असाध्य वीणा 
							
							आ गए प्रियंवद! केशकंबली! गुफा-गेह!
							राजा ने आसन दिया। कहा :
							'कृतकृत्य हुआ मैं तात! पधारे आप।
							भरोसा है अब मुझ को
							साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी!'
							
							लघु संकेत समझ राजा का
							गण दौड़े। लाये असाध्य वीणा,
							साधक के आगे रख उस को, हट गए।
							सभी की उत्सुक आँखें
							एक बार वीणा को लख, टिक गईं
							प्रियंवद के चेहरे पर।
							
							'यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रांतर से
							-घने वनों में जहाँ तपस्या करते हैं व्रतचारी-
							बहुत समय पहले आयी थी।
							पूरा तो इतिहास न जान सके हम :
							किंतु सुना है
							वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस
							अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढ़ा था-
							उस के कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
							कंधों पर बादल सोते थे,
							उस की करि-शुंडों-सी डालें
							हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,
							कोटर में भालू बसते थे,
							केहरि उस के वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।
							और-सुना है-जड़ उस की जा पहुँची थी पाताल-लोक,
							उस की ग्रंथ-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।
							उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने
							सारा जीवन इसे गढ़ा :
							हठ-साधना यही थी उस साधक की-
							वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।'
							
							राजा रुके साँस लंबी ले कर फिर बोले :
							'मेरे हार गए सब जाने-माने कलावंत,
							सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
							कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
							अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गई।
							पर मेरा अब भी है विश्वास
							कृच्छ्र-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
							वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी
							इसे जब सच्चा-स्वरसिद्ध गोद में लेगा।
							तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
							वज्रकीर्ति की वीणा,
							यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :
							सब उदग्र, पर्युत्सुक,
							जन-मात्र प्रतीक्षमाण!'
							
							केशकंबली गुफा-गेह ने खोला कंबल।
							धरती पर चुप-चाप बिछाया।
							वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर, प्राण खींच
							कर के प्रणाम,
							अस्पर्श छुअन से छुए तार।
							धीरे बोला : 'राजन्! पर मैं तो
							कलावंत हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ-
							जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
							वज्रकीर्ति!
							प्राचीन किरीटी-तरु!
							अभिमंत्रित वीणा!
							
							ध्यान-मात्र इन का तो गद्गद विह्वल कर देने वाला है!'
							
							चुप हो गया प्रियंवद।
							सभा भी मौन हो रही।
							
							वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।
							धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।
							सभा चकित थी- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?
							केशकंबली अथवा हो कर पराभूत
							झुक गया वाद्य पर?
							वीणा सचमुच क्या है असाध्य?
							
							पर उस स्पंदित सन्नाटे में
							मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा-
							नहीं, स्वयं अपने को शोध रहा था।
							सघन निविड़ में वह अपने को
							सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को।
							कौन प्रियंवद है कि दंभ कर
							इस अभिमंत्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?
							कौन बजावे
							यह वीणा जो स्वयं एक जीवन भर की साधना रही?
							भूल गया था केशकंबली राज-सभा को :
							कंबल पर अभिमंत्रित एक अकेलेपन में डूब गया था
							जिस में साक्षी के आगे था
							जीवित वही किरीटी-तरु
							जिस की जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,
							जिस के कंधों पर बादल सोते थे
							और कान में जिस के हिमगिरि कहते थे अपने रहस्य।
							संबोधित कर उस तरु को, करता था
							नीरव एकालाप प्रियंवद।
							
							'ओ विशाल तरु!
							शत-सहस्त्र पल्लवन-पतझरों ने जिस का नित रूप सँवारा,
							कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी,
							दिन भौंरे कर गए गुंजरित,
							रातों में झिल्ली ने
							अनथक मंगल-गान सुनाये,
							साँझ-सवेरे अनगिन
							अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा-काकलि
							डाली-डाली को कँपा गई-
							ओ दीर्घकाय!
							ओ पूरे झारखंड के अग्रज,
							तात, सखा, गुरु, आश्रय,
							त्राता महच्छाय,
							ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के
							वृंदगान के मूर्त रूप,
							मैं तुझे सुनूँ,
							देखूँ, ध्याऊँ
							अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक् :
							कहाँ साहस पाऊँ
							छू सकूँ तुझे!
							तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गई वीणा को
							किस स्पर्धा से
							हाथ करें आघात
							छीनने को तारों से
							एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में
							स्वयं न जाने कितनों के स्पंदित प्राण रच गए!
							
