7 जुलाई , 1997
कल शाम दुबारा अपने बेटे-बहू के घर समरसेट, न्यूजर्सीं आ गया। इस बार अकेला ही आया हूँ। पत्नी एक तो अस्वस्थ रहती हैं, दूसरे उनके साथ भाषा और पुराने आचार-विचारों की भी समस्या है। पत्नी छोटे बेटे के पास बंबई चली जाएँगी। चलने लगा तो वह बाहर तक छोड़ने आर्इं। आँखों में आँसू थे। मैं इतना लंबा अकेले सफर कर रहा हूँ, वह भी सात समुद्र पार के देश के लिए। आशंकाओं, दुश्चिंताओं से वह बराबर घिरी रहती हैं बावजूद इसके कि वह ईश्वर और दैवी शक्तियों पर अटूट आस्था रखती हैं और छोटी-से-छोटी समस्या के अनुकूल हल के लिए देवी-देवताओं की मानता बोलती हैं।
'एअर इंडिया' से आया था। सारी सवारियाँ भारतीय थीं। लगा कि पूरा भारत साथ चल रहा है। यों तो कुछ लोग अँग्रेजी बोल रहे थे, लेकिन हिंदी अधिक सहज रूप में संवादों का माध्यम बन रही थी। अपनी भाषा भी सुरक्षा का आश्वस्तकारी अहसास देती है। इंग्लैंड से कुछ विदेशी भी न्यूयार्क के लिए सवार हुए थे, किंतु उनकी संख्या बहुत ही कम थी इतनी जैसे हल्के रंग मुख्य गहरे रंग में बिलाकर अपनी पहचान खो देते हैं। मेरी बगल वाली सीट पर एक नीग्रो महिला आकर बैठ गई थी। इतनी भीमकाया थी कि मुझे बराबर महसूस होता रहा कि कोई पुरुष साथ में बैठा है। संभवत: उसकी यह पहली हवाई यात्रा थी। मैंने बेल्ट बाँधने में सहायता की। बावजूद अपने मर्दाना डील-डौल के, उसका आचरण निहायत कोमल और कमनीय था। अपना बटुआ खोलकर उसने मुझे सुगंधित चुइगम दिया।
आते ही पाँच साल की पोती कली ने एक शर्मीली मुस्कान के स्वागत किया। पिछली बार सन 1989 में जब आया था, तब घर में कोई बच्चा नहीं था। बच्चा होने से घर कितना आत्मीय बन जाता है। बच्चे के सहज, निष्कलुष क्रियाकलाप परिवेश में संगीत जैसा कुछ घोल देते हैं। संगीत का आस्वाद कभी भी बासी नहीं पड़ता। बाहर सड़क पर या आसपास घरों में कहीं भी कोई शोरोगुल, चीख-चिल्लाहट नहीं है। वाहनों की भी पोंपों, हों-हों नहीं। ऐसी शांति आध्यात्मिकता के अति निकट होती है। नहीं, आध्यात्मिकता का यह एक दूसरा नाम है। आध्यात्मिकता की भाँति ऐसी शांति में भी अपने अंदर में गहरे उतरा जा सकता है।
8 जुलाई
कल रात्रि बिजली का स्विच गिर जाने से कमरे में लगी इलेक्ट्रिक घड़ी बंद हो गई। जब स्विच फिर आन किया घड़ी ने चलना बारह से शुरू किया। भारत से जो अपनी पुरानी कलाई घड़ी बाँध कर चला था, उसने भी अपनी सुइयाँ घुमाना सवा दस बजे के बाद रोक दिया। सोने की कोशिश की, किंतु देर तक नींद नहीं आई। आँख खुलने पर मैं खिड़की के बाहर लटके आकाश से समय का अंदाजा लेता या फिर गलत हो गई घड़ियों से। स्ट्रीट तथा दूसरी लाइट्स से बिंधा बाहर का अंधेरा इस अंदाजे को गड़बड़ा देता था। उतर कर नीचे तल्ले में आ गया। वहाँ लगी घड़ी सवा पांच बजा रही थी। बेड डी पीने की मुद्दत से आदत है। चुपचाप चाय बनाई। फिर पीछे का स्लाइडिंग दरवाजा खिसका कर बाहर निकल गया।
घर से अटैची में पैक कर पहनने के जो कपड़े लाया था, ठूसम-ठाँस करने से वे सारे मुचड़ गए थे। दोपहर में घंटा भर लगकर लोहा किया। यह यहाँ से जुड़ने के लिए अपने को तैयार करना था, बाहर से भी और भीतर से भी।
9 जुलाई
आज सीनियर सिटीजन सेंटर जाने का सुयोग बन गया। सुयोग इस मायने में कि यहाँ आने की अगली शाम ही बेटे ने दस-बारह घर छोड़कर रहने वाले एक वृद्ध से परिचय कराया था जिनकी समय काटने के लिए साथी की जरूरत थी। पहचान लिया, अरे यह तो भंडारी साहब है, जो 25-30 वर्ष पूर्व मेरे अपने शहर शाहजहाँपुर में बैंक मैनेजर थे और जिनसे दुआ-सलाम हुआ करती थी। बेटों के आ जाने पर वह भी इस देश में आ गए थे। छह बेटों में से पाँच अमेरिका में हैं।
भंडारी साहब ने बताया था कि वह बुधवार, बृहस्पतिवार तथा शुक्रवार को इस सेंटर पर जाते हैं। मंगलवार को वह 50 मील दूर एक दूसरे शहर के सेंटर पर जाते हैं जहाँ वह कभी कुछ साल तक रहे थे और जहाँ उनके कुछ पुराने परिचित हैं। इस दूसरे को वह बस और रेल से तय करते हैं। शनिवार को एक दूसरा बेटा ले जाता है, जिसके पास वह रविवार तक रहते हैं। भंडारी साहब ने जोर दिया था कि मैं उनके साथ सेंटर चला करूँ। तीन-चार घंटे का अच्छा वक्त कटा करेगा।
भंडारी साहब चलते हुए बराबर अपने अतीत के बारे में बतातें जाते थे कि उनके अधिकारी किस प्रकार उनके कार्य, उनकी दक्षता तथा उनके आचरण की दाद देते थे और लोग कैसे उनकी इज्जत करते थे। मैं जल्द समझ गया कि 'इज्जत करना' उनका तकिया कलाम है। या वह इस बीमारी से मुबितला है। यह भी बताया कि नौ साल उन्होंने अमेरिका में भी शान से सर्विस की थी, जिसकी बिना पर ग्यारह सौ डालर बतौर पेंशन वह हर माह पाते हैं। सर्दी का मौसम यहाँ बड़ा बेरहम है। तब वह हिंदुस्तान चले जाते हैं जहाँ अपने मित्रों और संबंधियों के परिवारों के बीच समय गुजारते हैं। आठ-नौ वर्ष पूर्व उनकी पत्नी गुजर गई जिसकी वजह से वह बहुत अकेलापन महसूस करते हैं।
''यहाँ बूढ़ों के पास बैठने, बतियाने के लिए अपने सगों के पास भी फुरसत नहीं। दरअसल यह मुल्क बूढ़ों के लिए नहीं है।'' बातों के बीच वह बोले।
''मैंने सुना है यहाँ फादर्स डे होता है।''
उन्होंने चश्मे के मोटे शीशों के पीछे से झाँका, ''हाँ, होता है, सितंबर महीने में। उस दिन बेटे-बेटियाँ अपने माँ-बाप से मिलने आते हैं। नहीं आ सकने पर ग्रीर्टिंग्स कार्ड भेज देते हैं, या फिर फोन पर 'लाँग हैपी लाइफ' के लिए शुभकामनाएँ।
कुछ देर बाद बोले, ''मुझसे गलती यह हो गई कि मैंने ड्राइविंग नहीं सीखी। यहाँ जो कार चलाना नहीं जानता है, सैर-सपाटे या शार्पिंग वगैरह के लिए वह दूसरों की मेहरबानी का मोहताज है।''
यों तो भंडारी साहब की आवाज में शब्दों को एक दूसरे से जोड़े रखने वाला कसाव था और उनकी कमर व गर्दन भी सीधी थी, लेकिन पटरी पर चलते हुए वह बीच-बीच में दो मिनट के लिए रूक जाते थे। जब वह ऐसा करते थे, उनकी बताई हुई 84 वर्ष की उम्र अपने सही होने का प्रमाण देने लगती थी।
सेंटर पहुँचने पर भंडारी साहब ने वहाँ की महिला सचिव को मेरा परिचय देते हुए बताया कि मैं इंडिया से छह महीने के लिए बहैसियत विजिटर आया हूँ और सेंटर का मेंबर बनने का इच्छुक हूँ। महिला सचिव ने भरने के लिए फार्म दे दिया।
एक बड़ा सा हाल था जिसमें साफ चमकदार प्लास्टिक कवर से लैस गोल मेजें फासले से पड़ी थीं और हर मेज के गिर्द कई कुर्सियाँ। हम दोनों एक कोने में रखे कंटेनर से गर्भ काफी कागज के कपों में लेकर मेज पर आ गए। मेरे फार्म भरने लगने पर भंडारी साहब ने कहा कि उन्होंने अपना नाम छोटा कर केवल 'राम' तक सीमित कर लिया है और मैं अपने नाम का मध्य नाम 'नारायण' लिखकर ही हस्ताक्षर करूँ। मेरा सरकारी नाम ह्दय नारायण मेहरोत्रा है।मैंने अपने लेखक होने और उससे जुड़े नाम की बात उनकी नहीं बताई थी। यहाँ के लोग गैर ईसाई नामों का उच्चारण ठीक से कर नहीं पाते हैं। बेटे ने एकबार बताया था कि चीनी, जापानी लोग अमेरिका में आकर एक दूसरा अमेरिकन नाम रख लेते हैं, अपने बॉस को उच्चारण कि कसरत से बचाने के साथ-साथ अपने नाम की फजीहत न होने देने के लिए।
मेरी मेज वाली कुर्सियों पर तीन बूढ़ी महिलाएँ आकर बैठ गई। भंडारी साहब की तरह उनकी भी शायद वे स्थाई सीटें थीं। एक महिला ने आगे के बाल गोलाई से कटा रखे थे। उसने ओंठों पर चटक सुर्ख रंग की लिपस्टिक भी लगा रखी थी। वह अंत तक एकदम खामोश बैठी रही, किसी माडल जैसी। छोटे कद की दूसरी महिला ने साथ लाई एक मैगजीन खोल जी और किसी पजिल को हल करने में मशगूल हो गई। तीसरी महिला, जो छरहरे जिस्म की थी, एक फ्रेम में कसे जालीदार कपड़े पर कशीदागीरि करने लगी, इसलिए कि अँगुलियों के जोड़ों की गाँठें सख्त होने से बची रहेगी। दूर की एक मेज पर तीन-चार आदमी कुछ जोर-जोर से बातें कर रहे थे। उनमें से किसी की कमर झुकी हुई थी, किसी की माँसपेशियाँ सींवन खुली थिगलियों की तरह लटकी हुई थीं और एक की नाक ने अपना प्रकृत आकार बदल डाला था।
टी.वी. वाले पास के कमरे से आठ-दस लोग रेंगते हुए हाल में आ गए और अपनी मेजों के गिर्द बैठ गए।
बढ़ी उम्र क्या इमारतों की तरह इनसानों को भी खंडहर नहीं बना देती है? खंडहरों को देखकर पहले कुछ तेज-सा धक्का लगता है, फिर उनका अतीत उस धक्के को करूणा में तब्दील कर पिघलने लगता है।
ठीक बारह बजे कोई निर्देश हवा में गूँजा और सब लोग सीने पर हाथ रखकर खड़े हो गए। मुझे भी वैसा करना पड़ा। अमेरिका का राष्ट्रीय ध्वज हाल के अंदर प्रदर्शित था और कोई छोटे-सा गान उसके सम्मान में गाया जा रहा था। गान के बाद वहाँ मौजूदा लोग लंच लेने के लिए काउंटर की ओर बढ़ने लगे। उस दिन लंच का मेनू था-जूस, दूध, मिक्सड सलाद, डबलरोटी का टुकड़ा तथा दो-एक और चीजें।
लंच की समाप्ति के साथ उस सेंटर के समय की भी जैसे से समाप्ति थी। अपनी कारों से आने वाले कारों से चले गए। बाकी लोग बस का इंतजार करने लगे जो बंद मिनट में आ भी गई। बारह-चौदह सीटों की वह छोटी-सी अरामदेह बस थी। एक अश्वेत महिला चला रही थी।
मैं और भंडारी साहब बस के वापस लौटे।
11 जुलाई
उस दिन सेंटर पर कम उपस्थिति के बारे में पूछने पर भंडारी साहब ने बताया था कि शुक्रवार को यहाँ डाँस होता है और तब रौनक खासी रहती है। आज हम दोनों बस से आए। हाल में बजे टेप पर नृत्य हो रहा था। 25-30 लोग तीन-तीन की पँक्तियों में खड़े थे। दो-चार को छोड़कर सब महिलाएँ ही थीं। ज्यादातर पतलून और नेकर पहने थीं। सबसे आगे खड़ी महिला टेप की लय पर जो स्टैप्स लेती थीं, भागीदारी करने वाले अन्य भी लेते थे। हाथ और पैर धीरे-धीरे उठकर दिशा ग्रहण करते थे। बीच-बीच में दो-एक बहुत हलके ढँग के चक्कर भी लगाते थे। काफी बढ़ी हुई उम्र की महिलाएँ भी ऐसा कर रही थीं, अपने शरीर को किसी प्रकार से सहाले हुए। उनके खुले अंग बुझे चूने से जैसे बने हुए थे और लगता था कि वह चुना किसी भी वक्त झर सकता है। नृत्य में कोई उद्दामता नहीं थी। चुँकि सामूहिक नृत्य यहाँ की संस्कृति का एक हिस्सा है, उसका जैसे-तैसे बस निर्वाह हो रहा था। औपचारिकता अपने में निर्जीव होती है और उसका पूरा किया जाना उसे ढोना होता है।
सेंटर की गोरी सेक्रेटरी ने आकर बताया कि चूँकि मैंने आज के आने के लिए बतौर नोटिस साइन नहीं लिए थे, मेरे लिए लंच की व्यवस्था नहीं की गई है। आते ही मैंने गोलक में डेढ़ डालर डाल दिया था। यों सेंटर राज्य पोषित था, पर हर आने वाला डेढ़ डालर सहायता के रूप में डालना था। बंदिश न होते हुए भी यह बंदिश थी। व्यवहार अपने में बंदिश ही है। रजिस्टर देखने पर ज्ञात हुआ कि मैंने गलती से अगले शुक्रवार के सामने चिह्न लगाया था।
एक अश्वेत वृद्ध सज्जन, जो अपनी पत्नी के साथ आए थे, मेरी मेज पर उठकर चले आए और आत्मीयता से अपनी दोस्ती का इजहार करने लगे। उन्होंने अगली दफा मुझसे नृत्य में भाग लेनेके लिए भी कहा। खाना लेने की पुकार लगने पर मैं नहीं उठा तो अश्वेत सज्जन ने भंडारी साहब से कारण जानना चाहा। जानकर उनकी आँखों में जो बेचैनी झलक आई उसे पढ़ा जा सकता था। जब भंडारी साहब ने अपने लंच में से मुझे सलाद, जूस जैसी कुछ चीजें दे दीं, उन आँखों में झलका - हाँ यह ठीक है।
बस से हम लौट आए। भंडारी साहब ने आज भी अकेलापन महसूस करने की शिकायत की और जानना चाहा कि क्या शाम को मैं उनके घर आकर ताश खेलने में साथ दे सकता हूँ। मुझे तत्पर न देखकर वह उदास हो गए। सेंटर पर रोज न आ सकनेके लिए मैंने पहले ही दिन अपनी स्थिति साफ कर दी थी।
14 जुलाई
यहाँ अमेरिका में भी पाँच दिन का कार्य-सप्ताह होता है। हाँ, शनिवार को डाक विभाग अवश्य खुलता है। बैंक हर दिन और हर समय खुले रहते हैं, इस मायने में कि जगह-जगह लगी मशीन से आप अपना मास्टर कार्ड डालकर पैसा निकाल सकते हैं।
मेरी बहू सुषमा माथुर है और शादी के बाद भी उसने माथुर के सरनेम को बचाए रखा है। उस दिन न्यूजर्सी के माथुर समुदाय ने एक पार्क में पिकनिक का अयोजन किया था। बहुत-बड़ा सा पार्क था, हरी घास से भरा हुआ। नहीं जैसे हरा मखमली गलीचा दूर तक खुला फैला हो। पार्क में बेस बाल के लिए अलग मैदान था। बच्चों के झूले के लिए अलग। छोटा-सा चिड़ियाघर भी था जिसमें घोड़ा, बकरे, बत्तखें, मोर, हिरन के अलावा एक बदशक्ल सूअर भी था। निहायत गंदा जीव होने के कारण सूअर आम गाली में शामिल हो गया है, अँग्रेजी भाषा में भी। इसलिए वहाँ दर्शकों के लिए उसका रखा जाना कुछ अजीब-सा लगा।
पार्क के उस हिस्से में जहाँ वृक्ष भी थे, लकड़ी के तख्तों की बेंच व मेजें यहाँ वहाँ जड़ी थीं। इसी हिस्से में मर्द, औरतें, बच्चे सब मिलाकर सौ लोगों का जमघट था। आलू-कचालू, मटर-छोले, सेंडविच-पूरी, कचौड़ी ये जैसी चीजें चटखारा लेते हुए खड़े-खड़े जा रही थी। भारत के किसी कस्बाई मेले जैसा माहौल था। अधिकतर लोग हिंदी में संवाद कर रहे थे। मतलब हिंदुस्तानी में। भाषा और संस्कृति का नाभि-नाल का संबंध है। विदेश में अपनी भाषा से जुड़़ना अपनी पहचान बनाए रखने की कोशिश होती है। चूँकि भाषा से यह जुड़ना आधा-अधूरा होता है, संस्कृति का स्वरूप भी आधा-अधूरा होता है। जैसा बीज वैसी खेती।
वहाँ सुषमा की परिचित बल्कि कहा जाए कि रिश्तेदारी की परिधि में आने वाली, एक लड़की भी थी। उसने दिल्ली के जामिया मिलिया कॉलेज में फिल्म निर्माण संबंधी कोई कोर्स किया था और उसका अगला चरण यहाँ से पूरा कर रही थी। सुषमा ने मेरा परिचय कराया। मैं खुद-ब-खुद अपने बारे में बताने लगा, कुछ ज्यादा मुखर होकर। अपने लेखन, अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के बारे में मैं दूसरों के सामने नहीं ही कुछ कहता हूँ। अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना मेरे स्वभाव में नहीं है। किंतु इस स्वभाव का अतिक्रमण में कर गया। इस कारण नहीं कि यह अमेरिका की हवा में है, इस कारण कि अंदर कुछ ऐसा जगा कि फिल्म की रूपहली दुनिया में प्रवेश कर रही इस लड़की से मिलना एक संयोग है और यह संयोग मेरी किसी कृति के फिल्मीकरण में फलीभूत हो सकता है। मोहन राकेश की कहानियों को दूरदर्शन पर धारावाहिक रूप देने वाले बंबई के प्रोड्यूसर ने मेरी दो कहानियों को अपनी अगली योजना के लिए चुना था। भारत से चलने के वक्त तक उनकी और से ठोस परिणति की द्योतक कार्यवाही नहीं हुई थी। वह लड़की मुझमें रुचि ले रही थी। लड़की ने विदा लेते हुए घर आने की बात कही, मेरी लिखी कुछ पुस्तकें देखने के लिए।
