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कविता

लुप्त होती भाषाएँ

कुमार विक्रम


कहते हैं
हजारों भाषाएँ लुप्त हुई जा रही हैं
वे अब उन पुराने बंद मकानों की तरह हैं
जिनमे कोई रहने नहीं आता
मकान से गिरती टूटी-फूटी कुछ ईंटें
बच्चों को संस्कारी बनाने के लिए
घर के मंदिर में बेढंग शब्दों जैसे
सहेज कर रख ली गई हैं
जैसे बीती रात के कुछ सपने
दिन के उजाले में
आधे याद और आधे धुँधले से
हमारा पीछा करते रहते हैं
लुप्त होती भाषाओं के नाम
अजीबो-गरीब से लगते हैं
साथ ही यह सूचना भी
कि उन्हें जानने-बोलने वालों की संख्या
कुछ दहाई अथवा सैकड़ों में ही रह गई है
कैसा वीभत्स सा यह समय लग रहा है
जब प्यार की भाषा
अजनबियों के सरोकार जानने की भाषा
बीमार पड़े कमजोर व्यक्तियों की
जुबान समझने की कला
या फिर उसका भाषा-विज्ञान
जानने-समझने-बोलने वालों की संख्या
दिन पर दिन घटती जा रही है


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