							'नहीं, नहीं! वीणा यह मेरी गोद रखी है, रहे,
							किंतु मैं ही तो
							तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ,
							ओ तरु-तात! सँभाल मुझे,
							मेरी हर किलक
							पुलक में डूब जाय:
							मैं सुनूँ,
							गुनूँ, विस्मय से भर आँकूँ
							तेरे अनुभव का एक-एक अंत:स्वर
							तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय-
							गा तू :
							तेरी लय पर मेरी साँसें
							भरें, पुरें, रीतें, विश्रांति पाएँ।
							
							'गा तू!
							यह वीणा रक्खी है : तेरा अंग-अपंग!
							किंतु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित,
							रस-विद्
							तू गा :
							मेरे अँधियारे अंतस् में आलोक जगा
							स्मृति का
							श्रुति का-
							तू गा, तू गा, तू गा, तू गा!
							
							'हाँ, मुझे स्मरण है :
							बदली-कौंध-पत्तियों पर वर्षा-बूँदों की पट-पट।
							घनी रात में महुए का चुप-चाप टपकना।
							चौंके खग-शावक की चिहुँक।
							शिलाओं को दुलराते वन-झरने के
							द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद।
							कुहरे में छन कर आती
							पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप।
							गड़रियों की अनमनी बाँसुरी।
							कठफोड़े का ठेका। फुलसुँघनी की आतुर फुरकन :
							ओस-बूँद की ढरकन-इतनी कोमल, तरल
							कि झरते-झरते मानो
							हरसिंगार का फूल बन गई।
							भरे शरद् के ताल, लहरियों की सरसर-ध्वनि।
							कूँजों का क्रेंकार। काँद लंबी टिट्टिभ की।
							पंख-युक्त सायक-सी हंस-बलाका।
							चीड़-वनों में गंध-अंध उन्मद पतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट
							जल-प्रपात का प्लुत एकस्वर।
							झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार पुकारों की यति में
							संसृति की साँय साँय।
							
							'हाँ, मुझे स्मरण है :
							दूर पहाड़ों से काले मेघों की बाढ़
							हाथियों का मानो चिंघाड़ रहा हो यूथ।
							घरघराहट चढ़ती बहिया की।
							रेतीले कगार का गिरना छप्-छड़ाप।
							झंझा की फुफकार, तप्त,
							पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना।
							ओले की कर्री चपत।
							जमे पाले से तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन।
							ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घाम में धीरे-धीरे रिसना।
							हिम-तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुप-चाप।
							घाटियों में भरती
							गिरती चट्टानों की गूँज-
							काँपती मंद्र गूँज-अनुगूँज-साँस खोयी-सी, धीरे-धीरे नीरव।
							'मुझे स्मरण है :
							हरी तलहटी में, छोटे पेड़ों की ओट ताल पर
							बँधे समय वन-पशुओं की नानाविध आतुर-तृप्त पुकारें :
							गर्जन, घुर्घुर, चीख, भूँक, हुक्का, चिचियाहट।
							कमल-कुमुद-पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित
							जल-पंछी की चाप
							थाप दादुर की चकित छलाँगों की।
							पंथी के घोड़े की टाप अधीर।
							अचंचल धीर थाप भैंसों के भारी खुर की।
							
							'मुझे स्मरण है :
							उझक क्षितिज से
							किरण भोर की पहली
							जब तकती है ओस-बूँद को
							उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
							और दुपहरी में जब
							घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
							मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार-
							उस लंबे विलमे क्षण का तंद्रालस ठहराव।
							
							और साँझ को
							जब तारों की तरल कँपकँपी
							स्पर्शहीन झरती है-
							मानो नभ में तरल नयन ठिठकी
							नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशीर्वाद-
							उस संधि-निमिष की पुलकन लीयमान।
							
							'मुझे स्मरण है :
							और चित्र प्रत्येक
							स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझ को।
							सुनता हूँ मैं
							पर हर स्वर-कंपन लेता है मुझ को मुझ से सोख-
							वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ...।
							मुझे स्मरण है-
							पर मुझ को मैं भूल गया हूँ :
							सुनता हूँ मैं-
							पर मैं मुझ से परे, शब्द में लीयमान।
							
