मैं पहुँची हूँ जापानी कवि बोन्चो और रीटो के देश में। रीटो के काव्य संग्रह 'एक चीड़ का खाका' की हाइकू कविता
और कहीं भी क्या वसंत आया है?
या कि अलूचे ही ये
हैं बौराए?
अपने विद्यार्थी जीवन में पढ़ी मन में रची-बसी, तरोताजा है आज तक। न केवल हाइकू बल्कि बोन्साई कला जिसमें विशाल जटाजूट धारी दरख्त बरगद तक पाँच छह इंच के गमले में अपने विशाल स्वरुप सहित सिमट आता है, इकेबाना यानी सूखे फूलों, टहनियों से गुलदस्ते में की सजावट, किमोनो और किमोनो के संग छोटा-सा गोल पंखा और लकड़ी के ऊँचे तले के जूते पहने जापानी बाला और जीवित ज्वालामुखी माउंट फ्यूजी जिसे देख देख कर और जिसकी सुंदरता में गोता लगाते हुए जापानी कवियों ने कविताएँ रचीं... ये सब वजहें हैं जो मैं जापान को अपनी स्मृतियों में ताजा किए हूँ। जापान विशाल को लघु करने की कला जानता है। हाइकू कविताएँ भी तीन या अधिक से अधिक चार पंक्तियों की होती है और मन को भीतर तक सम्मोहित कर जाती हैं। लेकिन जापान एक वजह से और मन को चीर चुका है और वह है बीसवीं सदी की भयंकरतम त्रासदी जब आज से पैंसठ वर्ष पूर्व हिरोशिमा, नागासाकी पर परमाणु बम गिराया गया था और समय थम कर रह गया था, मानवता रो पड़ी थी और रूद्र काँप उठे थे।
एक साथ खुशी और गम से आंदोलित हुई मैं जब जापान की राजधानी टोकियो के नरीता अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुँची तो उसकी भव्यता और खूबसूरत रख रखाव देख मैं अपनी लंबी उड़ान की थकान भूल गई। हालाँकि मुंबई से रात 11.35 की थाई एयरवेज फ्लाइट से मैं सुबह 5.35 पे बैंकॉक पहुँची थी और वहाँ दो घंटे बाद यानी 7.35 की टोकियो के लिए फ्लाइट थी। लेकिन ये दो घंटे तो कस्टम आदि की औपचारिकताओं और कड़ी सुरक्षा तहकीकात में ही गुजर गए। बैंकॉक के इस एयरपोर्ट का नाम स्वर्णभूमि अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। यह जानकर ताज्जुब हुआ। स्वर्णभूमि तो भारतीय नाम है। लेकिन उससे भी अधिक ताज्जुब तब हुआ जब हवाई अड्डे के लंबे चौड़े प्लेटफार्म पर समुद्र मंथन का विशाल दृश्य पत्थर की मूर्तियों में उजागर किया गया था। एक ओर चार पाँच राक्षसों की विशाल मूर्तियाँ, दूसरी ओर देवताओं की, बीच में शेषनाग और उसका फैला हुआ फन। मुझे लगा मैं थाईलैंड में नहीं बल्कि किसी भारतीय द्वीप में आ गई हूँ। वैसे तो थाईलैंड में रामलीला के नाटक भी खेले जाते हैं। बैंकॉक अपने ऑर्किड फूलों के लिए विश्वविख्यात है। पूरा हवाई अड्डा ऑर्किड के बैंजनी सफेद फूलों से सजाया गया था। हमें तो फ्लाइट में भी तीन ऑर्किड के फूलों का गुच्छा भेंट किया गया था। ऑर्किड में खुशबू नहीं होती पर उसकी सुंदरता उसकी इस कमी को महसूस ही नहीं होने देती। ऑर्किड कई रंगों में खिलता है। हर रंग के ऑर्किड हवाई अड्डे को बेहतरीन लुक दे रहे थे। हवाई अड्डा जैसे एक भव्य महल... वैसे ही गुंबद... छत... छत पर चित्रकारी... काँच की दीवारों के उस पार बगीचे में उड़ते नकली हँस। फ्लाइट लेने के लिए हमें आधा घंटा चलना पड़ा। वो भी एस्केलेटर लगे रास्ते पर वरना एक घंटा लग जाता है। इस बीच मेरे साथ मुंबई से आई पत्रकार मोना सेनगुप्ता के पासपोर्ट में फीमेल की जगह मेल लिखा था और उसे ये साबित करने में एक लंबी जद्दोजहद से गुजरना पड़ा कि वह पुरुष नहीं स्त्री है।
बहरहाल हम 3.35 पर टोकियो पहुँचे। भारत बैंकॉक से 21/2 घंटे और जापान से 3.30 घंटे पीछे है। यानी भारत में अभी एक बजा होगा। कार्गो बेल्ट से अपनी अटैची लेकर जब मैं हवाई अड्डे से बाहर आई तो ईतो को अपने इंतजार में खड़ा पाया। ईतो हमारा टूर मैनेजर था लेकिन इससे पहले मैं उसे जानती तक न थी। उसके हाथ में हमारे नाम की दफ्ती थी। जिसे वह जोर जोर से हिला रहा था। दुबला पतला, मँझोल कद का पचास वर्षीय ईतो बहुत हँसमुख लगा।
"सेन्तोस सिरी वास्तोय?" अपने नाम के उच्चारण पर मुझे हँसी आ गई। वह भी हँसने लगा। बस में दो पर्यटक जो अमृतसर से आए थे, चार हम मुंबई से कुल छह पर्यटकों को लेकर जब बस होटल की ओर रवाना हुई तो ईतो ने बताया कि टोकियो के पॉश कहलाए जाने वाले एरिया आकासाका में बना होटल आकासाका एक्सेल (पाँच सितारा) एयरपोर्ट से 68 किलोमीटर दूर है। अगर ट्रैफिक नहीं मिला तो, जिसकी आशंका कम है क्योंकि आज इतवार है तो पौन घंटे में पहुँच जाएँगे। बस की स्पीड 100 कि.मी. प्रतिघंटा है... यह नॉर्मल स्पीड है। सभी गाड़ियाँ इसी स्पीड से चलती हैं।
मुझे ईतो बहुत बातूनी लगा। रास्ते भर वह जापान और जापानियों की गौरव गाथा गाता रहा। मेरा बिल्कुल भी सुनने का मूड नहीं था। मैं खुद को जापान में महसूस करना चाहती थी। मैं उस स्वप्न गली से गुजरना चाहती थी जो बरसों पहले मैंने जापान के नक्शे में खुद ही बना ली थी। बस एक घने जंगल के बीच से बनाई सड़क पर से गुजर रही थी। ऊँचे ऊँचे दरख्तों के विस्तार में माकोहारी, एडो और आरा नदियों का शोर हलका हलका सुनाई दे रहा था। मैंने खिड़की के उस पार नदियों को देखना चाहा पर वे कहीं दिखी नहीं लेकिन हवा के जरिए अपनी बूँदे भेज जैसे उन्होंने जापान में मेरा स्वागत किया हो। मैंने आँखें मूँदकर गहरी साँस ली और खुद को एक पल के सुकून में पहुँचा दिया। अँधेरा होने लगा था।
मुंबई के लगभग ताज स्टाइल के होटल में बारहवीं मंजिल पर मेरा कमरा था। अभी डिनर के लिए तीन घंटे का समय था सो मैंने गरम पानी का राहत भरा टब बाथ लिया और फिर फ्रेश होकर लेटने की इच्छा नहीं हुई। इस होटल में दो रातें गुजारनी हैं सोचकर मैं निश्चिंत थी और खिड़की से टिकी खड़ी रोशनियों में डूबे टोकियो को निहार रही थी। आधुनिक तकनीकी से बनी इमारतों का विहंगम दृश्य रात में जगमगा रहा था।
ईतो हमें भारतीय रेस्तरां 'मोती' में डिनर के लिए लाया लेकिन आश्चर्य रेस्तरां की मालकिन जापानी थी जो लंबा स्कर्ट ब्लाउज पहने सैलानियों के पास जाकर उनके ऑर्डर लिख रही थी। वहाँ एक भी भारतीय बैरा न था, भारतीय रसोईया न था लेकिन रेस्तरां भारतीय था यानी सभी तरह के भारतीय व्यंजन वहाँ उपलब्ध थे। हमें थालियाँ दी गईं जिसमें कटोरियों में पालक मशरूम, गोभी आलू, मटर पनीर, सलाद, रोटियाँ, पापड़ और अचार था। चावल केशर वाला था लेकिन नमकीन। आम रस भी था। खाना बेहद स्वादिष्ट था। जापानी औरत ने मुझे गले लगाकर चूमा और कहा - 'कल फिर आना' मैं उसके व्यवहार से गद्गद् थी- 'खाना जायकेदार था।' "धन्यवाद... धन्यवाद... आप बहुत अच्छी हैं। अब आप जब जापान आ ही गई हैं तो यहाँ की महँगाई से घबराना मत यहाँ सब कुछ बहुत महँगा है। एक आम 300 येन का मिलता है।"
30 येन यानी 150 भारतीय रुपए तो मौसम की शुरुआत में भारत में भी इतना ही महँगा मिलता है। हापुस आम की पेटियाँ बहुत महँगी मिलती हैं।
जापानी औरत से विदा ले हम होटल लौट आए। अब थकान महसूस होने लगी थी इसलिए नींद की गिरफ्त में जाते देर नहीं लगी।
'ओहायो गोजायमस' कहकर ईतो ने नए दिन की शुरुआत की और आधा झुककर सीने तक हाथ ले जाकर मुझे बस की सीट पर बैठने का इशारा किया।
"ओहायो गोजायमस, मतलब?"
