मैंने यह सब
उस क्षण में देखा
सृष्टि का नृत्य
अपने चेहरे पर
हँसता हुआ बुद्ध
झुर्रियों से बहते
आँसू ढुलकाता हुआ
समय में गहरी दरारें
क्या वह रो रहा था, कोई फर्क नहीं पड़ता था...
संगीत की समस्त बाईस श्रुतियाँ
टिकी थी उसकी भौंहों के बीच
नाद और अनहद के बीच
दर्द की, खुशी की
कोलाहलपूर्ण अंधियारी चुप्पी
मध्य कान से होकर
सुरंग में थरथराती हुई,
निकलने नहीं देती,
सूक्ष्म ध्वनियाँ तक
धीरे-धीरे घर लौटता है
विभिन्न भावों, अलग रंगों वाले
झूलते पेंट से सजाता है
तमाम नौ रस और उनसे कहीं ज्यादा
घाटियों में, शिखरों पर सोए
पिघलने के लिए बढ़ते
हवा में उठते, आसमान को भरते
उसके लकवाग्रस्त शरीर में झुनझुनी होती है
क्या वे खुशी के आँसू थे
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता!