उससे मैंने दो बातें नहीं पूछी थीं। पहली : वह अपना काम कब करता है?
'मैं पाकिस्तान से मेवों के आयात से अच्छा पैसा बना लेता हूँ। बाद में कुत्तेगीरी करता हूँ।'
'कुत्ते-गीरी?'
'तुम कुत्तेगीरी नहीं जानते? ...धीरे-धीरे जान जाओगे।' उसकी भीनी मुस्कराहट से लगा, उसे इस चीज से खास प्रेम है।
मगर मेवों के आयात से वह 'अच्छा पैसा' कब बनाता है? दिन-भर तो वह कॉफी हाउस में बैठा रहता था। दिन-भर क्या, हर वक्त। मैं जब भी जाता उसे वहाँ पाता। किसी
निराले दिन अगर वह बैठा नहीं मिलता (जैसे आज), तो मेरे बैठते ही कहीं से प्रकट हो जाता (जैसे वो देखिए, आ रहा है!)।
'कहो साहनी, खाली हो?'
'अरे, तुम्हारे लिए खाली-ही-खाली हैं। दिन हो, रात हो, आँधी हो, तूफान हो - तुम्हारा ताबेदार हूँ।'
हमेशा की तरह उसने यह वाक्य कहा और हम हँसे। उसकी खास जान-पहचान वाले, जिनके साथ वह अक्सर बैठा मिलता था, उसे देख रहे थे।
'तुम्हारे दोस्त तुम्हें देख रहे हैं।'
'यहाँ सब दोस्त-ही-दोस्त हैं, देखने दो।' इसके बावजूद उसने मुड़कर उन्हें देखा और दुआ-सलाम की।
'ये लोग तो रोज ही मिलते हैं। तुम ही कम आते हो और फिर तुमसे मिलने का मतलब ही कुछ और होता है।'
'तुम टाँग खींचने में उस्ताद होते जा रहे हो।'
'देखो भारद्वाज', इतना कहकर उसने ऐसे मुँह बनाया मानो मैंने उसकी प्रिय कुत्तेगीरी को गाली दी हो। मैं मुस्कराया।
'लेकिन साहनी, आजकल तो लगभग रोज ही आ जाता हूँ।'
'अच्छा है, अच्छा ही है। धीरे-धीरे तुम भी शामिल हो जाओगे।'
मेरे कान एकदम खड़े हो गए। लगा कि उसने ताड़ लिया है कि मैं भी उनमें से हूँ या उन जैसा होता जा रहा हूँ जो दिन-भर कनॉट प्लेस में इधर-उधर मँडराते रहते हैं,
जिन्हें कोई 'काम' नहीं होता।
मैंने जवाब नहीं दिया। चुप रहकर उसे गौर से देखने लगा। वह पूरी तरह से शादीशुदा लगता था। मैंने उसकी पत्नी को कभी नहीं देखा था और किसी आदमी को पत्नी के साथ
देख लेने के बाद ही मेरी उसके बारे में राय पूरी तरह बनती थी। वह अपने बीवी-बच्चों को कनॉट प्लेस घुमाने क्यों नहीं लाता, दूसरी बात, जो मैं पूछना चाहता था,
यही थी।
'क्या पिओगे?'
'वही गुड गर्म कॉफी', उसने हमेशा की तरह से यह भी कहा और मेरी तरफ तैयार होकर बैठ गया - मतलब मेरी हर बात में बहरी रुचि लेने के लिए। इससे मेरा महत्व मेरी अपनी
नजरों में बढ़ गया और सुबह से अकेले मँडराने से पैदा हुआ एक अजीब अकेलापन कम हो गया।
हमने बड़े और कॉफी मँगाई। ठंडे होने की वजह से मैंने दो में से सवा-डेढ़ बड़ा ही खाया और हाथ साफ करके कॉफी पीने लगा।
'तुम बड़े नहीं खाओगे?' साहनी ने पूछा।
'नहीं। आज ठंडे दे गया है, कुछ कच्चे भी हैं।'
'अरे, ऐसे बुरे नहीं हैं', यह कहकर उसने हाथ बढ़ाकर मेरी प्लेट से बड़ा उठाया और मेरी प्लेट में ही बची सॉस को रगड़कर साफ करके खाने लगा।
'और मँगा लेते हैं - जूठा क्यों खा रहे हो?'