"यानी वेरी गुडमॉर्निंग... आपकी सुबह मंगलमय हो।" ईतो और हमारे बीच बातचीत का साधन अँग्रेजी थी। न उसे हिंदी समझ में आती थी न हमें जापानी। लेकिन उसकी अँग्रेजी समझना भी एक कवायद थी। उसके उच्चारण में जापानी भाषा लिपटी थी। अब मैं कैसे बताऊँ कि सुबह की शुरुआत मंगलमय नहीं थी। सुबह वेकअप कॉल के बहुत पहले लगभग पाँच बजे मेरी नींद खुल गई थी। उजाला हो चुका था। मेरे कमरे की खिड़की जहाँ खुलती थी हरे भरे पेड़ों का घना विस्तार था वहाँ... 12वीं मंजिल की खिड़की से सब कुछ नीचा नीचा नजर आ रहा था। मुझे लगा मैं गुब्बारे-सी ऊपर लटकी हूँ। हवा के संग घाटियों की सैर करने को आतुर।
ब्रेकफास्ट में सब कुछ नॉनवेज... वेज के नाम पर तले आलू, ब्रेड और कड़वी बेस्वाद कॉफी। कांटिनेंटल ब्रेकफास्ट का यही हश्र है। पचासों वैरायटीज लेकिन हम शाकाहारियों के लिए कुछ नहीं। मैं बिना नेम स्लिप पढ़े कटलेटनुमा जो चीज उठा लाई थी, सेनगुप्ता ने बताया वह ऑक्टोपस है। बस फिर कुछ खाया न गया। बाबा ऑक्टोपस की कई कई टाँगे याद आने लगीं।
मेरी यादों में जापान परीलोक था। जहाँ रंग बिरंगे किमोनो पहने संगमरमर-सी गोरी, लंबी, खिंची काली आँखों वाली जापानी लड़कियाँ थीं और मेरी पसंदीदा कला बोन्साई थी। मैंने अपने घर की बालकनी में कुछ बोन्साई पौधे अपनी मेहनत और लगन से तैयार किए हैं। लंबी लंबी जटाओं वाला बरगद, संतरा और अनार... लेकिन ये परीलोक है कहाँ? मैं जिन सड़कों से गुजर रही हूँ और जितनी इमारतें देख रही हूँ सारी की सारी सफेद, ऑफ व्हाइट, ब्राउन और चॉकलेटी रंगों की हैं। अधिकतर काँच की दीवारों वाली, ऊँची-ऊँची 20, 25, 35 मंजिली तक। रास्ते चौड़े और चैरी ब्लॉसम के दरख्तों से घिरे हैं। निश्चय ही जापान विकसित राष्ट्रों में गिना जाता है। उसने जो तरक्की की है वह विश्व विख्यात है। तेईस राज्यों में बँटे जापान का भूभाग चार द्वीपों में बँटा है। फिंशू, क्यूशू, ओकयडो और शिकोकू। राजधानी टोकियो की आबादी 2.7 मिलियन है। टोकियो में या शायद पूरे जापान में ही गेम्बलिंग न के बराबर है। विदेशी सैलानियों की माँग पर इक्का दुक्का कसीनो मिल जाएँगे, लेकिन अन्य देशों की तरह रौनकदार नहीं। लोग मनोरंजन के लिए घुड़सवारी करते हैं और बाईसिकल रेस में हिस्सा लेते हैं। मुख्य अनाज चावल वो भी एक ही किस्म का गोल जैसे महाराष्ट्र में कोलम होता है वैसा ही। फलों में सेब, पीच, अंगूर, चैरी। चैरी के दरख्त तो सड़क के किनारे-किनारे ढेरों की तादाद में मिलेंगे। पतझड़ में चैरी की सारी पत्तियाँ झड़ जाती हैं और बसंत आने पर गुलाबी फूलों से वह लद जाता है। ठंड के मौसम में यहाँ हैवी स्नो फॉल होता है। रास्ते बर्फ से अँट जाते हैं, कभी-कभी तो मौसम विभाग की जानकारी को अँगूठा दिखाकर अचानक ही बर्फ़ गिरनी शुरू हो जाती है। ऐसे में रास्तों पर ही गाड़ियाँ फँस जाती हैं। काफी मुसीबत का सामना करना पड़ता है लोगों को। अंडरग्राउंड हाईवे दस पंद्रह किलोमीटर बाद खुलते हैं जैसे गुफाएँ होती हैं, इन गुफाओं के मुहाने भी बर्फ़ से ढँक जाते हैं। अंदर फँसी गाड़ियों में बैठे लोगों का तो दम ही घुट जाता होगा। वैसे बारिश मात्र 55 मिलीमीटर होती है। अक्टूबर आते ही जंगल रंग बिरंगा हो उठता है। कई दरख्तों के पत्ते लाल, भूरे, पीले और चॉकलेटी हो जाते हैं। चीड़ भी यहाँ दो रंगों के होते हैं। काली शाखाओं वाले और लाल शाखाओं वाले। इनसे भी जंगल रंगीन दिखता है।
जापान में वैसे तो कई देशों से लोग आ बसे हैं लेकिन भारतीय अधिक हैं। भारतीयों के अपने होटल, मोटल और रेस्तरां हैं या फिर वे शिक्षा जगत से जुड़े हैं। विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्तर पर हिंदी पढ़ाई जाती है। लेकिन न तो कोई जापानी हिंदी बोलता है न अँग्रेजी। इन्हें अपनी भाषा से बेहद प्रेम है और वे कोशिश करते हैं कि उन्हें बातचीत के लिए अन्य भाषा का प्रयोग न करना पड़े। जापानी बहुत अधिक मेहनती ईमानदार और जूनून की हद तक देश प्रेमी होते हैं। देश प्रेम का ही नतीजा है जो ये परमाणु बम की त्रासदी को भूले बगैर एक विकसित राष्ट्र के नागरिक हैं। युवा पीढ़ी इंजीनियरिंग और कमर्शियल स्ट्डीज में ज्यादा रूचि रखती है।
मैं हाई क्लास एरिया से गुजर रही हूँ। चिकनी सड़क पर बस की 100 कि.मी. की गति भी पता नहीं चल रही है। इस इलाके में कई देशों के दूतावास हैं। जापान के प्रधानमंत्री मिस्टर काम का आवास है। यह पूरा इलाका आसाकूसा कहलाता है जो थोड़ा नीचाई पर बसा है। जैसे छोटी पहाड़ी की घाटी हो। बाजू से पूरे शहर को घेरती सिमिदा नदी बहती है। नदी के कारण हवा थोड़ी ठंडी लगी जबकि टोकियो मौसम के विपरीत इन दिनों गर्म हो रहा है। भारत में मैंने दो महीने पहले समाचार पढ़ा था कि लू से पाँच सौ जापानी काल कवलित हो गए।
"मैम, हमें गर्म हवाओं की आदत नहीं है। लू के कारण एयर कंडिशंड कमरे, गाड़ियाँ इस्तेमाल करने और ठंडा बर्फ़ीला पानी पीने से जापानी बीमार पड़ गए, सैंकड़ों मर गए। ग्लोबल वार्मिंग ने दुनिया ही बदल कर रख दी।" और यह चिंता अब केवल ईतो को ही नहीं है पूरा विश्व इससे जूझ रहा है।
बौद्ध धर्म के अनुयायी जापान में ढेरों बौद्ध मंदिर और पगोड़ा है। गर्व से मेरा सिर ऊँचा भी है और गौतम बुद्ध के लिए नतमस्तक भी। सामने काननोंडो मंदिर है जो विशाल कैंपस में स्थित है। आसाकूसा का यह मंदिर बहुत जागृत मंदिर माना जाता है। 1300 वर्ष पूर्व बने इस मंदिर का स्थापत्य बौद्ध स्तूप जैसा है। प्रवेश द्वार पर पत्थर की दो बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ दाएँ बाएँ लगी हैं। ओह, ये बाईं तरफ वाली मूर्ति की आँखें कितनी डरावनी है जबकि दाईं तरफ वाली शांत सौम्य। डरावनी आँखों वाली मूर्ति को जापानी 'हो' कहते हैं और शांत मूर्ति को 'हुम'... मुझे तो नामों का रहस्य ही समझ में नहीं आया। बहरहाल आगे बढ़ने पर एक फव्वारा नुमा कुंड था। बीचोंबीच बड़ी-सी पत्थर की मूर्ति और चारों तरफ से छोटी छोटी धारों में निकलता पानी। वहीं दो-दो फुट लंबे लकड़ी के हैंडिल वाले अल्यूमीनियम के चमचे रखे थे। चमचे से कुंड का पानी लेकर हाथ धोकर फिर धारा से आचमन करके तब मंदिर में प्रवेश करते हैं। मंदिर के द्वार पर ही अगरबत्ती का बड़ा थाल, राख से भरा... वहाँ अगरबत्ती जलाकर खोंसनी पड़ती है और दानपेटी में रुपए डालने पड़ते हैं। द्वार के दोनों तरफ सफेद कपड़े के चोटी जैसे गुँथे रस्से लटक रहे थे जिनके ऊपरी सिरे पर दो तवे थे। रस्सों को हिलाने पर तवे आपस में टकराकर बजते हैं। पूरा कैंपस बड़े-बड़े प्रवेश द्वार, भव्य मंदिर और मूर्तियों के कारण पवित्र आध्यात्मिक स्वरुप दे रहा था। हर मंदिर से कोई न कोई कहानी जुड़ी रहती है। कहते हैं सिमिदा नदी में मछली पकड़ते हुए दो मछुआरे भाइयों के जाल में काननोंडो देवता एक चमकीले टुकड़े के रूप ने आए। उस टुकड़े को मछुआरों ने यहाँ लाकर स्थापित किया। कुछ समय बाद वहाँ भव्य मंदिर बना और सब कुछ देवकृपा से हुआ।
कैंपस से एक गेट नाकामाइस स्ट्रीट की ओर जाता है। दूर से देखने पर एक लंबे चौड़े ग्रीन हाउस जैसा लेकिन है वह शॉपिंग स्ट्रीट... शॉपिंग करेंसी येन में बदलना था। सो पहले बैंक गए। जहाँ फार्म भरना, पासपोर्ट दिखाना और अपनी बारी की प्रतीक्षा करना पड़ा। बैंक से निकलकर हम नाकामाइस स्ट्रीट आए... मैं अपने रुपए के मूल्य को आसमान पर चढ़ा महसूस कर रही थी क्योंकि 58 पैसे में एक येन मिला यानी सौ डॉलर के बदले हजारों येन... नौ हजार से भी ऊपर। नाकामाइस स्ट्रीट ने मुझे तो निराश किया। न वहाँ जापानी खिलौने थे, न इकेबाना शैली के नमूने... किमोनो सूती रेशमी कपड़ों में बेहद महँगे... वो बारीक कसीदाकारी जो किमोनो की विशेषता है नहीं थी। जापानी खिलौनों की जगह अब इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों ने ले ली थी। जापानी गुड़िया भी बहुत सुंदरता से नहीं बनाई गई थीं। जबकि कीमत चार हजार से बीस हजार येन तक। यही दाम किमोनो का। सब कुछ महँगा और भारत के बाजारों में सहज उपलब्ध। फिर भी सभी ने जमकर खरीदारी की। इफरात पैसा है सबके पास। इनके लिए पर्यटन आधुनिक बनने की होड़ मात्र है। पर मेरे लिए पर्यटन खरीदारी नहीं है... मैं उन तमाम दुकानों में जापान को समझ रही थी। लेकिन भूमंडलीकरण ने अब देश विदेश के बाजारों को लगभग एक जैसा बना दिया है। हर जगह हर चीज एक जैसी है।