मैंने गिलास में कोक ले रखा था। सुषमा सुनिश्चित कर गई कि किसी ने मेरी बेखबरी में बीयर, व्हिसकी जैसा कोई पेय तो नहीं दे दिया है। खाने-पिने के मामले में मैं गांधी बाबा का चेला हूँ। बहुत से इसीलिए मुझे साहित्यकार नहीं मानते हैं।
कल सुषमा के खानदान में एक वृद्ध महिला के मृत्यु-संस्कार से संबंधित हवन था। हवन एक पंडित ने लाल रंग की धोती पहनकर कराया था। 'ओम जग जगदीश हरे' की आरती हुई थी। हलवे व मीठी बूँदी का प्रसाद बाँटा गया था।
19 जुलाई
आज शनिवार था। प्रेम यानी बेटा मुझे सफारी ले गया। न्यूजर्सी में ही जगह होने के बावजूद एक घंटे का ड्राइव था। दरअसल यह चिड़ियाघर है। 'जू' के लिए हिंदी में यह शब्द पूरे अर्थ नहीं समेटता है। अर्थ जो ध्वनित होता है वह चिड़ियों की हद से आगे नहीं जाता है। 'पशुघर' इससे कहीं अधिक उपयुक्त है। मैंने लखनऊ, कानपुर के भी चिड़ियाघर देखे हैं। फर्क इतना है कि यहाँ सारे अहिंसक पशु मुक्त घूमते हैं। कार में बैठे-बैठे आप उनसे साक्षात्कार कर सकते हैं। जिराफ, हिरन यार्क, भेंड़, शुतुरमुर्ग तथा उनके भाई-बिरादर कुछ पाने की लालच में कार के चढ़े शीशों के आगे अपना थुथन या अपनी चोंच टिका देते हैं। इतने करीब आ जाने से जिस्म से लिथड़ी गंदगी, या सहन को धकियाती गंध, इनके प्रति अंतस में बसे आकर्षण को खुरचने लगती है। दूरी से भले ही कई नुकसान हों, एक फायदा यह जरूर है कि प्रिय की कमियों व खामियों को ओट दिए रहती है। शेर,चीते, रीछ जैसे जानवर लोहे की मजबूत जाली के घेरे में थे। बंगाल के चमकदार जिल्द वाले सफेद टाइगर भी। कैद में शहशाह भी बेचारा हो जाता है।
सफारी में बीसियों प्रखंड थे। उन सबसे गुजरने में दो घंटे लग गए थे।
वापसी में एक ऐसी दुकान पर रूके जहाँ केवल बच्चों की पुस्तकें बिकती थीं। बहुत बड़ा हाल था, बच्चों की हर जरूरत को पूरा करता हुआ। अक्षरज्ञान, पेटिंग्स,चुटकुले, पहेली, लोक-कथाएँ, विज्ञान के करिश्मे, सब हाथ बाँथे हाजिर। वहीं खेलने के लिए खिलौने तथा मनोरंजन के लिए कार्टून मूवी भी थे। बैठकर पढ़ने की भी व्यवस्था थी।
20 जुलाई
सुषमा के चारों भाई न्यूजर्सी में ही हैं। माँ भी। एक भाई के यहाँ खाना था। लौटना आधी रात के बाद ही हो सका था। उठना देर से हुआ। वैसे भी शनिवार, रविवार को यहाँ लोग इत्मीनान से उठते हैं। अन्य दिन काम-धंधे के होते हैं। ये दो दिन अपने। हम लोग दिन के बारह बजे 'वर्ल्ड साइंस सेंटर' देखने निकल पड़े जो न्यूयार्क की सीमा पर था। यहाँ किसी चीज को बड़ा बनाने के लिए पहले 'वर्ल्ड' जोड़ देते हैं। किंतु जिस तरह से यहाँ विज्ञान के करिश्मे दिखाए गए थे, वे सच में अद्भूत थे। शीशे की पारदर्शी दीवारों और फेन्सिंग्स से सब कुछ जादुई लगता यह था। जादुई से जो विशिष्टता जुड़ी होती है, वह थोड़ी आक्रामक होती है, मन-मस्तिक पर कूदकर कब्जा जमाने वाली। हम चार लोगों को 85 डालर के टिकट लेना पड़े थे। प्रेम को यह पता नहीं था कि जिस कंपनी में वह कार्य करता है वह यहाँ से किसी रूप में जुड़ी है और यदि अपना कार्ड साथ लाता तो काफी छूट मिल जाती। ऐसे मामूलों में वह चतुर नहीं है। गृहस्थी की बागडोर इसलिए अधिकतर सुषमा सहालती है।
एक मूवी थी डाइमेंशन की थी, लगभग आध घंटे की। मूवी शुरू करने से पूर्व एक लड़की ने थ्री डाइमेशन सिस्टम के बारे में कई बाते बताई, दूरदर्शनीय हाव-भाव के साथ, जबरदस्ती के विनोद और ठहाके भी जिसमें सम्मिलित थे।
दूसरे थियेटर में ऊपर चारों तरफ गोलाई लिए स्क्रीन था, पूरे हाल को घेरता हुआ। स्टार वार मूवी, प्रारंभ होते ही ऐसा लगा कि पूरा सौर मंडल हमारे सामने है। चीजें-मसलन जंगी हवाई जहाज, जंगल, बनैले पशु, रोबट सब बड़े आकार में तेजी से उभर कर आती थीं।स्क्रीन के गोलाई में होने के कारण थ्री डाइमेंशन फिल्म के लिए जरूरी चश्में के बगैर यहाँ मूवी में प्रदर्शित सारी गतिविधियाँ, मिसाइल का दागा जाना, इमारतों का भरहा कर गिरना, आगजनी, लोगों का दहशत से चीखते हुए मागना, आवाजों का गर्जन-तर्जन अपने सभी आयामों के साथ उभरता था, यों जैसे ये सब हमारे सामने सचमुच घट रहा हो। कृष्ण ने यशोदा और अर्जुन को अपने मुँह में जिस तरह ब्राह्मांड दिखाया था, मुझे अनायास उसकी याद आ गई।
बाहर मुख्य हाल में सैकड़ों किस्म के कंप्युटर खेल, दर्पणों के आकृति संबंधी करिश्मे, मानव शरीर की वैज्ञानिक जानकारी प्रदर्शित थी।
हम लोगों ने हाल में ही कायम रेस्टारेंट में पिजा जैसी कुछ चीजें पेट में डालीं। शाम घिर आने के बावजूद बाहर खासी गर्मी थी। जुलाई के सूरज ने धूप की भट्ठी में दिन को अच्छी तरह सेंका था।
25 जुलाई
आज बैलूर्निंग फैस्टीवेल गया। प्रेम हर वर्ष इसको देखता है। शुक्रवार का चुनाव उसने इसलिए किया था कि उसके अनुभव के अनुसार शनिवार-रविवार को बहुत भीड़ होगी, इतनी कि घंटों ट्रैफिक जाम में फँसे रहना होगा। इस फैस्टीवेल को कुछ बड़ी कंपनियों स्पांसर करती हैं।इस वर्ष क्विकचेक भी उसमें शामिलथी, जिसकी अमेरिका में पंद्रह सौ से ऊपर शाखाएँ हैं।यह जनरल मर्चेन्टडाइज का स्टोर है। विशेषता यह है कि यह चौबिसों घंटे रहता है।
बैलूर्निग का यह मेला तीस वर्षों से हो और संयोग से 'क्विकचेक' भी इस साल अपनी तीसवीं वर्षगाठ मना रही थी।
काफी लंबा-चौड़ा मैदान था। चूँकि एक दिन पहले जमकर बारिश हुई थी, मैदान में कीचड़ था। पूरे मैदान में घास होने के कारण रपटन नहीं थी, मगर जूते गंदे हो जाते थे। कटी हुई घास की तह बिछाकर या वुडप्लाई के तख्ते डालकर यहाँ-वहाँ रास्ते बनाए गए थे। जगह-जगह घास के ठोस चौकोर गट्ठर रखे हुए थे कि उनको ले जाकर जो जहाँ बैठना चाहे बैठे। हम घर से फोल्डिंग कुर्सियाँ लेकर गए थे। पार्किंग की व्यवस्था काफी दूर थी, इसलिए कुर्सियाँ को ढोना खासी कसरत थी।
भारत में जिस प्रकार के मेले होते हैं बहुत कुछ वैसा ही माहौल था। जगह-जगह खिलौनों की दुकानें थीं। आइसक्रीम तथा ड्रिंक्स के स्टाल थे। बच्चों को एक छोटे से घेरे में घोड़े पर बैठाकर चक्कर लगवाए जा सकते थे।
वहाँ एक सर्कस भी था। जाहिर है कि इन सबके लिए अलग के टिकट था। मैं पोती को लेकर सर्कस में दाखिल हो गया। अंदर लोहे के कम ऊँचाई वाले स्टैंड थे जिनकी हर पट्टी पर चार-पाँच लोग बैठ सकते थे। तीन-चार सौ की उपस्थिति थी। भारत में जैसे चीता जलते हुए छल्ले में से कूदकर बाहर निकलता है, या घोड़े, बकरे, ऊँट जैसे जानवर छोटे-बड़े स्टूलों पर रिंग मास्टर के इशारे से पैर टिकाते हैं, वैसा यहाँ भी था। मुँह रंगे व मसखरे कपड़े पहने ऊल-जलूल दखलंदाजी करने वाला वैसा ही जोकर था जिस औरत ने तेज गति से चक्कर लगाते घोड़े की पीठ पर विभिन्न मुद्राओं में कुछ अच्छे प्रदर्शन किए थे, या एक ऊँचे बँधे रस्से से एक पैर या एक हाथ फँसाकर करतब दिखाए थे, वह कोलंबिया की थी। जिन दो युवकों ने रस्से पर साइकिल से सवारी की थी, वे मंगोलियन थे। किसी का यह कहा हुआ एकदम सच लगा कि यहाँ हर क्षेत्र में प्रतिमा दूसरे देशों से आयातित है। अमेरिका बस ठेकेदारी करता है, विश्व शांति की भी।
मेले का मुख्य आकर्षण बड़े-बड़े गुब्बारों का छोड़ा जाना था। ये वे गुब्बारे थे जिन पर बैठकर आदमी ने हवाई जहाज के आविष्कार से पहले हवा में उड़ने के प्रयोग किए थे। अधिकांश गुब्बारे थे, लेकिन कुछ दूसरी शक्लों के भी थे, मसलन केक की, जूते की, आदमी की, ड्रैगल की। एक गुब्बारा, जिसे, 'क्विकचेक' ने उद्घाटन के रूप में छोड़ा था, चील की शक्ल का था। यों सभी गुब्बारे काफी बड़े थे, क्योंकि उनसे बँधी में आदमी बैठकर उड़ते थे, इस गुब्बारे की ऊँचाई चौदह मंजिला इमारत जितनी थी। हू-ब-हू चील पक्षी की शक्ल थी अपने विभिन्न अंगों के नैसर्गिक रंग तथा घुमाव व बल के साथ। चील की गर्वीली ग्रीवा आकाश की ओर उठी थी। इस पहले दिन एक सौ पचास गुब्बारे छोड़े गए थे।
मेले के मैदान में छोटे बच्चे कलाबाजियाँ लगा रहे थे और भागा-दौड़ी के ज्यादातर वही खेल खेल रहे थे जो भारत में बच्चे खेलते हैं। बालकों के खेलने के ढँग , तथा रोने, हँसने, जिद करने की क्रियाएँ क्या हर मुल्क में एक जैसी नही होती हैं? देश, काल काफी बाद में ही उनको अपने साँचे में ढाल पाता है।
मेले में लोग खा-पी रहे थे, किंतु कागज की तश्तरियाँ, ग्लास, बोतलें, केन, नेपकीन सब वे जगह-जगह रखे ड्रमों में डाल रहे थे। कार्यालयों, दुकानों, रास्तों सब कहीं वे क्यू में लगते हैं। अनुशासन, जिसमें 'स्व' भी सम्मिलित है, यहाँ के राष्ट्रीय चरित्र का एक हिस्सा है।
28 जुलाई
दिल्ली से नई निकली पत्रिका 'कथा-देश' ने एक लेखमाला शुरू की थी 'मैं और मेरा समय'। पत्रिका के संपादक हरिनारायण ने मुझसे भी लिखने को कहा था और मैंने वायदा भी कर लिया था। दरअसल दिसंबर 96 में दिल्ली में 'किताब घर' द्वारा आयोजित एक समारोह में मैंने आत्मलेख 'मैं : मेरी कहानी' पढ़ा था, वह संयोग से वहाँ हिट हो गया। संयोग से उस बार 'जब गीदड़ की मौत आती है वह शहर को भागता है' मैं इस मुहावरे से न डरकर दिल्ली चला गया था। संयोग से हरिनारायण जी भी उस आयोजन में उपस्थित थे। संयोग भी पक्ष-विपक्ष में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
मैंने वह लेख यहाँ लिख डाला। इसमें वैसी रचनात्मकता नहीं है जैसी उदय प्रकाश और मंगलेश डबराल के लेखों में है। ये दोनों कवि भी हैं। कवियों का लिखा गद्य भी लयमय होता है। शब्दों का सुचयन और संयोजन उनका स्वभाव बन जाता है। इस पर दोनों घोर अध्यनशील भी हैं। फिर भी मैंने विषय के अधिक-से-अधिक निकट रहने की कोशिश की है। मुझे केवल अपने समय के बारे में बताना था और वही बताने का मैंने उपक्रम किया है। दर्शनिकता से बचा हूँ। दूसरों के उद्धरण नहीं दिए हैं, न पूरी शताब्दी को मथा है। लेख अभी कच्चा है। शाहजहाँपुर पहुँचकर माँजूँगा।
मस्तिष्क में दो-एक प्लाट हैं।उन पर भी कहानियाँ खड़ी करना चाहता हूँ। शनिवार और रविवार को छोड़कर सप्ताह के बाकी पाँचों दिन सुबह साढ़े आठ से शाम पाँच बजे तक घर पर बस मैं होता हूँ और समय। इस समय में से लगभग एक घंटा दोपहर के भोजन की व्यवस्था में खर्च हो जाता है। बड़ी अल्मारीनुमा फ्रिज में खाने-पीने का सामान भरा रहता है। रोटियाँ हफ्ते-दस दिन की एक भारतीय परिवार से बनकर चली आती हैं - एक डालर में चार। आलू का पारांठा दो। दाल, सब्जी, चावल जो सुषमा ऑफिस से लौटकर बनाती है, तीन-चार दिन तक वे भी खिंच जाती है। माइक्रोओवन इस जंक फूड को चंद मिनट में फ्रेश बना देता है। फ्रिज, माइक्रोओवन तथा डिशवाशर ने यहाँ किचन के काम को झंझट की सूची से निकाल बाहर फेंका है। चूँकि बिजली न रहने से यहाँ जिंदगी मुँह-भड़ाक गिरने लगती है, दस-पाँच वर्षों में उसका मिनट-दो-मिनट के लिए जाना एक ऐतिहासिक हादसा होता है।
30 जुलाई
बड़े भाई को घर पर बीमार छोड़कर आया था। मेरे यहाँ आने के बाद उनको लखनऊ में संजय गांधी मेडिकल इंस्टीट्यूट में भरती कराया गया। जाँच से पता चला कि आँतों का कैंसर है। अभी लखनऊ फोन कर पता किया था। शाहजहाँपूर में दो भाइयों को छोड़कर अन्य कोई नहीं है। पत्नी बंबई में है। भाभी तथा छोटे भाई की पत्नी भी लखनऊ में हैं। चार भाइयों का भरा-पूरा घर वहाँ लगभग खाली है। जो बालिग बच्चे हैं वे अपने परिवारों के साथ अपने पेशों व व्यस्तताओं से उलझे हुए हैं। कैंसर की खबर ने दुश्चिंतताओं से घेर लिया है। कैंसर का मतलब है डैथ वारंट की तैयारी। भाई मुझसे तीन वर्ष बड़े हैं, 71 साल के आसपास। मानसिक और शारीरिक श्रम करने की उनमें उद्भुत क्षमता थी। ढेर सारे मौसमी फल तथा गाजर, मूली, चुकंदर, पालक जैसी सब्जियाँ कच्ची खाते थे। दूध, दही व मेवा का सेवन करते थे। सिगरेट, तंबाकू, श्राब जैसी लतें हममें से किसी भाई को नहीं है। उनको बवासीर की शिकायत थी और वही धोखा देकर कैंसर में बदल गई। भतीजे ने बताया कि खून कटना रूकने पर डॉक्टर रेडियो थिरेपी शुरू करेंगे।
31 जुलाई
आज सुषमा ऑफिस नहीं गई। बेटी को कल से बुखार आ रहा है। वह छठी में चल रही है। प्रेम और सुषमा ने दिल्ली की एक ऐसी संस्था से उसे गोद लिया था जहाँ छोड़े गए बच्चे संरक्षण में रखे जाते हैं। गोद लेने के समय वह मात्र छह-सात सप्ताह की थी। उसके माँ-बाप अज्ञात रहे। यहाँ प्रसव के कष्ट और जोखिम से बचने खातिर गोद लेने का प्रचलन खासा है। इसे एक नेक और ईश्वर प्रिय कार्य भी माना जाता है। जिन दंपतियों के अपने बच्चों होते हैं, वे भी इस धारणावश दो-एक बच्चों को गोद ले लेते हैं।
सुषमा ने बच्ची का नाम कली रखते हुए 'रेलीना' और जोड़ा दिया था। सुषमा के परिवार की एक दादी ने कभी एक दुर्घटना में मृत दंपति की जिस बेसहारा हो गई बच्चों को पाला था, उसका नाम रेलीना था। वह बच्ची परिवार के लिए भाग्यशाली तो साबिल हुई ही थी, पढ़-लिखकर जिंदगी में स्वयं भी ऊँचे पाए पर खड़ी हुई थी। 'रेलीना'का नाम खंड इसी शुभाशंसा से जोड़ा गया था। मुझसे यह अभी ज्यादा घुली-मिली नहीं है। मेरे हिंदी बोलने के कारण बीच में जो एक दूरी है, उसे पाटने में वक्त लगेगा। वैसे भी वह तुनुक-मिजाज है, शायद अधिक लाड़-प्यार के कारण। अपनी जिद पूरी कराकर ही चैन लेती है। हिंदुस्तान एक बेहूदा और गंदा मुल्क है, सुसंस्कृत लोगों के रहने के लायक नहीं, यह धारणा भारतीय मूल के बच्चों में भी गहरे पैठ चुकी है। कली ने कुछ दिन पूर्व मेरी गोद में एक गुड़िया डालते हुए कहा था - ''दादा जी, यह आपकी दूसरी पोती है।'' मेरे यह जताने पर कि तब मैं इसे इंडिया ले जाऊँगा, उसने झपट्टा मारकर गुड़िया छीन ली थी, ''नो, शी इज व्हाइट।''
