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यात्रावृत्त

मेघालय का जीवंत उत्सव

विश्वमोहन तिवारी


हमारा पूर्वोत्तर अभी तक सुंदर रहस्यों से भरा पड़ा है। उसमें भी मेघालय मानो रहस्य को छिपाने वाले मेघों से अधिकतर आच्छादित रहता है। शायद इसीलिए मेघालय घूमने में दुहरा आनंद आता है पहली बार तो रहस्य में गुँथे सौंदर्य का और दूसरी बार उस सौंदर्य में गुँथे रहस्य का।

भारतीय संस्कृति में जीवन में उल्लास और आनंद लाने के लिए त्योहारों और उत्सवों की भरमार है। यह दुख की बात है कि महानगरों के लोग संस्कृति के अन्य अंगों की तरह त्योहारों और उत्सवों को या तो भुलाते जा रहे हैं या उन्हें वे अब मात्र अपने सोफे पर बैठकर काँच के पर्दे पर दिखाए जाने वाले नकली क्रिया कलापों को देखकर मनाते हैं। जिस तरह भोजन का स्वाद पर्दे पर भोजन को देखने से नहीं आ सकता, उसी तरह उत्सवों का आनंद पर्दों पर देखने से नहीं आ सकता। संगीत का आनंद तो टीवी के पर्दे के द्वारा लिया जा सकता है, किंतु सावन के झूले का आनंद! किंतु कभी कभी हम उत्सवों में सक्रिय भाग नहीं ले सकते हैं, तब उन उत्सवों में जाकर, उनके बीच रहकर, देखने का भी एक आनंद तो है, चाहे वह 'सक्रिय' रूप में प्राप्त न हो, किंतु सतरंगी पर्दे से अधिक हृदयग्राही होता है।

मेघालय के पूर्वी हिस्से में मुख्यतया जयंतिया जनजाति रहती है। इनका एक उत्सव है 'बेहदियनख्लाम'। इसका भावार्थ है बीमारियों तथा गरीबी को वृक्षों तथा प्रकृति की सहायता से दूर भगाना। हजारों वर्षों से यह उत्सव प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में खेतों में बोनी करने के बाद मनाया जाता है। जयंतिया क्षेत्र का एक प्रमुख नगर है जवई जो शिलांग से 64 किलोमीटर दूरी पर है। हमारे यहाँ प्रकृति के साथ एक होकर रहने की, उसके साथ उत्सव मनाने की सुदीर्घ सुस्थापित परंपरा है, जिसे महानगरी लोग पश्चिमी भोगवादी संस्कृति के संलिष्ट जीवन के दबाव में आकर भुलाते जा रहे हैं, किंतु पूर्वांचल में वे परंपराएँ अभी भी जीवंत हैं।

अपने जयंतिया मित्र श्री रिंबई के अनुरोध पर मैं सपत्नीक जवई पहुँचा इस उत्सव का आनंद लेने। जैसे ही मेरी कार ने जवई में प्रवेश किया तो लोगों की चहल-पहल से ही उनकी उमंग स्पष्ट दिखाई दी। लोग रंग बिरंगे कई मंजिलों वाले एक ऊँचे झाँकी स्तंभ को कंधों पर लेकर चल रहे थे। वह झाँकी बहुत सुंदर तो थी किंतु उसमें किसी भी देवी या देवता का चित्र या मूर्ति नहीं थी। जुलूस एक पवित्र ताल की तरफ जा रहा था। जब हम श्री रिंबई के घर पहुँचे तब उनके बड़े भाई तथा भाभी ने 'खुब्लै' अर्थात 'भगवान का आशीर्वाद आपके साथ रहे' कहकर हम लोगों का स्वागत किया। उन दोनों के चेहरों पर आतिथ्य सत्कार की खुशी चमक रही थी। जवई जैसी सुदूर जगह में रहते हुए भी श्रीमती रिंबई बनारसी जरी की सुंदर साड़ी पहने हुए थीं। वे हमारे साथ बैठी ही थीं कि बाहर से किसी ने आवाज दी। उन्होंने छाँग अर्थात चावल से बनी हुई हल्की मदिरा का पात्र उठाया और बाहर गईं। मैं भी उत्सुकतावश साथ गया। तीन युवक एक वृक्ष की हरी भरी डालियाँ उनके दरवाजे पर लगा रहे थे। श्रीमती रिंबई ने शुभकामनाओं के साथ उन्हें आधा आधा गिलास छाँग दी जिसे पीने के बाद 'खुब्लै' कहकर वे चल दिए।

