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कविता

मेरे मैं मेरे हम

यशस्विनी


उड़ रही हूँ हवाओं में
पंख के बिना,
बह रही है प्रेम के समंदर में
मेरी लहर
ॐ पर्वत के शिखर पर है नाम तुम्हारा
मेरे शिव;
तुम्हारी ही जटा से निकली
गंगा की लहरों में बह रही हूँ
मैं तमाम नामों से
तुमसे ही हैं मेरे सारे नाम
मुझ अहल्या का उद्धार तुमने ही तो किया;
मेरे राम!
सुना कर बाँसुरी प्रेम के राग की
मेरे कान्ह! बावली बनाया तुमने
कभी कम, कभी आधा, कभी जादा
जैसे प्यार तुम्हारा मेरे चंद्र!
तेज से तुम्हारे
छुपी हूँ तुम्हारे ही भीतर
मेरे सूर्य!
समस्त प्रकृति में तुम ही तो हो
मेरे मैं;
मेरे हम;
हमारा।

 


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