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कविता

मेरे गाँव की नदी पर पुल

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति


मैं एक पहाड़ बना रहा
तुम एक गाँव बने रहे
हम इस तरह गाँव और शहर के दो दोस्त हुए

वक्त ने हमारे बीच से गुजर जाना मंजूर किया
वह नदी बना और हममें से होकर बहने लगा

मेरे सपने पेड़ बन कर उग आए
वक्त बहता रहा पेड़ों ने अपने झाड़ फैलाए
छाँव दी और फल गिराए

मेरे विचारों ने दूब का रूप धर लिया
मेरी शुभकामनाएँ फूल बन गईं
वक्त की नदी की तरह बहते हुए
सब कुछ हरियाली में मिल गया

कुछ दिनों बाद मैं शहर आ गया
नदी सूख गई थी और
गाँव भी किनारों पर छाँव में नहीं रुका
पहाड़ में से एक सड़क गुजर गई
गाँव की नदी पर एक पुल उभर आया

मैं पहाड़ हूँ और नदी में देखता हूँ अपना चेहरा
नदी सूख गई और सारा गाँव पुल से निकल रहा है
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तुम्हारे चेहरे से निकल कर एक तरफ
चाँद चला गया, एक तरफ सूरज चमक उठा
अब दोनों की किरणें तुम्हें सजाने आती हैं
पूनम की चाँदनी में नदी की तरह
चल रही हो तुम और मैं खड़ा हूँ पुल पर

तुम में बह रहा है पूरा संसार
पहाड़, नदियाँ, स्मृतियों के फूल
चाँद का टुकड़ा और एक भरा पूरा दिन

तुम में दिखता है सब कुछ आरपार
घुटनों भर नदी की चपलता लिए

तुम गुजरती रहती हो हर क्षण
लेकिन खत्म नहीं होतीं


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