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कविता

रोशनी का छल

यशस्विनी


शहर में जगमगाती रंग बदलती बत्तियाँ
दूर से
कितनी खूबसूरत दिखती हैं
पर जब
आफिस की एकरसता से
थका हारा बेचारा
नन्‍हीं परी को
गोद में लेकर
पत्‍नी के हाथ की गरम चाय
को याद करते हुए
घर पहुँचने की जल्‍दी में हो तो
ट्रैफिक चौराहे पर
जिसे हमेशा लाल बत्ती ही कहा जाता है
जबकि वो होता है हरा भी
ये बदलता और जगमगाता रंग
कितना उबाऊ हो जाता है।
मैं सोचती हूँ,
घरों के भीतर और छतों के ऊपर से
इन जगमगाती बत्तियों को देखते हुए
इस शहर के लोग भी
भीतर से ऐसे ही जगमगा रहे हैं क्‍या?
जैसे ये बत्तियाँ
तो दुष्‍यंत कुमार याद आते हैं -
"ये रोशनी है हकीकत में एक छल लोगो"
अँधेरे के साथ रोशनी का छल
झूठी मुस्‍कान के साथ व्‍यवहार का छल
छुटपन को बड़प्‍पन मानने का छल
खुद को प्रतिपल मारते सजते सँवरते
जीने का छल
इसी में हम भी जगमग हैं
काश! हम जगमगाते
बाहर की रोशनी के बगैर
और रोशन करते
अपने पड़ोस को भी।

 


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