hindisamay head


अ+ अ-

यात्रावृत्त

बंगाले से गंगाजल

अष्‍टभुजा शुक्‍ल


बचपन की मेरी समझ में बंगाल एक स्‍त्री-प्रदेश था। यही सिर्फ बंगालिनें रहती थीं और वे जादूगरनी होती थी। जब कोई प्रवासी वहाँ कमाने धमाने जाता तो वे उसे जादू से तोता, भेंड़ा, बकरा या ऐसे ही कुछ बनाकर पिंजरे में बंद रखतीं और रात को इच्‍छानुसार मानुष बना लेती। ऐसे कामरूपों और जादू टोने में मेरा बालमन इसलिए भी सहज विश्‍वासी बन गया था क्‍योंकि लगभग किशोर होने तक हर बीमारी में मेरी माँ टोना झाड़ने के लिए बगल के गाँव से किसुन चौधरी को बुलवा लेती थी। किसुन चौधरी अपने हुनर का भाव देखते हुए प्रायः रविवार या मंगलवार को सुबह सुबह पधारने में कोई आनाकानी कभी नहीं करते। वे कुछ हिचकते, बुदबुदाते और गाँजे के प्रभाव में रतनार आँखों से मेरी और स्‍नेहपूर्वक देखते हुए लोबान का धुआँ सुँघाकर मेरा उपचार करते। मेरी माँ की कई थातियों में पीली सरसों, लोबान और लौंग की किसी लत्ते में गठियाई एक पोटली भी थी। सो, बंगाल के बारे में जादू टोने की सुनी सुनाई कहानियों के प्रति मेरे मन में एक तरह का रोमांचक भय भी था और आकर्षण भी। लेकिन भय प्रबल था। मैंने मन ही मन कान पकड़कर उठ बैठ लिया था कि दुनिया में कहीं भी चला जाऊँगा - नदी-नाले चला जाऊँगा, बीच धारे चला जाऊँगा, उस पार भी हो आऊँगा, प्रिया के पाँव पकड़ने की अनदेखी कर दूँगा, लेकिन बंगाल को कौन कहे, पूरब की ओर ताकना भी मेरे वश की बात नहीं। जिसे रसखान को तरह ब्रज का पशु, पक्षी और पाहन बनने का बड़ा शोक हो, उससे कहूँगा - दादा। बंगालम् ब्रज। लेकिन मुझे माफ कर दो। जर्जर बढ़ी माँ और आसन्‍नप्रसवा वरटा (हंसिनी) का अकेला हंस हूँ। नीर-क्षीर का बहुत विवेक भले न हो लेकिन ममता कम नहीं। जो बंगाल जाता है, वहाँ से रिटर्न नहीं होता। होता भी होगा तो किसी सौतन के साथ।