'अरे, इसमें जूठे की क्या बात है?'
हम अक्सर एक-दूसरे की प्लेटों से चीजें (प्रायः बड़े) उठाकर खा लेते थे। मगर इस समय साहनी के खाने के ढंग से मैंने महसूस किया कि उसमें स्वाभिमान नहीं है।
मैंने उसकी तरफ देखा। वह अब बड़े मजे से कॉफी पी रहा था।
आज भी बे-इंतहा लोगों की वजह से कॉफी हाउस फट पड़ा था। फालतू लोग परे घास पर और बाहर मुँडेर पर बैठ गए थे। कॉफी पीते-पीते हम इतने सारे आदमियों में होने से
जानवरी संतोष और अपनी अलहदगी की कमी हो महसूस करते रहे।
अचानक 'की-कीं, टीं-टीं' करते तोतों का एक जंगल कनॉट प्लेस पर घिर आया। कई लोगों ने मुँह उठाकर ऊपर देखा। सब पेड़ तोतों और उनकी आवाजों से भर गए और बरसात की
बादल-हीन शाम की तरबूजी धूप पेड़ों और तोतों की हरियाली को खूबसूरती से महकाने लगी।
'इनसानों का कॉफी हाउस एक है, तोतों के सैकड़ों हैं। मुझे लगता है, ये भी कोई बहस-वहस करते रहते हैं।' साहनी ने फिजूल-सी बात की।
'कुत्तेगीगरी!'
'शुद्ध कुत्तेगीर होते हैं ये... ये ही क्या सब पक्षी...' साहनी ने गंभीरता से कहा।
'तोतेगीर क्यों नहीं?'
'वह भी कह सकते हो। मगर बात कुत्तेगीर से ही बनती है। कुत्ते शहर में रहकर भी कुत्ते ही रहते हैं।'
वह आसमान में देखने लगा। कुछ पेड़ों से हजारों तोते उड़कर ऊपर चक्कर लगाने लगे थे। चक्कर काटते समय एक खास जगह आकर सब तोतों के नीचे के हिस्से धूप में जगमगा
उठे।
'देखा!' साहनी ने कहा।
'देखा।'
हम दोनों हँस पड़े।
'यहाँ बहुत ही लोग आते हैं।'
'और कहाँ जाएँ? ...यहाँ भागे-भागे आते हैं, बैठते हैं, बातें करते हैं - और क्या करें?'
उसकी बात मेरी समझ में नहीं आई। असल में मैंने समझने की कोशिश ही नहीं की। एकाएक ही झुटपुटा हो गया और एकाएक ही मुझे साहनी ना-काफी लगने लगा। घर जाने की इच्छा
होने लगी। लेकिन घर में अकेले कमरे में पड़े रहने की 'बेवकूफी' मैं बहुत बार कर चुका था।
'ह्विस्की पिओगे, साहनी?'