							'मैं नहीं, नहीं! मैं कहीं नहीं!
							ओ रे तरु! ओ वन!
							ओ स्वर-संभार!
							नाद-मय संसृति!
							ओ रस-प्लावन!
							मुझे क्षमा कर-भूल अकिंचनता को मेरी-
							मुझे ओट दे-ढँक ले-छा ले-
							ओ शरण्य!
							मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले!
							आ, मुझे भुला,
							तू उतर वीन के तारों में
							अपने से गा
							अपने को गा-
							अपने खग-कुल को मुखरित कर
							अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,
							अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर
							अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,
							अपनी प्रज्ञा को वाणी दे!
							तू गा, तू गा-
							तू सन्निधि पा-तू खो
							तू आ-तू हो-तू गा! तू गा!'
							
							राजा जागे।
							समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था-
							काँपी थीं उँगलियाँ।
							अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :
							किलक उठे थे स्वर-शिशु।
							नीरव पद रखता जालिक मायावी
							सधे करों से धीरे धीरे धीरे
							डाल रहा था जाल हेम-तारों का।
							
							सहसा वीणा झनझना उठी-
							संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गई-
							रोमांच एक बिजली-सा सब के तन में दौड़ गया।
							अवतरित हुआ संगीत
							स्वयंभू
							जिस में सोता है अखंड
							ब्रह्मा का मौन
							अशेष प्रभामय।
							
							डूब गए सब एक साथ।
							सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे।
							
							राजा ने अलग सुना :
							जय देवी यश:काय
							वरमाल लिए
							गाती थी मंगल-गीत,
							दुंदुभी दूर कहीं बजती थी,
							राज-मुकुट सहसा हलका हो आया था, मानो हो फूल सिरिस का
							ईर्ष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता
							सभी पुराने लुगड़े-से झर गए, निखर आया था जीवन-कांचन
							धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा।
							
							रानी ने अलग सुना :
							छँटती बदली में एक कौंध कह गई-
							तुम्हारे ये मणि-माणक, कंठहार, पट-वस्त्र,
							मेखला-किंकिणि-
							सब अंधकार के कण हैं ये! आलोक एक है
							प्यार अनन्य! उसी की
							विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को,
							थिरक उसी की छाती पर उस में छिप कर सो जाती है
							आश्वस्त, सहज विश्वास-भरी।
							रानी
							उस एक प्यार को साधेगी।
							
							सब ने भी अलग-अलग संगीत सुना।
							इस को
							वह कृपा-वाक्य था प्रभुओं का।
							उस को
							आतंक-मुक्ति का आश्वासन!
							इस को
							वह भरी तिजोरी में सोने की खनक।
							उसे
							बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुदबुद।
							किसी एक को नई वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि।
							किसी दूसरे को शिशु की किलकारी।
							एक किसी को जाल-फँसी मछली की तड़पन-
							एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया की।
							एक तीसरे को मंडी की ठेलमठेल, गाहकों की आस्पर्धा भरी बोलियाँ,
							चौथे को मंदिर की ताल-युक्त घंटा-ध्वनि।
							और पाँचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें
							और छठे को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की
							अविराम थपक।
							बटिया पर चमरौधे की रुँधी चाप सातवें के लिए-
							और आठवें को कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल।
							इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की।
							उसे युद्ध का ढोल।
							
							
							इसे संझा-गोधूली की लघु टुन-टुन-
							उसे प्रलय का डमरु-नाद।
							इस को जीवन की पहली अँगड़ाई
							पर उस को महाजृंभ विकराल काल!
							सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे-
							हो रहे वंशवद, स्तब्ध :
							इयत्ता सब की अलग-अलग जागी,
							संघीत हुई,
							पा गई विलय।
							
							वीणा फिर मूक हो गई।
							
							साधु! साधु!!
							
							राजा सिंहासन से उतरे-
							रानी ने अर्पित की सतलड़ी माल,
							जनता विह्वल कह उठी 'धन्य!
							हे स्वरजित्! धन्य! धन्य!'
							
