने दिखती गहरी धारा को उत्‍सुकता और उत्तेजना से अंदाजने लगा। मन में आनंद की सुखद हिलोरें, चंबल पर उठती तरंगे जैसे लहरा-लहराकर गुदगुदाने लगीं। सोचने लगा-अब खुले हाथ डाँड़ खींच सकूँगा।

भूरे खुरदरे बीहड़ों में लोटती चंबल की नीली धारा सामने थी। हलकी हवा से उठती लहरें किनारों से चप्‍प-चप्‍प आ टकरातीं। ट्रकों-बसों और मुसाफिरों को लगातार आर-पार पहुँचाते बड़े-बडें स्‍टीमर नजर आते। मुँह उठाए सामने खड़े अध-टूटे पुल को किसी गड़बड़ी के कारण बीच-बीच से उड़ाते के लिए लगाए गए डाइनामाइट की आवाजें रह-रहकर घाटी में गूँजती-सिमटतीं।

इस पार ऊँचे कगार पर टँगा छोटा गाँव बड़ा स्‍टार लगा। किनारे के चाय वाले ने उँगली उठाकर सगर्व बताया - 'हुआँ जो ऊँचो किनारो दिखाई देत है, बाढ़ में चंबिल हुआँ तक चढ़ जात्त है।'

चंबल, जिसका नाम सुनते ही रोमांच हो आता। मानसिंह, लाखन, रूपा… जैसे दस्‍यु- सरदारों के नाम और पत्र-पत्रिकाओं में छपी उनकी तसवीरें आँखों में नाच जातीं। गोलियों की तड़तड़ाहट, बारूद की गंध और दम तोड़ते इनसानों की चीख वाले दृश्‍य जेहन में उभर आते। चंबल, जिसके ऊँचे और भयानक बीहड़ों की गोद में ऐसे लोग शरण लेते हैं। जिनकी कीमत के इश्‍तहार लगाने की नौबत आती है। बड़ी शोहरत रही है चंबल के पानी की। सुना था, इसके साफ नीले जल में मगर घड़ियाल पलथा मारते हैं और इनसान जो इसे पीता है, सिरो-पाँव बागी हो जाता है।

चारों और नजरें घुमा-घुमाकर पहले से बनी तसवीर के अनुरूप घाटी के माहौल को महसूसने की कोशिश करते रहे। भीड़-भाड़ और आवाजाही ने रहस्‍यपूर्ण तसवीर को थोड़ा तोड़ा लेकिन गहरी पड़ चुकी छवि पर खास असर न आया। धारा, रेतीला पाट, गाँव, बीहड़ और मुसाफिर तक अजीब रहस्‍य भरे लगे।

चंबल पार मुरैनाजिले में पड़ता उसका हलका गुलाबी रेतीला पाट और इधर भतरपुर जिले की धरती। लोगों ने घाटी में घटित अनेकानेक भयानक कांड सुनाए। हर आदमी आगे कदम-कदम पर खतरे की बात करने लगा। चर्चा गरम थी - कुछ ही रोज पहले राजाखेड़ा के पास पड़ी डकैती में दो या तीन आदमियों को गोली मारकर चंबल में फेंक दिया गया था।

2

महाभारत के 'द्रोण-पर्व' में नारद मुनि के कथा सुनाई है - 'राजा रंतिदेव के दो लाख भोजन बनानेवाले थे। उनके यहाँ निरंतर आनेवाले अभ्‍यागतों, विप्रों तथा अतिथियों को पकाए हुए तथा बिना पकाए हुए अमृततुल्‍य भोजन परोसे जाते थे। ब्राह्मणों को न्यायत: अर्जित धन से ही दान दिया जाता था। वेदों का धर्मत: अध्‍ययन करके उसने समस्‍त शत्रुओं को वश में कर रखा था। उनके यज्ञों में स्‍वर्ग की इच्‍छा रखनेवाले पशु स्‍वयं उपस्थित हो जाया करते थे। उनके अग्निहोत्र नामक यज्ञ के अवसर पर उनकी पाक-शाला से मध्‍य पशुओं के चमणे (चमड़ा, चर्म)की राशि से चर्मण्‍वती नदी प्रभूत हुई। यही चर्मण्‍वती आज की चंबिल, चामिल, चंबल, चामर या चामल है।'

क्‍या खूब कहा है राजा रंतिदेव के पुण्‍य प्रताप के बारे में कि उनके यज्ञ में मृत्‍यु की इच्‍छा रखनेवाले पशु ही आ जाते थे। सीधे-सीधे नहीं कहा कि उनके यहाँ हजारों पशुओं का वध किया जाता था। इन्‍हीं पशुओं ने यहाँ के लोगों को शाप दिया होगा कि-'धर्म के नाम पर हमारा वध करने वाले महाअधर्मी मानव जा, हमारे चरणों के ढेर से प्रभूत चर्मण्‍वती नदी का पानी एक-एक हत्‍या का मय ब्‍याज-सूद के बदला लेगा। इसे पीनेवाला इनसान अपने ही जाति-भाइयों के लहू का प्‍यासा होगा।' तभी से प्रारंभ हो गई होगी यह खूनी परंपरा और तब से जाने कितना इनसानी लहू चंबिल का पानी बन चुका है, जाने कितना अभी बहेगा।

3

अपने आपको टटोलने लगा-रोमांच की प्रतीक, इस रहस्‍यमयी घाटी से कुशलतापूर्वक पार हो सकूँगा? न तो एकदम निर्द्वद्व और न भ्‍यभीत ही। साहस करने का उत्‍साह और सकुचाहट भी-देखा जाएगा, तो होगा सो झेलेगें, आ तो गए ही हैं।

एक रंगीन डोंगी के पास दो अनजान लड़कों को देख स्‍टीमर के कर्मचारी और चाय की दुकान वाले जुट आए। कुछ ही देर में सबसे परिचय हो गया, हम उनके मेहमान बन गए। हमारा सामान स्‍टीमर पर पहुँचा दिया गया और आस-पास की दुकानों का हर सामान हमारे लिए मुफ्त हो गया। आधुनिक सभ्‍यता से अलग-अलग गाँव की गलियों में पले इन दुकानदारों का दिल महानगरों के राजमार्गें के विस्‍तार को भी मात दे गया।

नहर की लड़ाई में जख्‍मी डोंगी की मरहम-पट्टी जरूरी लगी। घाट के मल्‍लाहों ने आगाह किया-'कौनउ तगड़ी टक्‍कर में नदी के नोकिले पत्‍थरों की तीखी धार टीन की तरी को मुलायम खीरे तरह चीर सकत है!'

श्‍याम अपने नव-परिचित मित्र के साथ खाना लाने चले गए और मैं लुंगी बाँधकर नाव के उपचार में जुट गया। बचा रह गया 'ब्‍लैक-जापान' निकला, 'लीक-स्‍टॉप' सँभाला, धरे-धरे चिमड़ा गए ब्रशों को तारपीन के तेल में डूबा दिया। डोंगी उलटकर धो डाली और फिर उसे सुखने दिया। ब्‍लैक-जापान में तारपीन का तेल मिलाकर हलका किया। चिमड़ाए ब्रश नरम पड़ गए तो नाव पर एक कोटिंग 'ब्लैक-जापान' चढ़ाकर ऊपर से दरारों में लीक-स्‍टॉप दबाते गए। डोंगी सीधी कर दी। भीतर से भी दरारों में लीक-स्‍टॉप भरकर सूराख मूँदे। दो घंटे की इस मेहनत में अँगुलियाँ फट गईं।

श्‍याम के लौटने ही सबकी मदद से डोंगी पानी में उतारी। उसे हिलाया-डुलाया, उसके भीतर खड़े होकर उछले-कूदे। कहीं से भी पानी अंदर नहीं आया, सभी छेद अच्‍छी तरह भर गए थे।

4

शाम होते-होते, स्‍टीमरों ने फेरी लगानी बंद कर दी। सवारियों की आवाजाही की आवाज और मोटरों की घर्र-घर्र थम गई। घाटी में सन्‍नाटा उतर आया। दस्‍यु-भय स्‍पष्‍ट दिखा। कस्‍बे की ओर चलने से पहले लोगों ने श्‍याम को जल्‍दी लौट आने और कीमती सामान साथ न ले जाने की सलाह दी थी।

एकाएक आसमान गाढ़ा पड़ गया। हवा के झोंके तेज होने लगे। जल्‍दी ही धूल भरा तूफान आ धमका। दिन भर फेरी लगाकर कतार में खड़े स्‍टीमरों पर हलचल मच गई। जहाजी दौड़-दौड़कर रस्‍से कसने लगे। लोहे के लंगरों की खनखनाहट शांत माहौल को चीरने लगी। नदी की धारा में अचानक खलबलाहट मच गई, ऊँची-ऊॅंची लहरें सिर उठाने लगीं। स्‍टीमर, दुकान, कपडों, सब पर रेत ही रेत। हू-s-s-हू-s-s-करते तेज हवाओं के झपाटे तारों-खंभों से टकराकर सीं-s-s-सीं-s-s-सिसकारी भरते और स्‍टीमरों को झकझोर डालते। आधे घंटे ऐसे ही चला। फिर, धीरे-धीरे झोंके हलके होते गए, लहरें नीची हो-होकर बैठने लगीं, फिर सारा वातावरण ऐसा शांत हो गया जैसे ऐसा ही रहा हो।

स्‍टीमरवालों ने रात के खाने पर बुलाया। उनके बंगाली मास्‍टर हमसे प्रभावित दिखे। वे हमें अपने यहाँ बिताए गए दिनों और कम गहरे पानी में अगल-बगल के पत्‍थरों से टकराने के डर से कलकत्‍ता से यहाँ तक बरसात में स्‍टीमर लाने के अनुभव सुनाते रहे।