दूसरी ओर गाँव में डमरू बजाकर खेल तमाशे, खून खच्‍चर और हाथ की सफाई दिखाते मदारी या बाजीगर मुझे बंगाल रिटर्न ही लगते। जहाँ इस देश में जल्‍दी कोई फाइल ही रिटर्न नहीं होती, बाहर गए लोगों की वापसी तक संदिग्‍ध रहती है, वहाँ बहुत से विद्वान फॉरेन रिटर्न का तमशा सीने से चिपकाए हुए जनपदीय लोगों को कीट-पतंग से ज्‍यादा नहीं समझते। तो मदारी अपने कारनामों से हमें चमत्‍कृत करते हुए बंगाल रिटर्न ही लगते। लगता कि ये अपने जादू से इच्‍छानुसार रुपये पैसे बना लेते होंगे। तो भी इस गाँव से उस गाँव दर-दर भटकते रहते हैं? ईत्‍वरता और यायावरी भी कुछ लोगों को एक जगह बैठने नहीं देती। न्‍यूटन की गतिकी के विरुद्ध कोई आंतरिक बल ही उन्‍हें पेरता रहता है। चल उठ। घूम-घाम ले अभी। इस तरह के समाज और बीस तरह के लोगों से भेंट मुलाकात हो जाएगी। एक न एक दिन तो वैसे ही चिरनिद्रा में चला जाएगा, मूरख। और मदारी ईश्‍वर अल्‍ला के नाम पर कुछ न कुछ माँगते हुए बताते रहते कि पेट न होता तो भेंट न होती। सच है, हर बात बहाना हो सकती है लेकिन पेट कभी बहाना नहीं होता। पेट दिखाना दुनिया के सम्‍मुख सबसे ग्‍लानिजनक रिरियाहट है। इसी पापी पेट के लिए ही आदमी को कुछ न कुछ करना पड़ता है। और कुछ लोगों को तो जी-तोड़ मेहनत करने के बाद भी पेट दिखाना पड़ता है। क्रूर संसार आदमी की अस्मिता और स्‍वाभिमान का ही भूखा होता है। इसी संसार से आहार की याचना करते हुए मदारी दर-ब-दर भटकते रहते। बचपन बीत गया तो खेल तमाशों और जादू टोनों का कौतुक भी कम होने लगा। बंगाल रिटर्न लगने वाले बाजीगर अब जनपद से ही बैरंग वापस आने लगे। जादूगरी जवाब देने लगी और जादुई यथार्थ का सामना करना पड़ा।

कहाँ पता था कि जिसका नाम सुनकर हाड़ काँप जाता है, कभी उसी नाम का जाप भी करना पड़ता है। जिससे आप बहुत बिदकते हैं उसी के पिंड नहीं छूटता, जिससे रूठते हैं उसी को मनाना भी पड़ता है और जहाँ जाने से हिचकते हैं वहीं जाना भी पड़ सकता है। भुवनेश्‍वर में 'वर्णमाला' की ओर से आयोजित हिंदी-उड़िया कविता सहवाचन का आमंत्रण मिला और पता किया तो चला कि हावड़ा होकर जाना पड़ेगा। अब क्‍या हो? अब क्‍या हों? बीच में बंगाल है। दुंहुं दिसि दारू दहन जइसे दगधई आकुल कीट परान। फॉरेन रिटर्न होता तो स्‍वदेश भ्रमण का लोभ त्‍याग भी देता। भला विश्‍वग्राम की नागरिकता के आगे देसी नागरिकता की क्‍या अहमियत है? देश के हों न हों, दुनिया का होना सोच और समझ की व्‍यापकता की सनद है। भारतीय लोग समझें या न समझें, कविता का प्रमुख विदेशी भाषाओं में अनुवाद की गरिमा ही कुछ और है। भूमंडलीकरण के दौर में 'हिमालयो नाम नगाधिराज' का भूगोल और मानचित्र खींचना पिछड़ापन नहीं तो क्‍या है? लेकिन विश्‍वबंधु। जो ठीक से अपना ही प्रांत न घूम सका हो उसके लिए दूसरे प्रांत की यात्रा करना दूसरे लोग की यात्रा करने से कम नहीं। जिस जातक के केंद्र में ही तीसरे दर्जे की यात्रा लिखी हो, जिसके भाग्‍य में गरीबरथ भी न हो, उसके लिए ए.सी. द्वितीय श्रेणी के टिकट का प्रलोभन उड़ीसा क्‍या कुंभीपाक में भी जाने से नहीं रोक सकता। अब चाहे गोवर्धन का ढेला बनना पड़े या मधुवन के करील का काँटा अथवा व्रज का पशु पक्षी पाहन। उड़ीसा जाना है तो बंगाल से बचा नहीं जा सकता। उत्तर भारत में जन्‍म लेने का अभिशाप तो झेलना ही होगा। वैसे भी अपुन वहाँ के हैं जहाँ बस्‍ती के रसखान माने जाने वाले और ''वहि पावन पाँवन की रज पावन बास बपावन पावन चाहत'' जैसी पंक्तियों के कृष्‍णप्रेमी कवि अब्‍बास अली 'बास' की स्‍वर्गीय आत्‍मा निवास करती है। तो रसखान की भावना का अनादर कैसे किया जा सकता है? यह अलग बात है कि अब व्रज और मिथिला हाशिए पर हैं। जहाँ से जीवन रस मिला, उस रंगभूमि की ओर कौन देखता है? रंगभूमि से अधिक महत्‍वपूर्ण बना दी गई है रणभूमि। जीवन रस से ज्‍यादा जरूरी हो चुका है सत्ता सुख। इसीलिए अब मथुरा और अयोध्‍या एजेंडे में है। व्रज और मिथिला से संस्‍कृति विकसित हुई थी, मथुरा और अयोध्‍या से सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवाद फल-फूल रहा है। सचाई यह है कि मिथिला एवं व्रज का विस्‍मरण स्‍त्री-अस्मिता की उपेक्षा का चुचक्र है जबकि मथुरा और अयोध्‍या का उभार पुरुष वर्चस्‍व सत्ता की हिंसक राजनीति। राजनीति के इसी खेल से खिन्‍न होकर गर्भभार से निर्वासित सीता ने लक्ष्‍मण से कहा था -