							संगीतकार
							वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक-मानो
							गोदी में सोये शिशु को पालने डाल कर मुग्धा माँ
							हट जाय, दीठ से दुलराती-
							उठ खड़ा हुआ।
							बढ़ते राजा का हाथ उठा करता आवर्जन,
							बोला :
							'श्रेय नहीं कुछ मेरा :
							मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में-
							वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
							सब कुछ को सौंप दिया था-
							सुना आप ने जो वह मेरा नहीं,
							न वीणा का था :
							वह तो सब कुछ की तथता थी
							महाशून्य
							वह महामौन
							अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
							जो शब्दहीन
							सब में गाता है।'
							
							नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकंबली।
							ले कर कंबल गेह-गुफा को चला गया।
							उठ गई सभा। सब अपने-अपने काम लगे।
							युग पलट गया।
							
							प्रिय पाठक! यों मेरी वाणी भी
							मौन हुई।
						
							 
						
							उधार
							
							सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी
							और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी।
							मैंने धूप से कहा : मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार?
							चिड़िया से कहा : थोड़ी मिठास उधार दोगी?
							मैंने घास की पत्ती से पूछा : तनिक हरियाली दोगी-
							तिनके की नोक-भर?
							शंखपुष्पी से पूछा : उजास दोगी-
							किरण की ओक-भर?
							मैंने हवा से माँगा : थोड़ा खुलापन-बस एक प्रश्वास,
							लहर से : एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।
							मैंने आकाश से माँगी
							आँख की झपकी-भर असीमता-उधार।
							
							सब से उधार माँगा, सब ने दिया।
							यों मैं जिया और जीता हूँ
							क्योंकि यही सब तो है जीवन-
							गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला,
							गंधवाही मुक्त खुलापन,
							लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,
							और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का :
							ये सब उधार पाये हुए द्रव्य।
							रात के अकेले अंधकार में
							सपने से जागा जिसमें
							एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर
							मुझ से पूछा था : 'क्यों जी,
							तुम्हारे इस जीवन के
							इतने विविध अनुभव हैं
							इतने तुम धनी हो,
							तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे उधार जिसे मैं
							सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा-
							और वह भी सौ-सौ बार गिन के-
							जब-जब मैं आऊँगा?'
							
							मैंने कहा : प्यार? उधार?
							स्वर अचकचाया था, क्योंकि मेरे
							अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार।
							उस अनदेखे अरूप ने कहा : 'हाँ,
							क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं-
							यह अकेलापन, यह अकुलाहट,
							यह असमंजस, अचकचाहट,
							आर्त अननुभव,
							यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय
							विरह-व्यथा,
							यह अंधकार में जाग कर सहसा पहचानना कि
							जो मेरा है वही ममेतर है।
							यह सब तुम्हारे पास है
							तो थोड़ा मुझे दे दो-उधार- इस एक बार-
							मुझे जो चरम आवश्यकता है।'
							उसने यह कहा,
							पर रात के घुप अंधेरे में
							मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ :
							अनदेखे अरूप को
							उधार देते मैं डरता हूँ :
							क्या जाने
							यह याचक कौन है!
						
							 
						
							रहस्यवाद
							
							मैं भी एक प्रवाह में हूँ-
							लेकिन मेरा रहस्यवाद ईश्वर की ओर उन्मुख नहीं है
							मैं उस असीम शक्ति से संबंध जोड़ना चाहता हूँ
							अभिभूत होना चाहता हूँ-
							जो मेरे भीतर है।
							शक्ति असीम है- मैं शक्ति का एक अणु हूँ
							मैं भी असीम हूँ।
							एक असीम बूँद असीम समुद्र को अपने भीतर प्रतिबिंबित करती है,
							उस असीम अणु, उस असीम शक्ति को जो उसे प्रेरित करती है
							अपने भीतर समा लेना चाहता है।
							उसकी रहस्यमयता का परदा खोलकर उसमें मिल जाना चाहता है-
							यही मेरा रहस्यवाद है।
						
							 
						
							उड़ चल हारिल
							
							उड़ चल हारिल, लिए हाथ में यही अकेला ओछा तिनका।
							ऊषा जाग उठी प्राची में-कैसा वाट, भरोसा किन का।
							
							शक्ति रहे तेरे हाथों में-छुट न जाए यह चाह सृजन की;
							शक्ति रहे तेरे हाथों में-रुक न जाए यह गति जीवन की।
							