'पी लेंगे।'
उसल में उससे पूछना फिजूल था। उसे तो कहना चाहिए थो, 'आओ साहनी, ह्विस्की पिएँ।' और वह साथ हो लेता।
शराब की दुकान में घुसते वक्त खयाल आया कि इरादा बदल दूँ। आज सुबह ही सोचा था कि जितने पैसे जेब में हैं उनसे कम-से-कम पंद्रह दिन तो गुजारने ही पड़ेंगे, वरना
और उधार लेना मुश्किल हो जाएगा। मगर ऐसा करने की बजाय मैंने आत्म-नाशी भाव से पैसे निकालकर एक अद्धा खरीदा और हम बाहर की तरफ बढ़े।
बाहर आए तो देखा दुनिया बदली हुई है। जब हम अंदर गए थे तो अभी झुटपुटा था। अब पूरी तरह से अँधेरा हो गया था। बत्तियाँ जलने लगी थीं। खुली-खाली जगहों में अँधेरा
रहस्य पैदा कर रहा था। लोगों में कोई खास बात लगी। बिजली की रोशनी में एक आशा फैली थी जो दिन-भर सूरज के प्रकाश में नहीं आ पाई थी।
'देखा!' साहनी ने कहा। वह भी विस्मित था।
मैंने उसे जवाब नहीं दिया। इधर-उधर देखने लगा।
'वह देखो', मैंने साहनी का ध्यान एक लड़की की तरफ खींचा। वह रंडी थी। मैं मुस्कराने लगा, इस आशा से कि उसे देखकर साहनी भी मुस्कराएगा, जैसा कि रंडी को देखकर
अक्सर दो-तीन मित्र आदि करते हैं।
वह नहीं मुस्कराया तो मुझे अजीब लगा। मैंने लड़की को फिर देखा। अक्सर दिखाई देने वाली मोटी-सी रंडी थी।
'देखा!' उसे खुश करने के लिए, मैंने उसी की नकल में कहा। मगर साहनी आगे कुछ नहीं बोला। बोतल बगल में दबाए आगे बढ़ने लगा। वह लड़की भी हमारी तरफ देख रही थी। मुझे
लगा दोनों में कोई संबंध जरूर है। मेरी जानने की रग ने जोर मारा।
'मैं उसे जानता हूँ', मैंने कहा।
'कैसे?' वह तुरंत बोला।
'वह हमारी ही गली में रहा करती थी। तीन बहनें हैं न! तीनों के दाढ़ी है। बाकी दो नौकरी करती हैं। यह, यह काम। यह शेव भी करती है, क्यों?'
मेरी बात सुनने के लिए वह बीच-भीड़ में खड़ा हो गया था। उसके चेहरे पर दिलचस्पी, तनाव और घबराहट थी।
'होगी।' उसने झूठी लापरवाही से कहा और फिर बढ़ने लगा।
जब वह मोड़ काटने लगे तो मैंने मुड़कर देखा।
'अभी है?' साहनी मेरी तरफ नहीं देख रहा था, मगर उसे मालूम पड़ गया था कि मैंने मुड़कर देखा है।
'हाँ है।'
'नाम क्या है उसका?' साहनी ने पूछा।
'पता नहीं - तुम्हें तो मालूम होगा?'
'हाँ... नहीं... मुझे कैसे मालूम होगा?' मगर वह मुझसे आँख नहीं मिला पा रहा था और जानता था कि मैं मुस्करा रहा हूँ।
हम गुप्ता के दफ्तर की छत पर बैठकर पीने लगे। उसका चपरासी, जो हमारे लिए सोडा आदि लाया था, एक तरफ बैठा नीचे देख रहा था। बीच-बीच में उठकर वह शायद फोन सुनने
अंदर चला जाता था।
हम दो ही थे। गुप्ता नहीं आया था। उसकी कुरसी सामने खाली पड़ी थी। कभी-कभी हम दोनों उसे एक साथ देखने लगते। बैंत की कुरसी अपने आकार की काली लकीरें पैदा करती
उन्हें जंगले तक ले गई थी। 'यह गुप्ता काम बहुत करता है।'
'हाँ बहुत अच्छा पैसा बनाता है।'
'तुम भी तो 'अच्छा' पैसा बना लेते हो और बगैर इतना काम किए...'
'अरे, मेरी बात दूसरी है। मेरा ढंग दूसरा है।'
'हमें भी बताओ न यार! मैं भी चाहता हूँ, बिना मेहनत के बहुत-सा पैसा कहीं से आ जाए। अगर मेहनत करनी भी पड़े तो कम-से-कम और एक बार पैसा आ जाए तो आराम से जिया जा
सकता है। क्यों?'
'गलत बात है', उसने इतने विश्वास से कहा कि मुझे भी अपनी बात गलत लगने लगी। इस बात का अफसोस भी होने लगा कि इतने बड़े होने के बाद भी यह स्वप्न मेरे मन में
बराबर बना हुआ है।
'मेहनत नहीं करनी चाहिए', उसने मूल सवाल को एक तरफ सरका कर कहा।
'क्यों?'
