एक-दूसरे को बिना जाने
	पास-पास होना
	और उस संगीत को सुनना
	जो धमनियों में बजता है,
	उन रंगों में नहा जाना
	जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं ।
	
	शब्दों की खोज शुरु होते ही
	हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
	और उनके पकड़ में आते ही
	एक-दूसरे के हाथों से
	मछली की तरह फिसल जाते हैं ।
	
	हर जानकारी में बहुत गहरे
	ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
	कुछ भी ठीक से जान लेना
	खुद से दुश्मनी ठान लेना है ।
	
	कितना अच्छा होता है
	एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
	और अपने ही भीतर
	दूसरे को पा लेना ।