वाच्‍यस्‍त्‍वया मद्वचनात् स राजा वह्नौ विशुद्धामपि यत्‍समक्षम्। (रघुवंश, चतुर्दश सर्ग)

न स्‍वामी, न प्रियतम, न नाथ, न रघुवंशमणि। बल्कि (हे लक्ष्‍मण) जाकर अपने उस 'राजा' से कह देना कि अग्निपरीक्षा दे चुकी मुझ सीता को लोकोपवाद के डर से निर्वासित करने का क्रूर निर्णय किसी तरह सत्ता में बने रहने का ही एक स्वाँग है। जितना प्‍यारा सिंहासन है, उतनी मैथिली कहाँ? इसी राजधर्म से धर्मराज्‍य की स्‍थापना होगी। कल्‍याण इसी में है कि इस राज्‍य से निकल जा। भविष्‍य जो भी होगा, चल चल रे अब उड़ीसा बंगाल से गुजरते।

काठगोदाम हाव़डा एक्‍सप्रेस पूरब की ओर बढ़ती चली जा रही है। तीसरे दर्जे की ठेलमपेल में अपने को और अपना बैग इधर उधर खिसकाते हुए ए.सी. सेकेंड का बिल प्रस्‍तुत करने की महत्‍वाकांक्षी योजना बनाता हुआ किसी न किसी बहाने बराबर बैग स्‍पर्श करता रहता हूँ। कभी आँख से, कभी हाथ से, कभी पैर से। थोड़ा उधर सरकने की धौंस या निवेदन सबको प्राप्‍त हो रहा है। हर कोई प्रभावित या अप्रभावित हो रहा है। इस डिब्‍बे में सबका खुला प्रवेश है। क्‍योंकि डिब्‍बा अनारक्षित है। पुलिस, जेबकतरे, जहरखुराने, उचक्‍के, टी.टी.ई., सूरदास, हिजड़े, चाय, गुटखा यानी कि सभी कमासुतों को इस डिब्‍बे से कुछ न कुछ मिल जाने वाला है। बाटिकट या बेटिकट सभी यात्रियों का कुछ न कुछ चला जाने वाला है। यह वही डिब्‍बा है जिसमें आदमी भेंड़ की झुंड की तरह तर ऊपर एक दूसरे में पिला पड़ा है। यही वह डिब्‍बा है जिसमें हर कोई बैठा और खड़ा है, झुका और अड़ा है, जिसमें लोकतंत्र संविधान से बड़ा है। यह वही पुष्‍पक है जिसमें अपार लोग सवार हो जाएँ तो भी एक सीट खाली रहेगी। इस भेड़ियाधँसान का क्‍या निदान हो? तो क्‍या किसी एक आदमी के लिए पूरा कंपार्टमेंट खाली करा दिया जाए? तब वह यात्रा का सुख लूटेगा? एक आदमी कितनी सीटों पर पाँव पसारेगा? अकेला व्‍यक्ति कहाँ-कहाँ सोएगा? कितनी बार प्रसाधन में जाएगा, कितने पंखों की हवा खाएगा? कितनी बार शीशे में अपना मुँह देखेगा और कब तक एकालाप करेगा? भुवनेश्‍वर जा रहा हूँ दस बीस लोगों के बीच संवाद विवाद करने तो किसी ऐकिक नियम से सवाल हल नहीं हो सकता। बहुलक आवश्‍यक है। पधारने और सिधारने से ही तो यह संसार चलता है। कोई चढ़ता है तो कोई उतरता है। कोई आता है तो कोई जाता है। लेकिन इस आवाजाही से यातायात नहीं प्रभावित होना चाहिए। ट्रैफिक जाम नहीं होना चाहिए। आवश्‍यक सेवाएँ ठप्‍प नहीं होनी चाहिए।