आकिहाबारा इलेक्ट्रॉनिक टाउन कुछ अलग किस्म का लगा। आठ मंजिले इस मॉल में 600 दुकानें हैं जिनमें कैमरा, कम्प्यूटर, घड़ियाँ, टेलीविजन, मोबाइल सैट आदि का भव्य भंडार है। यही सब चीजें सेकंड हैंड भी मिलती हैं। कुछ भी खरीदने के लिए सबसे बड़ी समस्या भाषा की थी। मुझे कैमरे के लिए बैटरी खरीदनी थी और इसे समझाने के लिए कैमरे को खोलकर दिखाने पर भी दुकानदार को समझ में नहीं आया मुझे क्या चाहिए। बहुत देर बाद वह एक लड़के को लेकर आया। लड़के की शर्ट की बाँह पर इंग्लिश लिखा था। उसकी मदद से मैंने बैटरी खरीदी। फिर नजर गई मॉल में घूमते इसी तरह के कई लड़कों पर जिनकी शर्ट की बाँह पर इंग्लिश लिखा था। ये लड़के विदेशियों की भाषा समझने, समझाने के लिए रखे गए थे।
"कुछ खाएँगी? आठवीं मंजिल पर रेस्टॉरेंट है।" मेरे साथ आए तमिल भाषी मणी ने कहा।
मैंने इंकारी में सिर हिलाया। भूख तो नहीं थी पर प्यास जरूर लगी थी। पानी का पता करने के लिए मुझे जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा सोचकर ही मैं घबरा गई और उस लौह युग से निकलकर मॉल के गेट पर साथियों की प्रतीक्षा करने लगी।
पिकअप पॉइंट से बस में बैठते ही ईतो का रिकॉर्ड चालू... उफ, कितना बोलता है यह आदमी... उसके बोलने से नफा नुकसान दोनों है। नफा यह है कि कोई सोता नहीं है और यात्रा को एन्जॉय करता है। नुकसान यह है कि हम आपस में आत्मीय नहीं हो पा रहे हैं। बात करने का समय ही नहीं मिलता। ईतो ने एक लाल रंग का फोल्डिंग हैंडिल वाला छोटा-सा झंडा निकाला जिस पर नीले रंग की आकृति थी। इस झंडे को लेकर वह आगे आगे चलता है ताकि कोई पर्यटक भटके भी तो उसके झंडे को देखकर उसके पास आ जाए। इतनी कम जनसंख्या में क्या भटकना... फिर भी एहतियात तो जरूरी है। उसके पास एक बड़ी काले प्लास्टिक की सीटी भी है। ...मैं इस सीटी को खास इंडियन टूर के लिए इस्तेमाल करता हूँ ताकि वे पंक्चुअल रहें।"
बात चुभी जरूर पर हकीकत यही थी। भारतीय समय के पाबंद नहीं होते। लेट लतीफी उनकी आदत है।
इम्पीरियल पैलेस दूर से पगोड़ा जैसा ही लग रहा था। मुझे लगता है जापानियों ने पगोड़ा को अपनी राष्ट्रीय पहचान बना लिया है। हर विशिष्ट इमारत, महल, मंदिर पगोड़ा स्थापत्य वाला। महल ऊँचाई में कम था, लंबाई में अधिक। यह दर्शकों के लिए प्रति वर्ष दिसम्बर माह में दो बार खुलता है। महल पंद्रह फुट मोटी दीवार और पाइन के दरख्तों से घिरा है इसमें अब जापान के राजकुमार राजकुमारियाँ रहते हैं। महल के सामने बहती नदी पर डबल ब्रिज है जो सारे क्षेत्र को राजसी पहचान देता है। महल के पूर्व में खूबसूरत बाग है जिसमें कई प्रकार के पौधों को करीने से लगाया गया है। महल के सामने सड़क से लगी बड़ी-बड़ी गोल चौकियाँ थीं। लगता नहीं था कि ये पत्थर की हैं। जैसे सफेद कपड़ों को चौकी में मढ़कर चारों ओर गुलाबी झालर लगाई हो।
राजसी परिवेश का एक लंबा इलाका पारकर हम जिस सड़क पर से गुजर रहे थे वह उएनो स्टेशन था जो मेट्रो का टर्मिनल कहलाता है। यह ट्रेन जापान के गाँवों से होकर गुजरती है... शायद इसीलिए दिन में टोकियो की आबादी बढ़ जाती है। गाँवों के शरारती बच्चे खेल-खेल में ट्रेन पर चढ़ जाते हैं और उएनो पहुँचकर रेलवे पुलिस के लिए सिरदर्द बन जाते हैं। अपने माँ बाप के लिए रोते इन बच्चों को सुरक्षित उनके घर पहुँचाना रेलवे पुलिस अपनी जिम्मेवारी समझती है। आज तक न तो ये बच्चे कभी भटके न गलत रास्तों पर पड़े।
सामने लाल रोशनी से सजा टोकियो टॉवर है। जैसे मैं पेरिस पहुँच गई हूँ और एफिल टॉवर के सामने खड़ी हूँ। दुनिया में बहुत कुछ आपस में मिलता जुलता सा लगता है।

टोकियो टॉवर एफिल टॉवर जितना बड़ा तो नहीं है लेकिन है बिल्कुल एफिल टॉवर जैसा ही। बनावट में भी, रंग में भी। हरियाली के उस पार से झाँकता पानी बे ऑफ टोकियो का था। एक ओर सिमिदा नदी तो दूसरी ओर बे ऑफ टोकियो। जल ही जल... और बची खुची भूमि पर आकाश नाप लेने की होड़ में मानव... यह होड़ बड़ी महँगी साबित हो रही है। मौसम बदल गए हैं, ऋतुओं ने अपने कोण बदल लिए हैं।
मैं रेनबो ब्रिज की ओर जाने वाले मार्ग पर हूँ। रेनबो ब्रिज 1964 में जब जापान में ओलंपिक्स हुए थे तब बना था। रेनबो ब्रिज जाते हुए सारे ऐसे पेड़ मिले जिन्हें जापानी बोनसाई ट्री बोलते हैं। अभी तक हमने गमलों में ही बोनसाई देखा था। मुंबई के 'कमला नेहरु पार्क' में बोनसाई की सभी किस्में मौजूद हैं। लेकिन यहाँ जमीन पर बोनसाई पहली बार देखा। सुई जैसी पत्तियों वाले इस खूबसूरत पेड़ की ऊँचाई भी पाँच से सात फीट तक की है। वहीं एक छोटी-सी छह डिब्बों वाली ट्रेन दिखी जिसमें ड्राइवर नहीं होता। निर्धारित समय पर यह स्वचालित ट्रेन स्टेशन पर रूकती और चल देती है।
रेनबो ब्रिज अक्वा सिटी में है। न जाने क्यों यहाँ मोहल्लों को सिटी कहते हैं। रेनबो ब्रिज आधुनिक तकनीक का बेहतरीन स्थापत्य है। गोल घुमावदार ब्रिज छह स्तर का है। यानी इन स्तरों (मार्ग) पर गोल गोल चढ़कर ही सबसे ऊँचे स्तर पर पहुँचा जा सकता है। हम तो बस में बैठे बैठे ही सबसे ऊँचे स्तर पर पहुँच गए। फिर कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर भव्य टैरेस... जहाँ से पूरे टोकियो का नजारा किया जा सकता है। एक ओर स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी की मूर्ति है। हरे रंग की बिल्कुल न्यूयॉर्क जैसी। दूर ट्विन टॉवर बिल्कुल मलेशिया के ट्विन टॉवर जैसा। उसकी बाईं तरफ बे ऑफ टोकियो के किनारे बसी समुद्री बस्ती। बिल्कुल हांगकांग जैसी... वैसी ही नावें, छोटे छोटे घर... घरों के बीच से झाँकता रुपहला पानी... पहले वहाँ समुद्री व्यापारियों की बस्ती नहीं थी। जैसे जैसे शहर बड़ा होता गया बस्ती मैदान से हटकर समुद्र की ओर सरकती गई। मैं देर तक इन नजारों में खोई रही... मुझे लगा जैसे कोई चरवाहा खाड़ी के तट पर झपकी ले रहा हो... और मैं वामन बनी न्यूयॉर्क, पेरिस, मलेशिया, हांगकांग को तीन डग में नाप रही हूँ।
टोकियो जापान का सबसे बड़ा शहर है। तरह-तरह के बाजार, शॉपिंग मॉल, भारतीय रेस्तरां है। गिंजा बड़ा बाजार है जहाँ ढेर सारी दुकानें, बुटीक्स, आर्ट गैलरीज फैशन और कॉस्मेटिक्स की दुकानें हैं। नाइट क्लब और कैफे हैं। ओदाइबा पार्क में भी दुकानें हैं और शिंजुकू भी एक बड़ा मनोरंजन, बिजनेस और शॉपिंग केंद्र है जापान में। यहाँ भी टोयोटा कार म्यूजियम है जिसमें तरह तरह के मॉडल हैं... नए पुराने सभी।
दूर क्षितिज पर पाइन दरख्तों की आड़ में सूरज बस समुद्र में डुबकी लगा ही रहा था कि तमाम नियॉन लाइट्स जल उठीं और अँधेरा होने के पहले ही सड़कें जगमगा उठीं।
रात हमने 'मोती' रेस्तरां में ही भोजन किया। जापानी औरत बड़े प्रेम से हमारे लिए भोजन परोस रही थी। आज उसके चेहरे पर कल की बनिस्थत कुछ ज्यादा ही मुस्कान थी। भारत से इतनी दूर प्रशांत महासागर पर एक छोटे से द्वीप जापान के टोकियो शहर में मैं दालमक्खनी और गर्मागर्म रोटियों का मजा ले रही हूँ। 'भारत, तुझे सलाम'। जापानी औरत 'सायोनारा' यानी 'अलविदा' कहते हुए भर आई आँखों को बार-बार पोंछ रही है। उसने मुझे गले लगाया। मैंने कहा... कहिए - 'फिर आना।' वह काफी मुश्किल से कह पाई और हँस पड़ी- 'यू आर माय टीचर' होटल पहुँचकर मैं सोने की तैयारी कर ही रही थी कि मोना का फोन आया - "क्या कर रही हैं? मेरे पास साके है। आऊँ?"
