एक और यात्रा हस्तिनापुर की।
अवसर एक बड़े साहित्यिक आयोजन की।
प्रधानमंत्री द्वारा संचालित स्वच्छता अभियान को मैं प्रतीकात्मकता भाव से लेती हूँ। स्वच्छता या शुचिता केवल बाह्य परिवेश की नहीं, अंतर्मन की भी! ...सभी धर्मों, संप्रदायों, जातियों और विचारों के संतुलित समादर की, 'संगच्छहवं, संवदहवं, संवो मनासि जानताम्' वाली अनुभूति की...!
मनो जगत की अस शुचिता को ध्यान में रखते हुए विश्वकवि रवींद्र नाथ ठाकुर ने गान गाया था-
नाइ, नाई भय,
खुले जाबे एइ द्वार...!
शताब्दियों से हमने अपने हृदय-द्वार को उन्तुक्त रखा है। प्रतिवेशियों के लिए, जिज्ञासु विश्ववासियों के लिए...!
ह्वेन सांग, मेगास्थनीज और दूरस्थ देशों से आने वाले कितने ही अज्ञात, अनाम पथिकों की ज्ञान-पिपासा दूर करने वाली हमारे पुरखों की यह मंत्रपूत धरणी!
अजनबी को भी अपनत्व देने वाले, पीड़ा कातर मनुजता के आँसू पोंछने वाले, जीवमात्र के लिए संवेदना की रसधार बहने वाले इस देश की सबसे बड़ी शक्ति है अपनी संस्कृति के प्रति गहरी निष्ठा! ऋषियों, ऋषिकाओं, महान संतो, दार्शनिकों, शब्द शिल्पियों की इस तपोभूति पर वसुधैव कुटुंबकम् की उदार अवधारणा एक गहरे सम्मोहन के रूप में फलित है। तभी तो प्रवासी चिरई-चुरुंग भी यहाँ आते हैं अपना सुखद समय व्यतीत करने के लिए!
दुग्ध धल राजहंसों-सा शुभ्र, सात्विक है भारत का मन! प्राण-प्रणव ओंकार की ध्वनि से विश्वात्मा को आंदोलित करने वाले इस देश का सनातन मनोभाव है -
अतिथि देवो भव!
संयोग कहूँ या दुर्योग, इस बार जो अतिथिशाला मिली, वहाँ से बेहद यंत्रणादाई अनुभवों का काषाय आसवाद लेकर घर लौटी हूँ।
भारत सरकार के अखिल भारतीय संस्थान का वार्षिक अलंकरण समारोह! सदस्य होने के नाते जाना लाजिम और सुखद भी! देश के साहित्यिक सेतुबंध की निर्मिति में एक नन्हीं गिलहरी की तरह अपना भी कुछ तो योगदान होगा! देश की समस्त संविधान सम्मत भाषाओं के साहित्य सेवियों को सम्मानित करने की महती प्रक्रिया में मुझे भी अपनी भागीदारी सुरक्षित करनी थी।
'गो एयर' की उड़ान अतिशय विलंब से थी। रात्रि ग्यारह बज कर पैंतालीस मिनट पर 'गॉड सेव द किंग' की अंतर्ध्वनि से गुजायमान उस परिवेश की प्रथम अगवानी कुछ इस प्रकार थी -
सॉरी मैम, चाय काफी का समय समाप्त हो गया है।
एक ग्लास गर्म पानी मिलेगा?
सॉरी मैम, हमारा डाइनिंग हॉल बंद हो चुका है।
गौरांग प्रभुओं के स्मृतिशेष इस टूरिस्ट आवास में देश भर से आए हुए साहित्य सेवियों के ठहराव की व्यवस्था है।
मुझे मेरा कमरा दिखा दिया जाता है। ओ.के. स्वप्नों की रटी-रटाई शुभेच्छा देकर डेविड जा चुका है।
कमरे की चौहद्दी पर थकान भरी दृष्टि डालती हूँ।
एक खाली जगह, दो ग्लास, काठ की दो कुर्सियाँ, बालकनी की तरफ खुलता एक दरवाजा और छोटी-सी खिड़की!