चाय की दुकानवाले राम सिंह ने पहले ही चेतावनी दी थी-'रोटी भइया भले स्‍टीमर पर खाए लेऔ, मगर सोना मेरै घर पड़ियै।'

भोजन से तृप्‍त होकर उसकी दुकान में पहुँचे। श्‍याम ने बगल के बर्तनों के ढेर और ठंडी भट्ठी के पास एक चारपाई पर अपना बिस्‍तर जमाया। मैंने बारी-बारी से तीन चारपाइयों को आजमाया, हर बार टाँगें दो-दो फीट बाहर निकल गईं। परिस्थितिजन्‍य मुसीबत ने धराशायी होने को विवश कर दिया। राम सिंह का चेहरा अपराध-बोध से लटक गया। जैसे मेरी लम्‍बाई और चारपाई की छोटाई के लिए वही गुनहगार हों।

5

लोग डोंगी के पास जुटने लगे। एक दरियादिल चंबल-पुत्र ने अपने एकमात्र छोटे-से खेत के सारे टमाटर तोड़कर हमें भेंट कर दिए। यह टमाटर का एक बोरा नहीं, उस बहुत बड़े आदमी का समूचा दिल ही था। एक केवट ने दो चप्‍पू दिए, उनमें मुसीबत से उबारने का बल और गहरा स्‍नेह समाहित था। दूसरे लोगों ने भी ऐसे ही बेशकीमती उपहारों से डोंगी और हमारा दिल भर दिया। श्‍याम द्वारा आमंत्रित धौलपुर के ए.डी.एम. साहब की सवारी दस बजे के करीब आई।

डोंगी खुली, रेलवे पुल, उसके पहले एक ओर बीहड़ों की दीवार, दूसरी ओर फैला रेतीला पाट। पानी के बीच-बीच में उभरी रेत पर लंबी टाँगों वाले काले पतले पंछी। पुल के पीछे मुड़ती नदी, बीहड़ी दीवार व रेत का बदलता क्रम। सामने, वही अधटूटा पुल, बीहड़ पर टँगा गाँव, आते-जाते स्‍टीमर, पानी के बीच उठा खँडहर, किनारे के खेत की ढेंकुली, चाय की दुकान, स्‍टीमर खड़ा करने का प्‍लेटफॉर्म, उस पर खड़ी भीड़ और दूर बीहड़ों में समाती चंबल की चमकीली नीली धारा। स्‍टीमर के मास्‍टर साहब पुल के दो खंभों के बीच से नाव निकालने और धारा के बीच उभरी चट्टानों से बचने की तरकीबें समझाने लगे।

आगे बड़े तूफानों के आने की पूरी संभावना थी। ऐसे में अगर लहरें नाव को उछालने लगतीं और कहीं संयोग से नाव टेढ़ी होने पर श्‍याम पानी में गिर जाते तो उनके लिए खुद तैरकर किनारे पहुँचना, और मेरे लिए उन्‍हें बचाना असम्‍भव के बराबर होता। उनकी यूनिवर्सिटी की परीक्षाएँ नजदीक थीं और सबसे बड़ी समस्‍या पैसे की। कुल दस-बारह रुपए ही मेरी जेब में और श्‍याम के पास मुश्किल से लखनऊ पहुँचने तक का किराया। ऐसे में उनका वापस लौटकर आगे के किसी शहर में रुपए भिजवाने का खयाल सबसे अच्‍छा लगा।

श्‍याम के मन में आशंका के हजारों सर्प फन मारने लगे। वे बहुत उदास हो गए। पीछे आनेवाले पुल तक ही हमारा-उनका साथ रह गया। वहाँ से उनके व मास्‍टर साहब के वापस लौटने और मेरे बढ़ने की बात तय हो गई। वे बोले-'अगर तुम सही-सलामत पार हो गए तब तो वाह-वाह, वरना लोग मुझ पर ही थूकेंगे।'

उन्‍हें दिलासा दिया-'लोगों के सोचने से क्‍या होता है !'

लेकिन उन्‍हें चैन कहाँ-'सब यही कहेंगे कि जब तक सब ठीक रहा नौका-विहार का मजा लूटा और असली खतरा आया तो दोस्‍त को झोंककर खुद भाग आए। अच्‍छी दोस्‍ती निभाई।' लाख समझाने पर भी मुँह लटकाए रहे।

कुछ ही पलों में डोंगी रेत पर सट गई। पुल के बड़े-बड़े ऊँचे मेहराब, नदी किनारे पानी में खेलते बच्‍चे, बीहड़ पर पोय (जानवर) चराते ग्रामीण और दिशा बदलती नदी की धारा साफ सामने आ गए। अधटूटे पुल का आगे निकला किनारा दूर से सूखे पेड़ के ठूँठ जैसा लगा।

डोंगी से उतरते श्‍याम के कदम बोझिल हो उठे। उनका मसखरा स्‍वभाव और स्‍फूर्ति बेगाने बन गए। लाल चेहरे की रंगत जैसे चंबल की रेत ने सोख ली। रेत पर उतरकर मेरी और घूमे, होंठ कुछ कहने को थरथराए, बोल न निकले। आँखों की नरमी में स्‍नेह, सहानुभूति, पीड़ा, शुभकामना और प्रेरणा के भाव एक साथ तैर गए। नजरें चुराकर डाँड़ सँभाल लिए। छुपती आँखें एक ही पल को टकराईं और सैकड़ों उपाख्‍यानों जितने संवाद हों गए। किनारा दूर हटने लगा। वे हाथ हिलाते रहे। पुल का मेहराब पार हुआ, नदी मुड़ने लगी। वे खड़े रहे जैसे रेत ने उनके पाँव बाँध लिए हों।

6

रहस्‍यमय घाटी से गुजरने के रोमांच, नई मुसीबतों से दो-दो हाथ करने के हौसले, नए और अनजान के आकर्षण और अपनी ही तरह के विशिष्‍ट चंबली-सौंदर्य के जादू ने न केवल श्‍याम का साथ छूटने से उपजे खालीपन को भरा बल्कि कुछ ही पलों में औत्‍सुक्‍य और चुनौती स्‍वीकारने की भावना को भी उफना दिया।

नदी करवटें बदलने लगी। कहीं चौड़ी, कहीं पतली, गहरी, छिछली। एक ओर बीहड़, दूसरी ओर रेत, पानी में निकली ऊँची चट्टानें। साफ पानी में नीचे दिखती तली। कभी-कभी पानी की स्‍वच्‍छता की वजह से गहराई इतनी कम लगती कि जान पड़ता नाव अब जमीन से लगी, तब लगी, लेकिन वहाँ भी गहराई दो हाथ से कम न होती। धारा कहीं शांत, कहीं गतिहीन और कहीं पत्‍थरों के बीच कलकल करती। हर मोड़, हर पत्‍थर के पीछे से बराबर किसी दस्‍यु-दल के निकलने की आशंका सताती। लोगों ने सलाह दी थी-'पार उतारने को कैहें। उतार दियौ तो कछू नई कहिहैं।'

भय-मिश्रित उत्‍सुकता से उनका इन्‍तजार रहा। बार-बार लगता अबकी आनेवाले मोड़ पर होंगे, मोड़ निकल जाने पर सोचता-दूसरे के पीछे होंगे। खिंचे चेहरों पर ऐंठी मूँछें होंगी और लाल-लाल जालिम आँखों में मौत नाचती होगी। कंधों पर बंदूकें होंगी, गलों में कारतूसों की माला, कड़ककर पार ले चलने का हुक्‍म देंगे।

चप्‍पू चलाते-चलाते पसीने से भीग गए, परछाईं लंबी पड़ गई, मोड़-पर-मोड़, कगार-पर-कगार पार होते गए, आदमी की तो कहा कहैं, पशु भी नहीं मिला। समय बिताने के लिए चप्‍पू खींचते-खींचते गला फाड़-फाड़कर अलापने लगा-

'नदी घाघरा-s-s-s-s-बाढ़त आवै-s-s-s-s-

तू-s-रत चलै अरा-s-s-s-र

एक डिहरी में साँवाँ कोदौं, एक डिहरी में मेंडउवा।'

एक के बाद दूसरा बिरहा यूँ जुड़ता जैसे एक ही श्रृंखला की कड़ियाँ-

'ओ-s-गाले पर से हथवा हटावा ननगुटकी

के आइल बा बरतिया में चो-s-s-s-s-र।

आपन-आपन टिकुरी सँभारा मेहररूआ

के आइल बा बरतिया में चो--s-s-s-s-र।'

प्रकृतिजन्‍य मस्‍ती से अलापने के पल आज के जीवन में कम ही आते हैं। अंतर्मन को पूरने का इससे बढ़कर कोई इलाज नहीं। अलमस्‍त आवारा घूमना, नाव चलाना, कुछ दिन निठल्‍लों जैसा बिताना, वर्षा-स्‍नान, गहरी झील देखते ही छलाँग मारना और ऊँचे पहाड़ों पर चढ़ जाने की तमन्‍ना जीवन की निशानी हैं। लंबी मेहनत के बाद कुछ दिन का आराम जितनी ऊर्जा देता है उससे कई गुना ज्‍यादा दुनियावी गोरखधन्‍धों से अलग प्रकृति के एकांत में कुछ नितांत अपने दिन बिताने से मिलती है।