मोना मेरी दोस्त बन चुकी थी। मना करने का सवाल ही नहीं था। हम देर रात तक गपशप करते रहे और बीच-बीच में चावल से बनी शराब साके का मजा लेते रहे। साके बहुत हल्का पेय है जिसे जापानी औरतें पीती हैं।
मेरी स्मृतियों में जिज्ञासा के रूप में दर्ज माउंट फ्यूजी पर्वत..... जीवित ज्वालामुखी..... यह पर्वत जहाँ है वह इलाका माफूजी कहलाता है। मुझे जापानी गाँव में जापानी तौर तरीके से एक रात बिताने की बड़ी इच्छा थी इसलिए माफूजी गाँव को मैंने चुना ताकि जापानी लेखकों की रचनाओं में दर्ज माउंट फ्यूजी को घंटों निहार सकूँ, महसूस कर सकूँ। तो आज मेरा गंतव्य था यही पर्वत, तराई में बसा जापानी गाँव।
मौसम सुहावना था। शिंजुकी सिटी नए स्थापत्य की थी। 1971 तक तो यहाँ समतल मैदान था। उसके बाद यह क्षेत्र विकसित हुआ। अब तो यहाँ बड़ी बड़ी आधुनिक इमारतें, पंच सितारा होटल और तमाम आधुनिक विकास के मंजर हैं। टोकियो में लगभग 250 विश्वविद्यालय हैं। छोटे-छोटे कॉलेज भी विश्वविद्यालय कहलाते हैं। सोफिया विश्वविद्यालय, वासेता विश्वविद्यालय, टोकियो विश्वविद्यालय नजरों के सामने से गुजर रहे हैं। मन हो रहा है अंदर से देखूँ पर उतना समय कहाँ था? शिंजुका रेलवे स्टेशन के बाद काबाकी रेलवे स्टेशन आया। पूरा काबाकी एरिया रेड लाइट एरिया है। जहाँ न केवल जापान बल्कि बैंकॉक, सिंगापुर, मलेशिया, पेरू आदि की लड़कियाँ देह व्यापार में लिप्त हैं। रात को काबाकी जाग उठता है। सिगरेट, शराब, भड़काऊ संगीत और वस्त्रों से आधा बल्कि आधे से भी कम शरीर ढके लिपी पुती लड़कियाँ कमाई के लिए इस साधन को वो 'ईजी अर्निंग' कहती है। शायद उन्हें इस तरह की कमाई से कोई परहेज ही न हो।
अपने विमर्श को लगाम दे मैंने अपना ध्यान बँटाते हुए सिमिथोमो और मिथीबिशी सिटी में प्रवेश किया। इंटरनेशनल होटल्स और कमर्शियल बिल्डिंगें इतनी खूबसूरत डिजाइन की गई हैं कि उन पर से नजरें हटती ही नहीं। गगनचुम्बी इन इमारतों में 45 से 55 और 60 तक मंजिलें हैं। टोकियो मेट्रोपोलीटन गव्ह्मेंट बिल्डिंग 55 मंजिल की है। जिसकी ऊँचाई 243 मीटर है। इस खूबसूरत बिल्डिंग का डिजाइन तान्गे कैंजो नामक आर्टिस्ट ने किया था। ईतो हमें इस बिल्डिंग की सबसे आखिरी मंजिल तक ले गया जहाँ से चारों ओर बसा टोकियो अपनी खूबसूरती में नजरें बाँध रहा था। इस बिल्डिंग में आने के लिए प्रवेश शुल्क भी लगता है और बैग आदि की भी सुरक्षा के तहत जाँच की जाती है। इस बिल्डिंग से लगी हुई एक और बिल्डिंग है... यानी ट्विन टॉवर जिसे मैंने कल दूर से देखा था। आकाश को छूते टोकियो शहर से आँखें हटती ही नहीं थी। आधे घंटे बाद हम नीचे उतरे। बस तक पहुँचते-पहुँचते मैंने बिल्डिंग की ऊँचाई देखनी चाही तो दिमाग चकरा गया।
बस अंडर ग्राउंड हाईवे की जगमगाती सड़क से गुजर रही थी जो 10 कि.मी. की एक लंबी सुरंग थी। यहाँ से 55 कि.मी. है हकोनो नेशनल पार्क। हकोनो पर्वत समुद्र सतह से 1500 मीटर ऊँचा है। इस वक्त वह लंबे-लंबे चीड़ के दरख्तों के पीछे से झाँक रहा था। जैसे अपने देश में अजनबियों को देख उनका मुआयना कर रहा हो। अचानक काँस जैसी लंबी-लंबी सफेद मुलायम फूलों वाली घास के ढलवाँ मैदानों और उनके बीच में बनी पगडंडियों को दिखाते हुए ईतो बोला - ये पंपस घास है। इसकी ऊँचाई छह फीट तक की होती है। कई प्रेमी जोड़े इस घास को अपना रोमांस स्थल चुनते हैं क्योंकि यहाँ वे दुनिया की नजरों से छिप जाते हैं। चार्ली चैपलिन भी यहाँ आया था और पंपस का दीवाना होकर लौटा था।
पंपस घास के मैदान वाकई खूबसूरत लग रहे थे। हलकी हलकी बारिश में छाता लगाए कुछ ग्रामीण पगडंडी से उतर रहे थे। पानी की एक छोटी-सी धारा भी उनके संग-संग उतर रही थी। ऐसा लग रहा था मानो हरे मखमल पर रूपहली किनारी जड़ी हो। दूर क्षितिज पर चीड़ का जंगल और हकोनो की ढलवाँ पहाड़ियाँ हैं। बारिश से बनी टेढ़ी मेढ़ी लकीरें वहाँ कोलाज सा बना रही थी।
जापान में 200 ज्वालामुखी हैं जिनमें से 80 जीवित हैं। आशी लेक भी ज्वालामुखी विस्फोट से ही निर्मित हुई है और 20 कि.मी. एरिया में फैली है। इस झील तक पहुँचने के लिए हम कई ग्रामीण इलाकों से गुजरे। जहाँ धान के खेत और किसानों के छोटे-छोटे घर थे। ऐसा लगता था जैसे घर खेत में ही बने हों। वे कुत्ते, बिल्ली और घोड़े पालते हैं। जंगलों में बंदर, भालू और हिरनों के अलावा कोई जानवर नहीं होता। छोटे-छोटे गाँवों को घेरती नदी बह रही थी। कुछ लड़के मछलियाँ पकड़ने का जाल फैलाते हुए मस्ती कर रहे थे। नदी के बाईं तरफ बड़ा सा चारागाह था। पशुओं के नाम पर कुछ घोड़े आजाद हो घास चर रहे थे। चारागाह पहाड़ियों के साथ चलते हुए दूसरे गाँवों के चारागाह के साथ मिल जाते हैं और एक लंबा दायरा घेरे हुए हैं। जबकि पशुपालन मुख्य व्यवसाय नहीं है फिर भी लंबे-लंबे चारागाह देख हैरत होती है।
आशी लेक... जैसे धरती से जल निकलकर पर्वतों की गोद में तप में लीन हो... चरम शांति... लाल रंग का हकोने शरिने गेट हमें इस चरम शांति में कुछ पल गुजार लेने का आमंत्रण दे रहा हो। झील के लिए नौकाएं वहीं से रवाना होती हैं। हमें बड़ी बोट पिराते बोट क्रूज लेनी थी जिसके इंतजार में मैं लोहे की रेलिंग से टिकी झील के पारदर्शी जल में बड़ी-बड़ी काली ट्राउट मछलियों को देख रही थी। सतह पर छोटी छोटी पालदार नौकाएँ थी जो बत्तख के आकार की थीं। बोट क्रूज में मैं सीढ़ियाँ चढ़कर डेक पर आ गई जो दो मंजिलों के बाद था। हवा के तेज झौंकों में पता ही नहीं चला कि कब बोट क्रूज रवाना हुई। झौंके इतने जबरदस्त थे कि कपड़े बाल सब काबू से बाहर हो रहे थे। लेकिन ताज्जुब, झील पर की लहरें फिर भी शांत। झील के तीनों ओर झुरमुट वाले दरख्त थे। लगता था जैसे हरियाली का समंदर झील पर झुका जा रहा हो। पर्वतों की श्रृंखला बहुत सुंदर आकार में झील को घेरे थी। दूर माउंट फ्यूजी की बादलों में छुपी आकृति थी। इसी आकृति को देखकर जापानी कवि रानसेत्सु ने लिखा था -
फुतोन किते
नेतारू सुगाता या
मा फ्यूजी यामा
चादर ओढ़े सोई सी
आकृति
मा फ्यूजी पर्वत की
बादलों की चादर... कवि की कल्पना का अंत है कोई? मंत्रमुग्ध कर देने वाले मंजर में मैं प्रकृति के साथ साक्षात्कार करती-सी अद्भुत क्षणों को जी रही थी। लेकिन समाय को गुजरना था सो गुजर गया। हम फिर हकोने पर्वत की राह पर थे। टोमी एक्सप्रेस वे फ्यूजी स्काई लाइन वह पाँचवा पहाड़ी स्टेशन था जहाँ से फ्यूजी पर्वत बहुत अधिक स्पष्ट बल्कि समूचा दिखाई देता था। रास्ता पहाड़ी घुमावों भरा था... गहन जंगल वाला... वृक्ष इतने सघन थे कि घाटियों का पता ही नहीं चल रहा था। कभी रास्ते पर बादल आ जाते तो धुंध में कुछ दिखाई नहीं देता। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम चढ़ाई पर हैं... मानो जंगल को चीर कर बढ़े जा रहे हों। अचानक ऑर्केस्ट्रा की धुन सुनाई देने लगी। मैंने चौंक कर घने जंगलों को देखा... इस सन्नाटे में ये धुन? ऑर्केस्ट्रा की धुन पर ईतो अपने शरीर को मटकाने लगा। थोड़ी देर बाद आवाज आनी बंद हो गई। अगर ये हवा की दरख्तों के संग छेड़छाड़ थी तो पहले कभी क्यों नहीं सुनाई दी? ईतो ने बताया कि खास उसी पॉइंट से गुजरते हुए ऑर्केस्ट्रा सुनाई देता है। प्रकृति आश्चर्यों से भरी है इसमें कोई शक नहीं।
माउंट फ्यूजी समुद्र सतह से 3776 मीटर ऊँचा है और जापान का यह सबसे ऊँचा पर्वत है, बल्कि इसे जापान का लैंडमार्क कहें तो ज्यादा अच्छा है। बस सड़क के किनारे रोककर ईतो ने बताया कि "यहाँ से माउंट फ्यूजी के संपूर्ण दर्शन होते हैं आप लोग तस्वीरें ले सकते हैं।"
कैमरे ऑन हो गए। कुछ तस्वीरें लेने के बाद मैंने गौर से उस पर्वत को देखा जिसके अंदर ज्वालामुखी खलबला रहा होगा। कब लावा फूट पड़े किसे पता? जब फूटा था तो आसपास जो लावा बहा वह कई रंगों में जिनमें गहरा गुलाबी और सिलेटी अधिक है जम गया। यही इस पर्वत की सुंदरता है मानो रंगों का बड़ा थाल सिर पर औंधाए हुए है। अचानक एक शरारती बादल ने पर्वत का सिर अपने आगोश में छुपा लिया।
हकोने की राह पर डबल वायर्ड गंडोले चल रहे थे जो हकोने पर्वत के ज्वालामुखी पर से गुजरते हैं। बस से उतरते ही गंधक की तीव्र गंध ने दिमाग चकरा दिया। ओवाकुदानी वैली में प्राचीनकाल के गंधक के झरने और कुंड है। जिनमें से लगातार धुँआ निकलता रहता है। गंध मानो विज्ञान प्रयोगशाल की सैर करा रही थी। ओवाकुदानी वैली इसीलिए बॉयलिंग वैली कहलाती है।
