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कविता

कुछ दिन और मैं

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति


मैंने दिनों को स्ट्रीट लाइट
बना कर टाँग दिया
अपना हर दिन जो प्यार से रँगा था
आज शहर में हर तरफ हैं

मेरे दिन जो नीले लाल थे
आज मुझ से कितने दूर हैं

मेरे दिन चमक रहे हैं लाइटों में
दुकानों सड़कों और हर लड़की के चश्मे पर
सारा शहर गुजर रहा है
कार के काँच पर जैसे बदलते हैं दृश्य

मेरे दिनों में चमक रहा है प्यार
बरस रहा है मुस्कुराते शहर पर

मैंने अपने दिन छोड़ दिए हैं
मेरे दिन प्यार कर रहे हैं

मैं अकेला हूँ अपने दिनों के बिना
मैं खड़ा हूँ अपने ही दिनों के प्यार में


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