'मेहनत आदमी को भुलावे में डाल देती है। मेहनत गलत नशा है।'
'कैसे?' मेरी हैरानी एकाएक बढ़ गई।
वह चुप रहा। गिलास उठाकर ह्विस्की को ताकने लगा।
थोड़ा-थोड़ा नशा आ गया था।
कनॉट प्लेस का शोर बहुत नीचे से, शायद पाताल से आता लग रहा था। हम ऊपर हवा में टँगे-से। आपस में जरा उलझे हुए।
'काम तुम क्यों करते हो?' उसने मुझसे पूछा।
'काम तुम करते हो', उसने खुद ही जवाब दिया। 'पैसा कमाने के लिए और वक्त काटने के लिए। हालाँकि आदमी के पास पैसा आ जाए तो वह सिर्फ वक्त काटने के लिए कभी काम न
करे। क्यों?'
मुझे कोई उत्तर नहीं सूझा। मैं चुपचाप उसे देखता रहा।
'और फिर काम भुलावा है। हम यहाँ बैठे हैं, सोच रहे हैं, बातें कर रहे हैं। ऊपर आकाश है, हम देख नहीं पा रहे, क्योंकि हमारे सिर पर बत्ती जल रही है। नीचे कनॉट
प्लेस से रोशनी उठती है। शोर आता है, मगर ऐसे जैसे पाताल से आ रहा हो। हम नशे में हैं - कुछ-कुछ।'
उसने भी महसूस किया था कि कनॉट प्लेस का शोर शायद पाताल से आ रहा है। मुझे यह बात बहुत अजीब लगी। मैंने उसकी तरफ ध्यान से देखा। उसकी गंजी खोपड़ी पर रोशनी का
धब्बा बैठा था और उसकी भवों के नीचे गहरे गड्ढों में हल्के लाल रंग के दो बल्ब सुइयों के तीखेपन से जलने लगे थे।
एकाएक मुझे लगा यह साहनी नहीं है, उसका प्रेत है। मैं डर-सा गया। मैंने मुड़कर चपरासी की ओर देखा। वह बैठा था, मगर इतना निश्चल कि असली नहीं लगा। कुरसी नहीं
कुरसी की केवल छाया दिखाई दी। शायद आश्वासन के लिए मैंने 'साहनी' की ओर देखा। वह हँस रहा था। मैं काँपा।
'देखो, असली चीज है कुछ न करना, क्योंकि कहीं कुछ नहीं है।'
उसने हाथ को आकाश की तरफ अर्ध-गोलाकार घुमाया। वहाँ दरअसल कुछ नहीं था। तो भी मैंने अनायास इधर-उधर भी देखा।
अचानक साहनी कुछ गुनगुनाने लगा, और अचानक ही वह 'माया' नष्ट हो गई। वह अजीब अनसली दुनिया फिर पहले-सी दीखने लगी। ऐसा लगा कि मेरे कानों में फाहे पड़ गए थे, वे
अब निकल गए हैं।
और साहनी को देखकर मुझे हँसी आ गई।
'अरे साहनी, तुम तो बड़े दार्शनिक हो, यार!'
'मैं सौ फीसदी सच कह रहा हूँ।'
'तुम्हारी कुत्तेगीरी क्या यही है?'
'कुछ-कुछ। यहीं से शुरू होती समझो।' मैंने वातावरण को पूरी तरह से 'मानवीय' बनाने के लिए चपरासी से और बर्फ लाने के लिए कहा। वह हिला तो उस अजीब अनुभव का असर
पूरी तरह से गया।
हमने गिलास फिर भरे।
'तुम्हारी कुत्तेगीरी को!' मैंने गिलास उठाकर कहा।
'अरे यार, तुम इसे मजाक में ले रहे हो।'
वह थोड़ा तन गया। मैं हँस रहा था। एकाएक रुक गया।
'काम-धंधे भागने के ढकोसले हैं। हमेशा सामने रहना चाहिए - सामने, एकदम सामने।' उसने थोड़े झगड़ालू लहजे में कहा।
'लेकिन कुत्ते तो अक्सर भागते हैं...'