हकोने पर्वत की गोद में बहुत कुछ है। लकड़ी से बनी खूबसूरत इमारतों में पोस्ट ऑफिस, सोविनियर शॉप और हकोने लेक होटल है जहाँ खाने पीने की ढेरों सामग्री है। होटल से लगा शॉपिंग कॉर्नर है। अचानक बारिश होने लगी लेकिन समय हो चुका था इसलिए भीगते हुए बस की ओर दौड़े।
जापानी तौर तरीके से रहने के लिए मुझे सीगाकू असाकावा होटल में रुकना था। बस ने हमें यामनाशी में उतारा। वहाँ से पर्वत पर बसे होटल तक की खड़ी चढ़ाई हमने जीप से पार की। होटल बहुत खूबसूरत था। अब तक की यात्रा में मुझे पहला बोनसाई पौधा दिखा। छोटे से उथले बोट आकार के पात्र में चैरी का पेड़ मुस्कुरा रहा था। जापान में एक बात मैंने हर जगह देखी, अपनी भाषा के प्रति अगाध प्रेम। वे और कोई दूसरी भाषा में बात करना नहीं चाहते। आगंतुक की भाषा के प्रति 'सॉरी' प्रगट कर वे टुकुर-टुकुर उसका चेहरा देखने लगते हैं। अपने कमरे में प्रवेश करते ही मुझे लगा जैसे मैं किसी मालदार जापानी के घर में प्रवेश कर रही हूँ। पूरे कमरे के फर्श पर चटाई बिछी थी। चटाई पर गद्दा रजाई तकिया। माफूजी चूँकि हिल स्टेशन है इसलिए ठंड काफी थी। थर्मस में खौलता हुआ पानी भरा था। बेंत की डलिया में चाय पीने के कटोरे और चाय के सैशे। पीने का पानी नदारद। मैंने इंटरकॉम पर रूम सर्विस की मांग की। किमोनो पहने एक लड़की आई और हर बार पीने का पानी चाहिए, कहने पर थर्मस उठा उठा कर दिखाती रही और जापानी में जवाब देती रही। दस मिनिट के बाद वह 'सॉरी' कहकर चली गई। विवश हो मैंने थर्मस का पानी चाय के कटोरों में उंडेलकर ठंडा किया और तब जाकर गला तर हुआ। पास ही अलमारी में किमोनो और स्लीपर रखे थे। किमोनो पहनकर ही मुझे डिनर के लिए जाना था।
डाइनिंग हॉल के कमरे के बीचोंबीच एक एक फुट लंबे पाए वाले तख्त बिछे थे। जिस पर सफेद मेज पोश था। चारों तरफ कुशनवाले पीढ़े। काफी तकलीफ हुई इस पर बैठने में। लंबे इंतजार के बाद आलू गोभी का पतला सूप, थाली में आधी थाली चावल और आधी थाली रसेदार सब्जी... सलाद और पनीर का एक टुकड़ा। सब कुछ फीका बेस्वाद। नमक माँगने पर जी तोड़ कोशिश करनी पड़ी। फिर ईतो की मदद से नमक मिला। लेकिन जापानी संस्कृति में एक रात बिताना हमारे लिए एक अलग अनुभव था। किमोनो पहने आधी झुकी एकदम सफेद रंगत की प्रौढ़ महिला खाना परोस रही थी। वह एक बार में एक ही आदमी का खाना ला पाती। कई चक्कर लगाने के बाद भी उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी। अतिथियों का इतना ध्यान कि डाइनिंग हॉल में प्रवेश करते समय हमने दरवाजे पर जो स्लीपर उतारे थे वे दूसरी दिशा में मुँह किए थे यानी उन्हें पहनने के लिए हमें मुड़ना नहीं पड़ा।
सुबह ब्रेकफास्ट दूसरे हॉल में टेबिल कुर्सी पर था। नाश्ते के बाद हमें नागोया के लिए निकलना था।
माउंट फ्यूजी को सायोनारा कह हम नागोया शहर के लिए सुबह नौ बजे रवाना हुए। हमें मिशिमा रेलवे स्टेशन से शिंफूजी तक बुलेट ट्रेन का मजा लेना था। बुलेट की गति से चलने वाली जापानी बुलेट ट्रेन बेहतर तकनीकी के लिए प्रसिद्ध है। यह 320 प्रति किलोमीटर की गति से पलक झपकते ही कहाँ से कहाँ पहुँचा देती है। पूरी एयरकंडिशंड, ऑटोमेटिक दरवाजे, बेहतरीन कुशनदार कुर्सियाँ और लाइट्स के लिए जानी जाने वाली इस ट्रेन में बैठने की मेरी इच्छा बस थोड़ी ही देर में पूरी होने वाली है। बस टफेनो से गुजर रही थी। जो गोल्फ के मैदानों के लिए खास पहचान रखता है। गोल्फ के मैदान भी आम गोल्फ मैदानों की तरह नहीं थे। उनके चारों ओर तीन मंजिली इमारत की ऊँचाई वाली लोहे की जालीदार फेंसिंग थी जिस पर हरा पेंट लगा था। रेलवे स्टेशन बेहद साफ सुथरा, खूबसूरत टाइल्स के फर्श वाला था। टिकट इन्सर्ट करने पर गेट का चक्र खुला और हम प्लेटफॉर्म पर आ गए। थोड़ी ही देर में ट्रेन आ गई। ट्रेन में बैठे तो न गति का पता चला, न आवाज का। पलक झपकते ही शिंफूजी आ गया और बुलेट ट्रेन का सफर समाप्त हो गया। लोग आपस में बहस करने लगे कि "ट्रेन की गति 320 प्रति घंटा थी ही नहीं... वरना और जल्दी पहुँच जाते। मुझे उनकी बहस में कोई दिलचस्पी नहीं थी। बहरहाल मैं स्टेशन के बाहर खड़ी बस में इत्मीनान से आकर बैठ गई।"
जापान अपनी विशेष टी (चाय) सेरेमनी के लिए भी जाना जाता है। टी सेरेमनी का आयोजन हमारे लिए विशेष रूप से आयोजित किया गया था। जिसके लिए हम ग्रीन ट्री प्लांटेशन की ओर रवाना हुए। रास्ते के दोनों तरफ चाय के बगीचे ही बगीचे। बगीचों में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पंखे लगे थे। चाय की पत्तियों पर गिरी ओस की बूँदों को सुखाने के लिए पंखे लगाए गए थे। चूँकि नागोया हिल स्टेशन है इसलिए हवा नमी भरी है। जल्दी कुछ सूखता नहीं।
टी सेरेमनी का आयोजन लकड़ी से बने जिस कॉटेज में किया गया था वह जमीन से काफी ऊँचाई पर बने खंभों पर था। तीन ओर लकड़ी की फेंसिंग, गेट फिर सीढ़ियाँ। सब कुछ लकड़ी का ही। एक ओर एक छोटी पौंड (झील) थी जिसमें रंग बिरंगी मछलियाँ तैर रही थीं। चारों ओर प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा पड़ा था। कमरा एल शेप का था जहाँ हमें परंपरानुसार घुटनों के बल बैठना था। जमीन पर बिछी चटाई पर सब लाइन से बैठ गए। चारों ओर ऐसी खामोशी थी जैसे ध्यान केंद्र हो। कोने में एक प्रौढ़ जापानी महिला बिजली की अँगीठी पर ताँबे का बड़ा सा घड़ा रखे बैठी थी और एक कटोरे में शेविंग ब्रश की तरह वाले ब्रश से कुछ घोंट रही थी। फिर उसने घड़े से थोड़ा पानी कटोरे में डाला और आँखें मूँद कर मंत्र पढ़ा। कटोरे में उसने चाय तैयार की थी। कटोरा उसने पंक्ति में पहले बैठे सेनगुप्ता को पेश किया। ईतो ने कहा - "टी सेरेमनी के पहले अतिथि आप हैं इसलिए सम्मान पूर्वक दोनों हाथों में कटोरा रखकर पी लीजिए।"
जब सेनगुप्ता ने चाय पी ली तो एक दूसरी महिला ने ट्रे में रखे चाय की पत्तियों और नट्स से तैयार पेड़े दिए। पेड़े देने की परंपरा भी अद्भुत। प्लेट में एक पेड़ा रखकर वह घुटने टेक कर बैठ जाती, प्लेट सामने रखती, मुस्कुराती और दोनों हथेलियाँ जमीन पर टेककर सिर झुका कर अतिथि सम्मान करती। इसी तरह कटोरों में चाय पेश की गई। बिना दूध, बिना शक्कर की कड़वी काढ़े जैसी... पीना पड़ा... वहाँ चाय के कप या मग नहीं होते। चीनी मिट्टी के कटोरों में ही चाय पी जाती है।
मैंने अभी तक जितने भी जापानी देखे, बिरला ही कोई मोटा मिला। सब साफ रंगत वाले। त्वचा भी स्वस्थ, बेदाग, इसकी वजह निश्चय ही यहाँ का खान पान है... तमाम बाजारों में घूमने के बावजूद कहीं मिठाई बिकती नहीं दिखी। डिनर में भी कभी मिठाई सर्व नहीं की गई। चॉकलेट भी नहीं इसीलिए मेरे कई बार पूछे जाने पर भी चॉकलेट के विषय में ईतो का उत्तर निराशाजनक रहा। चाय में दूध शक्कर का चलन नहीं, रोटी भी ये लोग नहीं खाते। सुबह का नाश्ता, लंच, डिनर सभी में चावल खाते हैं। चावल सब्जियों के शोरवे के साथ दाल कभी नहीं खाते। इतना सादा भोजन तभी तो मोटापे का नामोनिशान नहीं।
टोयोटा कार म्यूजियम जानकारी भरा था। पहला मॉडल भी मौजूद था और लेटेस्ट भी... इतनी सारी कारें!!... टोयोटा कार का इतिहास बहुत लंबा है जिसे जानने के लिए हर कार के पास लगे छोटे से बोर्ड को पढ़ना पढ़ता है। पहली मंजिल से लेकर तीन मंजिल तक विस्तृत क्षेत्र में कारें ही कारें थीं
म्यूजियम से निकले तो देखा आकाश बादलों से भरा था। सुरमई शाम फैल चुकी थी जिसमें सब कुछ धुंधला-धुंधला लग रहा था। सड़कें चैरी और वीपिंग बिलों से घिरी थीं। हवा उन पर ठहर गई-सी लगती थी। काली शाखाओं वाले चीड़ के दरख्त तो वैसे भी योगी, तपस्वी से दिखते हैं। हवा उन्हें कहाँ हिला पाती है। दूर प्रशांत महासागर का लगून था। जापान सागरों का देश है। छोटे बड़े अनेक द्वीप हैं यहाँ। अब जापान को सागरों का देश न कहें तो क्या कहें? इन सागरों के वक्ष पर सफेद पाल फैलाए विहार करती हुई नौकाएँ कितनी मोहक लगती हैं। ऐसी ही एक नौका पर बैठा हुआ कवि गर्जन करते प्रचण्ड सागर की छाती पर यात्रा करते हुए आकाश गंगा के मनोहारी दृश्य को देखकर विस्मय विमुग्ध पुकार उठा था।
आरा उमि या
सादो नि योकोतोड-
आमा नो गावा।
अर्थात प्रचंड समुद्र/सादो द्वीप की यात्रा। आकाश गंगा। तीन पंक्तियों में पूरा दृश्य सजीव कर दिया जापानी कवि बाशो ने। रवींद्रनाथ ठाकुर जब जापान यात्रा पर थे तो हाइकू कविताओं से प्रभावित हो उन्होंने अपने यात्रा संस्मरण में लिखा कि हाइकू कविताओं में केवल वाक संयम ही नहीं, भाव संयम भी है। यह बात मुझे भी महसूस हुई।
"ईतो, तुमने मुझे सादो द्वीप के बारे में नहीं बताया?"