							ऊपर-ऊपर, ऊपर-ऊपर-बढ़ा चीरता चल दिङ्मंडल :
							अनथक पंखों की चोटों से नभ में एक मचा दे हलच
						
							 
						
							सावन-मेघ
							
							घिर गया नभ, उमड़ आए मेघ काले,
							भूमि के कंपित उरोजों पर झुका-सा, विशद, श्वासाहत, चिरातुर-
							छा गया इंद्र का नील वक्ष-वज्र-सा, यदि तड़ित से झूलता हुआ-सा।
							आह, मेरा श्वास है उत्तप्त-
							धमनियों में उमड़ आई है लहू की धार-
							प्यार है अभिशप्त : तुम कहाँ हो नारि?
							मेघ व्याकुल गगन को मैं देखता था, बन विरह के लक्षणों की मूर्ति-
							सूक्ति की फिर नायिकाएँ, शास्त्रसंगत प्रेम क्रीड़ाएँ,
							घुमड़ती थीं बादलों में आदर, कच्ची वासना के धूम-सी।
							जबकि सहसा तड़ित के आघात से घिरकर
							फूट निकला स्वर्ग का आलोक। बाह्य देखा :
							स्नेह से आलिप्त, बीज के भवितव्य से उत्फुल्ल,
							बद्ध-वासना के पंक-सी फैली हुई थी
							धारयित्री-सत्य-सी निर्लज्ज, नंगी, औ' समर्पित।
						
							 
						
							ऋतुराज
							
							शिशिर ने पहन लिया वसंत का दुकूल
							गंध वह उड़ रहा पराग धूल झूल,
							काँटों का किरीट धारे बने देवदूत
							पीत-वसन दमक उठे तिरस्कृत बबूल
							अरे ऋतुराज आ गया।
							पूछते हैं मेघ, 'क्या वसंत आ गया?'
							हँस रहा समीर, 'वह छली भुला गया!'
							किंतु मस्त कोपलें सलज्ज सोचतीं
							'हमें कौन स्नेह स्पर्श कर जगा गया?'
							वही ऋतुराज आ गया।
						
							 
						
							जन्म-दिवस
							
							मैं मरूँगा सुखी
							क्योंकि तुमने जो जीवन दिया था-
							(पिता कहलाते हो तो जीवन के तत्त्व पाँच
							चाहे जैसे पुंज बद्ध हुए हों, श्रेय तो तुम्हीं को होगा-)
							उससे मैं निर्विकल्प खेला हूँ-
							खुले हाथों उसे मैंने वारा है-
							धज्जियाँ उड़ाई हैं।
							तुम बड़े दाता हो :
							तुम्हारी देन मैंने नहीं सूम-सी सँजोयी;
							पाँच ही थे तत्त्व मेरी गूदड़ी में- मैंने नहीं माना उन्हें लाल
							चाहे यह जीवन का वरदान तुम नहीं देते बार-बार-
							(अरे मानव की जोनि! परम संयोग है!)
							किंतु जब आए काल
							लोलुप विवर-सा प्रलंब कर, खुली पाए प्राणों की मंजूषा
							जावें पाँचों प्राण शून्य में बिखर
							मैं भी दाता हूँ। विसर्ग महाप्राण है।
							मैं मरूँगा सुखी।
							किंतु नहीं धो रहा मैं पाटियाँ आभार की।
							उनके समक्ष
							दिया जिन्होंने बहुत कुछ, किंतु जो अपने को दाता नहीं मानते-
							नहीं जानते :
							अमुखर नारियाँ, धूलभरे शिशु, खग
							ओस-नभे फूल, गंध मिट्टी पर पहले अषाढ़ के अयाने कार बिंदु की,
							कोटरों से झाँकती गिलहरी
							स्तब्ध, लयबद्ध, भौंरा टँका अधर में,
							चाँदनी से बसा हुआ कोहरा
							पीली धूप शारदीया प्रात की
							बाजरे के खेतों को फलाँगती डार हिरनों की बरसात में-
							नत हूँ मैं सबके समक्ष, बार-बार मैं विनीत स्वर
							ऋण : स्वीकारी हूँ-विनत हूँ।
							मैं मरूँगा सुखी
							मैंने जीवन की धज्जियाँ उड़ाई हैं।
						
							 
						