तीसरे पहर नदी किनारे एक तरबूज के खेत की झोंपड़ी से एक बच्‍चा बाहर आया। अपरिचित रंगीन डोंगी में इस तरह मेरा अलापते चलना निश्‍चय ही उसे विचित्र और अचरज भरा लगा होगा। चिल्‍ला-चिल्‍लाकर कुछ पूछने लगा। और आगे बढ़ने पर उलटी ओर लौटती माल लदी नावों के बेड़े, नावों पर जाल-टाल, अल्‍लम-गल्‍लम सामान वाला एक धीवर-कुल मिला जो मत्‍स्‍य-आखेट के अभियान पर निकला था। मेरी डोंगी उनके लिए विशुद्ध अचरज थी। सबने झटपट सलाम ठोंके।

हवा उलटी हो या उलटी धारा में चढ़ना हो तो नाव के मस्‍तूल के ऊपरी सिरे पर पतली रस्सियाँ मजबूती से कस देते हैं। फिर, पाँच-छह आदमी रस्सियों के एक-एक सिरे को थामकर नदी के किनारे-किनारे कमर, सीने या कन्‍धे के सहारे खींचते चलते हैं। नाव पानी में रहती है और एक आदमी उसकी किलवारी सँभालकर नाव को किनारे से दूर गहरे पानी में रखता है। इस तरकीब में रस्‍सी-खींचना सबसे खास काम है। रस्‍सी को संस्‍कृत में 'गुण' और खींचने को 'कर्षण' कहते हैं। इसी वजह से इसके लिए 'गुणकर्षण' शब्‍द गढ़ा गया जो कालांतर में 'गुन', 'गोन' या 'गोनारी' हो गया।

7

 

दूर, बीहड़ों के ऊपर, रेंगते कुछ आदमी दिखे। उनके बगल से पानी की पतली धाराएँ नीचे आ रही थीं। एकबारगी जो उनकी आवाज सुनी तो लगा, डाकू होंगे, सो हुकुम बजाने किनारे पहुँचा। सहमते हुए, उत्‍सुकता के साथ प्रतीक्षा की।

बीहड़ों पर सरकते हुए थोड़ी देर में वे लोग नीचे आए तो पता चला, घरवाली को विदा करा के ला रहे पार के धोबी ने घाट पर नाव न देखकर मुझे ही टेर लिया था। रूक ही गया तो पार भी पहुँचाया। वह बेचारा बहुत घबराया, बार-बार मुझे ऊपर से नीचे तक देखता और सहम जाता। जाने क्‍या समझकर उसकी सिट्टी गुम थी। नीचे उतरकर उसने सत्‍तर सलाम ठोंके।

अकेले, उन्‍मुक्‍त, डोंगी पर चलते जाने, चलते जाने में बहुत आनंद पाया। चंबल के बीहड़ों के किस्‍से-कहानी सुने थे, नाम से ही सहम जाता और अब वहीं अकेला तिर रहा था, बिना किसी चिन्‍ता के, बेखौफ। इन बीहड़ों, घाटियों को देखने की बड़ी चाह थी। कुछ ऐसा संयोग सधा कि इनके बीच, चंबल के उज्‍ज्‍वल वक्षस्‍थल पर ही कई-कई दिन-रात बिताने का मौका मिल गया।

चप्‍पू-दर-चप्‍पू आगे बढ़ते, मोड़ घूमते, पत्‍थरों से कतराते चले। दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे खार और गहरे कटाव, इक्‍के-दुक्‍के गाँव, बमुश्किल कोई आदमी नजर आता। बीच-बीच में उजले पानी के बीच पत्‍थरों-चट्टानों के छोटे-छोटे टापू मिले। इन पर सारस, बगुले और तरह-तरह के छोटे-बड़े पक्षी दिखे। पास पहुँचते ही उनके बड़े-बड़े समूह एकबारगी उड़ पड़ते और कुछ पक्षी अपनी जगह बैठे रहते। नजदीक पहुँचने पर कुछ और उड़ जाते, कुछ उड़ने की तैयारी में पर तौलकर भी उड़ते नहीं। कुछ डोंगी पर सजग निगाह जमाए अपनी जगह जमे रहते।

डोंगी गुजर जाती, फासला बढ़ने लगता। पर तौलते पक्षी आश्‍वस्‍त होकर आराम से बोलने लगते। ऊपर उड़ा समूह बड़ा चक्‍कर काटता गोता लगाता निकलता और अधिकांश पक्षी धीमे से पानी पर उतर जाते, बाकी एक और चक्‍कर काटकर फिर उतरते। इस तरह तीन-चार चक्‍करों में सभी अपनी पुरानी जगह पर डटे नजर आते।

तरह-तरह के जाने-अनजाने पक्षी, भूरे, स्‍लेटी, सफेद। काले पक्षी की आँखों का घेरा सफेद, सफेद का काला। किसी का वक्ष सफेद, किसी का लाल। शीख पर, जलमुर्गी, टिटिहरी, चक्रवाक, बगुला, सारस, मयूर। एक पैर पर ध्‍यान लगाए, तैरते, उड़ते। कूजते, मछली मारते, नाचते, डुबकी खाते, विविध-विहंगों की मोहक क्रीड़ा -

कूजत कहुँ कलहंस कहूँ मज्‍जत पारावत।

कहुँ कारंडव उड़त कहूँ जल-कुक्‍कुट धावत।

चक्रवाक कहुँ बसत कहूँ बक ध्‍यान लगावत।...

शाम तक हवा हलकी पड़ गई। स्थिर शांत पानी के बीच मगर या घड़ियाल जैसा विशालकाय जन्‍तु उलटता दिखा। दूर कुछ आदमी ऊँटों की नकेल थामे टिंघुरते हुए। कुछ आदमी बोझा लादे घर लौटते। एहसास हुआ कि साँझ घिर रही है और अब डेरा डालने का जुगाड़ करना चाहिए। धौलपुर में ही लोगों ने कहा था-'किनारे से दूर बीच में रूकौ जासे जानवर और बदमाश ढिंगा न आय पावैं।'

मेरे पास लोहे का लंगर न था लेकिन वहाँ के मल्‍लाहों ने मुझे एक खाली सीमेंट की बोरी देकर बताया था-'बोरी में आधी बालू भर के ऊपर से बाँधकर पानी में डाल देवो, जाको लंगर बन जावे।'

धारा घूमती हुई एक अर्द्धवृत्‍त बनाती दिखी। एक ओर दूर तक फैला गुलाबी रेतीला पाट और दूसरी ओर ऊँचे-ऊँचे खारों का भूरा सिलसिला। किसी-किसी खेड़े पर एक-दो पेड़, दूर बीहड़ पर गाँव। धारा के बीच-बीच में निकले पत्‍थर और उनसे टकराती जलधारा कलल-कल-कल करती। कोई-कोई मछली पानी की सतह पर दूर तक बिछलती नजर आती। चिड़ियों का कलरव सुन पड़ता और रह-रहकर मछलियों की डुबकियों की आवाज। डूबते सूरज की तिरछी वलयों से पश्चिमी गगन ललछौंहे, सफेद, पीले व बैंगनी रंग के मोहक बादलों के साथ एक बहुत बड़ा कैनवास बन गया। हवा थिर गई और हिलोरें लेता पानी शांत हो गया। ऊँट की कूबड़ी पीठ पर लचकता आदमी दूर से छाया जैसा डोलता नजर आता।अकूत प्राकृतिक सौंदर्य पसरा था। रोमांचक चंबल घाटी की मनोहारी सुंदरता बड़ी प्‍यारी लगी।

एक रंगीन डोंगी का इस तरह बीच धार में रूकना और उसमें बैठे अकेले नए आदमी को देख सामने के ऊँचे खेड़े पर बसे गाँव के लोग चौंके। एक आदमी देर तक बैठा-बैठा मेरे हर एक क्रिया-कलाप पर नजर रखे रहा। धीरे-धीरे बीहड़ों की परछाईं पानी में गहराई तक धँस गई। झींगुरों की झनकार और टिटहरी की टुटकार सुन पड़ने लगी। दो ऊँचे खारों के बीच से अस्‍त होते सूर्य की क्षीण रोशनी फूट पड़ी, काले पड़ चुके बीहड़ पर बोझा लादे छाया डोलती रही। खा-पीकर देर तक अधलेटा सा गाँव की टिमटिमाती रोशनी पर नजर गड़ाए रहा।

'ओह ! तो यह है चंबल घाटी ! बाहरी इलाकों में किसी को भी चौंकाने के लिए दो शब्‍दों का बम। इसकी कितनी रहस्‍यमय और भयानक तसवीर सामान्‍य जन-मानस में बन चुकी है। लेकिन यह तो बहुत सुंदर, बड़ी ही मोहक है।

'पर वे कहानियाँ झूठी तो नहीं। किसी भी पल कुछ भी हो सकता है।'-'…हुँह, क्‍या हो सकता है? ...ज्‍यादा से ज्‍यादा पकड़ ही तो लेंगे।'....'गोली भी तो मार सकते हैं!'...'बिना मतलब मार देंगे? इतने बेरहम तो न होंगे? भागने का रास्‍ता नहीं हो सकता? ... घरवालों पर क्‍या गुजरेगी... श्‍याम क्‍या सोचेगा? .... -अब रास्‍ते में होगा... घरवाले और साथी तो जानते भी न होंगे कि मैं इस रास्‍ते जा रहा हूँ।'

8

रात जहाँ लंगर डाला, अंदाजन राजस्‍थान-मध्‍यप्रदेश की सीमा पर उत्‍तर प्रदेश की सीमा से कुछ पहले ही होना चाहिए। उजाला होने से पहले ही नींद खुल गई। बीहड़ों में उदय होते सुंदर सूरज का सुनहरा सौंदर्य बिखर गया, धीरे-धीरे पूरा इलाका आलोकित हो उठा, चिड़ियाँ बसेरों से निकल पड़ीं। पानी फिर भी शांत रहा।