मैं पूछती हूँ -
थोड़ा पानी मिलेगा?
डेविउ को सोने की जल्दी है - सॉरी मैम, मिनरल वाटर खत्म हो गया है। बड़ी आजिजी के साथ कबीर दस्तक देने लगते हैं -
एही नगरिया में केहि विधि रहना...?
राँची की अपनी शांत, सौम्य सेविका सुमी याद आती है - मेरी सुख-सुविधा का सदैव ध्यान रखने वाली!
भूख प्यास और थकान से भरी नींद का एक झोंका! सैलानी तबीयत वाले बाबूजी के शब्द कानों में गूँजने लगते हैं -
इसलिए कहता हूँ, हमेशा अपने साथ थोड़ा-सा पाथेय अवश्य रख करो! इसे यात्रा का मूल मंत्र मानो।
दूसरे दिन!
दिन के नौ बजे से रात्रि समारोह की समाप्ति तक के लिए तैयार होना है।
नित्य जप, ध्यान, प्राणायाम के पश्चात मैं दूरभाष की ओर मुड़ती हूँ।
शून्य पर उँगली रखते ही वही अन्य मनस्क स्वर सुनाई देता है -
आपको नाश्ते के लिए डाइनिंग हॉल में आना होगा।
देखिए हमारे यहाँ सिर्फ बीमारों को ही कमरे में नाश्ता आदि देने का नियम है।
बीमार पड़े मेरे दुश्मन!
मेरे भीतर स्फूर्ति आती है।
मैं कमरा बंद करती नीचे उतर आती हूँ।
यह भेजन कक्ष है।
कुछ गौरांग अतिथि, राय बहादुरी अंदाज वाले अँग्रेजी परिधान से सुसज्जित कतिपय सैलानी। कमरे का माहौल अप्रिय गंध से भरा हुआ। दुस्सह!
श्रीनगर से आए एक साहित्य सेवी बंधु ने आवाज दी -
आइए, यहाँ कुर्सी खाली है।
बड़े-बड़े थालों में सजे अयाचित पकवानों को देखकर मेरी भूख गायब हो चुकी थी।
वे सज्जन भी दुखी थे-
यह स्थान हमारे ठहरने लायक है क्या?
आपने देखा हो, प्रत्येक कमरे में काली जिल्द वाला वह ग्रंथ... !
मैं नीरव थी।
शैशवा वस्था से ही मैंने अपने पैतृक आवास में सर्वधर्म समभाव का सुंदर अनुभव सहेजा था। राष्ट्रधर्म की उदारता का पाठ मेरी पितामही ने पढ़ाया था! मेरे पितामह संपादकाचार्य पंडित नंदकिशोर तिवारी ने 'चाँद' पत्रिका में भगतसिंह के अनेक लेख छद्म नाम से प्रकाशित किए थे।
राजेश मुहम्मद जैसे सुप्रसिद्ध रामायणी मेरे पिता के शिष्य थे।
झारखंड की कीरीबुय कस्बे की हेलेन मिंज मेरी अत्यंत प्रिय शिष्या थी। उसकी माता जी चावल की बनी नमकीन रोटी बड़े प्रेम से खिलाती थीं।
मेरे समवयस्क कश्मीरी लेखक के स्वर में पीड़ा भरा उपालंभ था-
सुना, कतिपय खास लोगों को खास स्थानों पर ठहराया गया है। आयोजकों ने यहाँ ठहरा कर एक प्रकार से हमारा अपमान ही तो किया है। इससे अच्छा होता किसी तबेले में ठहरा दिया होता। वहाँ कम से कम आजादी की साँस तो लेते न!
मैंने तय किया -
अपने भोजन पानी का प्रबंध स्वयं कर लेना ही उत्तम होगा।
अंतत: बंगाली बाजार का भोजनालय मेरा आश्रय बना।
मेरे बाबूजी के समय के परिचारक हरीसिंह बड़ी मुस्तैदी से मिले।
तवे की रोटियाँ, हरी सब्जी, सलाद, रायता और छाछ!
