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कविता

दूर देश से आई चिट्ठी


भोले-भाले गाँव के लोग
बाट जोहते
राह पर पलक बिछाए
दूर देश से आई चिट्ठी
पाती पाकर आज तुम्हारी
फूले नहीं समाए

अपना-अपना जीवन
अपनी-अपनी परिभाषाएँ
कोई निश्चित दिशा में बाँधे
ऐसा नहीं नियति है
मिट्टी ही तो मूल हमारा
उसकी भीनी खुशबू
अपनी-अपनी लिपियाँ रचकर
उसके आलिंगन में बँधकर
समन्वित रुचियों के रथ पर
सावन के झूलों पर पेंग मारकर
सबने भरी उड़ाने
और गगन छूने को आतुर
वे बचपन के सपने।

किसे स्मरण न आते
अपने बचपने के सपने
पलक झपकते लगते सच्चे
जीवन है
सपनों को पूरित करने का मन है
न रोक सका है,
न रोक सकेगा।
स्वयं हमें बढ़ना होगा,
चहुँ ओर फैलते सन्नाटे को चीर
नीड़ पुनः रचता होगा,
छायादार वृक्ष उगाना होगा।

भोले-भाले गाँव के लोग
यही सोचते
जो भी छोड़ गया है उनको,
सुखी और हर्षित होगा
उनके नीड़ों के तिनकों की
कोई तो फिर सुधि लेगा।
दूर नहीं अब रही है दूरी
जब से कंप्यूटर आया।
कितनों की अनुभूतियाँ बनकर
वेब पत्रों पर फल फूल रही हैं।

गाँव के लोग
पत्र तुम्हारा रोज पढ़ा करते हैं।
भूल न जाना उनको जल्दी
यही आस रखते हैं।


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