बादलों को सुखद छाया से मौसम सुहावना हो गया। ठंडी हवा के झोंके हौले-हौले लहराकर नीले जल-तल पर खेलने लगे। इस हलकी छेड़छाड से ही धारा की सतह पर ऐसा कम्‍पन उठा मानो चंबल सिहर उठी हो। श्‍यामल, धुआँरे, दूधिए बादलों के समूह गगन में छितराकर निर्द्वंद्व विचरने लगे।

काले मेघ ने सूरज को ढक लिया। मेघ के किनारों से सूर्य-रश्मियाँ छिटकने लगीं। लगा कि एक बड़ा-सा हीरा चमचमा रहा हो। महाकवि कालिदास ने ऐसा ही नजारा देखकर लिखा होगा-'ऐ मेघ! जब तुम भगवान विष्‍णु का साँवला रूप चुराकर चर्मण्‍वती का जल पीने के लिए झुकोगे, उस समय आकाश में विचरनेवाले सिद्ध, गंधर्व आदि को दूर से पतली दिखाई देनेवाली उस नदी की चौड़ी धारा के बीच तुम ऐसे दिखाई दोगे मानो पृथ्‍वी के गले में पड़े हुए एकलड़े हार के बीच में एक बड़ी मोटी इंद्रनील मणि पोह दी गई हो।'

फर्क इतना ही कि उस समय मैंने मेघ को नीचे डोंगी से देखा और कालिदास का मेघ ऊपर से चंबल की स्‍वच्‍छ सतह पर अपना ही रूप-बिम्‍ब निरख रहा था।

हवा तेज होती गई। सोचा, क्‍यों न चलती हवा का लाभ उठा लूँ! मस्‍तूल सीधा कर, उस पर एक छोटी घिर्री बाँधी और उस पर चादर चढ़ाकर पाल तान लिया। नाव के पिछले कुंडे में चप्‍पू फँसाया और 'स्‍टीयरिंग' जैसी किलवारी दिशा- निर्देशन को तैयार। हवा के झोंकों के साथ डोंगी पानी पर फिसत चली। इतने दिनों के बाद हवा के दम पर पेंगें मारने की मौज के क्‍या कहने! ऐसे अंदाज में पाल की रस्सियाँ और किलवारी सँभाली कि किशन कन्‍हैया भी वैसी ठसक से रथ की रास क्‍या थामते होंगे!

आगे बढ़ने पर एक ओर पत्‍थर को चट्टानें नोक उठाए दिखीं, किलवारी को घुमाकर उससे डोंगी को टकराने से बचाया। दूसरी ओर तली में पत्‍थर दिखे तो झट से काटा। डोंगी ऐसी लहराकर चली कि हॉकी का कुशल कैरीबाज भी उस पर निसार हो जाएँ।

दूर से एक नौ-बेड़ा किनारा नापता दिखा। उसके नायक ने मुझे आगे बढ़कर आवाज दी। राजा इन्‍दर वाले नशे में खलल पड़ा तो मैंने अनख कर उधर देखा। सोचा, नहीं जाना किनारे, ऐसी बढ़िया हवा में क्‍या कोई नाविक किनारे जाता है? उसने दोबारा आवाज लगाई। उसे भी अनसुनी कर आगे बढ़ाया चाहा लेकिन तभी इस खयाल ने सारे ताव पर पानी डाल दिया कि कहाँ ये बागी तो नहीं? अपने-आप किलवारी पर हाथ घूमा और डोंगी तीराभिमुख हो ली। वे नेकर और बनियाइन में दिखे। उनकी ऐनक चढ़ी आँखों में कौतुक भरा था। पतले कंकाली ढाँचे में वे प्रेत जैसे लगे। देखते ही सोचा-ये तो बागी नहीं हो सकते।

पता चला कि वे मगर और घड़ियालों की गिनती करनेवाले सरकारी चाकर हैं। उन्‍होंने मुझे मच्‍छी वाला समझकर आवाज लगाई थीं। अब हमें देखकर हलाकान हुए जाते थे। हमारा मकसद सुना तो उनकी आँखों में सन्‍देह जागा। ऐनक सँभालते हुए पूछा-अकेले ही? अपनी समझ से उन्‍होंने नाग-पाश फेंका लेकिन हमारी सत्‍यानारायणी कथा के ब्रह्यास्‍त्र ने उसे यूँ ही काट फेंका। सब सुनाकर बिन माँगे सलाह देने लगे-'मानसून आने से पहले हर हाल में कोलकाता पहुँचना अच्‍छा होगा। वहाँ बारिश जल्‍दी और बहुत ज्‍यादा होती है।' उनसे यह भी पता चला कि नदी में सचमुच घड़ियाल रहते हैं।

9

फिर से पाल तानते ही डोंगी राजस्‍थान की सरहद पार कर उत्तर प्रदेश की सीमा में निकल गई। लेकिन यह तेजी मौसम को रास न आई। पश्चिम से रेत का सैलाब झपटता हुआ आया। मोटी रेत की झड़ी लग गई। डोंगी बेहिसाब रफ्तार से भागी। टूटे मस्‍तूल के छेदों से सीटियाँ बजने लगीं। तब तक एक चट्टान दैत्‍य जैसी सामने उभर आई। मैं घबराया कि 'अब तो निकला डोंगी का कचूमरा !' रस्सियाँ ढीली करने के चक्‍कर में हड़बड़ाया और तभी किलवारी धारा में जा पड़ी। डोंगी अपने हाल पर मचलने लगी। सँभालने की कोशिश की तो रस्सियाँ छटककर उड़ चलीं। झटपट उतारा और चट्टान पर चप्‍पू अड़ाकर किसी तरह टक्‍कर झेली। तूफानने वितंडा मचा दिया। मानो साँड़नी की दौड़ मची हो। बीहड़ों के आगे रेतीला पर्दा झिलमिलाने लगा। डोंगी को लंगर के सहारे छोड़ दूर जा बैठा।

बैठे-ठाले क्‍या कहता, गुड़ और चने पर ही टूट पड़ा। मन भर गया तो रेत पर टहलने निकला। चलते-चलते धारा में उतराता अपना चप्‍पू दिखा, लहरोंकी मार से कभी किनारे आता तो कभी पानी में खिंच जाता। तभी एक तेज लहर चप्पू को किनारे पर टिका गई। लपककर उठाया और कन्‍धे पर बंदूक-सा उठाए वापस चला। बावली हवा पूरी घाटी में सर मारती रही। ऊपर से पानी भी बरसने लगा।

पाल लगाना चाहा तो तूफानी हवा ने रूख बदल दिया। कभी रस्सियाँ छूटकर हवा में फड़फड़ाने लगतीं तो कभी किलवारी खिसककर दूर पानी में जा पड़ती। जब तक सँभालता लहरें डोंगी को रेत पर ला पटकती। आखिर तंग आकर पाल उतार फेंका, मस्‍तूल नीचे गिराया और डाँड़ सँभाला। डोंगी बार-बार लहरों के झूले पर चढ़ जाती, ढेरों पानी अंदर आता। ऐसे में वहीं किनारा पकड़ा जिधर से हवा के झोंके आ रहे थे। बढ़ना आसान हो गया। अब न हवा देखी न लहर। किनारा थामे चप्‍पू चलाते गए-खटर-खटर-खटर-खटर-खटर-डुडुब-डुब-छप्‍प। डुडुब-डुब-छप्‍प।

खेतों में काम करते किसान छूटे-पशु चराते चरवाहे ओट पा गए, दूर से दीखता ऊँचा कटा हुआ सपाट कगार आया और निकल गया डोंगी बढ़ती रही।

किनारों पर एक ओर कटी-फटी कंगार और दूसरे तट पर फैली-फैली रेत। थोड़ी देर में रेत पर एक छोटी झोंपड़ी दिखने लगी। इतनी छोटी और चिपटी झोंपडियाँ रेगिस्‍तानी आँधी में नीचे झुक जाती है। बड़ी बनाएँ तो उड़ ही जाएँ।

तभी किनारे से एक आदमी ने आवाज लगाई-' ओ रे -S-S-S नाव रोक दे -S-S-S'

नियम ही बनाकर निकल थे कि जिसका भी हुकूम हो सर-माथे। डोंगी किनारे लगाकर साथ हो लिए। साथ हो लिए। वह चलते-चलते बोला-'वहाँ मडै़या में तुम्‍हें बुलाओ है।'

झोंपड़ी में घुसते ही एक बारगी कदम ठिकक गए लेकिन पहले की मानसिक तैयारी ने चेहरा भावहीन रखा-'हूँ तो ये है प्र‍तीक्षित दस्‍यू-दल ! पुलिस की वर्दी। कंधों पर सितारे। सब के सब ऑफिसर रैंक के।... सिपाही एक भी नहीं...'

