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कविता

मैं लौट जाऊँगा

उदय प्रकाश


क्वाँर में जैसे बादल लौट जाते हैं
धूप जैसे लौट जाती है आषाढ़ में
ओस लौट जाती है जिस तरह अंतरिक्ष में चुपचाप

अँधेरा लौट जाता है किसी अज्ञातवास में अपने दुखते हुए शरीर को
कंबल में छुपाए
थोड़े-से सुख और चुटकी-भर सांत्वना के लोभ में सबसे छुपकर आई हुई
व्याभिचारिणी जैसे लौट जाती है वापस अपनी गुफा में भयभीत

पेड़ लौट जाते हैं बीज में वापस
अपने भांडे-बरतन, हथियारों, उपकरणों और कंकालों के साथ
तमाम विकसित सभ्यताएँ
जिस तरह लौट जाती हैं धरती के गर्भ में हर बार

इतिहास जिस तरह विलीन हो जाता है किसी समुदाय की मिथक-गाथा में
विज्ञान किसी ओझा के टोने में
तमाम औषधियाँ आदमी के असंख्य रोगों से हार कर अंत में जैसे लौट
जाती हैं
किसी आदिम-स्पर्श या मंत्र में

मैं लौट जाऊँगा जैसे समस्त महाकाव्य, समूचा संगीत, सभी भाषाएँ और
सारी कविताएँ लौट जाती हैं एक दिन ब्रह्मांड में वापस

मृत्यु जैसे जाती है जीवन की गठरी एक दिन सिर पर उठाए उदास
जैसे रक्त लौट जाता है पता नहीं कहाँ अपने बाद शिराओं में छोड़ कर
निर्जीव-निस्पंद जल

जैसे एक बहुत लंबी सजा काट कर लौटता है कोई निरपराध कैदी
कोई आदमी
अस्पताल में
बहुत लंबी बेहोशी के बाद
एक बार आँखें खोल कर लौट जाता है
अपने अंधकार में जिस तरह।


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