गाड़ी में चढ़ते और उतरते लोगों की बोली बदल गई है। यह न तो बांग्‍ला लगती है, न उड़िया। सामने बैठे हुए सज्‍जन से जिज्ञासा करता हूँ कि भाई साहब, यह कौन सा स्‍टेशन है? सज्‍जन सचमुच लगे और सज्‍जन गुलाम रसूल ने रात के ग्‍यारह बजे बताया कि 'ट्रेन बिहार में चल रहा हाय।' मैं तो जैसे आसमान से गिरा। इस देश को कौन कहे पूरे त्रिभुवन में बिहार को अपनी एक अलग छवि है। यहाँ की छलछलाई हुई संवेदना और जानलेवा संघर्ष को लोग जानते हैं। गरीबी और गरीबी के मसीहा को जानते हैं। यहाँ की पुलिस और प्रशासन को जानते हैं। अपहरण और फिरौती को जानते हैं। जिसकी लाठी उसकी भैंस को जानते हैं। ऐसे बिहार को अनदेखा करना लोकतंत्र की सरासर अवहेलना है। रे मतिमंद। ऐसे बिहार को बार-बार देखो। नालंदा से चरवाहा विद्यालय का प्रसार देखो। यूथ का यूथ संहार देखो कोयले से पैदा सुनार देखो। पिछड़ों का अगड़ा बिहार देखो। गोली बारूद की भरमार देखो। देखो, भाई साहब। मुझे भुवनेश्‍वर जाना है और सज्‍जन गुलाम रसूल से मैंने अष्‍टभुजा चरित कह सुनाया। उन्‍होंने बताया कि वे हावड़ा से चार पाँच स्‍टेशन पहले बैंडल के निवासी हैं। साड़ियों और कपड़ों की जरी कढ़ाई का व्‍यापार करते हैं। बंबई से आ रहे हैं। उनका आधा घर ट्रेन है और आधा बैंडल यानी कि लगातार आवागमन करते रहते हैं। परिचय में मुझे कवि जंतु जानकर उनका बंधुत्‍व और स्‍नेह कुछ अधिक बढ़ गया तो मैं दंग कि जरी कढ़ाई के कारोबारी की कवि और कविता में इतनी दिलचस्‍पी क्‍यों होने लगी? लेकिन यह बंग का बंगाली है। कविता और बंगाल में कोई रिश्‍ता तो है ही, जादू टोने में होने न हो। कुछ समाज ऐसे होते हैं जो साहित्‍य और संस्‍कृति को किरीट की तरह धारण करते हैं। संस्‍कृति के रस और संस्‍कृति के अलंकार में लोकधर्म और सत्ता संप्रदाय का अंतर तो होता ही है। आत्‍मीयतावश भाई गुलाम रसूल ने ट्रेन में चिल्‍लाते हुए चाय वाले से मुझे भी चाय आँफर की तो मैं थोड़ा हिचकिचाया। हम यू.पी. वाले खुद धोखा खाते-खाते और दूसरे को धोखा देते-देते इतने चालू और काइयाँ हो गए हैं कि किसी पर विश्‍वास नहीं करते - न खुद पर न औरों पर। इस बेदाढ़ी मुस्लिम ने कहीं चाय में कोई मादक पदार्थ या जहर वगैरह मिला दिया और बैग उठाकर चंपत हो गया तो? हावड़ा स्‍टेशन पर इस सजी धजी काया को पुलिस लाश की तरह घसीटकर उतारेगी। पुलिस जब जिंदा लोगों के साथ इतनी बदसलूकी करती है तो बेहोश आदमी के साथ कैसा बर्ताव करती होगी? अगर बिहार रिटर्न ही न हो सका तो? स्‍वीकृति देकर भी 'वर्णमाला' के आयोजकों द्वारा विश्‍वासघाती और तनखइया मान लिया गया तो? लेकिन अष्‍टभुजा - 'हमें उनसे भी है वफा की उम्‍मीद, जो नहीं जानते कि वफा क्‍या है।' यह संसार तो विश्‍वास के बल पर ही चलता है। चाहे आत्‍मविश्‍वास हो या परविश्‍वास। अविश्‍वास के हजारों जालों के बीच विश्‍वास का एक बाल भी बड़ा संबल होता है। डूबते को तिनके का ही सहारा होता है, किसी बरगद का नहीं। इस चाय से विश्‍वास की वाष्‍प उठ रही है। पी लो यह प्‍याला। चाहे सुकरात की गति हो या मीराबाई की। आज घर छोड़ा है तो किसी न किसी दिन संसार भी छोड़ना पड़ेगा। छोड़ो यह बकवास। भाई साहब, चाय तो अच्‍छी है। कुछ-कुछ बंगाल का जादू चढ़ने लगा है। झपकी आ रही है। नहीं, नहीं, कोई नशा नहीं, नींद है। किसी का सिर किसी की गोद में है तो किसी का हाथ किसी के कंधे पर। किसी का आँचल किसी के घुटनों पर है तो किसी की त्रिबली चमक रही है। कोई शिशु सपने में मुस्‍करा रहा है तो कोई बच्‍ची मच्‍छरों के दंश से रोने लगी है। खट् खिट् खट् खिट्। छप् छप् छिप् छिप्... चलती ही जा रही है।

