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कविता

आत्मकथ्य

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति


मेरे लिए अपने आपको गाँव या शहर में किसी भी रूप में बाँटना मुश्किल होता है। खुद को और कविता को बाँटना मेरे लिए संभव नहीं होता है। मैं समझ नहीं पाता कि वह कौन सी सीमा रेखा है जिससे समाज अलग अलग होता है। हम सुविधाओं के लिए खुद को अलग अलग सीमाओं में बाँटते हैं लेकिन दरअसल वे कोई सीमा होती नहीं हैं। वे एक ऐसा बिंदु होती हैं जिसको हम सुविधा के लिए स्वीकार करते हैं। यहीं दूसरी बात ये है कि आखिर मैं क्यों नहीं बाँट पाता? क्या कारण हैं कि ऐसा है? यहाँ अपनी बात एक उदाहरण से स्पष्ट करना जरूरी है। विज्ञान के नजरिए से देखें तो अँधेरा और उजाला कोई दो स्थितियों या पक्षों का प्रतीक नहीं हैं। वे प्रकाश कणों की विरलता और सघनता का स्तर ही होते हैं। जब बहुत अधिक प्रकाश कण होते हैं तो दिन होता है और जब वे धीरे धीरे कम होते जाते हैं, उनमें विरलता आती जाती है तो वे अँधेरे का निर्माण का भ्रम देते हैं। यानी स्केल एक ही होता है। अब जब स्केल एक है पैमाना एक है तो आप उसे दो अलग पक्ष जब करेंगे तो एक सुविधा के लिए करेंगे। यह सुविधा प्रशासन के लिए ठीक है कि रात हो गई तो लाइट की व्यवस्था की जाए। या शहर से बाहर जंगल या गाँव आ गए है तो विशेष चौकी की स्थापनाएँ की जाएँ लेकिन ये कविताओं के लिए भाव के लिए संभव नहीं हैं। कम से कम मैं अपनी जिम्मेदारी पर स्वीकार करता हूँ कि मेरे लिए यह अलगाव स्वीकार नहीं... यही कारण है कि मैं गाँव को सभ्यता के स्केल के निम्मतम हिस्सों से उच्चतर हिस्सों की ओर आने वाले वर्ग की तरह देखता हूँ।


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