पाँच दिनों तक उनकी मेहमान नवाजी ने मेरी समसत पीड़ा का शमन किया।
भूल जाना चाहती हूँ मैं उस कृतिम आंग्ल परिवेश को।
आवागमन पंजिका पर दृष्टि टिकाए बेलौस खड़ी उन पाषाणी आकृतियों को!
वहीं मिले रेत की नदी में शाद्वल बनकर बड़ी प्यारी देशज मुसकान बिखेरते, उन्मुक्त से हमारी अभ्यार्थना करते बलवंत सिंह, उत्तरांचल के प्रवर पुरुष!
उस काठ बस्ती की मेरी आखिरी शाम! मेरे दोनों हाथों में दोभारी थैले थे - प्रिय दौहित्र राजर्षि के लिए कहानी की पुस्तकें, खिलौने, नाथू की मिठाइयाँ और अपने लिए अगली भोर के जलखावे का प्रबंध! बलवंत त्वरित गति से से आगे बढ़े-
लाइए, ये थैले मैं आपके कमरे तक पहुँचा दूँ।
आभार- प्रदर्शन की औपचारिकता पीछे छूट गई थी। उनकी आत्मीयता ने अनायास ही एक स्नेह-डोर में बाँध लिया था!
बलवंत तुलसी बाबा का दोहा गुनगुनाते नीचे उतर रहे थे -
आवत ही हरषे नहीं, नैनन नाहिं सनेह
तुलसी तहाँ न जाइए, जहँ कंचन बरसे मेह।
क्यों भाई आप यहाँ?
आपको यहाँ नहीं ठहरना चाहिए था। अपको पता है यहाँ विदेशियों के लिए कहीं कोई पाबंदी नहीं है, कोई नियम कानून नहीं है।
मेरी नौकरी की विवशता है। पर, आप जैसे लो...।
विगत संध्या का दृश्य मेरी आँखों के सामने था। ऋचा, मेरी भ्रातृजा मुझसे मिलने आई थी। वह अस्वस्थ थी और मेरे कमरे में थोड़ी देर विश्राम करना चाहती थी। काठ बस्ती के पहरुए ने कर्कशता भरी हाँक लगाई थी-
कहाँ जा रही हैं? किसी भी बाहरी व्यक्ति को कमरे में जाने की इजाजत नहीं है। पर यह तो मेरे घर की बिटिया है... कहा न, हमारे यहाँ का यही नियम है।
स्वाधीन भारत की नागरिकता लेकर जन्म लेने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। ब्रिटिश लालफीता शाही के किस्से अपने पुरखों से सुनती रही थी मैं।
इन पाँच दिनों में साम्राज्यवादी हुक्मरानों के अवशिष्ट का जो कड़वा अनुभव मुझे मिला, वह दु:खद था।
भीतर भीतर सब रस चूसै... वाली दशा अब भी शेष है। ऐश्वर्य का विपुल स्रोत, जाहिर बातन में अति तेज, भेदभाव की वही पुरानी बानगी! कौन कहता है कि अँग्रेज चले गए। कलफदार, अकड़े हुए चेहरों वाले उनके कलछौंहे वंशज ऐसे आंग्ल भवनों में आज भी प्रेतरव करते देखे जा रहे हैं।
मैं अपना असबाब लिए विदा हेतु बाह्य कक्ष में खड़ी हूँ।
बलवंत पूछते हैं -
आपका नाश्ता?
धीरे सिर हिलाती हुई मैं उन्हे आश्वास्त करना चाहती हूँ
बलवंत भाई,
शूली पर टँगे प्रभु की अशेष करुण मूर्ति को देख रहे हैंन आप!
यह कोमल मुसकान आपकी आत्मा में सहेज कर यहाँ से जा रही हूँ मैं!
बलवंत सिंह की पलको पर आँसुओं का भींगापन है-
बहिनजी कुछ भूल-चूक हुई हो तो माफी...
प्रभु की करुण विगलित छवि मुझमें जीवंत हो उठती है-
ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं!
इन्हें क्षमा करती जाओ! !