आँख खुलते ही भाई गुलाम रसूल ने नीम की दातौन पेश की। तो सुबह की चाय मेरी ओर से परोसी गई जिसे भाई जी ने कुबूल कर ली। मेरी आज की नमाज अदा हो गई लेकिन कल का मक्‍का तो भुवनेश्‍वर है। अब भाई जी ही मेरे पथ प्रदर्शक हैं। 'यह ट्रेन अब हावड़ा तीन बचे पहुँचेगा। हावड़ा से भुवनेश्‍वर ग्‍यारह बजे रात में गाड़ी मिलेगा और पक्‍का बारह घंटे का सफर हाय। भुवनेश्‍वर बहोत दूर हाय।' तो आठ घंटे हावड़ा स्‍टेशन पर आलू छीलना पड़ेगा और हावड़ा में कोई जादूगरनी मिल गई तो? मिमियाओ, अललाओ या किसी पिंजड़े में फड़फड़ाओ। अपने रसखान को बुलाओ। लेकिन यह यह कालिंदी का कूल नहीं बंगाल का तटवर्ती बिहार है। जान बची तो लाखों पाए। न हो कालिंदी, तो वह दूरवर्तिनी भानुरंजित कौन-सी नदी पिघले हुए स्‍वर्ण भंडार की तरह मंद मंथर गति से बह रही है? कहीं वह हिरण्‍यवाह शोण तो नहीं? होगी या नहीं होगी। नदी तो नदी है। नदी का क्‍या नाम? महर्षि पाणिनि ने तो वैसे ही सूत्र पकड़ा दिया है - स्‍त्री नदीवत्। अर्थात स्‍त्री का रूप भी नदी की भाँति ही चलेगा। तो स्‍त्री का भी नाम क्‍या? अमुक की माँ, नमुक की बेटी, समुक की पत्‍नी। स्‍त्री नाम नहीं, उपाधि है। यानी कि स्त्रियों के लिए अंतःपुर और पुरुषों के लिए हस्तिनापुर। कुछ घोटाला है। सूत्र में यदि रूप एक जैसा चल सकता है तो नाम क्‍यों नहीं चल सकता? विंध्याचल, सतपुड़ा, सुमेरु, हिमालय, चित्रकूटाख्‍यान हैं तो नर्मदा, भागीरथी, मंदाकिनी, गंगाख्‍या क्‍यों‍ नहीं? रूप परिवर्तन के साथ नाम परिवर्तन की वैधता तो होनी चाहिए। क्‍या यह स्‍वर्ण नदी अपना नाम अर्जित करने के लिए ही तो इतनी लंबी यात्रा पर नहीं निकली है? अपमान के कितने कड़वे घूँट पीती हुई, कितने प्रकार के लांछनों को ढोतो हुई, कितनी बार मुड़ती, तटबंधों और कगारों को तोड़ती और फिर-फिर तटबंधनों को स्‍वीकार करती यह अपगा कहाँ और किसलिए दौड़ी जा रही है? क्‍या कोई उसे उसके नाम से पुकार रहा है? लगता है कि अब यह अपने रूप और नाम - दोनों के प्रति सचेत है। किसी सिरफिरे के शाप से जहाँ बरसात के चार महीने नदी रजस्‍वला मानी जाती थी, इस मार्च में अब एक स्‍वच्‍छ तन्‍वंगी है। स्‍वच्‍छ और बेधड़ंक। स्‍वयं पहल करने वाली। इसे कंठाभरण तो प्रिय है लेकिन कंठमाला कदापि नहीं। वह अब स्‍वयं सक्षम और स्‍वाधीन है। भाई साहब बता रहे हैं कि यह नदी भी हावड़ा में जाकर समुद्र में मिल जाता है। मुहाने को देखने से ऐसा लगता है कि यदि समुद्र नदी का अधरपान कर रहा है तो नदी भी पीछे नहीं। रूप को भी अब एक नाम मिल रहा है क्‍योंकि अब रूप में भी अपना वास्‍तविक मूल्‍य आँकने की चेतना और पहल करने की मुखरता का नैतिक साहब विकसित हो रहा है। थोथी मर्यादा एवं आत्‍महंता शालीनता से पल्‍लू झाड़ लेने को कोई धृष्‍टता या स्‍वेच्‍छाचार मानता हो तो मानता रहे। इसी को कहते हैं अमान्‍यता की स्‍वीकृति। स्‍वीकृति में ही संस्‍कृति निहित होती है। अस्‍वीकार की संस्‍क‍ृति ही कट्टरता की जननी है। स्‍वीकार करता हूँ रसूल भाई कि हावड़ा में उजबकों की तरह आठ घंटे काटना चारों युग बिताने से कम तकलीफदेह नहीं होगा, स्‍वीकार करता हूँ कि आपके घर बैंडल में दो चार घंटे आराम करने का हार्दिक निमंत्रण बहुत ही आत्‍मीय और सहज है, स्‍वीकार करता हूँ कि एक मुसलमान द्वारा एक अपरिचित हिंदू को अपने घर विश्राम करने का आमंत्रण देने की कोई कुंठा आपके मन में कतई नहीं है, स्‍वीकार करता हूँ कि एक हिंदू का किसी मुसलमान के घर पानी पीकर विधर्मी बन जाने का अस्‍पृश्‍य चोर मेरे ही मन में बैठा हुआ है, सौ बार स्‍वीकार करता हूँ कि मुझे अपने घर ले चलने की लालसा और मेरे असमंजस को कम करने के लिए ही आप छह सात पीढ़ी पहले के अपने पूर्वजों को हिंदू और अपने को कन्‍वर्टेड बताने की अपमानजनक यातना सहने को तैयार हैं इसीलिए आपके घर विश्राम करने का हार्दिक प्रस्‍ताव मुझे हजार बार स्‍वीकार है।