प्रेम आज दफ्तर से पाँच बजे आ गया। वैसे वह छह के बाद ही आते हैं। उसके साथ 'एडवर्ड' नामक एक स्टोर पर चला गया। इसकी भी शाखाओं की एक सघन श्रृंखला दूर तक फैली है। बहुत बडे़ हाल में तेरह-चौदह प्रभाग थे, शायद उससे भी ज्यादा। हर प्रभाग से अपनी जरूरत की चीजें चुन-चुनकर कैरेज में रख लो। फल एकदम छँटे हुए और भारत के मुकाबले आकार में ड्योढ़े-दुगने। केला, आडू, आलूबुखारा, लीची, सेव, अंगूर चेरी, तरबूज-सब उपलब्ध। सन 89 में जब मैं। पहली बार आया था, आम के लिए तरसना पड़ता था। अब खूब मिलते हैं। भारत के जितने अच्छे नहीं, लेकिन बुरे भी नहीं। पपीता और अमरूद ने भी अपनी हाजिरी दर्ज करा ली है। कैरेज लेकर दस-पंद्रह में से किसी भी काउंटर पर पटरा सामान को काउंटर की तरफ बढ़ाता भी जाएगा और तराजू का भी काम करेगा। काउंटर पर खड़ा कर्मचारी पालीथीन के बड़े-बड़े थैलों में सामान को इस तरह भर देगा कि वे अधिक वजनी न बनें। खरीददार इन थैलों को कैरेज में दोबारा डाल लेता है। इसी के साथ कंप्यूटर से सारे सामान का बिल बन जाता है। अधिकतर भुगतान क्रेडिट कार्ड, मास्टर कार्ड या वीसा के जरिए होता है, अर्थात आपके बैंक खाते से कटकर स्टोर के खाते में जमा हो जाएगा। हटने से पूर्व काउंटर पर खड़ा कर्मचारी एक उजली मुस्कान के साथ कहेगा - ''थैक्यू फार योर विजिट।''
मुझे याद है कि दिल्ली के एक बड़े खादी भंडार से मैंने पीतल की एक मूर्ति लेनी चाही थी। दाम पूछने पर उस प्रभाग के सेल्समैन ने अपनी जगह से बिना हिले-डुले कहा था, कीमती की चिप्पी मूर्ति पर चिपकी है। यह पैक हो जाएगी? पूछने पर बोला था, ''ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।'' बिना सामान बेंचे हुए भी उसकी पगार पक्की थी।
जो सामान मैंने खरीदा था भारत में उसकी कीमत छह-सात सौ से कम नहीं होगी। यहाँ मात्र 40 डालर कुछ सैंट का था। डालर को रुपए जैसी इकाई मानो तो बहुत ही कम। खाने-पीने का वस्तुएँ एक तो सब विशुद्ध और उच्च श्रेणी की होती है, दूसरे काफी सस्ती भी।
1 अगस्त
जब घर से चला था तो मैंने औसत आकार का केवल एक सफारी सूट केस तथा एक बैग लिया था। उसमें पढ़ने की सामग्री ज्यादा रखने की गुंजाइश नहीं थी। ऐसा भी सोचा था कि जब इतना पैसा खर्च कर अमेरिका जा रहा हूँ तो वहाँ खूब घूमूँगा, उसे अच्छी तरह देखूँगा, समझूँगा। पढ़ना तो शाहजहाँपूर में भी हो सकता है। उस सामग्री में से भी लगता रखने से कुछ छूट गया है, ऐसा में पिछले एक सप्ताह से महसूस कर रहा था। आज जब अपनी ड्राअर का निचला खाना खोला तो वह सारी सामग्री मिल गई। इसमें 'हंस' का जून अंक भी था। चुनकर तीन कहानियाँ पढ़ गया। विदेशी कहानी सामान्य थी। तानाशाही सत्ता की नृशंसता को जादुई यथार्थवादी शैली में बेनकाब करती थी। प्रेमकुमार मणि की कहानी, जिसे संपादक ने प्रकाशन क्रम में प्रथम स्थान पर रखा था, कहानी से अधिक निबंध था, धूप पर। मणि ने इससे पहले कई यादगार कहानियाँ लिखी हैं। यों उनमें भी शिल्प पर ध्यान दिया गया था, किंतु यहाँ शिल्प साध्य बन गया था। शिल्प के बल पर यह शून्य को खड़ा करने की कोशिश थी। बरफ्स इसके बरियाम सिंह संघू की कहानी 'मैं अब ठीक हूँ' कथ्य के बल पर अपनी जमीन पर मजबूती से खड़ी थी। पंजाब के खाँटी चरित्र और वहाँ का जीवन तथा परिवेश पेश करने में संघू को महारत हासिल है। इस पंजाबी लेखक ने अधिकतर लंबी कहानियाँ लिखी हैं और मैंने अब तक इनकी जितनी भी कहानियाँ पढ़ी हैं, वे सब बेजोड़ हैं। इन कहानियों लिखी हैं और मैंने अब तक इनकी जितनी भी कहानियाँ पढ़ी हैं, वे सब बेजोड़ हैं। इन कहानियों में आज का पंजाब अपनी राजनीतिक उथल-पुथल, आशा-निराशा, सही और गलत कदम के साथ मौजूद हैं।
संवेदनाशून्य कहानियों की हैसियत खेत में खड़े बिजूकाओं जितनी होती है। उम्दा पहनावे और रंग रोगन के बावजूद।
2 अगस्त
आज सुबह तड़के शाहजहाँपूर वाले बेटे राकेश से बातचीत की। बाहर पढ़ रही अदिति छुट्टियों में आ चुकी थी। उससे बातचीत की। फिर तीन साल की आकृति से। बातचीत के बहाने पोतियाँ की आवाज को सुनना था। आवाज में भी व्यक्ति मौजूद रहता है, अपने हाड़-माँस के साथ। तब तो और भी सजीव रूप में जब मन में वैसी चाह जगी हो। कुछ देर बाद बंबई में छोटे बेटे सुनील व पत्नी से भी बातचीत की। मिली सूचनानुसार भाई का ऑपरेशन हो चुका है। फिलहाल भाई ठीक हैं। मन को ढारस मिला।
दस बजे न्यूयार्क निकल गया। न्यूजर्सी तथा न्यूयार्क के बीच एक बहुत बड़ी नदी है-हडसन रीवर। इस नदी के नीचे से लिंकन टनेल निकाली गई है। टनेल की लंबाई दो-ढाई मील से कम नहीं होती चाहिए। कार को पार करने में पाँच मिनट लगे थे। टनेल की दोनों ओर की दीवारों तथा फर्श के मध्य भाग में उठी मुँडेर पर, जो कारों के विपरीत दिशा में आने-जाने वाले रास्ते अलग करती है, बिजली के बल्ब पाँच-पाँच, दस गज के फासले से जल रहे थे, अंधी गुफा को ज्योतिर्मय बनाते हुए।
बेटे का जब यहाँ विवाह हुआ था तो उस उपलक्ष्य में बांबे पैलेस होटल में पार्टी दी गई थी। लंच वहाँ लेने का निश्चय किया गया। मुझे उस पार्टी में इस तरह अब शामिल किया जा रहा था। कार की पार्किंग गलती से एक दूर गैराज में हो गई थी, 48 वीं स्ट्रीट पर जबकि होटल 52वीं स्ट्रीट पर था। लेकिन मेरे लिए यह अच्छा ही रहा। इस बहाने पैदल चलते हुए न्यूयार्क का नजारा नजदीक से देख सकता था। काफी ऊँची-ऊँची बिल्डिंगें थीं लेकिन पटरियाँ उतनी नवल-धवल नहीं थीं। पटरियाँ और चौराहों पर जगह-जगह ठेले लगे थे, जिन पर ब्रेड तथा खाने-पीने की दूसरी चीजें बिक रही थीं। मोजाइक की बनी फसीजों व सपाट मोढ़ों पर लोग बैठे गपशप कर रहे थे। वीक एंड का दिन था। मुझे बंबई और कलकत्ता की याद आ गई। दो-एक जगह पर अश्वेत बच्चे भागा-दौड़ी भी कर रहे थे।
होटल काफी लकदक था। भारतीय बैर थे। हम लोगों को अपने देश का जानकर बैरों ने हिंदुस्तानी में बातचीत की। परिवेश तब और भी आत्मीय हो गया। खाना बुफे पद्धति का था। प्लेट में मनचाही सब्जी, चटनी, पकौड़े, नान, पुलाव आदि जाकर निकाल लाओ। तीन व्यक्तियों का बिल 47 डालर का बना। कली ने हम लोगों की प्लेट में से टूंग लिया था।
सब वे पकड़ी। ऐसी ही रेल व्यवस्था कलकत्ता में भी देखी थी। चूँकी वहाँ यह व्यवस्था जल्द ही लागू हुई थी, अपेक्षाकृत वहाँ के डिब्बे व प्लेटफार्म बेहतर थे। यहाँ भी एक बार टिकट खरीदना पड़ता है और कहीं भी उतरा जा सकता है। टिकट के रूप में धातु के टोकन मिलते हैं। टोकन डालने पर प्रवेश द्वारा से अवरोधक-राड ढीला पड़ जाता है, यानी टोकन डालने वाला स्टेशन के अंदर दाखिल हो सकता है। वहाँ से फेरी-स्टेशन पर आ गया। टिकट के लिए लंबा क्यू था। फेरी में जगह पाने के लिए उससे भी लंबा क्यू था। घाट पर कुछ ब्लैक अफ्रीकन बाजा बजाकर या कलाबाजी दिखाकर क्यू में खड़े लोगों से पैसे माँग रहे थे-'डैडी एंड मम्मी गिव भी सम डालर आर योर किस।' किस देने की बजाय लोग दो-एक डालर देना ज्यादा समझदारी मान रहे थे।
फेरी पर बैठकर स्टेच्यू आफ लिबर्टी देखने गया जो एक टापू पर स्थिर था। काफी विशाल मूर्ति थी। सुनहरा नुकीला ताज पहने ताँबे की यह मूर्ति, जिसके उठे हुए सीधे हाथ में मशाल थी, फ्रांस ने अमेरिका को तब उपहार स्वरूप दी थी जब उसने अपनी आजादी के नब्बे वर्ष पूरे कर लिए थे। पहले अमेरिका पर ब्रिटेन का आधिपत्य था।
कहा जाता है कि सन 1907 में अँग्रेज यात्रियों के तीन जहाज अमेरिका पहुँचे और जेम्स टाउन नामक एक छोटे नगर की स्थापना की। फिए नए लोगों ने रोजमर्रा की जिंदगी में सरकार और धर्म के बढ़ते हस्तक्षेप के ऊबकर आना शुरू किया। 16-17 में एक जहाज नई दुनिया में रहने की इच्छुक स्त्रियों से भरकर आया। तब परिवार विकसित हुए। 1620 में 102 यात्रियों का एक नया समूह इंग्लैंड के चर्च से अलग होकर आया। 1620 में ग्यारह जहाज और आए अतलांटिक सागर के जिस तट पर उन्होंने लंगर डाला वहीं बाद में बोस्टन शहर बस गया। सन 1773 में जब भारतीय चाय से भरा ईस्ट इंडिया कंपनी का जहाज बोस्टन पहुँचा तो कुछ देशभक्तों ने चाय पर लगाए गए अतिरिक्त कर को देने से इंकार करते हुए सारी चाय खाड़ी में फेंक दी। इंग्लैंड के खिलाफ छिड़ी इस बगावत ने युद्ध का रूप लेकर 4 जुलाई 1776 में अमेरिका को स्वतंत्रता दिला दी यों बाद में कुछ वर्षों तक इंग्लैंड दोबारा अधिकार करने के प्रयास करता रहा।
एक देश के संदर्भ में ढाई-तीन सौ वर्षों की हलचल के लेखे जोखे को विद्धान जन इतिहास नहीं मानते हैं। यह इतिहासहीन अमेरिका आज हजारों वर्षों के स्वर्णिम इतिहास वाले देशों की ऐसी-तैसी किए हुए है। उसने अपनी हैसियत उस चौधरी की बना ली है जो गाँव के हर घर के मामले में देना अपना नैतिक अधिकार मानता है।
कुछ दूर पर एक अन्य टापू है एलिस। बहुत पहले वहाँ जल मार्ग से आने वाले आप्रवासियों को पंजीकरण किया जाता था। अब म्यूजिम है। वीकाएंड के सारे पर्यटकों को ढोने में अपने को असमर्थ पाकर फेरी वहाँ नहीं गई।
समय था। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर चला गया। यह एंपायर स्टेट से भी ऊँची बिल्डिंग है, विश्व की दो-चार ऊँची बिल्डिंगों में एक। 107 वीं मंजिल पर विंडो डेस्क था, जहाँ एलीवेटर से पहुँचा जाता था। यहाँ लिफ्ट को एलीवेटर बोला जाता है। यह होता भी है काफी बड़ा 60-70 आदमियों को ले जाने वाला। विंडो डेस्क अपने में पूरी एक मंजिल थी विस्तृत परिधि में फैली हुई। चारों ओर नानब्रेके बिल ग्लास की दीवारें थीं जिसमें से न्यूयार्क शहर दूर तक देखा जा सकता था। माचिस की डिब्बी या खिलौनों के आकार में इमारतें, सड़कें, पुल दिखाई देते थे। आदमी आकारहीन हो जाता था। वैसे भी अमेरिका में सड़कों पर आदमी नहीं होते हैं। वे होते हैं कारों में या फिर दफ्तरों और स्टोरों के एअर टाइट कमरों व हालों में। अंधेरा होने पर जब चारों ओर विद्युत लाइटें जल गई तब दीवाली जैसा जगमगाता दृश्य बँध उपस्थित हो गया। ऐसा भी लगा कि तारे खंचित एक अन्य आकाश नीचे है, जीवनसंकुल गतिविधियों से मरा हुआ।
न्यूयार्क यहाँ का सबसे प्रसिद्ध शहर है। वार्शिंगटन भले ही अमेरिका की राजधानी हो, न्यूयार्क विश्व की राजधानी है। सत्तर लाख से ऊपर की आबादी के इस शहर में आधी संख्या विदेशियों की है, या उन लोगों की जिनके माँ-बाप में से एक गैर नस्ल का है। रूस, एशिया तथ कैरीबियन देशों के लोग अधिकतर यही आकर ठहर जाते हैं। अकेले भारतीयों की संख्या ही ढाई लाख है। फुटपाथ का आदमी भी यहाँ अरबपति होने का सपना सँजोकर सोता है। उसके पास इस सपने के सच बनने के हजारों उदाहरण होते हैं। यहाँ सबसे बड़ी वित्तिय संस्थाएँ हैं। हर मुश्किल काम करा देने वाले दलाल हैं। दुनिया का सबसे बड़ा पंचायत घर, मतलब है राष्ट्रसंघ यहाँ है। फिल्म इंड्रस्टीज का यह मक्का है। लेखकों, कलाकारों का यहाँ हरदम जमघट लगा रहता है। अपने मकबूल फिदा हुसैन इस शहर पर फिदा हैं। वैसे कुछ लोग इसे एक बड़ा पागलखाना मानते हैं। किसी के पास किसी को सुनने के लिए जरा भी वक्त नहीं।
4 अगस्त
सुबह 6 से 6:30 बजे के बीच घूमते निकल जाता हूँ। आठ-दस जो टहलने वाले मिल जाते हैं, उनमें से दो-एक को छोड़कर सभी महिलाएँ होती है, तेज चाल से चलती हुई या दौड़ती हुई। अजनबी स्थान का एक अपना भय होता है। मैं पगडंडी से हटकर रास्ता छोड़ देता हूँ। कई बार तय किया कि नहीं मैं चलता चला जाऊँगा। सामने वाला स्वयं बचकर निकल जाए मेरा बेटा यहाँ का नागरिक है। किंतु ऐन मौके पर मैं ही हट जाता हूँ। हिला होने पर वह पलकें झुकाकर बारीक-सा मुस्कुरा देती है या फिर - 'हेंव ए नाइस डे' कह देती है। पुरुष उस चेहरे के साथ गुजर जाता है।
शाम को पुरुष प्राय: अकेले ही अपने घरों के आगे पोल पर टंगी बास्केट में बाल डालते रहते हैं। कुछ लान में घास काटते हैं। नौजवान सड़क पर स्केटिंग करते हुए भी दिख जाते हैं। हाइवे से अलग रिहायशी बस्ती वाली सड़क पर ट्रैफिक कम ही होती है।
सुबह-शाम मैं अपने या पड़ोसियों के लान में बिल्लियाँ घूमता पाता हूँ। दो-तीन मकान छोड़कर जो एक मोटी निसंतान महिला रहती है, उसने नो बिल्लियाँ पाल रखे हैं। बिल्लियाँ उसी की हैं, भूरी, सफेद, चितकबरी, कत्थई, संड-मुसंड, बिल्लौरी काँच जैसी चमकती आँखों वाली। आदमी को देखकर एकदम से भागती नहीं हैं। इत्मीनान से रास्ता छोड़ती हैं, एहसान-सा जताती हुई।
काली बिल्ली लान में चल रही है। ये सफेद पगथलियाँ हैं या उसने जुराब पहन रखी हैं? प्रभा खेतान की कहानी 'आओ पैपे घर चलें' मुझे याद आ जाती है।
आज सुषमा के भाई डॉ. रवेंद्रलाल माथुर ने अपनी बेटी के ग्रेज्यूएशन की खुशी में दावत की है। यहाँ हर क्लास को पार करना ग्रेज्यूएशन कहलाता है। वैसे अनुभवा ने बारहवीं कक्षा लाँधी है। अब वह कॉलेज जाएगी। दावत का समय सात बजे ओर उसके आगे का था। हाल मिलेट्री के अवकाश प्राप्त सैनिकों के मनोरंजन वाला था। इसको असैनिक आयोजनों के लिए भी दे दिया है। होने वाली आय सैनिकों के कल्याणकारी कार्यक्रमों के उपयोग में आती है।
दावतों में यहाँ पहले स्नैक्स सर्व किए जाते हैं। फिर घंटा-आध घंटे की बाद खाना। स्नैक्स में वही बड़ा, समोसा, मटर चिकन पकौड़ा थे। मैं स्नैक्स को ही इस दावत का मेनू समझकर पेट भर खा गया। मैंने पीने के लिए पानी माँगा था।
''सर, नो वाटर। आप कोक ले लीजिए।'
ग्रेज्यूएशन का केक पहले नहीं अंत में काटा गया।
औरतों व बच्चों ने पश्चिमी धुन पर डाँस भी किया। अधिकतर उत्तर भारत या दिल्ली के भारतीय थे। लड़कियों ने तो स्कटर्स या ऊँची नेकर जैसे विदेशी लिबास पहन रखे थे, किंतु विवाहित औरतें तथा अधेड़ महिलाएँ कुर्त्ता-सलवार या साड़ियों में थीं।
यहाँ साठ-सत्तर के हो गए आदमी-औरतों के बालों में मुश्किल से सफेदी नजर आएगी। यह देश खिजाब की संस्कृति से आक्रांत है।
11 अगस्त
हर सोमवार को प्रात: दस के आसपास सफाई करने के लिए दो महिलाएँ आती हैं। दोनों रूसी हैं। जब मैं यहाँ पहले आया था तब एक ब्लैक महिला आती थी, पंद्रहवें दिन। सफाई कमोड से लेकर किचन तक की होगी। कीट व मैल नाशक स्प्रे खिड़की, मेंज, सोफा, काउंटर, लकड़ी की रेलिंग आदि पर किया जाता है, अपनी उपस्थिति का अहसास जगाती गंध के साथ। पेपर टावल्स से रगड़ जाने पर सब कुछ साफ चमकने लगता है। वैक्यूम मशीन चलने पर फर्श की मैटिंग अपने रोओं में स्पन्दन भरती हुई जिंदा हो जाती है।
मैं जब यहाँ नहीं था, सुषमा बाहरी दरवाजा अनलाक कर आफिस चली जाती थी। ये दोनों महिलाएँ पीछे आकर सफाई कर देती थीं।
दोनों महिलाएँ तीस के आसपास होंगी। काम करती हुई हँस-हँस कर बातें करती रहती हैं। जब वे पटरी बदल कर अँग्रेजी से रूसी भाषा पर आ जाती हैं, मैं सतर्क हो जाता हूँ। क्या ये मेरे बारे में टिप्पणियाँ कर रही हैं? मुझसे ऐसा क्या होग गया?
