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कविता

भूपत के खपरे

अनवर सुहैल


कोयला खदान में खटकर
बाहर निकलते समय
जैसे ही मुहाड़े की झलक दिखी
बैठ गया मन भूपत का
जेठ के तपते सूरज की किरणों की जगह
बदरी वाली छँहिली धूप ने
जैसे छीन लिया हो चैन उसका
रात बारह बजे तक जागकर
बाल-बुतरुओं के संग
पाथे थे उसने पाँच सौ खपरे..
आसाढ़ बीतने से पहले
फेरनी थीं खपरैल मडैया की
ताकि बारिश में सुकून मिल सके
उन अधसूखे खपरों का क्या होगा
बदरी ने उसके सपनो पर जैसे फेर दिया पानी
कैसे कटेगी इतनी लंबी जिनगानी...


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