दादा बैंडल आ गया। तो भाई साहब के साथ उतरूँ कि सीधे हावड़ा निकल जाऊँ? हामी भरकर मुकरना तो कभी सीखा ही नहीं। या खुदा तुझे जो भी मंजूर हो। रिक्‍शा भाई साहब के मकान पर पहुँच गया। उन्‍हें पता था कि लेखक टाइप जीव हूँ तो सबसे पहले अपनी बेटी को बुलाकर परिचय कराया और बड़े प्रेम से बताया कि यह हिंदी में विशारद कर रही है। अब मेरे आगे प्‍लेट और हँड़िया भर रसगुल्‍ला था। शुक्‍ल जी। खाओ और पियो। दूसरा कोई उपाय नहीं। नमकीन और चाय भी हाजिर है। भाई साहब भीतर अपनी पत्‍नी को बता रहे हैं कि परदेसी दादा निरामिष हाय। बंगाल और शाकाहार। वह भी एक मुस्लिम परिवार में खास मेहमान के लिए? आठवाँ आश्‍चर्य। कैसा बौड़म अतिथि है? शायद इस कारण भी उस परिवार में मेरे प्रति कुछ और स्‍नेह उमड़ आया। अजूबेपन में भी एक हृदयावर्जक आकर्षण होता है। स्‍नान ध्‍यान के उपरांत प्‍लेट भर भात और आलू केले की सब्‍जी और फ्रिज से निकला मीठा दही। काटो भूक्‍खड़दास। कहाँ का मजहब और कैसा संप्रदाय? मदारी सही कहते थे कि पेट न होता तो भेंट न होती। दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम। ये चावल के दाने किस संस्‍कृति के हैं और यह पेट किस संस्‍कृति का है? यह आकस्मिक मेहमानी और मेजबानी किस संस्‍कृति के हैं? यह प्‍यार और सत्‍कार किस संस्‍कृति का है? संस्‍कृतियों के बीच नफरत और घृणा का बीजारोपण सर्वथा अवैध और अमानुषिक है। संस्‍कृति की राजनीति? नहीं चलेगी। संस्‍कृति की श्रेष्‍ठता का मिथ्‍याभिमान? नहीं चलेगा। संस्‍कृतियों का अस्‍वीकार? नहीं चलेगा, नहीं चलेगा। चलेगी तो पारस्‍परिकता और मेलजोल की संस्‍कृति। दादा। अब चलूँगा। यह एक नया प्रस्‍थान है। दादा की पत्‍नी और उनकी दोनों बेटियाँ हाथ जोड़े छलछलाई आँखों से अतिथि को विदा कर रही हैं। हाँ, हाँ, खाली बोतल में चांपाकल से पानी भरकर बैग में रख दो। रास्‍ता लंबा हाय।