वह चकित हो मेरी ओर देखने लगा - मैम, आप सादो द्वीप के बारे में जानती हैं? ऐसे बहुत सारे द्वीप हैं यहाँ... कुछ ज्वालामुखी में नष्ट हो गए, कुछ भूकंप में। इन दोनों प्राकृतिक विनाशलीला का खतरा हमेशा जापान को रहता है। पहले सादो द्वीप में जापान के मूल आदिवासी 'आइनो' रहते थे, अब वे ओकायडो द्वीप में रहते हैं। उनके खानपान रहन सहन की मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है लेकिन सादो द्वीप से उनके पलायन के बाद ही जापानी स्कूलों में भूकंप से बचाव की शिक्षा अनिवार्य कर दी गई है। कितने गर्व की बात है कि हर समय ज्वालामुखी विस्फोट और भूकंप का खतरा होने के बावजूद जापानी कभी अपने देश से अन्यत्र कहीं बसना पसंद नहीं करते। उन्हें अपने देश में कठिनाइयों में रहना भी प्रिय है।
भारतीय रेस्तरां 'महाराजा' आ गया था जहाँ हमें डिनर करना था। डिनर सर्व करने वाली लड़कियाँ भी हिंदुस्तानी ही थीं जिनसे हिंदी में बात कर डिनर का मजा ही दुगना हो गया।
महाराजा से निकलकर हम होटल नागोया टोक्यू आए। अपने कमरे में जाने से पहले मुझे ये देखकर तसल्ली हुई कि रूम सर्विस वाला लड़का नेपाली था जो अँग्रेजी भी जानता है। अतः मेरी कठिनाइयाँ भी समझ लेगा।
सुबह के साढ़े आठ बजने के बावजूद धूप का कहीं अता पता नहीं था बल्कि क्योटो के लिए रवाना होते ही बूँदाबाँदी शुरू हो गई और बस के आगे बढ़ते ही बरसात ने तेजी पकड़ ली। ऐसी बारिश में घूमना मेरे लिए तो कम-से-कम नामुमकिन ही था। उदासी में मैंने आँखें मूँदकर सिर पीछे टिका लिया।
"उठिए मैम... देखिए तो सही कुवाना शहर का नजारा।" मैंने आँखें खोलीं तो धूप छिटकी हुई पाई। ईतो खुश होकर कहने लगा - "ये जो ब्रिज है न, इसके नीचे कामोदा नदी बह रही है।"
मैंने देखा ब्रिज बिल्कुल हावड़ा ब्रिज जैसा ही था लेकिन उस पर हरे रंग का पॉलिश था। यहाँ हरा रंग शायद अधिक लोकप्रिय है।
"ब्रिज खतम होते ही नारा शहर शुरू हो जाता है। नारा नया बसा है क्योंकि कुछ साल पहले यहाँ भयंकर समुद्री तूफान आया था और पूरा नारा उसकी चपेट में आकर नष्ट हो गया था। नारा छोटा-सा खूबसूरत पहाड़ी शहर है। सड़क के दोनों तरफ ब्लैक पाइन और चैरी ब्लॉसम के दरख्त हैं। चैरी ब्लॉसम के नन्हे कंगूरेदार पत्ते इतने सुंदर हैं कि नजरें पेड़ पर से हटती ही नहीं। नारा डियर पार्क तक जंगली सुंदरता का साम्राज्य है बल्कि पार्क भी जंगल ही में बनाया गया है। प्रवेश टिकट लेकर हम पार्क के अंदर गए। एक बड़े गेट से अंदर प्रवेश करते ही रास्ते में हिरनों के झुण्ड ही झुण्ड... पार्क तो सूना पड़ा था और हिरन पर्यटकों के आगे पीछे बिस्किट के लिए रास्तों पर उतर आए थे। पार्क में 1200 हिरन हैं।" लगातार पर्यटकों के आने और खाने की चीजें देते रहने के कारण इनकी पार्क में रहने की आदत ही छूट गई है। ये हिरन जापान की राष्ट्रीय धरोहर हैं और नारा शहर के प्रतीक माने जाते हैं जो ये संदेश देते हैं कि ईश्वर शिंतो में है। वहाँ से कुछ ही दूरी पर तोडाईजी मंदिर है जो 600 ईसा पूर्व का बना है। जहाँ विश्व में सबसे बड़ी मानी जाने वाली बुद्ध की प्रतिमा है। मंदिर में प्रवेश के पहले वही परंपरा का निर्वाह... लकड़ी के हैंडिल वाले अल्यूमिनियम के चमचों से आचमन, अगरबत्ती के धुएँ को हृदय तक ले जाना और तवेनुमा घंटे को पूरी ताकत लगा कर बजाना।
मंदिर का प्रवेश द्वार बहुत भव्य था। प्रवेश करते ही दिमाग चकरा गया। बुद्ध की विशाल काली प्रतिमा सामने थी। यह मूर्ति 15 मीटर ऊँची है और ताँबे की बनी है लेकिन है काली। इस प्रतिमा को मर्सी (दया) मूर्ति कहते हैं। इसके बाजू में सुनहले रंग की थोड़ी छोटी बुद्ध प्रतिमा है। यह स्कॉलर मूर्ति कहलाती है। मर्सी बुद्ध की मूर्ति 440 फीट चौड़ी है। चारों ओर लकड़ी के मोटे-मोटे खंभे हैं। एक खंभे में मर्सी बुद्ध की मूर्ति की नाक के छेद बराबर आर पार जाने वाला होल है उसमें से यदि आदमी आसानी से बाहर निकल जाए तो भाग्यशाली माना जाता है। बच्चे खुशी-खुशी पार हो रहे थे, बड़े हिचकिचा रहे थे। जब तूफान आया था तो इस मंदिर के दो खंभे उड़ गए थे। जापानी मंदिरों में अच्छाई और बुराई के प्रतीक 'हो' और 'हुम' की मूर्तियाँ अवश्य होती हैं जो हमें चेताती चलती हैं कि इस दुनिया में आए हो तो सभी तरह की परिस्थितियों से पाला पड़ेगा लेकिन ईश्वर की राह जो चलेगा वह उनका मुकाबला कर सकेगा।
मंदिर से बाहर सीढ़ियाँ उतरकर दाहिनी ओर बिन्जुरु की मूर्ति है। बिन्जुरु वैद्याधिराज है। इसके पैर छूकर तुरंत रोगग्रस्त अंग पर हाथ फेर दो तो रोग दूर हो जाता है। हमने लकड़ी से बने बिन्जुरु वैद्य को प्रणाम किया और मंदिर का द्वार पार कर पुनः डियर पार्क की ओर जाने लगे क्योंकि रास्ता वहीं से बाहर को जाता था। चलते चलते रुक जाना पड़ा। मेरे रास्ते के बीचोंबीच एक हिरनी अपने नन्हे से बच्चे को दूध पिला रही थी। बेहद वात्सल्य भरा दृश्य था। कइयों ने कैमरे में उन्हें कैद किया। मैंने अपनी आँखों में वह दृश्य फीड कर लिया।
नारा से क्योटो तक की सड़क जिन इलाकों से होकर जाती है वह घने जंगलों और खेतों के बीच आँख मिचौली जैसा है। कभी जंगल तो कभी खेत। खेतों के किनारे किसानों के छोटे-छोटे घर। हालाँकि क्योटो वैली में बसा है और चारों ओर पहाड़ हैं लेकिन पहाड़ दिख नहीं रहे थे। इतने अधिक ऊँचे, घने और हरे भरे जंगल थे। जंगलों के बीच रास्ता ऐसा जैसे जंगल को चीरकर हम आगे बढ़ रहे हों वह भी सौ की स्पीड से। जंगल में कल-कल करती डक नदी बह रही थी। बीच-बीच में कई सारे गाँव। एक हजार साल पुराना पगोड़ा अब भी मन लुभा रहा था। जापानियों का धार्मिक स्थल है पगोड़ा। पगोड़ा काले रंग का था। लकड़ी से बने मंदिर की ओर इशारा कर ईतो ने कहा - "यह होंगाजी का मंदिर है। इसमें प्रवेश फ्री ऑफ चार्ज है, शायद इसीलिए यहाँ भीड़ नहीं रहती।"
ईतो ने अनजाने ही मानव स्वभाव पर बहुत बड़ी चोट कर दी थी। सच है, यहाँ पर चीज की कीमत पैसों से आँकी जाती है।
मेरी नजर जहाँ तक जाती पगोड़ा ही पगोड़ा दिखते। हजार डेढ़ हजार साल पुराने। अमेरिका की इन पर नजर नहीं पड़ी वरना ये भी स्वाहा हो जाते। शायद यही वजह है कि क्योटो शहर अतीत की कहानी कहता नजर आता है। यहाँ 1700 बौद्ध मंदिर और पगोड़ा हैं। न एक भी चर्च, न एक भी मस्जिद। इसकी वजह ईतो नहीं जानता।
दूर पहाड़ पर स्टारफिश के आकार की पगडंडियाँ दिखाई दे रही थीं। तेरह से पंद्रह अगस्त तक वहाँ मेला भरता है रात को रोशनी की जाती है। जापानियों की मान्यता है कि उस दिन पवित्र आत्माएँ स्वर्ग से आकर उन्हें आशीर्वाद देती हैं। इन तीन दिनों में यहाँ छुट्टियाँ रहती हैं।
किमोनो शो एक बड़े शॉपिंग मॉल में एक बजे से था। वहाँ प्रवेश शुल्क तो लगता है लेकिन खरीदारी पर पाँच प्रतिशत छूट विदेशियों के लिए है। बहरहाल यह एक बड़ा व्यापारिक केंद्र जैसा है। हम सब तीन ओर से स्टेज को घेरकर खड़े थे। ऊपर मॉल की ओर खुलती सीढ़ियों पर भी अपने अपने कैमरे लिए ढेरों लोग खड़े थे। शो शुरू होते ही कैमरे ऑन हो गए और एक के बाद एक सात लड़कियाँ तरह-तरह के किमोनो पहने आईं। शानदार किमोनो को चारों ओर से घूम-घूम कर दिखाने लगीं। नेपथ्य में संगीत की धुन और रंग बिरंगी लाइट माहौल को बेहतरीन लुक दे रही थी। जैसे ही शो खत्म हुआ और मैं मॉल में जाने के लिए एस्केलेटर के पास आई एक जापानी प्रौढ़ दंपत्ति मेरे पास आए। उन्हें मेरे साथ फोटो खिंचानी थी। फोटो के बाद मॉल तक मेरे साथ आए।
"हमारे देश में बहुत कम इंडियंस आते हैं लेकिन मुझे इंडियन पहनावा बहुत पसंद है।"
सुनकर अच्छा लगा। वे टोकियो से आए थे और कल लौट जाने वाले थे।
मॉल में सब रेडीमेड किमोनो ही थे। किमोनो के जिस पारंपरिक कपड़े की मुझे तलाश थी वह कहीं नहीं था।
पुराना क्योटो काफी खूबसूरत शहर है। पहाड़ों की खामोशी गुजर चुके वक्त की गवाह है। 1955 के भयंकर तूफान ने इसका नक्शा ही बदल डाला। मैं सोने जैसे सुनहले किंकाकूजी गोल्डन पवेलियन के सामने खड़ी हूँ। सामने झील में उसकी परछाई मेरी परछाई के संग गडमड हो रही है। हवाओं में हिलती वीपिंग बिलो की ढलकी हुई पत्तियाँ मानो कह रही हैं कि उस तूफान में कितना कुछ टूट फूट गया था इस पवेलियन का लेकिन जापान की सरकार ने 1394 में बनी अपनी इस धरोहर को ज्यों का त्यों रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। किंकाकूजी गोल्डन पवेलियन बेहतरीन स्थापत्य का नमूना है जो झील और हरियाली के बीच लैंडमार्क सा खड़ा है।
बस में ईतो काफी खुश लग रहा था। "आज मैं आपको अपनी गर्लफ्रेंड से मिलवाऊँगा। वह इतनी खूबसूरत है कि खूबसूरती भी उसे देखकर शरमा जाए।"
"अरे वाह, जल्दी मिलवाओ... क्या नाम है उसका?" मैंने उसकी खुशी बाँट लेनी चाही। "तोमोतो।" और वह अपनी टी शर्ट, सीट आदि साफ करने लगा। बालों को सँवारने लगा। सभी लोग उसके इस मसखरे अंदाज पर हँस रहे थे। थोड़ी ही देर में तोमोतो अपनी माँ के साथ हमारे साथ थी। वह लाल किमोनो पहने थी जिस पर सफेद-नीले फूल थे। संगमरमर-सी त्वचा और गुड़िया-सा चेहरा। सचमुच तोमोतो खूबसूरत थी। लेकिन वह ईतो की गर्लफ्रेंड नहीं थी बल्कि वह गीशा बनकर आई थी। जापान में पारंपरिक रूप से सजी हुई लड़की को गीशा कहते हैं जो पर्यटकों के संग फोटो खिंचवाती है। फोटो चैरी ब्लॉसम के विशेष उद्यान में ही खिंचवाने की परंपरा है। इस उद्यान में जापान का प्रतीक भारत के साँची स्तूप जैसा ही गेट है जो लाल रंग का है। गीशा सेरेमनी विभिन्न व्यापारिक केंद्र आयोजित करते हैं और टूर एजेंसियाँ उन्हें इस सेरेमनी का शुल्क भी देती हैं।