बाहर सड़क पर भीड़ बढ़ रही थी। जुलूस झाँकी स्तंभ लिए जा रहा था। पूछने पर श्री रिंबई ने बतलाया कि खासी लोग निराकार भगवान में विश्वास करते हैं इसलिए झाँकी में भगवान की मूर्ति या चित्र नहीं है। वे आगे बोले, 'आज का त्योहार भगवान तथा प्रकृति से अपनी फसल की संवृद्धि की प्रार्थना का तथा दुष्ट आत्माओं से अपनी रक्षा की प्रार्थना का त्योहार है। हम लोग प्रकृति की पूजा करते हैं। वे ऐसे बहुत से कारणों को जो या तो बीमारी पैदा करते हैं, या मानसिक संताप, 'दुष्ट आत्मा' के अंतर्गत अभिव्यक्त करते हैं। और उन्होंने अनुभव किया है कि प्रकृति से एकरूप होने से वे बीमारियाँ या संताप दूर हो जाते हैं। हजारों वर्षों से वृक्षों और वनों से अपनी समृद्धि की प्रार्थना करते हैं, जब कि पाश्चात्य संसार को वनों का महत्व आज उन्हें खोने के बाद मालूम हो रहा है।

तीन बज चुके थे और समारोह चार बजे से प्रारंभ होने वाला था, इसलिए हम लोग अपने घर से निकल पड़े। रास्ते में भीड़ और उसका उत्साह कुछ वैसा ही था जैसा कि 'पूजा' में दुर्गा की मूर्ति विसर्जन के लिए ले जाते समय होता है या कि महाराष्ट्र में गणेश विसर्जन के समय। वह भीड़ थी आनंद की जिसमें डूबते उतराते हम लोग बह रहे थे।

जब हम लोग उत्सव स्थल पर पहुँचे तो उस अनोखे वातावरण को देखकर मैं चकित हो गया - इतने सारे लोग, इतना उत्साह, इतनी हिम्मत - क्योंकि तब तक पानी भी बरसने लगा था, लेकिन कोई भाग नहीं रहा था, हाँ थोड़ी संख्या में छाते अवश्य खुले थे। वह पवित्र छोटा ताल चारों तरफ कई पहाड़ियों से घिरा था और लोगों के झुंड उन पहाड़ियों पर रंगीन फूलों के समान बिखरे दिख रहे थे। आठ झाँकियाँ पहुँच चुकी थीं और कुछ आ रही थीं। स्पष्ट था कि कलकत्ते की दुर्गापूजा तथा मुंबई की गणेश पूजा जैसा भ्रष्ट आधुनिकीकरण अभी जयंतिया में नहीं पहुँचा था।

चार बजे उस पवित्र ताल में, पुजारियों ने मंत्रोचार के साथ प्रवेश करते हुए उत्सव का समारंभ किया। फिर उन्होंने लंबे बाँसों से उस ताल के पानी को पीटते हुए दुष्ट आत्माओं को भगाया। पहली झाँकी वाले लोगों ने उस ताल में परिक्रमा हेतु प्रवेश किया और उनके साथ उनके समूह ने भी। वे लोग उस पानी को अपने ऊपर तो छिड़क ही रहे थे, किंतु दूसरों पर भी डाल रहे थे और कुछ लोग तो उसमें डुबकी भी लगा रहे थे जो कि कई दृष्टियों से बड़ी हिम्मत का काम था। एक तो उस ताल में इतने अधिक आदमी थे कि उसमें पानी देखना मुश्किल था। दूसरे, सभी लोग उस घुटने घुटने पानी में तेजी से परिक्रमा लगा रहे थे। और तीसरे, उस पानी का इतना मंथन हो गया था कि वह पंकमय हो गया था। केवल दीर्घ अनुभव संपुष्ट श्रद्धा ही उन्हें इतना साहस दे सकती थी। तीन परिक्रमाओं के बाद उस झाँकी स्तंभ को लगभग दो सौ गज दूर तक छोटी सी नदी में विसर्जन हेतु ले जाया गया। पूजा की यही प्रक्रिया सभी झाँकियों ने उल्लासपूर्वक मनाई। वे सारे लोग, उस पवित्र ताल में प्रवेश करते ही मानों उल्लास की ऊर्जामय तरंगों में परिणित हो जाते थे।