रास्‍ते कितने भी लंबे और मुश्किलों से भरे क्‍यों न हों लेकिन जिस रास्‍ते में ऐसे ऐसे आत्‍मीय एवं गैरसरकारी अतिथिगृह हों, वह पलक झपकते ही आराम से तय हो जाता है। भाई गुलाम रसूल के घर बोतल में भरा यह स्‍वच्‍छ जल मंच पर रखे 'मिनरल वाटर' से ज्‍यादा निर्मल और पारदर्शी है। यह तन और मन दोनों की प्‍यास मिटाने वाला है। दोनों को तृप्‍त करने वाला है। इसके विरंजन में भी एक तरह का साँवलापन है। यह संगम का गंगाजल है। आजकल गंगाजमुनी संस्‍कृति की बड़ी चर्चा की जाती है। इस कंपोजिट कल्‍चर का उत्‍स कहाँ है? वेद में, पुराण में, कुरान में, बाइबिल में, गुरुग्रंथ साहब में, कि त्रिपिटक में? ये सारे शास्‍त्र एक जिल्‍द में कहाँ बँधे हैं? किसी भी धर्मग्रंथ ने तो अपनी संस्‍कृति को उन्‍नीस नहीं माना है। क्‍या काव्‍य में कहीं इसका उल्‍लेख मिलता है? जीभ तो कट गई 'रघुवंश' रटते रटते। कालिदास, कहीं तो संगम दिखाओ -

