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कविता

एक शहर को छोड़ते हुए

उदय प्रकाश


एक

हम अगर यहाँ न होते आज तो
कहाँ होते ताप्ती ?
होते कहीं किसी नदी पार के गाँव के
किसी पुराने कुएँ में
डूबे होते किसी बहुत पुराने पीतल के
लोटे की तरह
जिस पर कभी-कभी धूप भी आती
और हमारे ऊपर किसी का भी नाम लिखा होता ।
या फिर होते हम कहीं भी
किसी भी तरह से साथ-साथ रह लेते
दो ढेलों की तरह हर बारिश में घुलते
हर दोपहर गरमाते।

हम रात में भी होते
तो हमारी साँसें फिर भी चलतीं, ताप्ती,
और अँधेरे में
हम उनका चलना देखते, ताज्जुब से

क्या हम कभी-कभी
किसी और तरह से होने के लिए रोते, ताप्ती ?

दो

ताप्ती, एक बात है कि
एक बार मैं जहाज में बैठकर
अटलांटिक तक जाना चाहता था ।

इस तरह कि हवा उलटी हो
बिलकुल खिलाफ
हवा भी नहीं बल्कि तूफान या अंधड़
जिसमें शहतीरें टूट जाती हैं,
किवाड़ डैनों की तरह फड़फड़ाने लगते हैं,
दीवारें ढह जाती हैं और जंगल मैदान हो जाते हैं ।

मैं जाना चाहता था दरअसल
अटलांटिक के भी पार, उत्तरी ध्रुव तक,
जहाँ सफेद भालू होते हैं
और रात सिक्कों जैसी चमकती हैं ।

और वहाँ किसी ऊँचे आइसबर्ग पर खड़ा होकर
मैं चिल्लाना चाहता था
कि आ ही गया हूँ आखिरकार, मैं ताप्ती
उस सबके पार, जो मगरमच्छों की शातिर, मक्कार
और भयानक दुनिया है और मेरे दिल में
भरा हुआ है बच्चों का-सा प्यार
तुम्हारे वास्ते ।

लेकिन इसका क्या किया जाए
कि मौसम ठीक नहीं था
और जहाज भी नहीं था
और सच बात तो ये है, ताप्ती
कि मैंने अभी तक समुद्र ही नहीं देखा !

और ताप्ती ...?
यह सिर्फ उस नदी का नाम है
जिसे स्कूल में मैंने बचपन की किताबों में पढ़ा था ।

तीन

एक दिन हम
नर्मदा में नहाएँगे
दोनों जन साथ-साथ ।

नर्मदा अमरकंटक से निकलती है,
हम सोचेंगे और
न भी निकलती तो भी
साथ-साथ नहाते हम, तो अच्छा लगता ।

फिर हम एक सूखे पत्थर पर
खड़े हो जाएँगे... धूप तापेंगे ।

फिर खूब अच्छे कपड़े पहनेंगे
खूब अच्छा खाना खाएँगे
खूब अच्छी-अच्छी बातें करेंगे
एक खूब अच्छे घर में बस जाएँगे ।
हमें खूब अच्छी नींद आया करेगी
रातों में और
हमारा खूब-खूब अच्छा-सा जीवन होगा ।

ताप्ती, देखना
क्या मुझे बहुत विकट हँसी आ रही है ?

चार

हम एक
टूटे जहाज के डेक की तरह हैं
और हमें अपने ऊपर
खेलते बच्चों की खातिर
नहीं डूबना है
हमें लड़ना है समुद्र से और
हवा से और संभावना से ।

जो तमाशे की तरह देख रहे हैं हमारा
जीवन-मरण का खेल
जिनके लिए हम अपने विनाश में भी
नट हैं दो महज ।

कठपुतलियाँ हैं हम
हमारी संवेदनाएँ काठ की हैं
प्यार हमारा शीशम का मरा हुआ पेड़ है
जिनके लिए
उन सबकी भविष्यवाणियों के खिलाफ
हमें रहना है...
रहना है, ताप्ती ।

हम उनके बीजगणित के हर हल को
गलत करेंगे सिद्ध और
हर बार हम

उगेंगे सतह पर ।

और हमारी छाती पर सबसे सुंदर और
सबसे आजाद बच्चे खेलेंगे ।
डूबेंगे नहीं हम
कभी भी, ताप्ती,
डेक है टूटे जहाज का
तो क्या हुआ ?