							देखती है दीठ 
							
							हँस रही है वधू-जीवन तृप्तिमय है
							प्रिय-वदन अनुरक्त यह उसकी विजय है
							गेह है, गति है, गीत है, लय है, प्रणय है :
							सभी कुछ है।
							देखती है दीठ-
							लता टूटी, कुरमुराता मूल में सूक्ष्म भय का कीट।
						
							 
						
							एक  ऑटोग्राफ
							
							अल्ला रे अल्ला
							होता न मनुष्य मैं, होता करमकल्ला।
							रूखे कर्म जीवन से उलझता न पल्ला।
							चाहता न नाम कुछ, माँगता न दाम कुछ
							करता न काम कुछ, बैठता निठल्ला-
							अल्ला रे अल्ला
						
							 
						
							पराजय है याद
							
							भोर वेला-नदी तट की घंटियों का नाद।
							चोट खाकर जग उठा सोया हुआ अवसाद।
							नहीं, मुझको नहीं, अपने दर्द का अभिमान।
							मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद।
						
							 
						
							दूर्वांचल
							
							पाश्र्व गिरि का नभ्र, चीड़ों में
							डगर चढ़ती उमंगों-सी।
							बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।
							विहग शिशु मौन नीड़ों में
							मैंने आँख भर देखा।
							दिया मन को दिलासा- पुन: आऊँगा
							(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद)
							क्षितिज ने पलक-सी खोली
							तमककर दामिनी बोली-
							'अरे यायावर! रहेगा याद?'
						
							 
						
							शरणार्थी-6 समानांतर साँप
							
							केंचुलें हैं, केंचुलें हैं, झाड़ दो।
							छल मकर की तनी झिल्ली फाड़ दो।
							साँप के विष-दाँत तोड़ उघाड़ दो।
							आजकल यह चलन है, सब जंतुओं की खाल पहने हैं-
							गले गीदड़ लोमड़ी की
							बाघ की है खाल काँधों पर
							दिल ढँका है भेड़ की गुलगुली चमड़ी से
							हाथ में थैला मगर की खाल का
							और पैरों में
							जगमगाती साँप की केंचुल
							बनी है श्रीचरण का सैंडल
							किंतु भीतर कहीं
							भेड़-बकरी, बाघ-गीदड़, साँप के बहुरूप के अंदर
							कहीं पर रौंदा हुआ अब भी तड़पता है
							सनातन मानव-
							खरा इनसान-
							क्षण भर रुको उसको जगा लें।
							नहीं है यह धर्म, ये तो पैंतरे हैं उन दरिंदों के
							रूढ़ि के नाखून पर मरजाद की मखमल चढ़ाकर
							यों विचारों पर झपट्टा मारते हैं-
							बड़े स्वार्थी की कुटिल चालें
							साथ आओ-
							गिलगिले ये साँप बैरी हैं हमारे
							इन्हें आज पछाड़ दो
							यह मगर की तनी झिल्ली फाड़ दो
							केंचुलें हैं, केंचुलें हैं, झाड़ दो।
						
							 
						
							सो रहा है झोंप 
							
							सो रहा है झोंप अँधियाला नदी की जाँघ पर :
							डाह से सिहरी हुई यह चाँदनी
							चोर पैरों से उझककर झाँक जाती है।
							प्रस्फुलन के दो क्षणों का मोल शेफाली
							विजन की धूल पर चुपचाप
							अपने मुग्ध प्राणों से अजाने आँक जाती है।
						
							 
						
							हमारा देश 
							
							इन्हीं तृण फूस-छप्पर से
							ढँके ढुलमुल गँवारू
							झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है।
							इन्हीं के ढोल-मादल बाँसुरी के
							उमगते सुर में
							हमारी साधना का रस बरसता है।
							इन्हीं के मर्म को अनजान
							शहरों की ढँकी लोलुप
							विषैली वासना का साँप डँसता है।
							इन्हीं में लहरती अल्हड़
							अयानी संस्कृति की दुर्दशा पर
							सभ्यता का भूत हँसता है।
						
							 
						