पश्‍यानवद्यांगि! विभाति गंगा भिन्‍नप्रवाहा यमुनातरंगैः (रघुवंश)

सुंदरी सीते! यमुना की तरंगों से भिन्‍न प्रवाह वाली इस गंगा को देखो। यह श्‍यामल जलतरंगों वाली यमुना और उज्‍ज्‍वल जलतरंगों वाली गंगा की धाराओं का अद्भुत संगम है। दोनों ही सखियों का रूप रंग अलग है फिर भी ये सहजीवन के सिद्धांत को निभा रही हैं। ऊपर-ऊपर से देखने में एक गोरी है तो दूसरी साँवली लेकिन भीतर ही भीतर किसकी कितनी बूँदें एक दूसरे में आई गई हैं, किसने किसका कितना जूठ पिया है, यह प्रत्‍यक्ष और अनुमान दोनों ही प्रमाणों से स्‍पष्‍ट दिखाई दे रहा है। यही है गंगा जमुनी संस्‍कृति। संस्‍कृतियों की एक घुलनशील और मिश्रित धारा होती है, संस्‍कृति का कोई पुष्‍कर, वापी, कूप या तड़ाग नहीं होता। नदियों की ही संस्‍कृति होती है, समुद्र की कोई संस्‍कृति नहीं होती। और स्‍त्री नदीवत्। स्‍त्री को नदी का पर्याय मानना - उन्‍हें एक सूत्र में पिरो देना कहीं से भी असंगत नहीं। मुझे अब भी स्त्रियाँ जादूगरनी लगती है। स्‍त्री विमर्श के दावेदार मेरी ऐसी तैसी कर सकते हैं। आश्‍चर्य नहीं कि कुछ (प्र)खर आलोचक मेरी कविताओं में पूर्वांचल की पुरुषवर्चस्‍ववादी दृष्टि हेर ही लेते हैं। इसी को कहते हैं साहित्‍य की धर-पकड़, समझ और देख लेने की धूम्रलोचनी दृष्टि।

मेरी दृष्टि में स्त्रियाँ ही संस्‍कृति की असली निर्मात्री हैं। और नदियाँ है सांस्‍कृतिक धाराएँ। जो इस सहप्रवाह में अड़ंगा डालना चाहते हैं वे तिनकों की तरह लापता हो जाते हैं। लेकिन संस्‍कृति के पुरोहित और तथाकथित भक्‍तगण इससे बाज नहीं आते। राम गुलाम से रामदास से रामसेवक से रामनौकर बने ऐसे पंडों से मुक्ति कब मिलेगी भाई गुलाम रसूल, यह तो मालिक ही जानें। तो मालिक, अब मैं भुवनेश्‍वर के 'वर्णमाला' वाले कार्यक्रम से वापस लौट आया हूँ। घर आकर बैग खोलता हूँ तो बैंडल में भाई गुलाम रसूल के घर से भरी हुई पानी की बोतल निकलती है। माँ पूछती है 'बाबू, ई गंगाजल है का?' हाँ कहने पर माँ उसकी दस-बीस बूँदें घर भर में छिड़कती है। माँ समझती है कि मैं बनारस, प्रयाग, पुष्‍कर या हरिद्वार से लौटा हूँ।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में अष्‍टभुजा शुक्‍ल की रचनाएँ