उन्‍होंने पूछा-'हिंयन से अकेले काहे जाय रहे हो? '

फौरन जवाब देकर फिर से उन्‍हें अंदाजने लगा-'रायफलें तीन सौ पन्द्रह बोर, एकनाल-दुनाल बंदूकें, स्‍टेनगन... , ये असलहे पुलिसवाले कब से रखने लगे, डाकु ही हैं... शायद डाकू ही हैं... शायद पार उतरवाने को कहेंगे ... कहीं पकड़कर फिरौती ना माँगने लगें… फिर सोचते रहे कि देखा जाएगा...।

भय की लहर मन के हिंडोले पर तेजी से घूमी।

उनमें से ज्‍यादातर मेरे हमउमर और कुछ उमरदार। कद-काठी हम जैसी ही। चेहरा शांत। कुछ के कठोर चेहरों पर चढ़ी मूँछें। अजीब सी ठंडी-ठंडी आँखें।

शायद उन्‍होंने मुझे कोई गुप्‍तचर समझा था इसलिए कुछ ज्‍यादा ही पूछताछ की। लेकिन आगरा से निकलने वाले 29 मार्च के 'अमर उजाला' अखबार में छपी मेरी तसवीर और पूरा ब्‍योरा बड़ा काम आया। उसे देख-पढ़कर संतुष्‍ट हो गए। उनमें से किसी ने आगरा में वह खबर पढ़ी भी थी।

अब, एक ने पूछा-'कौन ठाकुर हौ? '

नाम सुनते ही आदर से बोला-'पाँय लागै।'

ब्राह्मण और विद्यार्थी, फिर ऐसी कठिन यात्रा काहे को ! मेरे हक में तो सोने में सोहागा हो गया।

'बहो-s-s-s त हिम्‍मत करी तुमने! बहो-s-s-s-त हिम्‍मती निकरे ! जा घाटी में तुम पहली बार जाय रहे हौ। सब लोगन की हिम्‍मत नाय परे ऐसी यात्रा पर निकरबे की।'

मन ही मन सोचता रहा-फुरसत मिले तो आगे बढ़ें। इनका क्‍या भरोसा अभी खुश हैं, अगले पल में बिदक जाएँ तो? ....सो अपने भर पूरी नरमी से चलने का इरादा जताया-'अब चलूँ, बहुत दूर जाना है।'

उधर से वही पहले वाला, जिसने डोंगी रूकवाई थी, बड़े प्‍यार से बोला -

'जू कैसे होए जैहे? ऐसे थोरो चले जैहो, बिगर खाए-पिए।'

मुखिया ने एक को बीहड़ों में भेजा-'ऐ तुम गाम से दूध-बतासा लै आओ।'

फिर रूक-रूककर सवाल होते रहे-'कौन क-s-क्षा में पढ़त हौ? ....तुम्‍हाए बाप का कत्‍त हैं? ....कै भैया-बहिन हौ? ....तुम्‍हाओ जे यात्रा करने को कौन सो फायदा है? '

एक-एक कर जवाब देता चला। फिर उन्‍होंने अपने इलाके की तारीफ के पुल बाँध दिए-'चंबिल को पानी बहुत साफ है। पीनो में भोत अच्‍छी लागि है। रूपिया डाल दै तो ऐसो जान पत्‍त है हाथ भरे पर धरो है। जहाँ के आदमी दिल के बहुत साफ हैं। तुम्‍हाई खूब सेवा करिहैं। दूध-मठा पिबैहैं।...'

फिर आजकल के लड़कों की बारी आई, सैकड़ों गालियाँ उनके मत्‍थे पड़ीं-'सारे हाथी पाँव पहिन के घूमत हैं। इत्‍ती बड़ी-बड़ी कलमै कटाय लैं औ मूँछें अलग मुड़ाय लेत्‍त हैं, और मोढ़िन के चक्‍कर में दिन भर फित्‍त रहत हैं। हिम्‍मत वारो काम कहा करिहैं। उन्‍हें तो छिनरपनै से फुरसत नाय।'

दूध-बतासा आया। आत्‍मीय सत्‍कार से खिलाया-पिलाया। कठोरता का कहीं आभास नहीं जिसके लिए यह घाटी सारे जग में बदनाम है। आदमी तो आदमी। फिर चाहे डाकू हो या साधु। बिना वजह पागल ही किसी को मारता है। मौका पड़े तो साधु भी हिंसक बन सकता है। चंबल वालों की हिंसा के पीछे बहुत सी आर्थिक, सामाजिक और ऐतिहासिक वजहें हैं, वरना आमतौर पर कोई भी घरबार, बीवी-बच्‍चों को छोड़कर बागी बनना पसंद नहीं करता, और न किसी को मारना ही चाहेगा।

इधर मेरी डोंगी खुली, उधर उनकी टोली बीहड़ों में बढ़ चली। रहा-सहा भय भी जाता रहा। निर्द्वंद्व भाव से चप्‍पू खींचते चले।

चंबल घाटी के सर्पीले कटान वाले खुरदरे भूरे बीहड़ों की बागी-परंपरा तकरीबन सात सौ बरस पुरानी है। उससे पहले भी यहाँ बागी उपजते रहे हों तो कोई अचरज की बात नहीं। इधर के कोंतवार इलाके में होकर दक्षिण जानेवाले सार्थवाहों (व्‍यापारी) को शायद इन्‍हीं के भयवश आयुधजीवियों का जत्‍था लेकर चलना पड़ता होगा। तेरहवीं शती में अपने जमाने के तपे हुए दस्‍यु हतिया को रज्‍जू राउत द्वारा बीहड़ों में खदेड़े जाने की बात लोगों को मालूम है। बलबन के जमाने में मेवातियों ने बड़ा उत्‍पात मचाया, बीहड़ों में छुपी उनकी टोलियाँ घात लगाकर हमला करतीं और फिर कहीं गुटक जातीं। बलबन ने उनसे निपटने के लिए इस इलाके के जंगल साफ कराए और चौकियाँ लगवाईं।

अमूमन डकैतों की निश्चित सीमाएँ और आदर्श रहे, और उसके लिए वे चंबल की कसम खाते रहे। कहते हैं कि कसम तोड़नेवालों को चंबल ने कभी माफ नहीं किया-'मर्यादा रखनेवाले गोली खाकर भी पार उतरि गयै, और न माननेवालों की तो एक ही फैर में लोथ उतराय गयै। चंबल की लाज बचाय के अन्‍याय से लड़न वारे बागी माने गयै और घर-घर पुजे। अत्‍याचार कियो तो कुत्‍तन की मौत मरे।'

10

बीहड़, मोड़, घाट, खेत, गाम, गुजरते गए। शाम गहराई, सूरज डूब चला। पानी पर पड़ती बीहड़ की परछाईं स्‍याह पड़ गई। जहाँ लंगर पड़ा, सामने बीहड़ पर एक मंदिर नजर आया। आस-पास मोर कूक रहे थे, दूर कहीं अलाव जलता दिखा। पहले दिन की तरह ही लोग सन्‍देह से भरे दिखे। इस तरह बीच नदी में लंगर डालना इन्‍हें अखर रहा था। पूरी तरह अँधियारा घिरने तक वे टकटकी बाँधे देखते रहे।

जल-पक्षियों की आवाज सुन पड़ती-'क्रैं-s-क्र, कैं-s-क्र, क्रैं-s-क्र।'

मानो, पूछते हों कौन? कौन? शायद मुझ अजनबी की पहचान उन्‍हें भी हो गई थी। पीछे कहीं मोटरों की घुर्र-घुर्र सुनाई पड़ती। अंदाज लगाया कि पिनहट होगा।

लेटे-लेटे आसमान ताकते सोचता रहा-चमचमाते, झिलमिलाते अनगिनत सितारे। सब जगह गगन का एक ही रूप...., डाकू भी मिले लेकिन कुछ हुआ नहीं।....पहले ही डर जाते, ना आते तो यह सब देखने-जानने को कैसे मिलता? ....पत्‍थरों पर बैठे परिन्‍दे कितने सुंदर, कैसे प्‍यारे !...ऊँटों की छाया, बीहड़ों की पृष्‍ठभूमि में कैसी दिलकश...वक्‍त रूक जाए और पास में एक अच्‍छा कैमरा और रंगीन फिल्‍में हों... इस जीते-जागते चित्र को ज्‍यों का त्‍यों सँजो लूँ। ...कभी-कभी पैसे के बिना कितने जरूरी काम रह जाते हैं...।

चंबल घाटी के मरदाने सौंदर्य की सख्‍ती में तनिक सी स्त्रियोचित कोमलता का सम्मिश्रण है। यह सौंदर्य धरती जैसा सख्‍त, आकाश जैसा खुला और मेघ-सा स्वच्छंद है। इसके साथ थोड़ी नरमी खुरदरे खारों पर लोटती चंबल की नरम नीली धारा जैसी मिल गई है। मार-काट, खून-खराबे, लहू-लोथ से बनी मनोभूमि के साथ, ऊबड़-खाबड़ बीहड़ के खुरदरेपन के अनुरूप ही उस पर जन्‍मे और बढ़े सख्‍त कड़ियल जवानों का ऐंठा मजबूत बदन। गुप्‍त सम्राटों को नाकों चना चबवानेवाले नाग-राजाओं और उत्‍तर भारत की राजनीति पर तलवार चमकानेवाले चौहानों की वीरगाथाएँ, प्राचीन सौरसेन प्रदेश में सैकड़ों बरस से चली आ रही बागी परंपराओं की गाथाएँ। कन्‍नौज पर महमूद के कब्‍जे के बाद भदौरिया, तोमर और कछवाह राजपूतों और मेवातियों को पालनेवाली धरती के बारे में, अब्‍दाली-औरंगजेब और दूसरे दिल्‍ली-पतियों की टक्‍कर में यहाँ के अक्‍खड़ जवानों के अड़ने के किस्‍से, ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों के शिकार होकर भी बागियों द्वारा निबाहे गए आदर्श, राव-राजा-जमींदारों से तनातनी और कलियुगी बागियों (?) की दरिन्‍दगी के किस्‍से हिंदुस्‍तान के कोने-कोने में सुने जाते रहे हैं।

