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कविता

उजाला

उदय प्रकाश


बचा लो अपनी नौकरी
अपनी रोटी, अपनी छत

ये कपड़े हैं
तेज अंधड़ में
बन न जाएँ कबूतर
दबोच लो इन्हें

इस कप को थामो
सारी नसों की ताकत भर
कि हिलने लगे चाय
तुम्हारे भीतर की असुरक्षित आत्मा की तरह

बचा सको तो बचा लो
बच्चे का दूध और रोटी के लिए आटा
और अपना जेब खर्च
कुछ किताबें

हजारों अपमानों के सामने
दिन भर की तुम्हारी चुप्पी
जब रात में चीखे
तो जाओ वापस स्त्री की कोख में
फिर बच्चा बन कर
दुनारा जन्म न लेने का
संकल्प लेते हुए

भीतर से टूट कर चूर-चूर
सहलाओ बेटे का गर्म माथा

उसकी आँच में
आने वाली कोंपलों की गंध है
उसकी नींद में
आने वाले दिनों का
उजाला है ।


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