कली का बिस्तर सही कर ये उसके कमरे में रखा भूरा खरगोश को बिस्तर पर सुला देती हैं। कमरा एक अबोध मुस्कान से गमकने लगता है।
सुषमा इनके लिए 55 डालर का चेक मेज पर छोड़ जाती है। ये दोनों कार से आती हैं।
13 अगस्त
यह डिब्बा बंद हर चीज पर लिखा रहता है - फैट फ्री, शुगर फ्री। शायद शुगर भी शुग्रर फ्री होती है। चाय में डालने पर सोचना पड़ता है, क्या डाली थी? वैसे चीनी खूब उज्ज्वल, धवल होती है, डिप्लोमेटिक मुस्कान वाली।
16 अगस्त
यहाँ न्यूजर्सी में हर शनिवार को प्रात: 9.30 से 12 बजे दोपहर तक एन.आई. टी.वी. चैनेल 3 भारत तथा एशिया से संबंधित समाचार देता है। चूँकि यह सारा कार्यक्रम पैसे लेकर दिया जाता है, दो तिहाई समय विज्ञापनों के हवाले हो जाता है। पैसे लगाए हैं पैसे वसूले भी जाएँगे। ये विज्ञापन ज्यादातर बालीवूड (बंबइया) फिल्मों के होते हैं, उन फिल्मों के गानों के टुकड़ों के साथ न्यूजर्सी व न्यूयार्क के शहरों में प्रदर्शित हैं या जल्द प्रदर्शित की जाएँगी। हिंदी फिल्मों के प्रदर्शनों से यह साफ है कि यहाँ भारतीय मूल के प्रवासियों में बोलचाल वाली हिंदी बखूबी समझ ली जाती है।
चूँकि भारत अपनी स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगाँठ धूमधाम से मना रहा था, आज खबरों में यही छाया रहा। पूरे स्वतंत्रता आंदोलन की एक झलक भी दिखाई गई। भारतीय संसद के सेंट्रल हाल में इस अवसर पर हुई बैठक की कार्यवाही भी।
न्यूयार्क में आज फिल्मी दुनिया से कुछ नामी संगीतकार तथा अमिताभ बच्चन जैसे सुपर स्टार भी रंगारंग कार्यक्रम में भाग ले रहे थे।
न्यूयार्क के एक बड़े हाल में इंडियन-अमेरिकन कल्चरल सोसाइटी ने एक समारोह किया था। जब हम लोग शाम का वहाँ शिरकत करने गए ता भारतीय समुदाय पैदल जाता हुआ नजर आया। दशहरा, दीवाली के मेले जैसा दृश्य था। बीच सड़क पर अमेरिका में हर तरह चलना अपने में अजूबा था। आदमी के संस्करों में बसी प्रवृत्तियाँ अनुकूल अवसर पाकर अंदर से बाहर आ जाती हैं।
हाल में जगह-जगह खाने-पीने के छोटे-छोटे स्टाल लगे थे। एक स्टाल पर, जिसे दो सरदार चला रहे थे, गन्ने का ताजा रस दो डालर फ्री गिलास बेचा जा रहा था। गन्ना मोटे किस्म का था, आसाम मणिपूर में जैसा पाया जाता है। कानीवाल किस्म के खेलों के भी कुछ स्टाल थे। इनाम जीतने की लालच में कली ने भी कुछ डालर गँवार थे।
हाल के एक बड़े भाग में सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर मंच से कुछ गाने भी, अवसरानुकल देशभक्ति के, गाए जा रहे थे। किंतु वहाँ इतना शोरोगुल और हाचपाच था कि कुछ भी सुनाई नहीं देता था। लोगों ने कुर्सियों को मनमाने ढँग से खींच रखा था और कुछ पर अपने सगों के लिए उनको सुरक्षित रखने की नीयत से सामान टिका रखा था। डिस्पोजेबिल गिलास, प्लेटें, नेपकीन वहीं फर्श पर लावारिस छोड़े जा रहे थे जबकि इसके लिए जगह-ब-जगह ड्रम रखे थे। बैलूर्निंग फेस्टेविल के मेले में, जिनमें अमेरिकन थे, एक अनुशासन था। अनुशासन का भी एक अनुशासनन होता है।
व्यवस्था के लिए तैनात पुलिसकर्मियों को छोड़कर सब भारतीय थे। औरतें ज्यादातर अपनी परंपरागत वेशभूषा में थीं। मर्दों में कोई-कोई कुर्तें-पाजामे में था। दो-चार लोगों ने गांधी टोपी भी लगा रखी थी। दक्षिण भारत का एक वृद्ध लुँगी में था। रामानन्द सागर के रामायण की कैकेयी पद्मा खन्ना एक स्टाल पर मौजूद थीं, बगैर खबर बने हुए।
यहाँ भारतीय औरतें व मर्द भी अपने दाँतों की सेहत के प्रति अधिक सजग हैं। साफ चमकदार दाँतों का एक अपना सौंदर्य होता है, पूरे व्यक्तित्व में मोहकता जोड़ देने वाला। एक निश्चित अवधि के बाद लगभग सभी दाँत के डॉक्टर के पास सलाह-मशविरा लेने जाते हैं। बहुत से लोगों ने यहाँ डेंटल इंसोरेंस ले रखा है। इंसोरेंस भी यहाँ की संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा है।
20 अगस्त
आज सुबह टहलते हुए पटरीपर बिना रास्ता छोड़े बढ़ता चला गया। सामने वाला व्यक्ति एक ओर हट गया। पास आने पर लगा कि यह शुद्ध अमेरिकन नहीं है, कोई ब्राउन है। सामने वाला आगे बढ़कर जब एक मकान में घूस गया तो तय हो गया कि वह इंडियन है। उस मकान के बाहर लगे पोस्टर बाक्स पर किसी पटेल की नेम प्लेट जड़ी हुई थी। रास्ते पर डटे रहने की सारी प्रसन्नता पीली पत्तियों जैसी झड़ गई।
24 अगस्त
कल प्रात: साढ़ दस पर हम कार से वाशिंगटन के लिए निकल पड़े और कल घंटे की सीधी डाइव के बाद राजधानी पहुँच गए, जो अपने नाम के आगे डी.सी. (डिस्ट्रिक्ट ऑफ कोलंबिया) जुड़ जाने से स्टेट अलग पहचान बना लेता है। फिलडेल्फिया, डेलावरे तथा दोन्एक अन्य शहरों व राज्यों के दोनों और गहरे अंदर तक धँसे हुए वनस्पतियों के सही अर्थों वाले जंगल थे। भारत में सड़क द्वारा यात्रा करने पर खेत-ही-खेत या बंजर जमीन देखने को मिलती है। न्यूजर्सी तथा मार्ग में पड़ने वाले दूसरे राज्यों में अनाज और दलहन आदि की खेती नहीं होती है। वैसी काश्त आगे के दूसरे राज्यों में जाती है, जलवायु तथा जमीन आदि को ध्यान में रखकर।
वाशिंगटन डी.सी. की स्थापना अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन ने की थी जब देश कई वर्षों के लंबे संघर्ष के बाद ब्रिटेन की अधीनता से मुक्त हो गया था। राजधानी के लिए इस स्थान का चुनाव स्वयं राष्ट्रपति ने काफी विचार-विमर्श के बाद किया था, पोटोमेक दरिया के पूर्वी तट पर, जो राजधानी का मुख्य द्वार बन सकता था। एक ओर एपालचियन पर्वत था और दूसरी ओर अतलांटिक सागर। सौ-पचास मील का फासला भी होता है और नहीं भी, खासतौर से पर्वतों और सागर को लेकर, जो विराटता के पर्याय हैं। राष्ट्रपति भवन के निर्माण के दौरान 24 अगस्त, 1814 को खिसियानी ब्रिटिश हुकूमत के सैनिकों की एक बड़ी टुकड़ी ने नगर में घुसकर आग लगा दी थी। काफी तबाही हुई थी। जब राष्ट्रपति भवन का स्थगित निर्माण कार्य फिर से आरंभ हुआ, आग से काले पड़े भाग को सफेदी से रँगा गया। तभी से इसका नाम व्हाइट हाउस पड़ गया। व्हाइट हाउस वैसे सफेद पत्थरों का बना हुआ है। जार्ज वाशिंगटन को छोड़कर अन्य सारे राष्ट्रपतियों का यह सरकारी निवास रहा है।
राष्ट्रपति भवन के अलग-बगल लगभग सारी प्रमुख इमारतें सरकारी हैं। राजधानी होने के नाते हजारों दूसरे दफ्तर भी हैं। यहाँ भारी इंडस्ट्रीज नहीं है। लोगों को जाब तथा दूसरा धंधा सरकारी या उससे संबद्ध दफ्तर मुहैया कराते हैं। ताजे आंकड़ों के अनुसार सरकारी खजाने से वेतन पाने वालों की संख्या लगभग 28 लाख है।
आधुनिकता समकालीनता की मदद से अपने पैर तो पसारती है ही, प्राचीनता का दीन-हीन भी बनाती है। किंतु यहाँ ग्रीक व विक्टोरियन शैली की अनेक इमारतें प्राचीनता को बाइज्जत बचाए हुए हैं।
हम लोग 'हालीडे इन' में ठहरें। कमरों का आरक्षण प्रेम ने पहले से करा रखा था। हमारा कमरा नौवीं मंजिल पर था। मैंने पाँच सितारा होटल कभी देखा नहीं है अपने देश में, लेकिन यहाँ के ठाठ-बाट तथा ठहरने वालों के लिए परोसी गई सारी सुविधाओं से उसके वैसा होने को प्रतीति होती थी। अंडर ग्राउंड पार्किग की समूचित व्यवस्था थी। ऊपर छत पर स्वीमिंग पूल था। कमरे में सोफासेट के अलावा लिखने क टेबिल थी। बाथरूम में छोटे-बड़े दर्जन पर नवल-धवल तौलिए थे। साबून, शैम्पू, बैसलीन आदि की चौकस व्यवस्था थी। टी.वी. के साथ छोटा-सा फ्रिज था तमाम तरह के ड्रिंक्स और स्नैक्स से भरा हुआ। कोई भी चीज इच्छानुसार इस्तेमाल की जा सकती थी। बाद में बिल में जुड़ती रहेगी। कहीं भी बातचीत करने के लिए टेलीफोन था। ए.सी. था। कपड़ों पर आयरन करने का इंतजाम था। काफी बनाने के लिए इलेक्ट्रिक पाट था। कमरा से चाबी के बजाय मैगनेट कार्ड से खुलता था जादुई यथार्थवादी शैली में।
ऐसी सुविधाओं से अपरिचित होने के कारण मैंने अपने का असहज अनुभव किया था। सुविधाओं का सुविधाभोगी से बड़ा होना सुविधाभोगी को अपने से जुड़ने से रोकता है, तेजी से पास आने से तो रोकता है ही।
सुषमा ने बताया कि वह वहाँ का एक औसत दर्ज का होटल है।
लगभग साढ़े छह बजे हम घूमते के लिए निकल पड़े। सुषमा ने अपने कमरे में ही साथ लाई इलेक्ट्रिक केतली में चाय बनाई थी। गृहणियाँ घर से ही बहुत सारी व्यवस्थाएँ जुटाकर चलती हैं। अपनी ही व्यवस्था पर उनकी विश्वास जो ज्यादा रहता है।
हमने एक टुरिस्ट बस की थी। चार व्यक्तियों का किराया लगभग 80 डालर था। बस में 25-30 आदमियों के लिए सीटें थीं। बस ड्राइवर, जो अश्वेत था, बाकायदा गाइड की भी भूमिका अदा कर रहा था। बस, जिसे वह ट्राली कहता था, बहुत धीमे-धीमे चलाता था और सामने आ गए स्थान से जुड़ा सारा इतिहास अमेरिकन उच्चारण के साथ बहुत तेजी से बताता जाता था। वह बताना उगलने जैसा था।
घिर आए अंधेरे को भगाने के लिए चारों ओर बत्तियाँ अपनी तमाम शक्लों में जल गई थीं। नदी के किनारे वाशिंगटन मानूमेंट स्तंभ अपने पूरे अस्तित्व के साथ चमकने लगा था। गाइड ने स्तंभ की ऊँचाई 555 फिट बताई। कुतुबमीनार की ऊँचाई इससे ज्यादा है या नहीं, मुझे मालूम नहीं। मानूमेंट के चारों ओर पचास संघीय राज्यों के ध्वज फहरा रहे थे, उसकी अस्मिता की सुरक्षा की आश्वस्ति कराते हुए।
गाइड थोड़े-थोड़े समय के लिए बस महत्त्वपूर्ण स्थानों पर रोक देता था ताकि पर्यटक अंदर जा सकें। मुझे अब्राहीम लिंकन का मेमोरियल बहुत पसंद आया। सफेद पत्थर की एक ऊँची कुर्सी थी जिस पर लिंकन एक पैर आगे निकाले हुए बैठे थे। बैठने की मुद्रा में गरिमा भी थी और शान भी। नाक, कान, दाढ़ी सबकी महीन तरश अद्भुत थी। चेहरे पर नूर छिटका था। स्टेच्यू बनाने वाला अपने समय का प्रसिद्ध शिल्पकार डेनियल चेस्टर था। समता तथा स्वतंत्रता से संबंधित लिंकन के कुछ विशेष अभिकथन चारों तरफ उद्धृत थे।
वाशिंगटन मानूमेंट तथा लिंकन मेमोरियल के बीच लगभग तीन हजार फिट लंबे दो तालाब थे जिनका नीला जल उन स्थानों को विस्तार देता था। स्वच्छता भी अपने में एक आयाम है।
पोटोमैक नदी पर ही जो एक दूसरा मेमोरियल था, उसमें राष्ट्रपति जेफरसन की आदमकद मूर्ति धातु की थी।
कैनेडी सेंटर में कैनेडी की ग्रीवातक की ही मूर्ति थी। सेंटर के हाल में विश्व के तमाम देशों के ध्वज लगे थे। इस मिनट के दिए गए समय में चलते-चलते मैं भारत के राष्ट्रीय ध्वज को खोजने की कोशिश करता रहा।
अमेरिका ने अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने तथा उसे बचाए रखने के लिए अब तक जितने भी युद्ध किए हैं - विश्वयुद्ध शामिल करते हुए, उनमें अपने देश के शहीद हुए सैनिकों की याद में भी यहाँ एक स्मृति स्थल है। चार-पाँच सैनिक राष्ट्रीय ध्वज को गिरने से बचाने की मुद्रा में पत्थर पर तराशे गए थे। उनकी सारी संघर्षपूर्ण चेष्टाएँ, जो आंतरिक भावनाओं को समेटे हुए थीं, पत्थर पर सजीव थीं। ऐसी कलाकृतियाँ दर्शकों को एकदम अपने से जोड़ लेती हैं।
बस ने हमको साढ़े दस बजे होटल पर छोड़ दिया था।
25 अगस्त
बीते कल की डायरी का लिखना इधर अगले दिन ही हो पाता है, उस समय जब दूसरे सोते होते हैं और मेरे पास करने को यही होता है।
कल सुबह तैयार होकर होटल से राजधानी दर्शन के लिए निकल पड़ा था। हम व्हाइट हाउस अंदर से देखना चाहते थे। यह ज्ञात होने पर कि वहाँ टिकट के लिए सुबह साढ़े पाँच बजे से ही लंबा क्यू लग जाता है और पूरे दिन की बलि चढ़ सकती है, जाने का विचार छोड़ दिया। वैसे भी मैंने कहीं पढ़ा था कि भारत का राष्ट्रपति भवन ही नहीं, भारत के कई राजाओं-महाराजाओं के निजी पैलेस भी व्हाइट हाऊस से कहीं अधिक आलीशान हैं। व्हाइट हाउस का महत्त्व आज इसलिए अधिक है क्योंकि विश्व की राजनीति को संचालित, या कहा जाए कि प्रभावित करने वाली, कूटनीति का यह केंद्र है। सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका विश्व का सबसे बड़ा शक्तिशाली देश बन गया है।
सबसे पहले हम कैपिटल बिल्डिंग गए। यह वह भवन है जहाँ कांग्रेस (हाउस आफ रिप्रिजेंटेटिव्स) सन 1800 से कार्यरत है। इसका कार्नर स्टोन जार्ज वाशिंगटन ने 18 सितंबर, 1793 को रखा था। सन 1800 में कांग्रेस के लिए उत्तरी भाग खोल दिया गया था तथा 1800 में दक्षिणी भाग। 1814 में दोनों भाग ब्रिटेन के आक्रमणकारी सैनिकों द्वारा जला दिए गए थे। 1819 में पुननिर्माण कार्य हुआ। 1826 में केंद्रीय गुंबद वाला भाग बन जाने से भवन ने पूर्णता प्राप्त कर ली। नहीं, इसके बाद भी समय-समय पर इसमें कुछ जुड़ता रहा।
भवन के एक भाग में 1810 से पचास वर्ष तक सुप्रीम कोर्ट कार्य करता रहा। चीफ जस्टिस जान मार्शल ने देश के संवैधानिक कानून की संरचना की आधारशिला इसी भवन में रखी थी।
संगमरमर की बड़ी भव्य इमारत है। यहाँ दीवारों पर अपने समय के नामीगिरामी चित्रकारों के बनाए वे दृश्य अंकित हैं जो अमेरिका की स्वतंत्रता के इतिहास व संस्कृति के विभिन्न पहलुओं से संबंधित हैं। इसमें विभिन्न राष्ट्रपतियों तथा उपराष्ट्रपतियों की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं, अति विशिष्ट व्यक्तियों की भी, जैसे ब्लैक नेता मार्टिन लूथर किंग तथा प्रथम अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग की।
दोपहर में रेलवे स्टेशन आकर हमने एक रेस्ट्रारेंट में भोजन किया। यहीं से मेट्रो में बैठकर हिमथसोनियम नेशनल म्यूजियम गए। कैपिटल बिल्डिंग आते हुए हमने मशीन में पूरे पैसे डालकर एक ही टिकट लेने की गलती की थी। एक टोकन डालकर अवरोधक राड को हाथ से रोकते हुए जब हम चारों ने बाहर निकलने की कोशिश की तो वहाँ तैनात कर्मचारी ने पहले तो हमको रोका, फिर वस्तुस्थिति जानकर बाहर निकलने की इजाजत दे दी थी। कर्मचारी अश्वेत था। इस बार चलते हुए हमने मेट्रो के अलग-अलग टिकट खरीदे थे।