पाँच

अच्छा हो अगर
हम इस शहर की सबसे ऊँची और खुली छत पर
खड़े होकर पतंग उड़ाएँ ।

और हम जोर-जोर से हँसें
कि देख लो हम अभी भी हँस सकते हैं इस तरह
और गाएँ अपने पूरे गले से
कि जान लो हम गा भी रहे हैं
और नाचें पूरी ताकत-भर
कि लो देखो
और पराजित हो जाओ ।

हम इस शहर की
सबसे ऊँची और
सबसे खुली छत पर दोनों जन
और वहाँ से चीखें, एक दूसरे के पीछे दौड़ें
किलकारी मारें, कूदें और ढेर सारी रंगीन पन्नियाँ
हवा में उड़ा दें ।

इतना कपास बिखेर दें
शहर के ऊपर
कि फुहियाँ ही फुहियाँ दिखें सब तरफ ।
फिर हम उतरें
और रानी कमला पार्क के बूढ़े पीपल को
जोर से पकड़कर हिला दें, फिर पैडल वाली
नाव लेकर तालाब के पानी को मथ डालें
इतना हिलोड़ दें
कि वह फुहार बन जाए
और हमारे गुस्से की तरह
सारे शहर पर बरस जाए ।

ताप्ती, चलो
फिर दूरबीन से देखें
कि शहर के सारे संपन्न और संभ्रांत लोग
कितने राख हो चुके हैं
और उनकी भौंहों में कितना
कोयला जमा हो चुका है ।
छह

एक दिन हम अपना सारा सामान बाँधेंगे
और रेलगाड़ी में बैठकर चल पड़ेंगे, ताप्ती !

एक नजर तक हम नहीं डालेंगे
ऐसी जगह, जहाँ
इतने दिनों रहते हुए भी हम रह नहीं पाए ।

जहाँ दिन-रात हम हड्डियाँ गलाते रहे अपनी और
लोगों के पीछे किसी द्रव की खोज में
हँसते रहे ।

हम चाहेंगे ताप्ती कि
इस जगह को भूलते हुए हमें खूब हँसी आए
और अपनी बातचीत में
हँसते हुए हम इस जगह का अपमान करें
सोचें कि एक दिन ऐसा हो
कि सारी दुनिया में ऐसी जगहें कहीं न हों ।

फिर ताप्ती, खिड़की होगी
और पेड़ दौड़ेंगे चक्कर में
और कोई बछड़ा मटर के खेतों के पार उतरेगा ।

एक के बाद एक गाँव और शहर
पार करते चले जाएँगे हम अपने सफर में
रेलगाड़ी की खिड़की के बाहर
दुनिया घूमती ही रहेगी
मिटटी के कत्थई घरों से भरी
हरी दुनिया ।

फिर मैं कहूँगा
हमने अच्छा किया, बहुत अच्छा किया
कि हमने उन्हें छोड़ा
जो छोड़े ही हुए थे हमें और हमारे जैसे बेइंतहा लोगों को
शुरू से ही अपनी सँकरी दुनिया के लिए ।

हम ऐसे चंद चालू संबंधों की
परछाईं तक को कर देंगे नष्ट
अपनी स्मृति से ।

और चल पड़ेंगे अपना सारा सामान समेटकर
एक के बाद एक गाँव और शहर
और जीवन और अनुभव पार करेंगे ।

लेकिन हम आखिर में ठहरेंगे
कहाँ, ताप्ती ?

सात

सामने की
ऊँची ढीह पर, बबूल के नीचे
एक घर, आधा बनाकर छोड़ दिया गया जो
वर्षों पहले
उस घर की ईंटें
पत्तियों और काँटों के साथ
मिट्टी हो रही हैं

उन ईंटों को
कभी न छू पाईं जीवित ऐंद्रिक साँसें

मिट्टी होती, रेत होती,
हवा होती
पुरानी पत्तियों में से उठता है तुम्हारा शरीर
ताप्ती,
अधूरा ही छोड़ दिए गए किसी मकान जैसा,
बिना हाथों का
एक धड़,
अधूरा

ताप्ती, कहाँ हैं तुम्हारी खिड़कियाँ
जिनसे रोशनी आती है ?
कहाँ है वह दहलीज जिसे मैं पार करूँ
तुम्हारी आतुरता में भरा हुआ ?

ताप्ती, तुम्हारी ईंटें
बबूल और काँटों के साथ
रेत हो रही हैं
प्रतिक्षण नष्ट होती जा रही हो तुम
हवा और समय के साथ

ताप्ती, एक अधूरी काया,
ताप्ती, एक अधूरी आत्मा,
ताप्ती, एक नदी का नाम नहीं है सिर्फ
गलती, नष्ट होती पत्तियों में से
उठता है तुम्हारा अधूरा शरीर, बिना हाथों का
अपमान, दरिद्रता और काँटों में बिंधा ।

और फिर भी
एक ताजा-ताजा फूल लिए
तुम मेरी तरफ बढ़ना चाहती हो ।

आठ

यह ठीक है
कि बहुत मामूली बहुत
साधारण-सी है यह हमारी लड़ाई
जिसमें जूझ रहे हैं हम
प्राणपन के साथ

और गहरे घावों से भर उठा है हमारा शरीर
हमारी आत्मा

इस विकट लड़ाई को
कोई क्या देखेगा हमारी अपनी आँखों से ?

निकालेंगे एक दिन लेकिन
हम साबुत इस्पात की तरह पानीदार
तपकर इस कठिन आग में से
अगले किसी महासमर के लिए ।

 


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