इतने में मैंने देखा कि किसी वृक्ष के कोई तीस फुट लंबे तने को गरिमापूर्वक लेकर एक जुलूस उस ताल में लाया। उसे देखते ही सारे लोगों ने उनके लिए वह स्थान एकदम खाली कर दिया। बाद में, अन्य लोग उस ताल में आते गए कि जब तक वह ताल लोगों से लबालब भर नहीं गया। फिर मंत्रोच्चार के साथ उस खंभे को ताल बीच में, येन केन प्रकारेण, लाया गया। लग रहा था कि वह खंभा मानों विशाल और शक्तिशाली अस्त्र है जो सब लोगों की दुष्टों से रक्षा करने में सक्षम है। फिर उस शक्ति के प्रतीक को आड़ा किया गया। ताल की उस दुर्दमनीय भीड़ में यह सारे कार्य इतने अनुशासित ढंग से हो रहे थे कि मुझे बहुत अचरज हो रहा था। फिर दोनों दलों के लोगों ने उस खंभे को आधा आधा पकड़ा और उस खंभे के साथ रस्साकशी शुरू हो गई। प्रत्यक्ष रूप से यह दृश्य लघु समुद्र-मंथन सा लग रहा था किंतु उनमें देवों और दानवों का विभाजन नहीं था। उसमें से विष तो तनिक भी न निकला हाँ आनंद रूपी अमृत अवश्य निकल रहा था - एक कलश भर नहीं वरन - एक फुहारे के रूप में। मुझे लगा कि बेहदियनख्लाम के इस एक उत्सव में हमारे तीन उत्सवों - बंगाल की दुर्गा पूजा, जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा तथा उत्तर भारत की होली - का पुण्य और आनंद समाया था। इस उत्सव में जयंतिया के कमिश्नर से लेकर किसान तक, सभी स्तर के लोग, पूरा पूरा भाग ले रहे थे।

लौटते समय मेरी पत्नी ने कहा, 'यह सच है, साहित्यिक कल्पना नहीं, 'ये खासी जयंतिया लोग बड़े अजीब हैं जो उस तालाब के कीचड़ में लथपथ होकर खुश हो रहे थे।' मैंने कहा, 'तुम जानती हो कि मेघालय में वर्ष में नौ माह वर्षा होती है, और पहाड़ी होने के बाद भी यहाँ वहाँ कीचड़ हो जाता है। जब तक यहाँ के रहने वाले आदमी वर्षा, तालाब, मिट्टी, कीचड़ जैसी जीवनदायिनी शक्तियों से आत्मीय संबंध स्थापित नहीं करेंगे, दुखी रहेंगे, प्रकृति के साथ एकरस नहीं होंगे, तब तक ऊपर कैसे उठेंगे! यह जल तथा मिट्टी अभी पाश्चात्य सभ्यता से प्रदूषित नहीं हुई है। इसमें स्वाभाविक औषध गुण हैं जिनका लाभ इन प्रकृति प्रेमियों को मिलता है। प्राकृतिक चिकित्सा में मिट्टी स्नान का बहुत महत्व है। प्रकृति की जीवनदायिनी शक्तियों से विरोध या अलगाव कैसा? यही अलगाव तो दुखों और हताशाओं को जन्म देता है। हमारी संस्कृति की यही तो शक्ति है कि वह प्रकृति से, परिवेश से हमारी आत्मीयता स्थापित करती है। हममें कर्तव्यों के प्रति प्रेम और निष्ठा पनपाती है और हमारे जीवन में आनंद और उल्लास की वर्षा करती है। जयंतिया के लोग अपनी संस्कृति की कृपा से अपनी मिट्टी की गंध और वर्षा के गहरे स्पर्श के साथ बहुत आनंद के साथ रहते हैं। किंतु कब तक?


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