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कविता

क्योंकि जगह भी एक आवाज है

कुमार विक्रम


कवि मंगलेश डबराल के लिए
बात सही है
आवाज भी एक जगह है
क्यूँकि आपकी आवाज के अनुपात में ही
यह तय होता है कि
कितनी, कैसी, कहाँ और कब तक
आपको जगह मिलेगी
अगर कहीं किसी की आवाज दब गई
तो मानो एक कोई नई जगह
जो तैयार हो रही थी
वो बनते बनते रह गई
समुद्र की गहराइयों में
पृथ्वी के तहखानो में
बदहवास सी दौड़ती-भागती
जिंदगी की तन्हाइयों में
ऐसे कई शब्द मौन हैं
जिन्हें कोई जगह
अभी तक नहीं मिल पाई है
क्योंकि उनका आवाजों में तब्दील होना
अभी भी बाकी है
शायद इसीलिए भी क्यूँकि
जगह भी एक आवाज है
जिनका होना न जाने
किस नए युग का आगाज हो
तभी तो हर रंग के कट्टरपंथियों का
सबसे बड़ा सपना होता है
पूरी धरती हड़प कर उनपर खुद सोना
ताकि एक टुकड़ा जमीन
एक मद्धिम आवाज भी
न बच पाए उनके लिए
जो कोई बीच की जगह ढूँढ़ते-बनाते हैं
कोई मध्यम मार्ग
जिसके सहारे
इतिहास के साझा गलियारों में
किसी एक बुद्ध, एक कबीर,
एक दारा शिकोह, एक गांधी की आवाज
गूँजती रहती है
जिन्हें भिक्षा में
कोई सड़ा हुआ मांस का टुकड़ा दिया जा सकता है
या फिर काशी से निष्कासित किया जा सकता है
सर कलम कर बोलती बंद की जा सकती है
या गोलियों से छलनी कर
शरीर खत्म किया जा सकता है
लेकिन जिनकी आवाज गाहे-बगाहे
रात के अंधियारे में किसी कोने से आती रहती है
मानो कहते हुए 'जागते रहो, जागते रहो"
एक ऐसी सदा
जिसे कोई भी जगह देना
खतरे से खाली नहीं।


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