किले की ऊँची प्राचीर जैसी मजबूत नदी की तराशी हुई कगारों और नीचे चंबली धारा की मोहक सुंदरता का क्‍या खूब मेल हुआ है, मानो कँकरीले खारों पर खड़े कँटीले बबूल के दरख्‍तों पर लिपटी कोई बरसाती लतर हो। फैली हुई गुलाबी रेत का नरम स्‍पर्श-सुख, यहाँ-वहाँ पत्‍थरों पर टिके नरम और नाजुक परिन्‍दों का प्राकृत भोलापन, कभी-कभार दिखती शोख ग्रामीण मोढ़ियों का सलोना रूप और शीशे जैसे साफ पानी का ताजा स्‍वाद बेजोड़।

थमी हुई शांत सिहरन भारी चंबल का निर्मल जल-तल। एक ओर पसरा गुलाबी रेत-पट, दूसरी ओर भाँयँ-भाँयँ करता ऊँचा भूरा बीहड़। उस पर लालिमा बिखेरती अस्‍ताचलगामी सूर्य-रश्मियाँ। चिड़ियों की चहचहाहट, झिल्‍ली की झनकार, दादुर-रट, फाख्‍तों का गूँ-गूँ और मयूरों की संगत।

एक ओर किनारे से दूर, खलिहानों से चले आते बोझ उठाए ऊँट, उनकी नकेल थामे रफ्ता-रफ्ता गाँव की ओर डोलते लोग। दूसरी ओर बीहड़ी ढाल पर हरी रह गई घास का स्‍वाद लेता अल्‍हड़ हिरन, लाल, गुलाबी, सफेद, पीले, नीले, सारे रंगों के छींटे से रचा गगन ऐसा लगता मानो चटख रंगों वाले चिकने गुब्‍बारे को फैलाकर पूरे आसमान पर तान दिया गया हो। धारा पर पड़ता उसका अक्‍स गजब ढा रहा था।

11

सुबह चलते ही पिनहट दिखने लगा। नदी किनारे पक्‍का घाट और मंदिर, कगार के ऊपर पुराना पेड़। कहते हैं यहाँ पांडवों के राज में बाजार लगता था। इसी से इसका नाम पांडु-हाट (पांडव बाजार) पड़ा जो बाद में पिनहट कहलाया।

आगे गठरी-मुठरी सँभाले पसीना पोंछते चले आ रहे दो राही मिले। कँकरीले बीहड़ पर चढ़ते-उतरते उनकी नजर डोंगी पर पड़ी तो ठहरकर आपस में कुछ सलाह करने लगे। पास आने पर बोले-'आंगे कोन्‍ना पर मेरो गाँव है हमें लए चलो।'

उन्‍हें भी सिर-आँखों पर बिठाया। एक का नाम गर्व सिंह तोमर, दूसरे का किसुन सिंह तोमर। करौली माता के मेले से लौट रहे थे। गर्व सिंह प्रसाद देते हुए बोले-'गरमी बहोत ज्‍यादा है। ...घाट को ठेको मेरो है ...कहाँ की नाव है? ...कहाँ जात्‍त है ? ...माधो सिंह भी 'तोमर' है।'

बातों-बातों में दूरी कटते पता न चली। उनका ठिकाना आ गया। गाँव के सामने दो डोंगे दिखे। सवारियाँ जगह पाने के लिए आपस में लड़ रही थीं। उनके साथ एक-एक कर ऊँट और बंदूक वाले जवान चढ़े, डोंगा खुल गया। सवारियों की निगाहें हमारी ओर उठ गईं। ये डोंगे अपनी तरह के अनूठे हैं, इन्‍हें बनाने की अपनी अलग ही विधा है। आकार भी दूसरी नावों से अलग। इनके सिरे नुकीले न होकर सपाट होते हैं जिससे ये आयताकार जैसे हो जाते हैं।

हमारी डोंगी में सवार दोनों राही इसी घाट के ठेकेदार थे। पता चला कि दोनों 'चढ़ी चंबिल पैर जात्‍त हैं।' यानी दोनों उफनती नदी को तैरकर पार कर जाते हैं। मुझसे गाँव चलकर भोजन पा लेने की मनुहार करने लगे। किसी तरह उनसे विदाई ली। उन्‍होंने जयकारा लगाया-'जय कैला माता की ...जय चामल माता की...।'

मथुरा और आसपास के इलाके में चामल माता के कई मंदिर हैं। लगता है कि चामुंडा देवी के नाम के अपभ्रंश से चंबिल या चामल नाम भी जुड़ा है। मानव-मुंडों की माला पहनने, रक्‍त-पान करने और मानव-शव पर विराजनेवाली यह देवी इस जमीन के माफिक लगती भी है।

कुछ दूर चले कि फिर दो लोगों ने हुकुम चलाया-'ओ-s-रे-s नाव हिंयन लै आव।' एक बार फिर से हमारा कच्‍चा चिट्ठा उधेड़ा जाने लगा। इसी समय बीहड़ों से उतरकर पाँच रायफलधारी सामने आ गए। उन्‍हें देखकर सोचा कि पिछली बार मिले पुलिसवालों के भीई-बंद होंगे। मन ही मन उनके स्‍वागत के लिए तैयार हो लिए। बहुत बार सुने सवाल फिर सामने आए। वे मध्‍य प्रदेश पुलिस के जवान निकले। सबसे ज्‍यादा पूछताछ रणवीर सिंह, 5 बटालियन, मुरैना, एस एफ कैंप और ब्रजनंदन, पुलिस स्‍टेशन महुआ ने की। फिर वे संतुष्‍ट होकर बीहड़ पर उकडूँ बैठकर बीड़ी पीने लगे।

किनारे बुलानेवालों में से एक श्री पूजा राम गाँव के प्राइमरी स्‍कूल के मास्‍टर साहब ने बातों के बीच ही किसी को गाँव से दूध-बतासा लाने रवाना किया। देखते ही देखते लोटा भर दूध और पाव भर बतासे हाजिर। तनिक सी भूख न होने पर भी उन्‍होंने पूरा लोटा ही मुँह में उलट दिया जैसे अरसे बाद गाँव लौटने पर बाबा-दादा ने प्रगाढ़ प्रेम दरशाया हो। बाँह पकड़कर बोले-'मेरे ढिंगा बैठ के खाओ लला !' जब तक सारे बतासे गटक नहीं लिए चलने की इजाजत नहीं मिली।

जगह-जगह घाट के ठेकेदार डोंगी रूकवाते रहे। लोग मुझे मछुआरा समझकर पूछते-'ओ रे, तेरे पास मछरी हैं? ...कै हैं ! जामे का मछरी धरे हैं? ' पास जाने पर भूल का एहसास करते और तब वे नई उत्‍सुकता से वही बहुत बार सुने सवाल उछालते। बताने पर भी विद्यार्थी मानने को तैयार नहीं होते। कुछ समझते कि पुलिस या सेना का जवान हूँ और नाव चलाना मेरी ट्रेनिंग का हिस्‍सा।

अकेले चलते-चलते तबीयत ऊबने लगी। थोड़ी-थोड़ी दूरी तय करना भी बोझ लगने लगा। खुली धूप में बारम्‍बार प्‍यास सताने लगी। समय काटने की एक तरकीब निकाली, तय किया-एक हजार चप्‍पू चलाए बिना पानी नहीं पियूँगा, और पाँच हजार चप्‍पू चलाए बिना आराम नहीं। चप्‍पूओं की गिनती करते-भूलते बढ़ते गए। पहर ढल चला। डाँड़ा चलाते-चलाते अँगुलियाँ अकड़कर टीसने लगीं। एक छोटा कपड़ा भिगोकर पंजों के नीचे दबा लिया। ठंडे पानी से कुछ राहत मिली। डाँड़ चलते रहे।

12

धारा के आर-पार मछुआरों के जाल खिंचे मिलते। बार-बार उनसे जाल खोलने को कहना पड़ता। कोई मछुआरा डोंगी पर जाल तक जाता, जगह बनाता और हम आगे बढ़ते।

एक छोटा जाल आया, दूसरा बड़ा जाल आया, महाजाल से पाला पड़ा। ऐसे ही एक जाल के पास किनारे रेते पर खेमे गड़े दिखे। कोमल रेत पर मस्‍ती में खेल रहे बच्‍चों में मुझे देखकर हड़बड़ मच गई। उनकी चीख-पुकार से तम्‍बुओं के मछुआरे सजग हो गए और एकाएक मुझे अपने डेरे में पाकर चौंक उठे। किसी ने झट से दावा किया-'ओ-s-रे-जे तो फोटो बाले हैं।' वह समझा कि 'मुझे जीने दो' या 'चंबल की कसम' जैसी किसी फिल्‍म की शूटिंग चल रही है और मैं उसका एक किरदार। यह सब मेरी नीली जींस, बेल्‍ट से लटकी कटार, टोपी और रँगी-चुनी डोंगी का असर था। उन्‍हें समझाया-'फिल्‍म बनती तो तमाम ताम-झाम होता। कैमरे, दस-पाँच्र आदमी होते और हिरोइन भी होती।'

लेकिन उनके चेहरों पर अविश्‍वास की कठपुतलियाँ ठुमकती रहीं। बच्‍चे घेरा तोड़-तोड़कर आगे आने को लपकते रहे जैसे वहाँ दुलदुल घोड़े का नाच चल रहा हो। सोचा कि ऐसे तो आगे निकलना मुश्किल हो जाएगा, सो रोब जमाकर बोला-'फौजी हूँ, ट्रेनिंग पर निकला हूँ। चलो, जल्‍दी से जाल खोलो, देर हो रही है।'

