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कविता

नैहर आए

कमलेश


घूँघट में लिपटे तुम्हारे रोगी चेहरे के पास
लालटेन का शीशा धुअँठता जाता है
साँझ बहुत तेजी से बीतती है गाँव में।

भाई से पूछती हो - भोजन परसूँ?
वह हाथ-पाँव धोकर बैठ जाता है पीढ़े पर
- छिपकली की परछाईं पड़ती है फूल के थाल में।

आँगन में खाट पर लेटे-लेटे
बरसों पुराने सपने फिर-फिर देखती हो
- यह भी झूठ!
महीनों हो गए नैहर आए।

चूहे धान की बालें खींच ले गए हैं भीत पर
बिल्ली रात भर खपरैल पर टहलती रहती है
माँ कुछ पूछती है, फिर रुआँसी हो जाया करती है।

 


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