स्मिथसोनियन म्यूजियम थोड़े-थोड़े फासले पर स्थित कई भवनों में था। विश्व का समग्र रूप में यह सबसे बड़ा म्यूजियम है। इसके अंग हैं-नेशनल एअर एंड स्पेस म्यूजियम, नेशनल म्यूजियम ऑफ अमेरिकनन हिस्ट्री, नेशनल जू, नेशनल म्यूजियम आफ अमेरिकन आर्ट, नेशनल म्यूजियम आफ द अमरिकेन इंडियन तथा एनाकोस्टिमा म्यूजियम। इसके आलवा स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूट की अपनी अलग इमारत है, जिसमें सूचना केंद्र के साथ-साथ प्रशासनिक कार्यालय हैं। वीडियो फिल्म पर इंस्टीट्यूट के विभिन्न अंगों की झलकियाँ दिखाने के वास्ते एक थयेटर हाल भी है।
स्मिथसोनियन अमेरिका का संभवत: एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक था, उदारवादी और बहुआयामी व्यक्तित्व वाला। सबसे पहले हमने नेशनल म्यूजियम आफ नेचूरल हिस्ट्री देखा। यहाँ तमाम किस्म के पशु-पक्षी, मछलियाँ, साँप, डायनासोर तथा फासिल रखे हुए थे।
कली काफी थक गई थी। सुषमा उसे लेकर एक सायेदार पेड़ के नीचे बैठ गई। मैं प्रेम नेशनल एअर एड स्पेस म्यूजियम में दाखिल हो गए। यहाँ हवाई जहाज के आरंभ लेकर आज के समय तक के तमाम मॉडल तथा विश्व युद्धों में भाग लेने वाले लड़ाकू जहाजों के मॉडल तो प्रदर्शित थे ही, अंतरिक्ष में स्टेशन कायम करने वाली वर्कशाप भी दिखाई गई थी। 'एपोली टू व द मून' से संबंधित वर्दी, कैपसूल आदि सब उसमें रखे गए थे। कुछ चीजें अपने नकली रूप में भी असली की अनुभूति देती हैं, विशेषकर तब जब असली के दर्शन करना असंभव होता है।
वाशिंगटन डी.सी. अपने देखे जाने के लिए कई सप्ताह चाहता है। वहाँ बहुत कुछ हैं। यों तो आज का दिन भी यहाँ के खातें में जमा था, किंतु फिर आज ही फ्लोरिडा के लिए चलने का विचार बना लिया। कार्यक्रम में वहाँ जाना भी शामिल था।
वाशिंगटन हम अपनी कार से इसलिए नहीं घूमें थे, क्योंकि जगह-जगह कार खड़ी करने की समस्या थी। शाम को जब हम एक इंडियन रेस्ट्रारेंट में खाना खाने के लिए गए, पार्किंग के लिए काफी चक्कर लगाना पड़े। सड़कों पर हजारों कारें खड़ी थीं, एक दूसरे से सटी हुई। प्राइवेट पार्किंग के लिए खासा किराया देना पड़ता है। वीकएंड के दिनों में यह समस्या और भी विकट हो जाती है।
वाशिंगटन की सड़कों से भी गुजरते हुए मुझे भारत के कई मेट्रोपोलेटियन शहरों की याद आई थी। इमारतें ईंट-पत्थरों की थीं, लकड़ी की नहीं। स्टोरों व दुकानों पर गहमागहमी थी। पटरियों पर लोगों की सधन आवाजाही थी। पेड़ों के नीचे सूखी पत्तियाँ बिखरी थीं। इधर-उधर भी थोड़ी गंदगी थी। ट्रैफिक नियमों के साथ कुछ-कुछ मनमानी भी।
26 अगस्त
बाहर नहाना-धोना, चाय-नाश्ता चाहने पर भी दस से पहले नहीं निपट पाता है। दिन भर की थकाई और देर रात से सोना तो इसका एक कारण होता है ही, यह तथ्य भी पृष्ठभूमि में रहता है कि ट्रेन या प्लेन तो पकड़ना है नहीं, अपनी कार से चलना है। घंटे-आध घंटे के विलंब से क्या कोई फर्क पड़ेगा? तनाव मुक्त रहने का मौका है तो वैसे रहो।
कल प्रात: साढ़े दस बजे ही हम वाशिंगटन छोड़ सके थे। हम लोगों ने वरजीनिया, नार्थ केरोलिना तथा साउथ केरोलिना तक का सफर तय कर लिया और जार्जिया के नगर सवानाह में रात ग्यारह बजे दाखिल होकर 'कैपिटल इन' में आ गए, जहाँ भी पहले से आरक्षण था। चूँकि वाशिंगटन मे अपेक्षाकृत कुछ बड़ा होटल था, इसलिए इस बार होटल की आधुनिकतम सुविधाओं के आतंक ने असहज नहीं बनाया। बड़ी लकीर से रू-ब-रू हो चुकने पर उससे छोटी लकीर अपनी उपस्थिति का अहसास शिद्दत से कराती नहीं है।
रास्ते में खाने-पीने के लिए हम केवल दो स्थानों पर आधे-आध घंटे के लिए रूके थे। प्रेम, सुषमा, कली सब मांसाहारी हैं। पश्चिम क खानपान के हिसाब से यह सही भी है। केवल मेरे शाकाहारी होने से रेस्ट्रारेंटस में उपयुक्त भोज्य सामग्री के लिए आर्डर देने में दिक्कत आती है। फिर भी कुछ-न-कुछ जैसे सलाद, ब्रेड आदि पा ही जाता हूँ। होटल व रेस्ट्रारेंट हाई-वे से कुछ परे हटकर होते हैं और हाई-वे पर लगे मार्ग-संकेतो से अपनी उपस्थिति की जानकारी पहले से देने लगते हैं। यात्रा के दौरान इसी प्रकार रेस्ट एरिया के भी संकेत चिह्न दस-बीस मील के अंतराल से मिलने लगते हैं, जिनमें दाखिल होकर यात्री प्राकृतिक दबावों से मुक्त हो सकता है। भारत की तरह रास्ते में कहीं भी पेड़ या झाड़ी के पास रूककर पेशाब या गंदगी करना यहाँ अपराध है। रेस्ट एरिया में साफ-सुथरे पेशाबघर तथा शौचालय होते हैं। पीने के पानी के लिए नल लगे होते हैं। पुश करने पर यह धार उछालते हैं और आप मुँह खोलकर धार अंदर ले सकते हैं। यहाँ नल किस्म-किस्म के होते हैं और उनकी संचालित करना अपरिचित के लिए किसी पहेली को हल करना जैसा होता है। अक्लमंद की कुछ देर तक वे खिल्ली उड़ाते हैं।
नार्थ केरोलिना में दाखिल होते ही रास्ते के दोनों ओर यहाँ-वहाँ खेत भी नजर आने लगे थे। इन खेतों में या सड़क के बीच की पट्टियों में, जो आने-जाने के मार्ग को विभाजित करती हैं, कहीं-कहीं सूरजमुखी के पीले या चटक सुर्ख बड़े-बड़े फूल उगे हुए मिल जाते थे।
रात में प्रेम को स्पीड से कार चलाने में दिक्कत आती है, इसलिए कार सुषमा ने चलाई थी, लगभग 70-75 मील की रफ्तार से। गहरा अंधेरा होने के कारण ऐसा लगता था कि हम किसी टनैल से गुजर रहे हैं। यहाँ हाई-वे के नंबर दिए रहते हैं और टूर-निदेशिका या रोड मैप की सहायता से गंतव्य से संबंधित नंबर को देख-देखकर लंबी यात्राएँ की जाती हैं। यहाँ रात के किसी भी समय सड़ाकों पर यात्रा करना अपनी जान-माल को जोखिम में डालना नहीं होता है।
27 अगस्त
कल सवानाह से चलकर हम शाम साढ़े छह बजे आरलैंडो में आ गए। फ्लोरिडा की सीमा में दाखिल होते ही सड़कों के किनारे लगी सूचना पट्टिकाएँ जगह-जगह किसी-न-किसी बीच की उपस्थिति जताने लगी थीं। आरेलैंडो के राजमार्ग पर सड़कें अधिक चौंड़ी करने का काम चल रहा था। जाहिर था कि यहाँ टूरिज्म बढ़ रहा है। सड़कों पर खूब ट्रैफिक था। सवानाह में आकर पहली बार मैंने हिंदुस्तान जैसी छोटी ट्रकें देखी थी, बल्कि कहूँ कि विभिन्न आकारों की। रास्ते में हमको ट्रकें काफी आती-जाती मिली थी, वही भीमकाय ट्रकें, भारत की ट्रकों से आकार में लगभग ढाई गुनी, अठारह पहियों पर दौड़ने वाली। चूँकि फ्लोरिडा में फलों की उपज बहुत होती है, फल तथा फल से संबंधित तमाम उत्पादन इधर-उधर के स्टेट्स में इन ट्रकों के माध्यम से पहुँचाए जाते हैं।
इधर घास का रंग गाढ़ा हरा नहीं है। उसमें हल्की-सी पीतिमा धुली है। इससे रंग किंचित तरल और मृदुल हो गया है।
शाम को हम सुषमा के एक निकट संबंधी के यहाँ गए। नाम था विष्णु माथुर। मंगल का दिन था। बातों से ज्ञात हुआ कि विष्णु और उनका बेटा दोनों हनुमान के भक्त हैं। बेटे के अलावा जवानी में डग बढ़ाती उनकी एक बेटी भी है। वे सभी शाकाहारी थे। माँ साधना यों फराँटे से अँग्रेजी बोलती हुई भारत, विशेषकर दिल्ली के प्रदूषित वातावरण की बुराइयाँ कर रही थी तथा दूसरे तमाम पिछड़ेपन की, किंतु वह भारतीय संस्कृति में अपने बच्चों को ढालना भी चाहती थी। अंदर कमरे में हिंदी फिल्मी गानों का कैसेट बज रहा था।
पाँच-छह दिनों बाद घर का बना हुआ भोजन दाल, चावल, फुल्का, पापड़, दही खाने को मिला। खाने ने तृप्ति दी। तृप्ति का अपना स्वाद होता है।
रात ग्यारह बजे जब लौटा, दुकानों, होटलों व विभिन्न संस्थानों की नियान लाइटें व ट्यूब्स हरे-लाल रंगों से चारों ओर जगमगा रहे थे। भारत में जिस प्रकार विवाह के अवसरों पर घरों में रोशनी सजती है, लगभग वैसी ही थी बल्कि उससे भी ज्यादा। रोशनी का यह रूप क्या अपने में उसका छिनालपन नहीं है डॉ. लोहिया ने (1953 में) कहा था कि न्यूयार्क शहर में विद्युत की जितनी खपत है उतनी खपत पूरे हिंदुस्तान की है।
सवानाह तथा यहाँ आरलैंडो के होटलों में मैंने नाइट क्लबों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए मैनेजर से संपर्क करने की बात वहाँ रखी दिशा-निर्देशिका में लिखी पाई। इन होटलों में मैंने हर कमरे में खूबसूरत जिल्द वाली बाइबिल भी मौजूद पाई।
28 अगस्त
इतिहास बताता है कि फ्लोरिडा पुष्प बहुल क्षेत्र की खोज के बाद शुरू की दो शताब्दी तक स्पेन इस पर अपना अधिकार जमाने के लिए संघर्षरत रहा। सात वर्षों के युद्ध के बाद सन 1763 में हुई पेरिस की संधि के द्वारा इंग्लैंड ने क्यूबा के बदले में फ्लोरिडा को प्राप्त करना अपने हित में समझा। अमेरिकी क्रांति के दौरान स्पेन का पश्चिमी फ्लोरिडा पर आधिपत्य हो गया।
1783 की दूसरी संधि के जरिए फ्लोरिडा पर स्पेन दुबारा काबिज हो गया। 1819 में स्पेन ने इसको अमेरिका के हाथ बेच दिया। मार्च 1845 में फ्लोरिडा ने एक राज्य का दर्जा हासिल कर लिया। शीघ्र ही फ्लोरिडा अपनी खूबसूरती व सेहतमंद मौसम के कारण मौज-मस्ती का केंद्र बन गया। अवकाश प्राप्त लोग देश के विभिन्न कोनों से आकर यहाँ दीर्घ और शांतिमय जीवन की आशा से बसने लगे।
सन 1949 में अमेरिका ने यहाँ अपना एअरफोर्स मिसाइल परीक्षण केंद्र स्थापित किया और 1958 में यहीं से एक्सप्लोरर नामक प्रथम सेटीलाइट छोड़ा गया। 1968 में प्रथम अंतरिक्ष यात्री एपोली द्वितीय पर बैठकर चाँद पर गया था। कैनेडी स्पेस सेंटर भी यहाँ है।
फ्लोरिडा यों तो सन, सैंड और सर्फ (समुद्री झाग) के लिए जाना जाता है, पर उससे भी ज्यादा जाना जाता है डिजनी वर्ल्ड के लिए। वाल्ट डिजनी का मानस-चरित्र मिकी माउस आज दुनिया भर के बच्चों के जीवन में अपना अहम स्थान बना चुका है।
फ्लोरिडा समुद्र के बाहर निकला हुआ निम्नतलीय एक ऐसा प्रायद्वीप है जो मैक्सिको की खाड़ी से अतलांटिक सागर को अलग करता है। यहाँ तीन हजार झीले हैं, आकार मैं पोखर से लेकर मीलों तक फैली नदी जितनी। यहाँ पंद्रह किस्म के ताड़ के पेड़ पाए जाते हैं और 27 किस्म मे खरबूजे। अनाज, फल, सब्जियाँ, गन्ना यहाँ खूब होता है। वन्य जीवन भी काफी समृद्ध है।
आरलैंडो फ्लोरिडा का एक प्रमुख महानगर है। यह फ्लोरिडा के बीच में स्थित है। यहाँ अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है और है पर्यटकों के लिए चुंबकीय आकर्षण वाला स्थान डिजनी वर्ल्ड।
हम लोग कल दिन में ग्यारह बजे डिजनी वर्ल्ड के छह केंद्रों में से पहले केंद्र मैजिक किंगडम गए। मीलों तक फैला हुआ था यह केंद्र। इसमें इतना बड़ा जलाशय था कि फेरी चलती थी तथा वोट राइड और वोट रेस होती थी। अंदर दाखिल होनेपर कार पार्क करना होता था, जिसके लिए चिह्नित सैकड़ों स्थान थे, दस-बीस हजार कारों को समा लेने वाले। मुख्य भाग में पहुँचने के लिए पहले ट्राम लेना पड़ती थी, फिर ऊपर खिंची पटरियाँ पर दौड़ने वाली मोनो रेल या फेरी।
डिजनी वर्ल्ड की स्थापना के पच्चीस वर्ष पूरे हुए थे। उस उपलक्ष में यहाँ विशेष कार्यक्रम हो रहे थे, पर्यटकों के लिए जिनका अतिरिक्त आकर्षण था। चारों और आदमी-औरतें दिखाई देते थे, अकेले नहीं, बच्चों के साथ। वाल्ट डिजनी की चिंता मुख्यता बच्चों को लेकर थी।
मिकी माउस के वी.वी.आई.पी. बन चुकने के कारण उनके बजाय एक स्थान पर मिनी माउस खड़ी हुई बच्चों को अपने आटोग्राफ दे रही थीं। लंबी लाइन थी। बच्चों के अभिभावक आटोग्राफ बुक खरीद-खरीद कर क्यू को और लंबा कर रहे थे। कली का नंबर आने से पूर्व हो मिनी उछलती-कूदती गायब हो गई। एक पैवेलियन में मिकी माउस का घर था, सारे जरूरी सामान के साथ। किचन में रखी चीजों से छेड़छाड़ करने पर एलार्म की तरह ड्रम या कोई बाजा बजने लगता था, बच्चों के लिए अपने में जो एक खेल था।
एक अन्य पैवेलियन में विभिन्न चरित्र अपनी-अपनी सुपरिचित वेश-भूषा में कई कमरों में उपस्थिति थे। उनकी हैसियत फिल्मी सितारों से कम नहीं थी। बच्चों को इनसे मिलने और इनके साथ फोटो खिंचवाने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता था। मिकी माउस यहाँ भी गायब थे। हाँ, कुछ देर के बाद बाजे-गाजे के साथ निकली परेड में वह अवश्य शामिल थे, एक रथ पर सवार। इससे पूर्व चौक में भी वह 'एवरी डे इज ए हालीडे' वाले प्रोग्राम में अपनी पूरी टीम के साथ मौजूद थे, जिसमें तेज ध्वनि के संगीत के बीच जादुई तरीके से उन्होंने गुब्बारे और कबूतर छोड़े थे।
ऊपर खिंचे मोटे तारों पर छोटी ट्रालियाँ खिसक रही थीं। विभिन्न आकार प्रकार के झूले, चरखियाँ तथा तेज गति वाले राइड्स चल रहे थे और लोगों में उनमें बैठने के लिए पागलपन सवार था।
रात नौ बजे मुख्य सड़क से डिजनी लैंड के चरित्रों की झाँकी निकली। इलेक्ट्रानिक्स फाइवर की पच्चीकारी उनके कस्ट्यूम में प्रकाश की तरह-तरह की लहरियाँ दौड़ा रही थी। एक मायावी लोक था वहाँ, डराने वाला नहीं, विस्मय से जुड़ा उत्फुल्लकारी।
सात-आठ घंटे तक घूमने के बावजूद किंगडम का कुछ ही भाग देख सके थे। विराटता के आगे दर्शक की स्थिति बेचारे की ही होती है।
29 अगस्त
कल कमरे से निकलकर पहले हमने एक भारतीय होटल में खाना खाया। अमेरिका के बड़े नगरों में खोजने पर इंडियन होटल मिल जाते हैं। डेढ़ बजे हम डिजनी वर्ल्ड के एक दूसरे केंद्र 'एपकाट' में आ गए। यहाँ भी पार्किंग स्थल से मुख्य भाग में पहुँचने के लिए ट्राम, मोनोरेल और फेरी की व्यवस्था थी।