वे सकते में आ गए। सेना का नाम सुनते ही आम आदमी चौकन्‍ना हो जाता है। सिटपिटाए मछुआरे मुझे घूरते रहे। मैं थोड़ा और बमका-'अबे, इधर क्‍या ताक रहा है ! चल जाल खोल।'

एक माँझी ने पानी में उतरकर जाल का बाँस खींचा। तीस-पैंतीस की तादाद में कभी सपरिवार और कभी छूछे ही, मछली का अहेर करनेवाले इन मछुआरों का धर्म ही आखेट है। इनका सारा असबाब-तम्‍बू-कनात-जाल, बाँस, रस्‍सा-रस्‍सी, और बर्तन वगैरह सब सात-आठ डोंगियों पर लदा चलता है। नदी में ऊपर-नीचे तिरते, कम गहरे प्रवाह के आर-पार जाल तानते, रेत पर खेमा जमाकर डेरा डालते, मछली मारते, बेचते, इन जन्‍मजात धीवरों की यायावरी भी तिरती रहती है। चंबल के सूने तट पर खड़े इनके छोटे-छोटे तम्‍बू, सूखते जाल, बालू खोदकर बनाए गए चूल्‍हे, उन पर चढ़े एल्‍यूमिनियम के बर्तन, इधर-उधर बिखरी पड़ी मछलियाँ, उनके कटे-पिटे टुकड़े, इन सबके बीच खाना खाते बच्‍चे, जाल सीते या उसे बालू पर फैलाते मत्‍स्‍यजीवी-बच्‍चे, बूढ़े और जवान उत्‍सुकता भरे लगे। ये दूर-दूर तक अहेर खेलते चले जाते हैं। इनकी मार की हद इतने से अंदाजिए कि बनारस के माँझी धौलपुर के ऊपर तक जाल खींचने आते हैं। उलटी धारा में पानी-पानी आना कितने जीवट का काम है, इसे हाथों में डाँड़ा थामे बिना नहीं समझा जा सकता। एक बार अहेर पर निकला कुनबा अक्‍सर दो-दो, तीन-तीन बरस बाद कमाई करके ही घर लौटता है।s

13

अटेर से एक घाट पहले, बुरी तरह थककर घड़ी भर दम मार लेने की सोची, दोपहरी पूरे जोर पर तमतमा रही थी, कुछ राही पार उतरने के इन्‍तजार में घाट पर डोंगी आने की बाट (हाड़ी) जोह रहे थे, किनारे आते ही उठ-उठकर पास आ गए, उन्‍होंने भी फिर वही पुराने सवाल उछाले।

उनमें से एक इकहरा गठा जवान जो घुटनों तक लंबी कमीज और साफ सफेद धोती पहने था, जिसके लम्‍बे और सुंदर, तीखे नाक-नक्‍श वाले खिंचे हुए कठोर गेहुँए चेहरे पर पतली छोटी शानदार मूँछ, और कानों में मोटी-मोटी बालियाँ झूल रही थीं, चुपचाप हमारी बातें सुनता रहा। फिर, उस बाँके जवान ने हुंकारती गरम लूह के थपेड़ों से बचने के लिए सिर पर बँधे कपड़े को नीचे खींचा, पसीने से भीगे मेरे कपड़े और धूप में तपे ताँबई चेहरे पर नजर डाली। फिर, प्रशंसा भरे भाव से बोला-'वाह रे ज्‍वान, तुमने बड़ी हिम्‍मत करी!'

अपनी पसंद के आदमी से प्रशंसा सुनकर हजार गुना ज्‍यादा खुशी और प्रेरणा मिली, उमंग के सोते ही सोते फूट पड़े, दूसरे मुसाफिरों की सराहना भरी नजरें भी रग-रग में ताकत की करेंट जैसा दौड़ीं।

'खटर-खट्ट-खट्ट, खटर-खट्ट, छप्‍प-छप्‍प।' चप्‍पू समरस भाव से चलने लगे। अटेर आया और निकल गया, एक बार फिर मछुआरों से जाल खुलवाकर रास्‍ता पाया। नदी का लम्‍बा मोड़ पार किया। धारा उत्‍तरी किनारे पर टूट पड़ी। बाएँ कगार शुरू हो गए। दाएँ रेत पसर गई।

आसमान ललछौन्‍हा हो चला। धारा पर लालिमा उतर आई। फिर अनेकानेक रंगों की सुंदर छटा छिटक गई। घाटी में गुलाबी जादू बिखरकर सम्‍मोहित करने लगा। ऐसी मनमोहक पृष्‍ठभूमि में रेत पर आ जुटे मयूरों के समूह और पानी में मुँह डुबाए साँभर।

अँधियारा गहराने लगा तो लंगर डाला। रोजनामचा भरा, हाथ-मुँह धोया, डोंगी में बिस्‍तर जमाया। कम्‍बल खींचकर ऊपर से तिरपाल भी डाल लिया। खाने को जो कुछ भी साथ रखा था धीरे-धीरे चबाया, फिर देर रात तक काले आसमान के तारे और पतले कटे चाँद को चुपचाप ताकता रहा।

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आज की मंजिल 'ऊदी' तय थी, श्‍याम ने यहीं कुछ खर्चा-पानी पहुँचाने की बात पक्‍की की थी। भोर से ही तेज चप्‍पू खींचता चला। दोपहर तक बेताबी ऐसी बढ़ी कि घाट पर कपड़े खींचता धोबी दिखा तो आवाज लगाई-'ऊदी कितनी दूर है?...'

नहीं सुन पाया तो और जोर से चिल्‍लाया-'ऊदी कितनी दूर है? ...'

अपनी धुन से उबरकर इस बार वह मेरी ओर पलटा-'ऊ....s दी? अबै हाल नेक दूर में पहुँच जैहो।'

चप्‍पुओं की रफ्तार थोड़ी और बढ़ गई।

थोड़ी देर में एक और आदमी दिखा तो फिर चीखा-'ऊदी कितनी दूर है? '

वह भी चीखता हुआ बोला-'ऊ-s-दी? अबै हाल नेक देर में पहुँच जैहो।'

एक और मोड़ घूमा, एक चरवाहा सामने दिखा, उससे दरयाफ्त की तो भी वही जवाब-'ऊ -s-दी? अबै हाल नेक देर में पहुँच जैहो।'

चप्‍पुओं पर लच (लचकना) गया। हाथ अकड़ गए, कमर दुखने लगी और पिंडलियाँ कस गईं। मुड़-मुड़कर ऊदी देख पाने की हसरत में गर्दन पिराने लगी। ऊदी फिर भी न दिखा। अपने-आप हाथ ढीले पड़ते गए। मन में खीझ भर गई। कई आदमी किनारे पर फिर-फिर दिखे लेकिन अब किसी से नहीं पूछा कि ऊदी कितनी दूर है।

दो बचे तक एक और मोड़ घूमने लगा। सिरे पर नदी के आर-पार तना पुल दिखा। पुल के उस पार कगार पर बसा ऊदी सामने आया। सारी थकान और दर्द हवा हो गए। मंजिल पाकर जी जुड़ा गया। धारा के कुछ बीच तक धँस आए उभरे पत्‍थर के ऊपर से एक बच्‍चे ने धारा में छलाँग लगाई। किनारे से एक बूढ़ा चिल्‍लाया-'ओ-s-रे क-उ-आ-s-(डोंगी)वारे-s-s-मोढ़न को ऊदी तक लयै जाओ।'

घाट पर नहानेवालों की निगाहें मेरी ओर उठ गईं, छलाँग लगाने को तत्‍पर बच्‍चे पाँव तौलते-तौलते थम गए। मैं चलता गया। बच्‍चों ने आपस में कुछ बातें कीं, कुछ हँसे, कुछ ने न जाने क्‍या फब्तियाँ कसीं, कुछ ने जोर का ठहाका लगाया, तो कुछ ने नाना प्रकार की आवाजें निकालीं। डोकरा (बूढ़ा) बड़बड़ाया। थमे हुए बच्‍चे एक-एक कर मेढकों की तरह छप्‍प-छप्‍प पानी में कूदने लगे। कुछ ही पलों में सब कुछ पहले जैसा हो गया।

नजदीक दिखते पुल के पास पहुँचने में भी पौन घंटे से कम तो क्‍या लगा होगा। पत्‍थरों से बचते, धार काटते, पुल पार करते ही बाएँ कगार पर बना 'रेस्‍ट हाउस' दिखा। नीचे बँधी नगरपालिका की मोटरबोट के बगल में डोंगी लगा ली। किनारे पर धूनी जमाए एक बाबा से पता चला कि रेस्‍ट-हाउस का चौकीदार ऊपर ही रहता है। सीढ़ियाँ चढ़ते रान और पिंडलियों की कसी पेशियाँ टीसती रहीं।

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रेस्‍ट-हाउस बंद पड़ा था। कमरों के भीतर धूल ही धूल। अरसे से इसमें ठहरने की हिम्‍मत किसी ने नहीं की। चौकीदार ने दो कुर्सियाँ झाड़-पोंछकर खुले में डाल दीं। चारों ओर मनोरम दृश्‍य, सामने और अगल-बगल भूरे बीहड़ों का सिलसिला, उन पर बबूल के झाड़, नीचे चौड़े पाट के बीच पसरी नीली वलयाकार धारा, उस पार रेतीला विस्‍तार, बीच में पड़ी रेखा जैसा पुल। पुल के पश्चिमी सिरे के पास दिखता मध्‍य प्रदेश के भिंड जिले का देवी मंदिर और बैरिया गाँव, और ऊदी उत्‍तर प्रदेश के इटावा जिले में पड़ता है। दोनों ही गाँव दस्‍यु-भय से 'ऑपरेशन-एरिया' में आते हैं।