'हाँ, मगर किससे? - आदमियों से - या दूसरे कुत्तों से या किसी और चीज से -मगर उससे नहीं भागते हैं।'
'उससे किससे?'
'उससे... उससे... बल्कि उसी में घूमते-फिरते-सोते रहते हैं...'
मैंने आगे से तर्क नहीं किया। उसके बेडौल चेहरे को देखने लगा। बेचारगी से भरा था। ज्यादा देर तक एकटक देखने से और भी बेचारा लगा। और तभी मैंने देखा कि वह
कुत्ते से बहुत मिलता है। उसके कान बड़े-बड़े थे और मोटे-गीले होंठों के ऊपर दुनाली नाक जमकर लेटी हुई थी।
'पुच्! पुच्!' अनायास ही मुझसे हो गया।
तभी मुझे एहसास हुआ कि कहीं मेरा चेहरा भी कुत्ते जैसा न हो। बहुत कोशिश करने पर भी मुझे अपनी शक्ल याद नहीं आई। मैं आईने के लिए तड़पने लगा। इच्छा हो रही थी
कि भागकर अंदर पेशाबघर में जाऊँ और अपना मुँह देखकर लौट आऊँ।
'मुझे क्या हो रहा है', मन में कहकर मैंने अपने को काबू में किया और साहनी की तरफ देखकर मुस्कराया।
'साहनी, एक बात बताओ! मैंने तुम्हें कभी बीवी-बच्चों के साथ... मेरा मतलब है, क्या तुम विवाहित हो?' बात कहते-कहते उसके विवाहित होने में जो एक फी-सदी शक था,
बड़ा हो गया था। इसीलिए मैंने सवाल बदल दिया।
'बीवी-बच्चे! किसके?'
'तुम्हारे! और किसके?'
'मेरे और बीवी-बच्चे? - अरे भइया, ये मेरी लाइन की चीज नहीं है।'
'क्यों?'
'माफ करना भारद्वाज! शादी भी कोई इनसानों का काम है?'
'मेरे खयाल में तो कुत्ते-बिल्ली वगैरा शादी नहीं करते। क्यों?'
उसने अपनी हँसी को दबाते हुए कहा, 'यह चीज ठीक नहीं है।'
'मगर इस चीज के बिना कैसे, मेरा मतलब है कैसे...?'
'मैं समझ गया', उसने कहा, 'कई तरीके हैं।'
'एक बताओ।'
वह चुप रहा तो मैंने कहा, 'एक तो वही है जो ह्विस्की खरीदने के बाद मिला था।'
'हाँ, एक उसे ही समझ लो।'
'मेरे खयाल से वही एक कारगर है...'
'और भी हैं।'
'बताओ।'
वह चुप रहा।
'बताओ', मैं उसके पीछे पड़ गया।
वह कुछ देर मेरी तरुफ भावहीन आँखों से देखता रहा, फिर सिर झुकाकर ह्विस्की का आखिरी पैग बनाने लगा। बनाकर उसने एक घूँट पिया और मुस्कराने लगा।
'बताओ न यार!' मेरे आग्रह में सख्ती थी।
वह चुप मुस्कराता रहा। फिर ह्विस्की का एक और घूँट निगल गया। मुझे लगा उसे पता नहीं है। उसने ऐसे ही रोब देने के लिए कह दिया था।
मैंने देखा, उसका एक पैर खाली कुरसी के साथ आ लगा है और वह उसे मजे से हिला रहा है। जवाब ने दे पा सकने की बेचैनी से नहीं, मजे से - मुझे इसका पक्का विश्वास
था, क्योंकि उसके चेहरे पर मुस्कराहट मजे-वाली थी।
उसके पैर को हिलते देखकर मुझे अचानक महसूस हुआ कि वह मुझे बेवकूफ बना रहा है और हमेशा बनाता आया है। हमेशा ठगता आया है कि अपनी 'ताबेदारी' के जेर मुझसे कॉफी,
ह्विस्की आदि पीता आया है। अगर उसकी कुत्तेगीरी का यह एक हिस्सा है तो वह इस माने में सफल कुत्तेगीर है।
मुझे धक्का लगा। मगर धीरे-धीरे गुस्सा आने लगा। कुछ देर अपने से लड़ने के बाद गुस्से को तो मैंने थाम लिया, मगर उससे बदला लेने के लिए, उसे चोट पहुँचाने के
लिए नीयत ठोस हो गई।