सर्वप्रथम 'स्पेसशिप अर्थ' वाले पैवेलियन में गए हम लोग। यह वृहद गोलाकार बना हुआ था। हमकी मोनोरेलनुमा इलैक्ट्रिक गाड़ी से चक्करदार अंधेरी गुफा में घुमाया गया। मानव ने किन-किन स्थितियों और किन-किन चरणों में विकास किया एवं उन सबसे होता हुआ कैसे अंतरिक्ष युग में आया, अंदर इसको दिखाया गया था। विभिन्न मुद्राओं में मानव आकृतियाँ वास्तविक-सी लगती थीं। सच या यथार्थ की अनुभूति कराना क्या अपने में कला नहीं है? गुफा एकदम अंधेरी थी, वनस्पति, जंगल, पर्वत, नभमंडल सबसे पूर्ण। तरह-तरह की डरावनी आवाजें आ रही थीं।
हम फिर उस पैवेलिन में गए जहाँ पृथ्वी पर कैसे मानव और वन्य जीवन का विकास हुआ, इसको दर्शाया गया था। यहाँ भी घुमाने के लिए वही मोनोरेलनुमा राइडर था। शेर, चीते, डायनासोर सब गतिशील दिखाए गए थे।
'द लिविंग सी' वाले पैवलियन में एलीवेटर के जरिए हमको बहुत नीचे ले जाया गया। कहा जाता है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा एक्युरियम है। हमारे ऊपर, नीचे, दाएँ-बाएँ सब ओर पानी था। हम समुद्र के अन्दर तमाम बड़ी, छोटी मछलियों तथा वहाँ की चट्टानों व वनस्पतियों से रू-ब-रू हो रहे थे। पानी के अंदर की वनस्पतियाँ अनेक जनवरों का भोजन बनती हैं। संभवत: फाइवर ग्लास या पारदर्शी प्लास्टिक की मजबूत दीवारें खड़ी कर चारों तरफ पानी को रोका गया था।
एक अन्य पैवेलियन में उसी प्रकार के राइडर द्वारा हमने 'जर्नी इन टू इमेजिनेशन' में यात्रा की अर्थात एक अति कल्पित संसार में। इसमें डिजनी के विभिन्न चरित्र तरह-तरह के स्वांग करते हुए दिखाए गए थे। दरअसल यहाँ केवल फन था। 'फन' यहाँ के लोगों का एक प्रिय शब्द है, जीवन के प्रति उनकी सोच का परिचायक भी।
'यूनीवर्स आफ एनर्जी' वाले पैवेलियन में शक्ति के स्रोतों तथा नई-नई शक्ति की खोजों के इतिहास को दिखाया गया था, तमाम तरह के गर्जन-तर्जन और विस्फोटन की आवाजों के साथ। बीच-बीच में स्क्रीन पर विचार-विमर्श के लिए कुछ वैज्ञानिक भी आ जाते थे। आइंस्टीन भी थे। निष्कर्ष में बताया गया था कि शक्ति के जिस स्रोत का कभी अंत नहीं होगा वह है बुद्धि शक्ति। मनुष्य आवश्यकता अनुसार बराबर नई शक्तियों की खोज करता रहेगा।
शाम सात बजे फेरी से हम केंद्र के चारों ओर वृत्ताकार स्थित विभिन्न देशों के ग्राम देखने गए। इटली ग्राम के रेस्ट्रारेंट में जब हम खाना खाने गए, वहाँ बेतहाशा भीड़ थी। अपनी बारी आने में एक घंटे से ऊपर समय लग गया। खाना नहीं, तामझाम अच्छा था।
बाहर अतिशबाजी शुरू हो चुकी थी। जलाशय में कई किश्तियाँ तैर रही थीं और इन्हीं में से आकाश में विभिन्न रंगों और आकारों की फुलझड़ियाँ छूट रही थीं। मिसाइल दागे जा रहे थे। इधर-उधर के कोनों से इस तरह सर्चलाइट अकाश में डाली जा रही थी कि एक से दूसरे क्षितिज को छूते हुए पुल बन जाते थे, नीली रोशनी के। किश्तियाँ कभी जलने लगती थीं, कभी जगमगाहट से भर जाती थीं।
अभी बहुत से ग्राम देखना रह गए थे। इन ग्रामों में अपने-अपने देश की संस्कृति की झाँकी देखने को मिल रही थी। कई ग्रामों के बाहर वहाँ का लोक-संगीत अपने परंपरागत वाद्य-यंत्रों की संगत में गाया जा रहा था।
वहाँ अपना ग्राम न पाकर पीड़ा हुई। विश्व के पर्यटकों के सामने इस देश की सांस्कृतिक तस्वीर न दिखाना क्यों उचित समझा गया?
30 अगस्त
यह बीते कल का ही लेखा-जोखा है। हम यूनीवर्सल स्टूडियो गए थे। यह वाल्ट डिजनी के संसार का अंग नहीं था। यह भी एक वृहद् भू-खंड में बसा हुआ था। इसमें भी बीच में एक बड़ा-सा जलाशय था। लगता था कि यह अपने को डिजनी वर्ल्ड वाले रूप में उभार रहा है। नकल चाहे कितनी भी बड़ी चीज की क्यों न की जाए, पहचान मौलिकता ही देती है।
धूप काफी तेज थी। अंदर सड़कों पर चलते हुए उत्तर भारत के मई, जून के महीनों की याद आ रही थी। लोगों ने कपड़े बहुत कम पहन रखे थे। औरतों की नेकरें ऊपर जाँघों से चिपकी थीं। किन्हीं-किन्हीं ने छातियों पर केवल स्ट्रैप्स बाँध रखे थे। लेकिन कोई किसी के जिस्म पर आँख नहीं सेंक रहा था। स्थितियों से अभ्यस्तता सहजता में ढल जाती है।
यहाँ निक्लरोडियन स्टूडियो है जो बच्चो और किशोरों के लिए हर रोज सुबह से शाम तक टी.वी. पर कार्यक्रम परोसता है। इस स्टूडियो में मैंने अपने लिए कोई आकर्षण नहीं पाया। लखनऊ दूरदर्शन के कार्यक्रमों में भाग ले चुकने के कारण मैं फिल्म शूटिंग की प्रक्रिया से परिचित था। यहाँ पर्यटकों के सामने उनके साथ आए बच्चों में से कुछ को चुनकर तुरंत-फुरंत एक फिल्म बनाई गई थी। बच्चों को जो खेल खेलने को दिया गया था, उसमें कोई दृष्टि नहीं थी। हो-हल्ला ज्यादा था।
एक अन्य स्टूडियो में थ्री डाइमेंशन की फिल्म थी। इसमें सेबरोडाइन सिस्टम का प्रयोग किया गया था। लगभग वैसी फिल्म मैं न्यूजर्सी के वर्ल्ड साइस म्यूजियम में देख चुका था। वह स्टार वार से संबंधित थी। यह भी कुछ उसी किस्म की थी। बल्कि इसमें आतंक और भय से जुड़े कुछ अधिक ही इफेक्ट्स डाले गए थे। धड़ाके की आवाज बहुत तेज होती थी। राइफलें और तोपें सामने दागी जाती थीं और दर्शकों को लगता था कि जलता हुआ गोला-बारूद सीधा उन्हीं की ओर आ रहा है। बैठने वाली सीटें भी ऊपर-नीचे हुई थीं। पानी की फुहारें भी गिरी थीं।
एक अन्य पैवेलियन के एक शो में घने जंगल के बीच से राइडर पर ले जाती मोनो रेल ऊपर नीचे होती हुई झटके देती थी और कभी-कभी लगता था कि वह सामने किसी खतरनाक चीज से टकरा जाएगी। अनेक बच्चे ऐसे शो में रोने लगते थे और अभिभावकों को उनका डर कम करने के लिए बंदरिया बन सीने से चिपटाना पड़ता था।
विज्ञान आश्रित पूँजीवादी समाज में कुछ नए जीवन-मूल्य तेजी से स्थापित हो रहे हैं, जिनमें एक उत्तेजना भी है। ऐसे समाज में मनोरंजन का रूप भी बदल जाता है। हिंसा और आतंक को सभ्य बनाने के लिए उनको एडवेंचर व थ्रिल का चोला पहना दिया जाता है।
31 अगस्त
मुझे डिजनी के 'सी वर्ल्ड' केंद्र पर जाना था। सुषमा फ्लोरिडा की अपनी पहली यात्रा में इसे देख चुकी थी। तय किया कि सुषमा व कली विष्णु माथुर के वहाँ रूक जाएँगी। मैं और प्रेम 'सी वर्ल्ड' देख आएँगे। सुषमा को मैले कपड़ों की लांड्री भी करनी थी। जब होटल खाली कर हम विष्णु के घर जाए, मैंने और प्रेम ने भी जाने का विचार त्याग दिया। थोड़ा रिलैक्स होना जरूरी लगने लगा था।
विष्णु के घर में एक छोटा-सा स्वीमिंग पूल है, साफ नीले पानी से भरा अनछुआ-सा। बच्चे उसमें उतरकर पानी के साथ खेल करते रहे। मैं और विष्णु पूल के बाहर साए के नीचे बैठे बतियाते रहे। विष्णु के किताबों के दो स्टोर हैं। हर प्रकार की मैगजीन उनके स्टोर में उपलब्ध रहती है, कुछ यूरोपीय देशों से प्रकाशित होने वाली भी। अखबार भी रहते हैं। उनका यही धंधा पहले लंदन में था। वहाँ जब पार्टनर ने धोखा दिया तो यहाँ चले आए। अपने को जमाने में पति-पत्नी दोनों को काफी संघर्ष करना पड़ा था।
प्रेम-सुषमा ने मुझे शिकागो के लिए अमेरिकन एअर-लाइंस के एक प्लेन में बैठाल दिया और स्वयं कार से वापसी यात्रा के लिए रवाना हो गए।
प्लेन में मेरे अंदर के शाकाहारी संस्कार ने मुझे स्नैक्स लेने से रोक दिया। कोक अवश्य लेने दिया। मना कर देने पर भी गिलास आइस क्यूब्स से भर दिया गया। यहाँ बर्फ का काफी रिवाज है। रिश्ते भी ये ठंडे ही रखते हैं। जहाज छोटा था। मेरी सीट एक अश्वेत दंपति के साथ थी। एअर होस्टेस के व्यवहार में जो चमक-दमक थी वह औपचारिकता की।
शिकागो एअरपोर्ट पर साला शिव गोपाल मौजूद था।
कार से शेम्पेन नगर आते हुए रास्ते में मक्का तथा सोयाबीन के दूर-दूर तक फैले खेत मिले। इलोनायस के नीचे स्थित राज्यों से खेती वाला इलाका शुरू हो जाता है।
शिवगोपाल का घर काफी बड़ा है। गेस्टरूम, डाइनिंगरूम, फैमिलीरूम, ड्राईंगरूम सब लंबे-चौड़े। नीचे बेसमेंट भी काफी बड़ा। बेसमेंट में ही शिवगोपाल ने अपना स्टडीरूम तथा व्यक्तिगत लायब्रेरी बना रखी है। यह मकान छह साल पहले बनवाया गया था, कुछ अपने सुझाव देकर।
प्रेम का समरसेट (न्यूजर्सी) वाला मकान बीस साला पुराना है। उसमें बहुत बड़ा-सा लान है और ढेर सारे ऊँचे कद्दावर पेड़। यहाँ मकान की हैसियत बाथरूम की संख्या से आंकी जाती है। नहाने का टब नहीं होने पर बाथरूम आधा माना जाता है।
रात बंबई फोन किया। बंबई में दिन के दस बजे रहे थे। पत्नी ने बताया कि सुनील सुप्रीम कोर्ट से भी मुकदमा जीत गया है और कंपनी ज्वाइन करने गया है। काफी राहत मिली। पिछले एक वर्ष से जबसे कंपनी ने 'धर्मयुग' बेच देने की आड़ में स्टाफ से दामन छुड़ाया था, बेटा बहुत परेशान था।
3 सितंबर
शिवगोपाल यूनीवर्सिटी आफ इलोनायस के मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में प्रोफेसर है, सन 80 से। वह मुझे एशियन लायब्रेरी में छोड़ गया। मैंने ऐसिस्टेंट लायब्रेरियन मुकेश से अपनी पुस्तकों के बारे में पूछा। प्रेम ने मुझे बताया था कि यहाँ की कई बड़ी लायब्रेरी में मेरी पुस्तकें हैं। मुकेश ने कंप्यूटर के कई बटन दबाए। मेरी पुस्तकें वहाँ नहीं थी। मैं प्रथम तल की हिंदी पुस्तकों वाली रैक के करीब चला गया। पुस्तकें बेतरतीब लगी थीं, या उनमें जो तरतीब थी उसको मैं समझ नहीं पाया था। मुझे ज्ञानपीठ या साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत कोई पुस्तक नजर नहीं आई। किसी स्थापित आधुनिक लेखक की भी नहीं। कविता, उपन्यास के नाम पर उन लेखकों की पुस्तकें थीं जिनको मैं जानता नहीं था। मुकेश ने बताया कि बहुत सारी हिंदी पुस्तकें ऊपर वाले तल पर हैं। मैं ऊपर गया नहीं। लायब्रेरी बंद होने का समय हो रहा था।
दोपहर में जब यूनीवर्सिटी आया था, पानी ताबड़-तोड़ गिर रहा था। वापसी के समय भी। चार-पाँच मील के फासले पर घर था। वहाँ पानी की एक बूँद नहीं गिरी थीं।
5 सितंबर
आज मदर टेरेसा की मृत्यु का समाचार है, किंतु डायना के क्रीमेशन संबंधी समाचारों ने मदर टेरेसा की खबर को बहुत बेचारा बना दिया था। मदर ने अपनी मौत का बहुत गलत वक्त चुना। उनको डायना से काफी फासला रखकर मरना था। मदर को क्या मालूम नहीं था कि यह ग्लैमर का युग है? शायद भारत की मीडिया ने उनके साथ-साथ न्याय किया होगा। वैसे उस हस्ती को दी गई कितनी भी बड़ी श्रद्धांजलि अपर्याप्त है।
6 सितंबर
वीकएंड था। हम लोग शिकागो के लिए निकल पड़े। एक सौ बीस मील की ड्राइव थी। यहाँ मील अब भी बरकरार है। कार की स्पीड जब 70-75 मील होती है, तब उसे किलोमीटर में सोचकर दहशत होती है-सवा सौ किलोमीटर की रफ्तार है बाबा।
पहले हमारा प्रोग्राम समीपवर्ती राज्य विस्कांसिन भी जाना था। रात में किसी होटल में ठहर जाने पर दोनों ही जगह घूमना हो जाता। पता लगने पर कि विस्कांसिन के जिन स्थानों को हम देखना चाहते हैं, वे लेबर डे (1 सितंबर) के बाद बंद कर दिए गए हैं, हमने वहाँ जाना त्याग दिया। विस्कांसिन में उषा प्रियंवदा रहती हैं। जाने पर उनसे मिलना हो सकता था। शौहरत भी अक्सर संयोग से मिलती है। 'वापसी' कहानी को आलोचकों ने आने पर कुछ इतना उठाया कि उषा प्रियवंदा का नाम भी उसी के साथ उठ गया। उसके बाद आलोचक उसे नीचे नहीं लाए। ला भी नहीं सकते थे। नामवर सिंह निर्मल वर्मा को ऊपर उठा देने के बाद नीचे लाने की भरसक कोशिश कर रहे हैं, पर सफल नहीं हो पा रहे हैं।
हम नेवी पायर में आकर इमैक्स थयेटर में गए। मुझे सीनियर सिटीजन मानकर टिकट पर दो डालर की छूट दे दी गई। शो दो बजे शुरू होता था। हाल भरा था। यहाँ भी थ्री डाइमेंशन की पिक्चर थी - 'इनटू द डीप' इस फिल्म की शूटिंग दक्षिणी कैलीफोर्निया में कहीं समुद्र के अंदर की गई थी। थ्रयेटर का स्क्रीन छह मंजिला इमारत जितना ऊँचा था। छत भी उसकी जद में आ जाती थी। लगाने को दिया गया चश्मा कनटोप जैसा था। ऐसा इसलिए था कि जल जंतुओं के विहार और क्रियाकलापों की सारी आवाजें भी दर्शकों को साफ सुनाई दें।
फिल्म शुरू होते ही लगा कि हम समुद्र के भीतर हैं और वह पारदर्शी बनकर हमको अपने संसार की सैर करा रहा है। दिन से रात तक की जलचरों की गतिविधियाँ, उनकी जीवनचर्या, अस्तित्व के लिए उनका संघर्ष, मादा व नर जलचरों का हनीमून इन सबको अपने पूरे परिवेश के साथ दिखाया गया था। पौन घंटे की फिल्म थी। आरलैंडो के यूनीवर्सल स्टूडियो में हमने 'द लिविंग सी' में जो देखा था, यहाँ उसका विस्तार था।
हम लैकवाले तट पर आ गए। मिसीगन लेक संसार की सबसे बड़ी झील मानी जाती है। कहा जाता है कि यह तीन सौ मील के क्षेत्र में पसरी है, समुद्र जैसी बनकर। दूसरे तटपर इंडियाना राज्य है। पानी एकदम नीला था। नीलाहट जल की स्वच्छता का पर्याय तो है ही, उसका सौंदर्य भी है। जिधर निगाह जाती थी, किश्तियाँ-ही-किश्तियाँ दिखाई देती थीं। जलक्रीडा कराने के लिए स्टीभर भी था। एक ओर आधुनिक ढँग का शपिंग कॉपलेक्स था। सीमेंट के लंबे-चौड़े तट पर कुछ लोग स्केटिंग कर रहे थे। धूप काफी तेज थी। सर्दी की आंशका से मैं काट्सवूल की शर्ट पहनकर घर से निकला था। मैं अमेरिकन होता तो शर्ट को बेझिझक उतारकर कमर में बाँध लेता जैसा बहुतों ने कर रखा था। उनमें से कुछ के जिस्म में नीले गुदने थे। अमेरिकन में आदमी गले में चेन, कलाई में ब्रासलेट तथा अँगुलियों में अँगूठियाँ पहनते हैं-सब नहीं, लेकिन ध्यानयोग्य संख्या में, विशेषकर युवावर्ग के। कई इयररिंग भी धारण करते हैं। बालों में चोटी बनाना भी असामान्य नहीं है। विपरीत लिंग में अपने को देखना क्या यौन से जुड़ी कोई मनोग्रंथि है? समलिंगता की धारणा का, जिसकी हिमायत राष्ट्रपति क्लिंटन भी करते हैं, क्या कहीं इससे रिश्ता है?
