उस दिन पांडेजी
बुलबुल हो गए थे।
कलफ लगाकर कुर्ता टाँगा
कोसे का असली, शुद्ध कीड़ों वाला चाँपे का,
धोती नई सफेद, झक बगुला जैसी।
और ठुनकती चल पड़ी
छोटी-सी काया उनकी।
छोटी-सी काया पांडेजी की
छोटी-छोटी इच्छाएँ,
छोटे-छोटे क्रोध
और छोटा-सा दिमाग।
गोष्ठी में दिया भाषण, कहा -
'नागार्जुन हिंदी का जनकवि है'
फिर हँसे कि 'मैंने देखो
कितनी गोपनीय
चीज को खोल दिया यों।
यह तीखी मेधा और
वैज्ञानिक आलोचना का कमाल है।'
एक स-गोत्र शिष्य ने कहा -
'भाषण लाजवाब था, अत्यंत धीर-गंभीर
तथ्यपरक और विश्लेषणात्मक
हिंदी की आलोचना के ख्च्चर
अस्तबल में
आप ही हैं एकमात्र
काबुली बछेड़े।'
तो गोल हुए पांडेजी
मंदिर के ढोल जैसे।
ठुनुक-ठुनुक हँसे और
फिर बुलबुल हो गए
फूल कर मगन !