'साहनी, एक बात बताऊँ। मेरा एक दोस्त है। कोई दो-तीन साल पहले उसकी शादी करने की मर्जी़ हुई। उसने लड़कियाँ देखनी शुरू कीं। एक लड़की उसे बहुत पसंद आई। लड़की
पढ़ी-लिखी थी, मॉडर्न थी। सब लोग बैठे थे कि लड़की उठकर अंदर चली गई। मेरा दोस्त बैठा चाय आदि पीता रहा। वह खुश था कि आखिर उसे भी अच्छी सुंदर लड़की मिल ही
गई। तभी उसके पास ही परदे के पीछे से आवाज आई - वह कहता है आवाज उसी लड़की की थी और वह परदे के पीछे अकेली थी, उसके साथ सहेली नहीं थी। सिर्फ उसे सुनाने के लिए
ही वह बोली थी... उसने कहा था... इस सुअर-मुँह से कौन शादी करेगा...!'
मैंने यहाँ थमकर साहनी की ओर देखा।
'हालाँकि मेरे हिसाब से लड़का देखने में बहुत अच्छा है... मगर उस बात का उस पर इतना असर हुआ कि वह अब तक शादी करने से इन्कार करता आ रहा है।'
'तुम एकदम ठीक कह रहे हो', साहनी बोला, 'मैं बदसूरत हूँ।'
उसके स्वर में हल्की कँपकँपी थी। मैं तुरंत, और बेहद पछताया।
यह सोचकर कि माफी माँगना बेवकूफी होगी, मैंने झूठ बोला, 'तुम गलत समझ रहे हो साहनी! ऐसी बात बिलकुल नहीं है...'
'अरे मैं नहीं जानूँगा तो कौन जानेगा', इतना कहकर वह चुप हो गया।
मैंने जो चोट उसे पहुँचाई थी उसे चुपचाप सहता ढीला-सा बैठ रहा। उसने मेरी बात का बुरा नहीं माना था। एकाएक ही मैं उसे समझ गया। वह उन आदमियों में से था जिनको
जितना चाहो दुखी कर लो, वे दरअसल बुरा नहीं मानेंगे। बल्कि उन्हें इसमें एक प्रकार का रस-सा आएगा और वे इसे दोस्ती और कहीं बहुत गहरे में अपना स्वार्थ बनाए
रखने के लिए इस्तेमाल भी करेंगे।
तो भी संकोच में बैठा मैं उसे महसूस करता रहा।
'खूबसूरती-बदसूरती तो बहुत ही अपनी बात होती है...' मैंने चुप्पी को तोड़ने के लिए आम बात का सहारा लिया।
'मैं तुम्हें बता ही देता हूँ', साहनी ने जरा आगे को झुककर कहना शुरू किया। 'वह लड़की, वह जो हमें ह्विस्की की दुकान के बाहर मिली थी, जो आजकल रंडी हो गई है,
वह हमारे इलाके की ही है। मैं इसके घर वालों को जानता था, वह मेरे घर वालों को जानती थी। शक्ल तो तुमने देखी ही है। दिन में इससे चार-गुना खराब लगती है। तब मैं
नहीं मानता था, मगर इसीलिए मैंने इसमें दिलचस्पी लेनी शुरू की थी। महसूस किया था, आसान होगा कि बस एक बार बुलाने-भर से बात तय हो जाएगी।
'मगर कुछ देर लग गई। दो-बार मैं इसके घर भी गया, मगर हाल-चाली बातें ही कर सका। तब तक यह पढ़ना छोड़ चुकी थी। घर में सबके सामने मैं कुछ कह नहीं पाता था। बाहर वह
शायद निकलती नहीं थी।
'एक दिन मैं यूनीवर्सिटी में घूम रहा था कि सामने से वह आती दिखाई दी। मैं हैरान रह गया। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि वह कभी यूनीवर्सिटी में भी आ सकती
है। मैंने इसका खा़स अर्थ लगाया।
'मैं उसके साथ-साथ चलने लगा। शाम के उस वक्त वह बुरी नहीं लगी, बल्कि अच्छी ही लगी। मैंने देखा वह चलती बहुत अच्छा है और गँठीली भी है। हम दोनों मिलकर जिंदगी
को सह लेंगे, मैंने तब उसके गठन को देखकर सोचा था। मेरे गले में कुछ अटक गया था और मैं कुछ बोल नहीं पाया था।'
'तभी वह रुक गई और बोली, 'अच्छा, कभी घर आना।'
'अच्छा!'