हम 'सीअर टावर' आ गए। न्यूयार्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में जो टावर था, वह 1368 फिट ऊँचा था। यों यह टावर भी 110 मंजिला था, लेकिन इसकी ऊँचाई 1454 फिट थी। मलेशिया के क्वालालरपुर वाले टावर की ऊँचाई 1483 फिट है। किंतु शिकागो के इस टावर ने छत पर दो ऐंटीना खड़े कर अपनी ऊँचाई 1707 फिट तक बढ़ा ली है, दुनिया का सबसे ऊँचा टावर होने का दावा ठोंकने की नीयत से। जोर-जबरदस्ती मीर बनना इसी को कहते हैं।
इस टावर में 45 लाख वर्ग फिट की जगह है तथा वजन है लगभग सवा दो लाख टन। इमारत में इतनी कंकरीट इस्तेमाल हुई है जितनी से आठ लेने वाला पाँच मील लंबा राजमार्ग तैयार किया जा सकता था।
टावर का स्काई डेस्क साढ़े तेरह हजार फिट की ऊँचाई पर था। यहाँ से शिकागो शहर दूर-दूर तक दिखाई देता था। झील में पड़ी नावें अब कागज की नावों में तब्दील हो गई थीं और बहुत-सी ऊँची इमारतें बौनी बन गई थीं, खिलौनों के कद की। फासला कितना बड़ा भ्रम पैदा कर देता है।
शिकागो अमेरिका का न्यूयार्क व वाशिंगटन के बाद तीसरा बड़ा शहर है। यहाँ साठ हजार भारतीय रहते हैं। यहाँ जो डेवन एवेन्यू है, बहुत से हिंदुस्तानी उसे दीवान एवेन्यू की एक सड़क का नाम महात्मा गांधी रोड है ओरे दूसरी का जिन्ना रोड। इस भाग में आकर लगा कि हम भारत में हैं। स्टोर, दुकानें, रेस्ट्रारेंट, सभी में अपने लोग, बेचनेवाले और खरीदारी करने वाले दोनों ही।
7 सितंबर
शिवगोपाल के मित्र के यहाँ दिन में गणेश चतुदशी का पूजन था। मित्र बालगोपाल यों तमिल थे, किंतु उनके पिता नागपुर के आसपास बस गए थे। इसलिए वह महाराष्ट्रीय संस्कृति में पले थे। वहाँ दस-बारह जो औरतें थीं, साड़ियाँ में थीं। इतने ही जो पुरुष थे, उनमें से आधे कुर्ते-पाजामे में गए। मैं भी उसी में था। कल शिकागो में मैंने एक भारतीय को इस परिधान में बड़े सहज भाव से धूमते देखा था। उस सहज भाव में स्वाभिमान भी छलक रहा था।
बालगोपाल के कटी-छँटी दाढ़ी थी। उन्होंने कुर्ते के साथ मोटी किनारी की धोती धारण कर रखी थी। धोती बहुत-कुछ वैसी थी जैसी भारत में इन दिनों भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय नेता पहनते हैं। बालगोपाल ही पूजन पर बैठे। पूजन में विधिविधान का क्या क्रम होगा और कौन से भजन गाए जाएँगे, इनको उन्होंने रोमन लिपि में लिख रखा था और उसकी जीराक्स प्रतियाँ सभी जनों में वितरित कर दी थीं। पूजन श्लौकों के साथ हुआ था। सहायता के लिए मंत्रों की एक मुद्रित पुस्तक पास में रखी थी।
भजन औरतों ने सस्वर गाए थे। पुरुषों ने खुलकर संगत दी थी।
उपस्थित समुदाय में अधिकतर यूनीवर्सिटी के साथी थे। कोई कलकत्ते का था, कोई कश्मीर का कोई अल्मोड़ा का, कोई इलाहाबाद का, कोई पंजाब का। शिवगोपाल ने बताया कि उनकी यूनीवर्सिटी में पूरे भारत के लोग हैं। यह भी ज्ञात हुआ कि इस देश में प्रोफेसर के रिटायरमेंट की कोई आयु सीमा नहीं है। जब तक शारीरिक तथा मानसिक क्षमता है, पढ़ा सकते हैं। तीस वर्ष का सेवाकाल पूरा हो जाने पर प्रोफेसर अपने अंतिम वेतन का 80 प्रतिशत और बतौर पेंशन पाने का हकदार हो जाता है।
दोपहर को एक अन्य प्रोफेसर के यहाँ लंच था। इंजीनियरिंग फेकेल्टी के 10-12 प्रोफेसर सपरिवार शामिल थे। दो-एक भारतीय पड़ोसी थे। मुकेश के पिता भी थे। मैं उनको 60-65 का समझ रहा था, लेकिन निकले वह जनाब 80 के। मैं अपनी प्लेट में खाना लेते हुए एक डोंगे की ओर बढ़ा, एक ने टोक दिया - ''यह नानबेज है।'' वह सज्जन प्लेट में मेरा खाना लेना बराबर देख रहे थे। मैं समझ नहीं पाया कि उन्होंने कैसे जान लिया कि मैं शाकाहारी हूँ। हो सकता है कि मेरी शक्ल उस किस्म की हो।
9 सितंबर
एक कहानी पूरी की है आज। बहुत-कुछ इसको न्यूजर्सी में लिख लिया था। बचे हिस्से को यहाँ पूरा किया। न्यूजर्सी में दोपहर के भोजन की व्यवस्था में जो समय देता था, वह भी यहाँ बच जाता है। सलहज रश्मि कोई जाब नहीं करती है।
कहानी जब मैं लिख लेता हूँ, मन में प्रश्न उठता है - कहानी लेखन क्या मेरी प्राथमिकता में आता है? उत्तर ''हाँ'' और ''ना'' दोनों में होने के कारण अस्पष्ट रहता है। स्पष्ट जो रहता है वह यह कि रचनाकार अपनी विधा से जैसा रिश्ता रखता है, वैसा ही विधा पलटकर उससे रखती है - गहरा, उथला, औपचारिक, अनौपचारिक।
कल सुबह उठकर जब दरवाजा खोला था, बाहर पानी गिर रहा था। पानी शायद चुपचाप रात भर गिरा था। फिर वह दिन भर गिरता रहा, झीना-झीना, बीच-बीच में रूका तो बस इतनी देर के लिए जितने में लंबे काम के बीच रोटी खाई जाती है, या चाय पी जाती है, या बीड़ी के कश लिए जाते हैं, या तन-मन को हरा करने के लिए कोई गीत गाया जाता है।
रात पानी शायद फिर नहीं गिरा। गिरा होगा तो बहुत कम देर।
आज सुबह जब टहलने निकला तो धुँध छाई थी, रोशनी के स्पर्श से मुदित। सड़क पर हल्का-सा गीलापन था, जैसे ताजा पोंछा लगा हो, या एक युवा देह श्रमजन्य पसीने से नम हो। लान की घास में हरापन कुछ ज्यादा ही आ गया था मानो वहाँ तोते का एक बड़ा झुंड उतरकर बैठ गया हो। यहाँ घरों के आगे रंग-बिरंगे फूल भी लगे हैं। जब घर एक दूसरे पर लदे नहीं होते हैं, उनमें खुलापन होता है। इस खुलेपन में प्रकृति चुपचाप अपना वास बना लेती है।
11 सितंबर
इधर दो शिक्षालयों में जाने का सुयोग बना। एक था मिडिल स्कूल तथा दूसरी थी यूनीवर्सिटी। शिवगोपाल की बेटी शुचि इसी वर्ष कक्षा पाँच की पढ़ाई पूरी कर एलीमेंटरी स्कूल से मिडिल में गई थी। यहाँ मिडिल स्कूलों में कक्षा 6 से 8 तक की शिक्षा दी जाती है। हाईस्कूल में कक्षा 9 से 12 तक। फिर कॉलेज में ग्रेजूएशन की डिग्री यहाँ इसे अंडर ग्रेजूएट कोर्स बोलते हैं, चार वर्ष की पढ़ाई के बाद मिलती है। इसके बाद ग्रेजूएट कोर्स दो वर्ष का होता है, भारत में जिसे पोस्ट ग्रेजूएशन करना कहा जाता है।
शुचि का स्कूल 10-12 दिन पहले ही खुला था। परसों ओपिन डे था। इस दिन संध्या को बच्चे अपने अभिभावकों के साथ उपस्थित होते हैं। मैं जब पहुँचा तब एक बड़े से मीटिंग हाल में स्कूल के बच्चे कोई कोरस गा रहे थे। कोरस के बाद लेडी प्रिंसिपल ने धन्यवाद देने तथा स्टॉफ का परिचय कराने जैसी कुछ औपचारिकताओं के बाद, जिनको फटाफट पूरा किया था, अभिभावकों से कहा कि वे अपने वार्ड के क्लासरूम में जाकर शिक्षकों से पाठ्यक्रम आदि के बारे में जरूरी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। कमरे, हाल, सब बहुत साफ-सुथरी थे, नए-निकोरे जैसे। हर क्लास में छात्र-छात्राओं की संख्या 22 से अधिक नहीं थी। स्कूल दोतल्ला था। नीचे का तल्ला कक्षा 6 के लिए था और ऊपर के तल्ले का एक पार्श्व कक्षा 7 के वास्ते था व दूसरा कक्षा 8 के वास्ते। प्रत्येक छात्र को बाहर गैलरी में अपनी पुस्तकें रखने के लिए लाकर दिया गया था। अनेक विषयों से संबंधित कोर्स थे। शिक्षकों में पुरुष व महिलाएँ दोनों थीं।
भारत में मेरे अपने शहर के पोस्ट ग्रेजूएट कॉलेज में भी इस तरह का रख-रखाव नहीं है।
एक बात और भी देखी। बच्चों के लिए कोई तयशुदा ड्रेस नहीं थी। बच्चों और शिक्षकों के बीच शिष्टाचार जन्य कोई दूरी भी नहीं थी। वे सहज मुद्राओं में खड़े थे और हँस-हँसकर बातें कर रहे थे।
यहाँ प्रारंभिक शिक्षा केवल उसी क्षेत्र के स्कूल में बच्चा प्राप्त कर सकता है जिसमें वह रहता है। चूँकि उस क्षेत्र के निवासी शुरू से ही शिक्षा-टैक्स देते हैं, इन स्कूलों में शिक्षा नि:शुल्क दी जाती है। अपने क्षेत्र से बाहर का स्कूल चुनने में, भारी शिक्षा-व्यय उठाना पड़ता है, जो हर किसी के वश का नहीं।
कल शाम मैं शिवगोपाल की यूनीवर्सिटी में उसकी फैकेल्टी देखने गया। शैम्पेन और अरबाना दो छोटे-छोटे शहर एक दूसरे से सटे हुए बसे हैं। दोनों शहरों के मिलन स्थल परयह यूनीवर्सिटी कायम है। शिवगोपाल ने बताया कि वैज्ञानिक उपकरण बनाने वाले एक व्यक्ति है; जिन्होंने बहुत पहले इस यूनीवर्सिटी से पी.एच.डी. की थी, उन्होंने विभाग की बिल्डिंग के लिए एक बिलियन डालर का दान दिया था। उसका बाहर स्टेच्यू लगा था। यहाँ जीवित व्यक्तियों के भी स्टेच्यू लगते हैं।
फैकेल्टी के प्रोफेसरों तथा रिसर्च स्कालरों के कमरे एक बड़े हाल में थे। यों पाँच बज चुके थे, कई प्रोफेसर व स्कालर अपने कमरों में कंप्यूटर के आगे बैठे कार्य कर रहे थे। जिन छात्रों ने पुरस्कार पाए थे या गुणाधार पर सम्मानित हुए थे, उनके नाम गैलरी में सूचनापट पर अंकित थे। प्रोफेसर का संक्षिप्त इतिवृत भी फोटो के साथ लगा हुआ था। इंजीनियरिंग विषय की अपनी बड़ी-सी लायब्रेरी थी। रिकार्डरूम भी। एक अलग बिल्डिंग में प्रयोग में काम आने वाली बड़ी-बड़ी मशीने थीं। वहाँ चप्पे-चप्पे से लग रहा था कि वह एक उच्च शिक्षा केंद्र है।
12 सितंबर
लान की घास काटने हर पखबाड़े 18-19 वर्ष का एक अमेरिकन लड़का आता है। 15 डालर ले जाता है। कई अन्य जगह भी घास काटता है। कटिंग मशीन वगैरह कार पर लादकर लाता है। कार यहाँ स्टेट्स सिंबल के बजाए जरूरत है। यह लड़का हाईस्कूल पास कर कॉलेज में गया है।
यहाँ के लोग अपना चर्च बेच देते हैं। जब उस चर्च के अनुयाई कम हो जाते हैं या दूसरे स्थान पर उससे बड़ा चर्च बनवा लेते हैं, तब उसको बेचने में अमेरिका के लोग कोई संकोच नहीं करते। शिकागो में एक चर्च को हिंदुओं ने खरीदकर उसे मंदिर की शक्ल दे दी है। 'क्रास' की जगह 'ओम्' लगा दिया और गीता रख दी। मुख्य भवन के साथ ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की।
14 सितंबर
शनिवार और रविवार को यूनिवर्सिटी में नेशनल गीता कांफ्रेंस हुई। चार इससे पहले यहाँ-वहाँ हो चुकी थीं। प्रायोजकों में यूनिवर्सिटी के कई विभाग और गीता आश्रम आफ अमेरिका तो थे ही, हिंदू स्टूडेंट्स कौंसिल भी थी। इस देश में भी हिंदू छात्रों की एक अलग जमात है, जानकर आश्चर्य हुआ हालाँकि नहीं होनी चाहिए थी। अल्पसंख्यकों में संकीर्णता स्वत: आ जाती है। अपनी पहचान की समस्या जो रहती है।
कार्यक्रम एकदम कसा हुआ था, सुबह से शाम तक। चाय, नाश्ता, भोजन का प्रबंध वहीं था।
कार्यक्रम तीन ट्रेकों में बाँटा गया था। प्रथम ट्रेक वयस्क व्यक्तियों के लिए था, दूसरा 12 से 18 वर्ष के आयु वर्ग के लिए तथा तीसरा इससे कम आयु वर्ग के लिए। तीनों ट्रेक तीन हॉलों में समानांतर चले थे।
मैं प्रथम ट्रेक में रहा। वहाँ उपस्थिति दो सौ के आसपास रही।
चर्चा में भाग लेने के लिए देश-विदेश के कई विद्वानों को बुलाया गया था। जो साधु-संत विद्वानों में घुसपैठ करने में सफल हो गए थे, उनमें से अधिकांश ने गीता की व्याख्या आध्यात्मिक और धार्मिक धरातल पर ही की, सो भी सतही। गीता आश्रम के प्रमुख 99 वर्षीय स्वामी हरिहर महाराज का परिचय देते हुए पहले कहा गया था कि देश के स्वतंत्रता-आंदोलन में भाग लेने के कारण, ब्रिटिश सरकार का उनके विरुद्ध वारंट था, वह अंडरग्राउंड हो गए थे और फिर उन प्रधानमंत्रियों, मंत्रियों और राजपुरुषों की एक लंबी सूची गिनाई गई थी जिनके संग-साथ में वह रहे थे। महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के संदर्भ से अपने को विशेष बनाना क्या अनजाने स्वयं को निशेष बनाना नहीं है? जब शब्द वही सत्तापूर्ण माना जाता है जिसे अपने में निहित अर्थ को विस्तार देने के लिए किसी विशेषण की आवश्यकता नहीं होती है, तब व्यक्ति क्यों नहीं? स्वामी हरिहर महाराज के अपने व्यक्तित्व का क्षरण तब और भी हो गया जब वह बिना किसी सूत्र को बताए हुए बताने लगे कि हर समस्या का हल गीता में है और प्राणी गीता का परायण करे। साधू-संतों ने भाषण तो अँग्रेजी में दिए थे, किंतु प्रार्थना और भजन हिंदी में गाए थे। सिद्धेश्वरी दीदी ने तो फिल्मी धुन की टेक पकड़ी थी। गनीमत रही कि साधू-संतों की भागीदारी अधिक नहीं थी। पचहत्तर प्रतिशत चर्चा स्तरीय थी, विषय को नए आयाम देते। हुए, अनेकानेक धर्मेतर अर्थों को उद्घाटित करती हुई जिसमें आज के समय में गीता का प्रासंगिकता भी सम्मिलित थी। भागीदारी करने वाले ये विद्वान कई विश्वविद्यालयों में उच्च पदों पर थे, इंजीनियरिंग, विज्ञान, गणित जैसे विषयों से जुड़े होने के बावजूद इन्होंने दर्शन, इतिहास, धर्मविज्ञान आदि का भी गहन अध्ययन कर रखा था और अनेक पुस्तकों के रचयिता थे। किसी ने गीता में ज्ञान, कर्म तथा भक्ति के समन्वय के संदेश को पाया था, किसी ने सतत जिज्ञासा के द्वारा ज्ञानार्जन के संदेश को, किसी ने गुरु के शिष्य के मानसिक धरातल तक उतरकर उसे शिक्षित करने के संदेश को। इंडियाना यूनिवर्सिटी में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रोफेसर गैराल्ड जेम्स लारेन की धारणा थी कि मानव समाज में आदमी के अपनी-अपनी जाति व वंश से जुड़ धर्म होते हैं, विचारों से जुड़े भी। महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी या पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह को मारने वालों के अपने-अपने धर्म थे। गीता को स्वधर्म के निर्वाह के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए। कई वक्ताओं को उनकी इस धारणा पर आपत्ति थी। मुझे भी लगा कि अपनी सोच की लंबी उड़ान दिखाने या एक सौ एक प्रतिशत मौलिक बनने के चक्कर में प्रो. लारेन ने अपनी प्रतिभा का दुरूपयोग किया है, यह भूलकर कि गीता में ही इस दुरूपयोग का तिरस्कार है। साहित्यालोचना में भी कई आलोचक अपनी बुद्धि की धाक जमाने या अभूतपूर्व बनने की नीयत से आलोच्य कृति के मूल मंतव्य से दूर रहकर मनमाने अर्थ करते हैं।