गीशा सेरेमनी के बाद ईतो हमें कियोमिजू बौद्ध मंदिर दिखाने ले गया। यह मंदिर 1633 में बना था और ऊँचे पहाड़ पर स्थित था। नीचे से देखो तो हरियाली में छुपा बस उसका स्तूप भर दिखता है। धीरे-धीरे हम पहाड़ पर सीढ़ियों के सहारे चढ़ने लगे। अजीबोगरीब दृश्य देखने मिले। कहीं पत्थरों से निकलता झरना तो कहीं पत्थरों पर तरह-तरह की आकृतियाँ... जैसे किसी बच्चे ने गुड्डे गुड़ियाँ सजाकर रखे हैं। पर्यटक उन पर पैसे चढ़ाते और दुआ माँगते। आगे एक चबूतरे पर टी हाउस बना था। पीछे जापानी भाषा में लिखे बोर्ड लगे थे। वहाँ बैठकर जापानी चाय पी जाती थी। लेकिन वो गुजरे वक्त की बातें थीं। अब वहाँ सन्नाटा है। एक जगह लाल ड्रेस वाले ढेर सारे पुतले रखे थे। सब कुछ जापानी भाषा में लिखा होने के कारण हमारे लिए समझना मुश्किल था। आगे पवित्र जल का आचमन करके आगे बढ़ना था। उस जगह काफी चहल पहल थी। कॉलेज की कुछ लड़कियाँ मेरे पास दौड़ती हुई आईं। कैमरा दिखाकर कहना चाहा कि फोटो खींचना चाहती हैं और सब की सब व्हिक्ट्री की मुद्रा में दो ऊँगलियाँ खड़ी कर मेरे आसपास खड़ी हो गईं फिर एक के बाद एक अपने अपने कैमरों से फोटो खींचती रहीं।
"आज तो भई... संतोषजी डिमांड पर हैं।" मोना ने चुटकी ली। बहुत खूबसूरत नजारा था इस मंदिर का। पर्वत पर भव्य बरामदे वाला कियोमिजू बौद्ध मंदिर। बरामदा मेहराबों वाला था और सौ खंभों पर टिका था। ये सौ खंभे मानो इतने ऊँचे पर्वत पर मंदिर को सम्हाले हुए थे। मंदिर के प्रवेश द्वार पर वही चोटीनुमा रस्से से ऊपर बँधे दो तवे... बड़ी मेहनत लगती है उन्हें बजाने में। सामने पेड़ों के पीछे सूरज डूब रहा था। पहाड़ों के पीछे जैसे वैली में समाने को आतुर। कुछ सीढ़ियाँ उतरकर पवित्र जल का आचमन करना था। लाइन लगी थी। यह जल पतली धाराओं में ऊपर चट्टानों से गिरता कुंड में समा रहा था। जल लगातार गिर रहा था लेकिन कुंड का जलस्तर ज्यों का त्यों था। पानी कहाँ जा रहा था पता ही नहीं चला।
चढ़ तो लिए थे पर उतरने में पूरा जोर पैरों पर... बस में बैठे तो थकान ने घेर लिया। भूख भी लग आई थी और हमारे लिए डिनर का इंतजाम भारतीय रेस्तरां सुजाता में किया गया था। जो चार नं. के पुल के उस पार था। नदी पर कई पुल बने हैं जो नम्बरों से जाने जाते हैं। क्योटो में ट्रेनें नहीं चलती... बस या टैक्सी या निजी वाहन फिर भी इस छोटे से पहाड़ी शहर में 53 होटल हैं तमाम आधुनिक सुविधाओं से युक्त। चार नंबर के पुल के पास रेस्तरां का मालिक हमें लेने आया क्योंकि पुल पर से वाहनों की आवाजाही मना है। रास्ते में उसने बताया कि वह दिल्ली का रहने वाला है और 18 वर्षों से यह रेस्तरां चला रहा है। भारतीय तो कम ही आते हैं लेकिन जापानियों की भीड़ रहती है। उन्हें भारतीय भोजन बहुत प्रिय है। रेस्तरां के डाइनिंग हॉल में दीवार पर तिरंगा झंडा और गणपति की बड़ी-सी मूर्ति थी। सामने अगरबत्तियाँ जल रही थीं। सी. डी. प्लेयर पर गाना बज रहा था - मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए... एक छोटा भारत मेरे सामने था। मुझे गर्मागर्म रोटियों में उतना ही मजा आया जितना मायके में माँ के हाथ की बनी रोटी खाकर।
डिनर के बाद जब हम बस की ओर लौट रहे थे तो एक वृद्ध जापानी सिग्नल क्रॉसिंग पर मेरे नजदीक आकर बोला - "गाजी? फ्रॉम इंडिया"
गाजी यानी विदेशी। ईतो ने बताया था। मैंने हाँ में सिर हिलाया। वह टूटी फूटी अँग्रेजी में बोला - मुझे इंडिया आना है, ताजमहल देखना है... प्रेम का प्रतीक... ग्रेट... मेरी बेटी ने भी लव मैरिज की है। आज उसकी वेडिंग एनिवर्सरी है। ये फूल उसी के लिए ले जा रहा हूँ।"
तभी सिग्नल ग्रीन हो गया और वह तेजी से सायोनारा कहता हुआ चला गया। मैं खुद को कोसने लगी। कम-से-कम उसकी बेटी के लिए शुभकामनाएँ तो दे ही सकती थी।
बस निशिहिकारी जा रही थी जहाँ हमारा होटल था हॉलिडे इन। लकड़ी से बने कमरे, आधुनिक साज सज्जा... ठंड तो थी पर बेतहाशा नहीं। खिड़की खोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी। हवाएँ तेज थीं। रजाई तोप जो आँखें बंद की तो फिर सुबह ही वेकअप कॉल से नींद खुली।
सफर समाप्ति की ओर था। साफ आसमान और खिली हुई धूप में मैं सुबह दस बजे ओसाका शहर की ओर रवाना हो रही थी। क्योटो के गली कूचों से गुजरते हुए लग रहा था जैसे शांति की ओर मेरे कदम आहिस्ता आहिस्ता बढ़ रहे हों इतना शांत शहर। वैसे तो पर्वतीय शहर शांत ही होते हैं। सड़क के फुटपाथ पर विद्यार्थी पैदल चल रहे थे। कुछ साईकल ट्रैक पर साइकलों पर सवार थे। लेकिन सभी अनुशासन बद्ध, न अशिष्टता, न बेहूदे ठहाके, न शोर... काश, विद्यार्थियों में यह अनुशासन हर जगह होता।
बाजार की आखिरी सीमा के बाद रो हाउस थे जिन्हें देखकर लग रहा था जैसे मैं ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में पहुँच गई हूँ। थे भी वे एक हजार वर्ष पुराने मकान... ज्यों के त्यों लकड़ी से बने और खपरैल की छत वाले। उन पर प्राकृतिक आपदाओं का कोई असर नहीं हुआ था चूँकि ये रो हाउस प्राइवेट थे अतः प्रतिवर्ष जो सरकार की ओर से रखरखाव में खर्च किया जाता है उससे भी वे वंचित थे। सड़क के किनारे एक ओर चैरी और दूसरी ओर वीपिंग बिलों के पेड़ों की कतार थी। रो हाउस और सड़क के बीच छल छल बहती पारदर्शी जल वाली कामोदा नदी। लहरों पर रंग बिरंगे पक्षी मछलियाँ ढूँढते हुए अपने पंख फड़फड़ा रहे थे। गोल घुमावदार हीराकाता ओसाका पुल से जब बस गुजर रही थी। ईतो ने बताया- "जापान परंपराओं का देश है और युवा वर्ग भी अपनी संस्कृति को बहुत प्रेम से निभाते हैं। कहीं कोई तर्क नहीं, विरोध नहीं, विद्रोह नहीं। इसीलिए सदियों पुरानी संस्कृति आज भी मौजूद है, उसमें कोई बदलाव नहीं है। यहाँ पर घर में हर व्यक्ति के पास काले रंग की दो पोशाकें और सफेद टाई हमेशा मौजूद रहती है। शादी में शामिल होने के लिए काले सूट के साथ सफेद टाई पहनी जाती है और मातम में केवल काला सूट। बाकी के दिनों में वे काले कपड़े नहीं पहनते। धर्म के प्रति भी कोई भेदभाव नहीं। हर व्यक्ति बौद्ध धर्म का है। यहाँ क्रिसमस की छुट्टियाँ भी नहीं होतीं। 23 दिसंबर को राजकुमारी आकीहीतो के जन्मदिवस पर सरकारी छुट्टी रहती है। उस दिन जापानी केक बनाकर एक दूसरे को उपहार में देते हैं। कभी-कभी किन्हीं लोकप्रिय परिवारों में इतनी केक इकट्ठी हो जाती है कि वे अगले दिन उसे हाफप्राइज में बेच देते हैं।" और ईतो हँसने लगा।
"जानती हैं जो लड़की 35 की उम्र क्रॉस करने के बावजूद बिन ब्याही रह जाती है उसे हम शरारत से हाफप्राइज गर्ल कहते हैं।"
इस बार ईतो के संग बस में बैठे सभी पर्यटक हँस पड़े।
सामने लव होटल की भव्य इमारत थी। जापानी इसे मोटेल कहते हैं। पूरे शहर में इस तरह के कई मोटेल हैं। इमारतें तो नए स्ट्रक्चर डिजाइन और रंगों की हैं लेकिन कई पुल काफी पुराने हैं। फिर भी साउंड प्रूफ दीवारें हर जगह मौजूद हैं।
क्योटो से ओसाका 150 कि.मी. दूर है। ओसाका जापान की दूसरी बड़ी सिटी है। पहली टोकियो है। जनसंख्या वैसे काफी कम है लेकिन आसपास के गाँवों को मिलाकर दुगनी हो जाती है। सड़कों पर बहुत कम भीड़ थी। शुक्रवार के दिन ट्रैफिक कम ही रहता है। यहाँ ऑफिस में वर्किंग ऑवर सुबह नौ से शाम छह तक का होता है। इस वक्त साढ़े ग्यारह बज रहे थे। सभी ऑफिस पहुँच चुके थे। यहाँ लोकल ट्रेनें भी चलती हैं। गाँव से शहर लोग ट्रेन से ही सफर करते हैं। तीन स्टॉप तक यात्रा किराया दो सौ येन है। ट्रेनें सुविधाजनक हैं। एयरकंडिशंड, ऑटो डोर वाली, स्टील के रंग की।
नदी की कल-कल से ध्यान सड़क से हट कर किनारे की ओर गया। यूडोवाशी नदी मंथर बह रही थी। उस पर से हवाएँ आकर जब छूतीं तो नदी का एहसास होता... ठंडा जलकणों से युक्त। यहाँ से नदी सीधे सागर में मिलती है। प्रशांत महासागर, नीले पानियों की झिलमिल वाला... नदी को आगोश में भरकर और भी रुपहला हो गया होगा।
क्योटो पर्वत के बीच से चार कि.मी. लंबी सुरंग को राष्ट्रीय मार्ग कहा जाता है। सुरंग की दिप् दिप् करती रोशनी देख लगा मानो तारे सुरंग में उतर आए हों। ऐसी दो सुरंगों को पार कर हम जब सड़क पर निकले तो किनारे किनारे बाँस के झुरमुट झुरमुट... जापान में बाँस पहली बार देखा। बाँस के नरम कल्लों की सब्जी बहुत स्वादिष्ट बनती है... कल्लों का अचार भी बनता है... अम्मा याद आ गईं। जबलपुर में हमारे बंगले के उद्यान में बाँस लगे थे और अम्मा कल्लों का अचार, सब्जी बनाती थीं।
सामने ओसाका के चिन्ह... 1990 में यहाँ एस्पो हुए थे। ईतो कुछ बता तो रहा था पर मेरा ध्यान नदी के मोड़ की ओर था। सागर की ओर मुड़ती नदी के बाद ओसाका सिटी शुरू हो गई थी। अब हम ओसाका में थे। आधुनिक तकनीकी से बनी इमारतें स्पष्ट नजर आ रही थीं। स्काई गार्डन होटल तो आकाश को बस छूना ही चाहता था। इसकी आखिरी मंजिल को लगभग छूता सा फेयरी व्यूज का चक्र... लाल सीटों वाले झूले पर बैठकर शहर का नजारा क्या खूब नजर आता है।
योदोबाशी यानी पुस्तकालय की खूबसूरत भव्य इमारत देखकर मेरा मन तब और भी उसे अंदर से देखने को मचल उठा जब पता चला कि यहाँ विश्व साहित्य का एक बड़ा जखीरा मौजूद है। लेकिन अन्य पर्यटकों को ओसाका योदोबाशी से ज्यादा ओसाका कासल देखने की जल्दी थी। साथी पर्यटकों में कोई भी साहित्य में रूचि नहीं रखता था। लिहाजा मुझे मन मसोसना पड़ा और मैं तब तक पुस्तकालय की इमारत को देखती रही जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो गई।
बस उस ऐतिहासिक किले के आगे रुकी जहाँ तीन सफेद झंडे हवा में लहरा रहे थे जिन पर लाल नीले त्रिकोण बने थे। कासल तक जाने के लिए तीन डिब्बों वाली ट्रेन भी चलती है। असल में यह ट्रेन नहीं बल्कि ट्रेननुमा वाहन है जो ट्रेक पर नहीं बल्कि सड़क पर चलता है। ट्रेन का किराया प्रति व्यक्ति 250 येन है। अगर घूमते हुए जाएँ तो बीस मिनट लगेंगे। धूप छाँव भरी सड़क जैसे पैदल चलने का आमंत्रण दे रही थी। सड़क के दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे चीड़ के दरख्त जब छाया देते तो धूप की तेजी धीमी पड़ जाती है। यहाँ तीन तरह के दरख्त बहुतायत से हैं। चीड़, चैरी और वीपिंग बिलो लेकिन अचानक दरख्तों के घनेपन में गुलाबी फूलों से लदे कनेर को देखकर मन खिल उठा। मोना साथ चलते हुए गुनगुना रही थी... जापान, लव इन टोकियो...