ऊदी पहुँचकर लगा मानो एक उप-अध्‍याय का अंत हो गया। इटावा यहाँ से दस मिनट के फासले पर था। सहपाठी और पुराने मित्र चंदू पास ही के भरथना के रहनेवाले हैं, श्‍याम उनके घर मिले। जितने अप्रत्‍याशित रूप में श्‍याम ने साथ चलने का इरादा रखा था, ठीक उसी अंदाज में चंदू का इरादा भी सामने आया। सोचा, एक से भले दो, इलाके का जानकार और हिम्‍मती दोस्‍त का साथ, अच्‍छा ही होगा।

दूसरे दिन श्‍याम लौट गए। हमने इटावा के बाजार से बिस्‍कुट, डबलरोटी, जैम, सूखा दूध, तमाम छोटी-बड़ी सामग्री चादर में बाँधी और लादे-फाँदे ऊदी पहुँचे। चंदू उस खरीद-फरोख्‍त को बिना मतलब का बवाल समझकर बड़बड़ाने लगे-'इत्‍तो सामान खरीदकर कहा करिऔ। रत्‍ता में कहूँ खरीद लीजो।'

वे नाव पर चलने को बेहद उतावले होने लगे, जैसे किसी बच्‍चे को पहली बार हाथी की सवारी का मौका मिला हो। बैठने में थोड़ी देर हो जाए और वह रह-रहकर ठुमकने लगे।

मैंने कहा-'नदी किनारे बाजार नहीं लगी है बच्‍चू! सामान खत्‍म हो गया तो जल्‍दी मिलेगा नहीं फिर।'

लेकिन उन्‍हें इन सबकी परवाह कहाँ-'सब मिल जात्‍त है। तुम फिकिर काहू बात की ना करौ। जा इलाइके में कौनऊ कमी नीं है।'

डोंगी खुली तो पहला हाथ मारते ही मारे दर्द के ऊपर से नीचे तक कुनमुना गया। मन किया रूक जाऊँ, एक दिन और आराम कर लूँ। शरीर साधना भी बड़ा टेढ़ा काम है। लगाम खींचे रहो तो सधी रफ्तार में टापें भरता है और जरा सी ढील मिली नहीं कि बिदका। एक ही दिन के आराम में मस्‍ता गया। दाँत दबाकर किसी तरह हाथ चलाने लगा।

मजे-मजे चलते गए। दक्षिण कगार पर दिखता मंदिर छूट गया। कगार के आगे रेतीला घाट शुरू हुआ। एक पूरा मोड़ घूम गए। घाट पर गुजरते आदमियों से पता किया, ऊदी छह-सात मील छूट गया।

चंदू की उमंग का पारावार नहीं।हर एक दृश्‍य उनके लिए अद्भुत, घाटी का एक-एक टुकड़ा कौतुक भरा-'एत्‍तो सुंदर लग रहो है चारों ओर। शहर के लोगन को जे कहाँ देखने को धरो हैं। ...जे तो बहोत ऊँची-ऊँची कगारें हैं, लोग देखें तो कहैं मानो पाताल में चल रहे हैं! ...सम्‍हार के चलौ आँगू पत्‍थर में लड़ सकत है।'

मैंने कहा-'चुप्‍पे बैठो, कहीं नहीं लड़ेगी। पहली बार ऐसा ही लगता है।'

उन्‍हें सब बर्दाश्‍त है लेकिन यह नहीं कि कोई उन्‍हें घबराया हुआ समझे। फिर भी, डोंगी तेज धार में पड़ते ही सतर हो बैठते, पत्‍थर सामने दिखता तो सहम उठते।

रोज के मुकाबले कुछ भी नहीं चले, लेकिन थकान कुछ ज्‍यादा ही घेरने लगी। बीच नदी में लंगर डालकर सोना चंदू को कुछ अजब लगा, कहने लगे-'करवट कैसे बदलेंगे जामे !'

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सुबह ज्ञानपुर से झूमते-झामते चले। बड़े-बड़े पीपों को धारा के आर-पार कसकर उन पर लंबी-लंबी मोटी लोहे की चादरें डालकर बनाया गया सहसों (गॉंव का नाम) का पीपा पुल आया। डोंगी पीपों के बीच से आसानी से निकल गई। किनारे एक छप्‍पर में दुकान दिखी तो छाँह में आराम पाने और कुछ खाने की नीयत से थम गए। कुछ देर में दुकान पर मुसाफिरों की भीड़ लग गई। चंदू अभियान का हवाला सुनाने लगे। सुन-सुनकर लोगों ने हमारी प्रशंसा के पुल बाँध दिए। हमारा काम असाध्‍य कहा गया। कुछ आदमियों ने पूछा-'नाव कहाँ से आई? '

चंदू ने बताया-'दिल्‍ली से आए, कलकत्‍ता जैहैं।'

हमारे दर्शन-लाभ पाकर लोग धन्‍य होने लगे-'अरे भइया ! जे तो बड़े तपस्‍वी हैं, महात्‍मा हैं, त्‍यागी हैं, परमहंस हैं। इनके दरसन करनो चाहिए।'

यहाँ तक कि कुछ लोगों ने हमें ऋषि-मुनि मानकर आशीर्वाद की भी याचना कर डाली। चंदू ने यह रंग देखे तो गम्‍भीर मुद्रा धर ली। लगे उलटी-सीधी फाहें (बढ़-चढ़कर बातें करना) मारने। ग्रामीणजन आँखें फाड़ें सब सुनते, साधुवाद देते। वार्ता में मजा मिला सो चंदू के चटखारेदार उपदेश सुनता रहा। तभी, आने-जानेवालों में से एक लड़के की निगाहें चंदू पर बँध गईं, जैसे इन्‍हें पहचानने की कोशिश में हो।

चंदू बचपन से ही काफी होनहार रहे हैं, जल्‍दी ही अपने धूम-धड़ाकों की बदौलत 'इलाके' भर में मशहूर हो गए। यहाँ वे साधु व ऋषि-मुनियों की श्रेणी में रखे जा रहे थे और मजा यह कि उनके गाँव के पास साधुओं के चिमकुनी-बाग में कटहल-आम फरे नहीं कि चंदू की पलटन ने धावा बोला। फल जो लूटते सो तो एक हद तक ठीक लेकिन बाबा लोगों की तोंद पर कोंचा-कोंची? भरथना-मंदिर के साधुओं से पूछे कोई इनके साधुकर्म, एक पाव से कम के मेवा-प्रसाद की माँग कभी नहीं करते।

वह लड़का चंदू के गाँव के पास का रहनेवाला निकला। उनके बारे में जानता था। उनकी इतनी फाहें और लोगों द्वारा ऐसी प्रशस्ति उससे बरदाश्‍त न हुई, तो बोला-'जे तो चंदू हैं मुड़ैना के। जे तो साधू-वाधू ना थे। कब से हो गए? अब हो गए हों तो नहीं कह सकते ! जे तो बहोत बड़े...।'

यह सुनकर तो चंदू का चेहरा फक्‍क। सारी ऐंठ हवा निकले गुब्‍बारे जैसी फिस्‍स। बड़ा खीझे, बना-बनाया रूतबा कच्‍ची कगार-सा ढह गया। अलस चाल डोंगी की ओर चले। उधर वह बोलता रहा-'इनसे मत उझ्झियो...'

हमारा हँसी के मारे बुरा हाल-चौबे जी चले छब्‍बे बनने दूबे बनकर लौटे। चंदू चुप्‍पी साधे रहे। चुनौटी हाथों में खेलती रही। डोंगी चली तो तंबाकू पीटते-पीटते भड़ास निकाली-'जाने बहिन-ने कहाँ से पहचान लओ। सब चौपट क-s-दओ।'

सहसों पारकर चंबल की फटी हुई धाराओं में से सबसे किनारे वाली में बढ़ चले। शाम तक का समय, डाँड़ों के प्रहार से पानी से उठनेवाली आवाज-'डुडउब-डुब-छप्‍प, डुडउब-डुब-छप्‍प,' कड़ों व किनारों से डाँड़ों की टकराहट की आवाज 'खटर-खट्ट, खटर-खट्ट-खट्ट', सुनते, हर चोट से पानी पर उभरते छोटे-छोटे प्‍यालों जैसी भँवरों, झाग, पीछे छूटती डोंगी की लीक, मोड़ों पर ओझल होते मंदिरों, घरों, गाँवों और कगारों को देखते, एक-दो तीन... दस... बीस… सौ... हजार... कई हजार चप्‍पू गिनते, पसीने में नहाते और धूप में तपते बीता।

डोंगी एक श्‍मशान पर लगी। रेत पर मानव-कपालों और अस्थियों का बिखराव। एक ओर बीहड़ का सपाट तीखा कगार। आसमान व पानी दोनों ही गुलाबी-गुलाबी और उस पर दूसरे रंगों की फुहारें। कटे-पिटे छितरे बादल। जितने बादल उतने रंग, मानो गुलाबी जामे पर किसी ने होली खेली हो।

घूमती हुई चंबल कुछ ही फासले पर यमुना से गले मिलने को आतुर थी। रात उतरने में कुछ ही कसर। एक बार फिर बीहड़ उजाड़ में चित्‍ताकर्षक सौंदर्य का जादू चला। जाने कब विचारों में डूब गया-धौलपुर से नीचे का सन्‍नाटा, फिर शनै:-शनै: गाँवों का बढ़ते जाना, पक्षी-समूहों का क्रमश: हृास, नदी के बीच उभरे पत्‍थरों का क्रमिक घटाव, सब याद आने लगा।

 


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हिंदी समय में राकेश तिवारी की रचनाएँ