भारत से स्वामी अग्निवेश भी आए थे। यों वह भी अन्य संतों की तरह जोगिया वस्त्र धारण किए हुए थे, किंतु अंतस से जोगिया नहीं थे। उन्होंने हिंदी में बोलने की छूट चाही। कहा कि यद्यपि उनको अँग्रेजी भाषा का ज्ञान है और वह तेलगू हैं, किंतु हिंदुस्तान में जन-सामन्य के बीच कार्य करने के कारण हिंदी उनकी मातृभाषा बन चुकी है। केवल मातृभाषा में ही ह्दय की अंतरात्मा की बात पूरी तरह से सुनाई जा सकती है। कुछ लोगों के ना-नुच करने पर उनको यह कहकर शांत किया कि बीच-बीच में वह अपनी बात का अँग्रेजी में अनुवाद करते रहेंगे।
स्वामी अग्निवेश ने कहा कि जब हम किसी ग्रंथ या शास्त्र की केवल अकादेमिक व्याख्या करते हैं, या उसकी सूक्ष्मता में जाते हैं या उसे उच्च ज्ञान के स्तरपर देखने की कोशिश करते हैं, तब हम उसमें सन्निहित मुख्य अर्थों की उपेक्षा कर जाते हैं। अनीति अत्याचार, शोषण का विरोध करना ही गीता का मुख्य उद्देश्य है। अन्यायी यदि अपना सगा भी हो तो अन्याय को खत्म करने के लिए अन्यायी को खत्म करने में संकोच नहीं करना चाहिए। होता यह है कि हिंदुस्तानी कर्म पर विश्वास न कर देवी-देवताओं पर अधिक विश्वास करते हैं। हम भारत में लक्ष्मी की पूजा करते हैं, किंतु लक्ष्मी धन की वर्षा अमेरिका में करती हैं। देवी बनकर सरस्वती पुजती तो भारत में हैं, किंतु विद्या और ज्ञान यूरोप में बाँटती हैं। अकल्याणकारी तत्वों के साथ-साथ अज्ञान से लड़ना ही धर्म है। ईश्वर अन्य कोई नहीं, केवल सत्य है। सत्य के पक्ष में निर्भय तन कर खड़े होना ही ईश्वर की पूजा है।
स्वामी अग्निवेश के भाषण में इतना ओज जन्य सम्मोहन था कि एक घंटे की समय-सीमा समाप्त हो जाने पर भी श्रोताओं ने उनसे और बोलने को कहा तथा जब वह बोलकर मंच से नीचे आए, तो श्रोता उनके सम्मान में उठकर खड़े हो गए। पहले कुछ बुद्धिकुलीनों को झिझक हुई, किंतु अपनी संख्या नगण्य पाकर वे भी वैसा करने के लिए विवश हो गए। मुझे स्वामी विवेकानंद याद आ गए। शिकागो में जब उन्होंने भाषण दिया था, तब भी श्रोताओं पर ऐसा ही जादुई प्रभाव पड़ा था। मुझे यह भी याद आया कि आज 14 सितंबर है, हिंदी दिवस, भारत की राष्ट्रभाषा ने अपने दमखम का भी परिचय दे दिया।
महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी दो-एक दिन पहले ही इस यूनिवर्सिटी में विजिंग प्रोफेसर के रूप में आए थे। गीता को गांधी और बिनोवाने किस दृष्टि से देखा था, इस पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बताया कि गांधी हर वस्तु को पहले तर्क की कसौटी पर कसते थे। गांधी को इस पर विश्वास नहीं था कि युद्धस्थल पर, जब दोनों ओर की सेनाएँ आमने-सामने खड़ा थीं, गीता के रूप में कृष्ण-अर्जुन का संवाद दो-ढाई घंटे तक निर्बाध चलता रहा होगा। शत्रु ने क्यों कर उनको ऐसी छूट दे दी थी? गांधी ने महाभारत को एक आख्यान माना था। गांधी के विचार से कुरूक्षेत्र व्यक्ति का मन है और गलत-सही के बीच रास्ता चुनने के लिए स्वविवेक को जाग्रत करना होता है। गांधी और विनोबा ने गीता में सर्वोदय का संदेश पाया था।
''आपने अपने संबोधन में जिस तरह गांधी और विनोबा का नाम लिया है, क्या वह उनके प्रति अनादर नहीं है?'' भाषण के अंत में एक श्रोता ने प्रश्न दागा।
''मैं इतिहास का व्यक्ति हूँ जहाँ निस्संगता आवश्यक है। वैसे मेरे लिए ये दोनों ही इनके नाम के साथ जी लगाने वालों से कम आदरणीय नहीं हैं?'' राजमोहन गांधी की आँखें चश्मे के पीछे से बारीक-सा मुस्कुराईं।
21 सितंबर
कल शाम शैम्पेन से न्यूजर्सी बेटे के घर फिर आ गया। भारत से आए छह-सात पत्र इंतजार कर रहे थे, जिनमें तीन मित्रों के थे, एक मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के सचिव आग्नेय जी का था। लिखा था कि कहानी संबंधी पुरस्कार के वास्ते संग्रह मुझे शाहजहाँपुर के पते पर भेजे गए थे, मेरे विदेश चले आने के कारण उनको वापस मँगवाया जा रहा है। 'साक्षात्कार' के लिए यात्रा-संस्मरण भी माँगा था। पत्र में औपचारिकता का ठंडापन न होकर आत्मीयता की उष्मा थी। मित्रों के पत्रों ने भी अपनी उपस्थिति का भरपूर अहसास कराया।
22 सितंबर
समाचार-पत्रों में अश्वेत छात्रों का एक यूनिवर्सिटी के श्वेत प्रोफेसर के इस वक्तव्य का कि उच्च शिक्षा, विशेषकर तकनीकी शिक्षा, को अश्वेत छात्र पूरी तरह ग्रहण करने में अक्षम हैं, विरोध छपा था। उन्होंने कहा था कि प्रोफेसर के अंदर कुत्सित नस्ल भावना विराजमान है और उस भावना से यहाँ के गोरी चमड़ी वाले, कानून में समता का सिद्धांत लागू कर दिए जाने के बावजूद, अभी उबर नहीं पाए हैं।
चालीस वर्ष पूर्व अरकानसा के तत्कालीन गवर्नर ने वहाँ के एक सेंट्रल हाईस्कूल में फेडरल कोर्ट के निर्णय को अस्वीकार करते हुए अश्वेत छात्रों को प्रवेश देने से इनकार कर दिया था। तब राष्ट्रपति आइजनहावर को कानून का पालन कराने के लिए वहाँ फेडरल सेना भेजनी पड़ी थी। उस समय (1957) की स्थिति का वर्णन करते हुए एक अश्वेत महिला का बयान उस विरोध के साथ छापा गया था - ''विद्रोही भीड़ में मैंने एक ऐसे चेहरे की तलाश में अपनी नजर दौड़ाई जो जरूरत पड़ने पर मेरी सहायता में आगे आ सके। एक वृद्धा के चेहरे पर मुझे लगा कि यहाँ करूणा जन्य कोमलता है। भीड़ की उग्रता से घबड़ाकर जब मैंने दोबारा उधर नजर डाली, उस चेहरे ने मुझ पर थुक दिया।''
यद्यपि स्कूल-कॉलेजों में अब श्वेत छात्रों में अश्वेत छात्रों के प्रति वैसी टकराव की भावना नहीं है, वे उनके साथ ही खेलते हैं, अन्य क्रिया-कलापों में भी उनकी सह-भागीदारी रहती है, किंतु जब खाने बैठते हैं या अन्य सामाजिक गतिविधियों में भाग लेते हैं, तब आज भी श्वेतों का अलग गुट हो जाता है और अश्वेतों का अलग। मानवीय मूल्यों की नेतागीरि करने वाले इस देश की यह सच्चाई है।
25 सितंबर
आज जब सुबह बाहर घूमने निकला तो अच्छी-खासी सर्दी थी, उत्तर भारत के दिसंबर माह जैसी। कल शाम को जब सुषमा के बड़े भाई के घर से खाना खाकर चला था तभी से हवा में सर्दी घुलने लगी थी। आसपास कहीं बर्फ गिरी थी। सर्दी का यह तेवर यों अस्थायी है, किन्तु वह आगाह कर रही है कि खबरदार मैं आ रही हूँ। अभी शर्ट, स्वेटर तथा ऊनी पेंट पहनकर में बाहर निकला था, लेकिन चेहरा, हाथ की अँगुलियाँ, यानी जिस्म के वे अंग जो खुले हुए थे, सर्दी का सामना करने में अपने को निहत्या महसूस कर रहे थे। जिस्म में गर्मी बनाए रखने के लिए मैंने चाल तेज कर दी थी। तब मुँह से निकलने वाली साँस भाप की तरह गाढ़ी पड़ने लगी थी। जुलाई माह में जब टहलने निकलता था तो सूरज छह बजे से ही आसमान को रंगने लगता था। आज सात बज रहे थे और वह अभीतक कहीं दुबका हुआ था। सड़क पर कोई घूमने वाला नजर नहीं आ रहा था। हाँ, कुछ घरों से लोग निकलकर पटरी पर पुराने अखबारों के बंडल तथा रिसाइ किलिंग योग्य प्लास्टिक व अल्मोनियम की दूसरी चीज़ें पालीथिन के थैलों या निर्धारित वास्केटों में भरकर बाहर जरूर रख रहे थे। कूड़े के बैग उठाए जाने के साथ-साथ आज रिसाइकिलिंग वाले सामान को भी उठाए जाने का दिन था। स्कूल की दो पीली बसें भी नजर पड़ीं। उनमें बैठे बच्चे स्वेटर, जैकेट वगैरह पहने थे।
घर आया तो हीटिंग सिस्टम चालू हो चुका था। जिस्म को राहत मिली।
27 सितंबर
पाँच-छह वर्ष पहले कुछ लोगों ने यहाँ के पुरुषों में घर-परिवार के प्रति वफादार रहने के लिए एक आंदोलन छेड़ा था या अंतरात्मा जागरण। जिस दिन इसे छेड़ा गया था, उसे 'प्रामिज कीपरस डे' कहा जाने लगा। हर वर्ष इससे जुड़ने वालों की संख्या, बढ़ने लगी। वह दिन फिर आ रहा था और मीडिया में इसका लेकर चर्चा थी। इस दिन पति चर्च में जाकर कसम खाएँगे कि वे अपनी पत्नी तथा बच्चों के प्रति निर्दयी नहीं बनेंगे, दूसरी औरतों से संबंध नहीं रखेंगे और घर-परिवार के प्रति पूरी जिम्मेदारी निभाते हुए उच्च जीवन मूल्यों का संरक्षण करेंगे। सार्वजनिक रूप से कसम लेने के बाद पति घर आकर पत्नी के पैर धोता है और विगत में की गई गलतियों के लिए क्षमा याचना करता है। कहा जाता है कि बहुत से रोते-बिसरते घरों में इस आंदोलन के कारण खुशियाँ वापस आ गई हैं।
29 सितंबर
यकीनी तौर पर सर्दी आ ही गई है। सूरज जो इस सर्दी को कुछ पीछे खदेड़ सकता है, सामने आने से बच रहा है। जानता है कि अगले कुछ माह का समय अक्टूबर से अप्रैल तक का सर्दी के खाते में लिखा है। जब लिखा है तो इस पर उसका कानून नहक है। कल रात कुछ देर पानी गिरा था। सुबह जब घूमने के लिए दरवाजे से बाहर कदम बढ़ाया तो झींसी चेहरे पर पड़ती महसूस हुई। हवा खूब तेज चल रही थी। कंपाउंड में खड़े दरख्त उल्लास के साथ झूम रहे थे। तय कर नहीं पाया कि झींसी दरख्त की भीगी पत्तियों से आ रही है या आकाश से। सफेद, सलेटी बादल तेजी से भाग रहे थे। काफी नीचे होने की वजह से उनके दौड़ने की गति साफ नजर आ रही थी। दरख्तों से झरती हुई पत्तियाँ तितलियों की भाँति लग रही थीं। एक पक्षी इस उस दरख्त पर बैठकर कूंज रहा था। पानी गिरने की आशंका से अंदर आकर बैठ गया। आध घंटे के बाद फिर बाहर कदम निकाला। मौसम वैसा ही था। पानी गिरेना नहीं, ऐसा मानकर फिर बाहर निकल ही पड़ा। जब सुबह का टहलना दिनचर्या का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका हो तो उसका न किया जाना मन के कपाट पर दस्तक देता रहता है। जितनी दूर तक जाता था, उतनी दूर तक तो नहीं गया, लेकिन फिर भी पंद्रह मिनट का टहलता तो गया। स्टाप पर स्कूल के बच्चे बस के इंतजार में खड़े थे। गैरेज खुल रहे थे और उनमें से कारें निकल कर आ रही थीं, सड़क पर भागती दूसरी कारों में शामिल होने के लिए।
इधर कुछ दिनों में कुछ दरख्त एकदम लाल रंग में रंग गए थे। कुछ में वसंती और लाल रंग दोनों थे। कहीं-कहीं ऊदा भी। मेरे कंपाउंड में एक पेड़ ऐसा था जिसकी सबसे ऊपर की फुनगियों पर दस-पाँच पात्तियाँ थीं। शेष सारी सूखी थीं, पत्रहीन। मैं जब से यहाँ आया हूँ उसे ऐसा देख रहा हूँ। लगता है कि पेड़ मर चुका है। जीवित होता तो इसकी निचली में हरीतिमा होती। ऊपर की दस-पाँच पत्तियों बस अटकी हुई साँसों का आभास देती हैं या से निशेष होती चमक का।
30 सितंबर
प्रेम-सुषमा ने मकान के बेसमेंट में मरम्मट का काम शुरू कराया हैं। बेसमेंट की सीलिंग काफी खराब हो चुकी थी। बीच में पार्टीशन की भी जरूरत थी। किचन की फ्लोरिंग भी अपने को बदला जाना माँगती थी। भारत में जिसको हम कारपेंटर कहते हैं, फर्क इतना होता है कि वह बिजली व पेटिंग का काम भी जानता है। जानता ही नहीं, हिस्सा बन गए उन कार्मों को करता भी है। काम कर रहे क्राफ्टमैन का नाम ओलिवर वीयर है। जर्मन है। पच्चीस वर्ष पूर्व वह हिंदुस्तान गया था। तब हिप्पी था। बहुत ही बातूनी है, मसखरा भी। मसखरापन उसके गोल चेहरे और नीलि आँखों में बराबर मौजूद रहता है, एक खिली हुई चमक के साथ। जितना खुद लंबा-तगड़ा है, उतना ही लंबा-तगड़ा उसका सहायक है, यों वह बहुत ही कम बोलता है। इसके सारे औजार बिजली से चलते हैं। इलेक्ट्रिक स्कू-ड्राईवर की मदद से स्कू सेकेंड़ों में लकड़ी में धँस जाते हैं। स्टोर से जरूरत की पैमाइश वाली लकड़ी के फ्रेम व शीट्स अपनी शेवरलेट गाड़ी में सुबह लेकर आते हैं। गाड़ी की एक हेडलाइट के अलग हो रहे अपनी शेवरलेट गाड़ी में सुबह लेकर आते हैं। गाड़ी की एक हेडलाइट के अलग हो रहे शीशे को टेप से हिलगा रखा है। इस टेपबाजी से गाड़ी बिना बतलाए हुए किसी क्राफ्टमैन की लगती है। यहाँ अपने काम को लेकर करने वालों में कोई हीन भावना नहीं हैं। दूसरों से बराबरी से बातचीत करतें हैं। मकान मालिक का वाशबेसिन व बाथरूम बेझिझक इस्तेमाल करते हैं। पैसों को लेकर कोई सौदेबाजी नहीं। जो कह दिया वही लेंगे।
लोग अपने मकान व विवाह से बने अपने रिश्ते छोड़ने में यहाँ अधिक देर नही करते हैं। मकान बदलने का एक कारण नौकरी बदलना होता है। नौकरी वाली जगह से मकान 25-30 मील से अधिक फासले पर नहीं होना चाहिए। बदलने का एक कारण यह भी होता है कि बच्चों के लिए अच्छा सरकारी स्कूल कहाँ है। रिश्ते बदलते का कारण परस्पर विचारों या आचारों में फाँक, यौन आस्वाद के नएपन के लिए दूसरों से संबंधों का बनना तथा बिमारी या अन्य सबब से पति-पत्नी का एक दूसरे पर बोझ बन जाना होता है। बच्चे माँ के साथ रहेंगे या पिता के, अलग होते हुए जैसा तय हो गया। यह देश सिंगिल पेरेंट का देश है।
1 अक्टूबर, 1998
बड़े भाई का बेटा सैनफ्रंसिस्को में है। यह यहाँ का चौथा बड़ा नगर है। कुछ दिनों पूर्व उसने मुझसे पूछा था - ''चाचा जी, इधर आप कब आ रहे है?" एक हफ्ता पहले वह अपने पिता को देखने भारत चला गया। बड़े भाई की तबियत संभलकर एकाएक फिर बिगड़ गई। पाँच-छह दिवस लखनऊ फोन किया था। बताया गया कि डॉक्टरों ने दिलासा दिया है। आज शाहजहाँपूर फोन किया। छोटे भाई ने कुछ लम्हों की चुप्पी के बाद घर ले आए गए हैं। हालत बहुत नाजुक हैं। पत्नी ने कहा-दिल्ली एयरपोर्ट पर मुझे लेने कोई आदमी पहुँचेगा। सत्रह की बजाय मेरा वापसी का टिकट तीन अक्टूबर का बन गया था। मुझे लगा कि बड़े भाई को लेकर कोई बहुत बुरी खबर है जिसे मुझसे छिपाया जा रहा है। आते हुए मैं उनके शेव बढ़ जिस बोलने चेहरे को नर्सिंग होम निश्चिंतता से छोड़ आया था, वह निशब्द चेहरा मेरी आँखों में आकर अटक गया।
डायरी अब बंद कर रहा हूँ।