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कविता

मार्केट वैल्यू

अनवर सुहैल


जो है
जैसा भी है
ग्राह्य नही किसी को...
दिखे नहीं सो बिके नहीं अब
बिके नहीं तो कौन पुछवैया...
चाल बदलकर, ढाल बदलकर
घड़ी-घड़ी में भेष बदलकर
चकमा देने वाले बाजीगर
जनता को क्या खूब लगे हैं
प्रजा-तंत्र का चौथा-पाया
ऐसे लोगों के साथ खड़ा है
इसीलिए उसने मन में ठानी
गुप-चुप सीखी नाट्य-कला
सहज-सरल-सीधी रेखा को
तज कर पकड़ी तिर्यक रेखा
जनता की भाषा भी सीखी
व्यंजना का कौशल सीखा
और देखते ही देखते
प्राइम-टाइम में जगह पा गया...
जो है
जैसा भी है
गूंगे-बहरे-अँधरे-सा
गुपचुप जीवन जीता
लाइम-लाईट में
किसी तरह भी नहीं आ सकता...


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