'वह जाने के लिए मुड़ी तो मैंने सोचा मैं भी कैसा चुगद हूँ, ऐसी लड़की से घबराना रहा हूँ। मैंने हिम्मत करके उसे पुकारा और कह दिया।
'वह हँस पड़ी।'
'तुम तो मुझसे भी बदसूरत हो', वह बोली और फिर हँसने लगी उसकी हँसी में ऐसा खुलापन था कि मैं भी बे-रोक-टोक साथ हँसने लगा। हम दोनों कुछ क्षण अजीब खुलेपन में
हँसते रहे। शायद दो बहनों की तरह।'
वह चुप हो गया।
'अचानक ही हम दोनों चुप हो गए और वह बिना कुछ कहे मुड़ी और चली गई। ...उसके बाद मुझे घर वालों ने बहुत कहा, मगर मैंने हर बार इन्कार ही किया... अब उन्होंने
कहना छोड़ दिया है।'
'अच्छा!'
'अरे, कोई कब तक पूछेगा और फिर मुझे जरूरत भी नहीं थी। शादी के बगैर ही सब-कुछ हो जाता था और हो जाता है...।'
'वो कैसे?'
'अरे...!'
इतना सच कहने के बाद उसने अब झूठ बोला था। शायद ज्यादा अपने ही लिए।
यह मुझे बुरा लगा। मैंने उसकी तरफ देखा और कुछ देर तक देखता रहा। लेकिन सारे वक्त मुझे एहसास था कि मेरे घूरने का उस पर कोई असर नहीं पड़ रहा है।
'तुम जानते हो, मेरी उम्र क्या है?' उसने एकदम पूछा।
ह्विस्की पीने से उसका चेहरा सुर्ख हो गया था और अपनी उम्र से छोटा लगता था।
'चौंतीस-पैंतीस होगी।'
'हाँ, ठीक है। चौंतीस।'
उसका चेहरा उतर गया। अगर मैं उम्र ठीक नहीं बता पाता तो शायद उसे खुशी होती।
'इस उम्र में तो अक्ल आ जाती है।'
'पता नहीं', मैंने सख्ती से कहा।
मेरे बोलने में सख्ती कुछ ज्यादा ही थी। साहनी ने चौंककर मेरी तरफ देखा और फिर सिर झुकाकर गिलास उठा लिया। मैं पछताने ही वाला था कि मैंने देखा उसने अंतिम
घूँट पीने के बाद भी गिलास को होठों से लगा रखा है... थोड़ा ऊँचा करके... ताकि आधी या एक-चौथाई बूँद भी गिलास में न बची रहे। गिलास रखकर उसने होंठों पर जीभ
फेरी।
मुझे तेजी से तीखा एहसास हुआ कि इस भाई का मकसद शायद सच-झूठ से परे सिर्फ शाम बिताने से है।
'मैं ठगा गया हूँ', मैंने मन में कहा और इस तरह ठगे जाने पर मेरा गुस्सा बढ़ गया। मैं उठ खड़ा हुआ। गुस्से में मैंने उस पर ये शब्द फेंके - ह्विस्की खत्म
हो गई है, आओ अब चलें।'
हम दोनों नीचे उतरे और कनॉट प्लेस के करामदों में चलने लगे। मैं थोड़ा आगे-आगे चल रहा था, वह मेरे पीछे नत्थी हुआ लटकता-सा आ रहा था।
'अरे भारद्वाज', उसने बात करने की कोशिश की। मैंने जवाब नहीं दिया। हम चलते गए।
कनॉट प्लेस के बरामदे अँधेरे और खाली थे। छायाओं-से कुछ लोग कभी-कभी मिल जाते थे।
उसने मुझसे बात करने की एक कोशिश और की। तेज-तेज चलकर मेरे बराबर आ गया और मेरी तरफ देखकर मुझे पुकारा। मैंने मुँह सिकोड़ा। पता नहीं अँधेरे में उसने देखा कि
नहीं। मगर वह ढीला पड़ गया और बिना फिर पुकारे चुपचाप चलने लगा।
मैने उसे पूरी तरह से दबा लिया था। अब मैं पिघलने लगा।
जिस ढाबे में हम कभी-कभी खाना खाते थे, उसके सामने पहुँचकर मैं रुक गया। वह भी रुक गया।
'अच्छा, मैं चलता हूँ, वह बोला।
'खाना नहीं खाओगे क्या?'
