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कविता

जलपरी

शरद आलोक


कोपेनहेगन में
सागर तट पर
सौ वर्षों से निहारती
नन्हीं सागर महिला
असंख्यों से हुई भेंट
कितने प्रतीक्षारत हैं
एक दृष्टि पाने को
पत्थर पर बैठी यह
सुधबुध खोए यह अहिल्या नहीं,
अजंता और एलोरा की अप्सरा भी नहीं
मछली के रूप में
आई एक जलपरी!
छरहरी, देह से गुलमोहरी!

कितने ही पाशों ने बाँधा तुमको
जिसने जैसा चाहा पाया सानिध्य,
न कोई उलाहना
सभी के लिए एक सी,
मूक-वधिर की अपार प्रेम काष्ठा;
कभी नहीं होती मंद प्यास,
जितना पीते हैं, फिर भी प्यासे हैं हम!
प्रेम बाँटने से नहीं होता है कम
जिंदगी की पी रही उदासी
हँसी-खुशी अँखियाँ प्यासी।
तुम कपूर सी रात की ओस!
शिशिर-कणों की भीगी मुलायम बरफ!
जिंदगी कर गई शरद!
पतझरों के पीले पत्तों को बता गई रहस्य!
इठलाती रही होगी कभी यह
कितने मचले होंगे मूर्तिकार!
कर सपनों को साकार,
देकर एक कथा को आकार!
हे प्रकृति चित्रकार!
जीवन में भरा संसार;
आकर कारीगरों के हाथ,
कितनी बार तराशा होगा,
तब बनाई होंगी कृतियाँ,

कितने ही जहाजों ने डाले लंगर
कटनी मछलियों किया स्पर्श
कभी नहीं सहमी जलपरी।
अगस्त १९१३ से अबोध
एक शताब्दी का सागर बोध

हान्स क्रिस्तिआन अंदर्सन की कथा
कह रही है व्यथा
जिंदगी खुले आसमान के नीचे
दूसरों को दे रही दिलासा
कोपेनहेगन कभी आना,
मेरे समीप इतने कि
साँस से साक्षात्कार करती हवा,
बीमारी में इलाज करती दवा

सागर के किनारे तट पर
तुम्हारी बाट जोहती हर पल!
हे यात्री! पर्यटक!
मेरे पास आना बेखटक,
सुनसान को वीरान बनाना
दूसरों को गले लगाना,
दोस्तों और दुश्मनों का अंतर भूल
चुपचाप बैठी हूँ निर्मूल!
शबरी के खट्टे मीठे बेर चखे बिना ही
प्रेम का अर्क पी लिया हमने
जैसे पत्थरों को दूध
भूखे बालकों को पानी
जिंदगी बन रही बेईमानी
दरगाह और निर्वाण का स्तूप!

जब भी आना तुम,
बैठी निहारती रहूँगी।
सागर की लहरों के बीच आहट के साथ
चाहे बरसात, आँधी, छाँव हो या धूप!


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