ओसाका कासल अब म्यूजजियम बना दिया है। सन 1583 में यहाँ इशियामा होन्गांजी टेंपल था जिसे ओदा नोबुनागा ने तेरह वर्ष बाद नष्ट कर दिया था। तोयोतोमी हिदेयोशी ने बाद में इसे नए बसे जापान के अंतर्गत ले लिया था, कानूनी संरक्षण सहित। कुछ साल बाद जब हिदेयोशी की मृत्यु हो गई तब तोकूगावा ट्रूप ने इस पर हमला कर इसे फिर से नष्ट कर दिया। 1620 में ओसाका कासल का निर्माण तोकूगावा हिडेतादा के द्वारा कराया गया। इस प्रकार कई बार नष्ट हो जाने और पुनः बनाए जाने के सिलसिले में अब यह पूरी सजधज के साथ एक खूबसूरत संग्रहालय के रूप में मौजूद है जहाँ तोयोतोमी हिदेयोशी की जिंदगी के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज और कासल का इतिहास डिस्प्ले किया गया है। तीन मंजिलों के इस संग्रहालय को देखने में हमें चालीस मिनट लगे। कुछ स्कूलों के बच्चे भी अपने टीचर्स के साथ आए थे।
शाम के चार बज रहे थे। बस में हमें शिन्साइबाशी शॉपिंग सेंटर में लाकर छोड़ा जो शॉपिंग और ईटिंग पेराडाइज माना जाता है। खरीददारी और व्यंजनों का स्वर्ग। पूरा शॉपिंग सेंटर लंबाई में चार भागों में बँटा है हर भाग के बाद सिग्नल जहाँ चार राहें आकर मिल जाती थीं। मैंने ऐसी बनावट पहले कभी नहीं देखी थी। एक ओर व्यंजन के स्टॉल दूसरी ओर कपड़े, जूते, परफ्यूम, ज्वेलरी इत्यादि।
भूख लग आई थी सो मेक्डोनल से फ्रेंच फ्राई और बनाना शेक खरीदा। मेक्डोनल की इमारत दो मंजिली थी। हम ऊपर की मंजिल में बैठे। फ्रेंच फ्राई पोटेटो खाने के लिए सॉस भी चाहिए थी पर मैं सॉस लाना भूल गई थी। अब फिर उतनी सीढ़ियाँ उतरूँ... चेन्नई से आए स्वामीनाथन के साथ सॉस शेयर करना इसलिए लुत्फ़ दे गया क्योंकि वे अपनी आप बीती बड़े रोचक ढंग से सुना रहे थे और खूब हँस रहे थे।
दुकानों में घूमते हुए मैंने एक थाई ड्रेस और जापान के विशेष भूरे पत्थरों का हार अपनी भांजियों के लिए खरीदा। एक दुकान में चॉकलेट देख मैंने ढेर सारी चॉकलेट डलिया में भर लीं और जब काउंटर पर बिल भरने गई तो पता चला वो चॉकलेट नहीं स्पाँज केक है। अब मैं इस तरह का अनुभव जापान में तो नहीं ही लूँगी क्योंकि यहाँ चॉकलेट मिलते ही नहीं। पार्किंग प्लेस पर बस हमारा इंतजार कर रही थी।
हम ओसाका के सबसे पॉश इलाक़े में बने पाँच सितारा होटल ओसाका दाईइची आए। अभी सात बजे थे। साढ़े आठ बजे डिनर के लिए हमें होटल के लाउंज में इकट्ठे होना है। मोना के कमरे के बाजू में ही मेरा कमरा था। मैं कमरा खोलने के लिए कार्ड इन्सर्ट कर ही रही थी कि मोना पास आकर बोली- "संतोषजी, वो जो मणिरत्नम है न, उनके एक जापानी दोस्त अभी आने वाले हैं और आपसे मिलना चाहते हैं। जल्दी से तैयार हो जाइए मैं आपको आधे घंटे बाद लेने आऊँगी।"
यह सूचना थी या आदेश... मैंने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया और कमरे में आ गई।
आधे घंटे बाद मोना ने जब डोर बेल बजाई उसी समय मणिरत्नम का इंटरकॉम पर फोन आया - "संतोषजी, मेरे रूम में ही आ जाइए, हम आपका इंतजार कर रहे हैं।"
उसका दोस्त जापानी नहीं बल्कि दक्षिण भारतीय था और हिंदी साहित्य में रूचि होने के कारण वह मुझे धर्मयुग के जमाने से पढ़ता आ रहा है। उसने अपना नाम रजनीकांत बताया। साथ में एक फ्रांसीसी भी था हीरो... रजनीकांत और हीरो हमें डिनर के लिए किसी जापानी रेस्तरां ले जाना चाहते थे। उसके बाद नाइट क्लब का कार्यक्रम था। मुझे जापानी भोजन पसंद न था इसलिए हम निर्धारित रेस्तरां में डिनर के लिए गए और डिनर के बाद नाइट क्लब।
रात की बाँहों में ओसाका बहुत रोमांटिक लग रहा था। स्वप्निल रोशनी में नहायी सड़कों पर कई जोड़े चहलकदमी कर रहे थे। इक्का दुक्का गाड़ियों, साईकलों और बाइक की आवाजाही थी और मैं अपनी जिंदगी में पहली बार नाइट क्लब से रूबरू हो रही थी। एक छोटी-सी इमारत की तीसरी मंजिल पर तंग सा गलियारा पार कर छोटे... बेहद छोटे बल्कि कोठरीनुमा कमरे में पहुँचे। दीवार से लगे सोफों पर लोग बैठे थे और सामने टेबिल पर शराब परोसती कमसिन लड़कियाँ थीं। काउंटर पर हर तरह की शराब मौजूद थी। सोफे पर बैठे कुछ जापानी अधेड़ थे, कुछ अन्य देशों के लोग झूठी खुशियाँ बटोरने को लालायित। लंबी, छरहरी, गोरी चिट्टी लड़कियाँ लो नेक के लंबे काले लिबास में थीं जो शराब और सिगरेट पेश कर बाजारू अदाओं से उन्हें रिझा रही थीं। पूरे कमरे में सिगरेट का धुआँ ही धुआँ... मुझे नाक पर रुमाल रखना पड़ा। एक लड़की थिरकती हुई 'हाय रजनी, हाय हीरो,' कहती हुई पास आई और हमारे नाम पूछने लगी।
"ये मनी, ये मोना और ये..."
"मीनू... मैंने झट से कहा। सुनकर सब हँस पड़े... मनी, मोना, मीनू... आप क्या लेंगे।"
"सबके लिए वोद्का... रजनीकांत ने ऑर्डर दिया और टच स्क्रीन पर शकीरा की धुन लगाते हुए माइक हाथ में लेकर झूम झूम कर गाने लगा। सामने बड़े स्क्रीन पर गीत के बोल अँग्रेजी में लिखे आ रहे थे और पीछे सीन चल रहा था। तो ये है नाइट क्लब! उस माहौल में मेरा दम घुटने लगा। मैंने होटल लौटना चाहा। मणिरत्नम शायद बुरा मान गया। वह अपनी जगह से उठा तक नहीं। हीरो मुझे और मोना को छोड़ने होटल तक आया। रात ठंडी हो चली थी और सड़कें भी सूनी नजर आ रही थीं। हीरो ने मेरा हाथ चूमकर मुझसे विदा ली।
बारह बज चुके थे। मैंने नाइट गाउन पहनकर लाइट बुझाई ही थी कि इंटरकॉम बज उठा। मणिरत्नम अपने किए पर शर्मिंदा था और माफी माँग रहा था। मैंने उस सो जाने की सलाह दी। लेकिन वह बार-बार इंटरकॉम पर डिस्टर्ब करता रहा और जब इतने से भी उसका जी नहीं भरा तो वह दरवाजे तक चला आया लेकिन मैंने दरवाजा नहीं खोला और न ही उसे कोई जवाब दिया। अब उसका व्यवहार सचमुच मुझे चोट पहुँचा रहा था। फिर कहाँ नींद आनी थी?
ग्रुप में दो चार लोग ऐसे थे जो हिरोशिमा नागासाकी जाना चाहते थे लेकिन मैं उस बरबादी के मंजर को देखना नहीं चाहती थी। मैंने हिरोशिमा नागासाकी पर बनी फिल्म भी देखी थी और मुंबई के वर्ली स्थित साइंस सेंटर में प्रदर्शनी भी। जापान की सरकार ने मेमोरियल बना कर हिरोशिमा में 6 अगस्त 1945 और नागासाकी में 11 अगस्त 1945 को परमाणु बम गिराए जाने की घटना को आज दिन भी ताजा रखा है। रेडियोधर्मी हवाओं का खतरा भी बना रहता है। वह महाविनाश विश्व की सबसे शर्मनाक घटना थी जिसने मानवता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए थे। मेरे लिए वह सब असहनीय था।
भारत लौटने के लिए मेरी फ्लाइट 18 सितंबर को सुबह 11.30 की थी और हमें कान्साई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे जाना था। सुबह के आठ बजे थे। नाश्ते के दौरान मणिरत्नम ने फिर रात की घटना के लिए माफी माँगी। उसे चेन्नई वाया कुआलालंपुर जाना था और मुझे वाया बैंकॉक। लेकिन फ्लाइट दोनों की एक घंटे के अंतर से थी इसलिए हम साथ ही एयरपोर्ट के लिए निकले। कान्साई हवाई अड्डा बे ऑफ ओसाका के द्वीप पर बना है लेकिन अब उसका धरातल धीरे-धीरे डूब रहा है। इसलिए उसी के बाजू में नया एयरपोर्ट बन रहा है। हमारी बस भी समंदर के ऊपर बने लंबे पुल से गुजर रही थी। मैं जापान को नजरों में, यादों में भर लेना चाहती थी। मैं चाहती थी ईतो भारत आए और देखे कि कैसे छह ऋतुओं का बसेरा है वहाँ, फूलों वाली घाटी है वहाँ, प्रेम का प्रतीक ताजमहल है वहाँ... क्या ईतो सचमुच आएगा भारत? मैंने उसे अपना कार्ड दिया है और उसने मुंबई आने का वादा किया है। कस्टम की ओर बढ़ते मेरे कदम ठिठके हैं। सायोनारा ईतो... सायोनारा जापान।