'नहीं।'
'क्यों?'
'ऐसे ही, इच्छा नहीं है।'
'अरे यार, ऐसी भी क्या बात है?'
'नहीं...' उसने अड़कर कहा।
'क्या बात है, साहनी?' मैंने एकाएक स्नेह से पूछा।
'यार, तुम मुझे पसंद नहीं करते।'
मन में कहीं, वह इतना बच्चा भी होगा, मैंने नहीं सोचा था। तो भी अपने भीतर मैंने एक रोने-से को दबाया।
'अरे साहनी यार, तुम गलत समझ रहे हो', कहकर मैंने उसके कंधे के गिर्द कसकर बाँह लपेट ली।
'नहीं, नहीं...।' उसने अपने को छुड़ाने की कोशिश की।
मैंने उसे पकड़े रखा और घसीटता-सा ढाबे में ले गया। वहाँ हम आमने-सामने बैठ गए। मगर बहुत देर तब आँखें नहीं मिला पाए। कोई बात करना असंभव था। हम दोनों को समझ
नहीं आ रहा था कि क्या करें।
हम खाने लगे।
'गोश्त अच्छा है।'
'हाँ।'
फिर चुप्पी। ढाबे के तंदूर से आती सिंकती-पिकती रोटी की, तरकारियों की, धुएँ की और मेज-कुरसियों के मैल की मिली-जुली गंध।
'रोटी और लो।'
'नहीं।'
'एक तो और लो।'
'नहीं, बस।'
खाकर बाहर आए तो मैंने पूछा, 'तुम कहाँ जाओगे?'
'कॉफी हाउस। तुम भी चलो।'
'नहीं, मैं घर जाउँगा।'
'अच्छा, कल आना।'
'पक्का नहीं है।'
वह मुड़ा और कॉफी हाउस की तरफ बढ़ने लगा। कुछ दूरी पर स्कूटर-रिक्शों के स्टैंड के पीछे वह ओझल हो रहा था कि न जाने क्यों मेरे मन में आया कि अगर वह मर जाएगा
तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा और मैंने तय किया कि मैं उससे आइंदा नहीं मिला करूँगा।
दूसरे दिन काम के संबंध में एक आदमी से मिलकर मैं कनॉट प्लेस में मँडराने लगा। अमरीकी लायब्रेरी में जाकर मोटे चमकदार कागजों पर छपी तस्वीरें देखीं।
फिर कनॉट प्लेस में आ गया। एक चक्कर काटा।
अचानक दो लड़कियाँ दिखाई दीं - बहुत सुंदर और बहुत अमीर। उन्हें देख बेहद दुख हुआ। अपनी जिंदगी बेकार लगी - साहनी की जैसी।
मेरी इच्छा चुपचाप बैठकर कॉफी और सिगरेट पीने की होने लगी। मैं कॉफी हाउस की तरफ चलने लगा।