							नई व्यंजना 
							
							तुम जो कहना चाहोगे विगत युगों में कहा जा चुका :
							सुख का आविष्कार तुम्हारा? बार-बार वह सहा जा चुका!
							रहने दो, वह नहीं तुम्हारा, केवल अपना हो सकता जो
							मानव के प्रत्येक अहं में सामाजिक अभिव्यक्ति पा चुका।
							एक मौन ही है जो अब भी नई कहानी कह सकता है;
							इसी एक घट में नवयुग की गंगा का जल रह सकता है;
							संसृतियों की, संस्कृतियों की तोड़ सभ्यता की चट्टानें-
							नई व्यंजना का सोता बस इसी राह से बह सकता है।
						
							 
						
							कवि, हुआ क्या फिर
							
							कवि, हुआ क्या फिर
							तुम्हारे हृदय में यदि लग गई है ठेस?
							चिड़ी दिल की जमा लो मूँठ पर (ऐहे, सितम, सैयाद!)
							न जाने किस झरे गुल की सिसकती याद में बुलबुल तड़पती है
							न पूछो दोस्त, हम भी रो रहे हैं लिए टूटा दिल।
							('मियाँ, बुलबुल, लड़ाओगे?')
							तुम्हारी भावनाएँ जग उठी हैं।
							बिछ चलीं पनचादरें ये एक चुल्लू आँसुओं की डूब मर, बरसात!
							सुनो कवि! भावनाएँ नहीं हैं सोता, भावनाएँ खाद हैं केवल
							जरा उनको दबा रखो- जरा-सा और पकने दो, ताने और तपने दो
							अँधेरी तहों की पुट में पिघलने और पचने दो;
							रिसने और रचने दो-
							कि उनका सार बनकर चेतना की धरा को कुछ उर्वरा कर दे;
							भावनाएँ तभी फलती हैं कि उनसे लोक के कल्याण का अंकुर कहीं फूटे।
							कवि, हृदय को लग गई है ठेस? धरा में हल चलेगा।
							मगर तुम तो गरेबाँ टोहकर देखो
							कि क्या वह लोक के कल्याण का भी बीज तुममें है।
						
							 
						
							पहला दौंगरा 
							
							गगन में मेघ घिर आए।
							तुम्हारी याद
							स्मृति के पिंजड़े में बाँधकर मैंने नहीं रखी
							तुम्हारे स्नेह को भरना पुरानी कुप्पियों में स्वत्व की
							मैंने नहीं चाहा।
							गगन में मेघ घिरते हैं
							तुम्हारी याद घिरती है
							उमड़कर विवश बूँदें बरसती हैं
							तुम्हारी सुधि बरसती है-
							न जाने अंतरात्मा में मुझे यह कौन कहता है
							तुम्हें भी यही प्रिय होता। क्योंकि तुमने भी निकट से दु:ख जाना था
							दु:ख सबको माँजता है
							और चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किंतु-
							जिनको माँजता है
							उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।
							मगर जो हो
							अभी तो मेघ घिर आए
							पड़ा यह दौंगरा पहला
							धरा ललकी, उठी, बिखरी हवा में
							बास सोंधी मुग्ध मिट्टी की।
							भिगो दो, आह
							ओ रे मेघ, क्या तुम जानते हो
							तुम्हारे साथ कितने हियों में कितनी असीसें उमड़ आई हैं?
						
							 
						
							कलगी बाजरे की
							
							हरी बिछली घास।
							दोलती कलगी छरहरी बाजरे की।
							अगर मैं तुमको ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
							अब नहीं कहता,
							या शरद् के भोर की नीहार न्हायी कुँई।
							टटकी कली चंपे की, वगैरह, तो
							नहीं, कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है
							या कि मेरा प्यार मैला है
							बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गए हैं।
							देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच।
							कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है
							मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :
							तुम्हारे रूप के, तुम हो, निकट हो, इसी जादू के
							निजी किस सहज गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूँ-
							अगर मैं यह कहूँ-
							बिछली घास हो तुम
							लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की?
							आज हम शहरातियों को
							पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फूल-से
							सृष्टि के विस्तार का, ऐश्वर्य का, औदार्य का
							कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
							बिछली घास है
							या शरद् की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती
							कलगी अकेली
							बाजरे की।
							और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूँ
							यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट जाता है
							और मैं एकांत होता हूँ समर्पित।
							शब्द जादू हैं-
							मगर क्या यह समर्पण कुछ नहीं है
						
							 
						
							नदी के द्वीप
							
							हम नदी के द्वीप हैं।
							हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
							वह हमें आकार देती है।
							हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकतकूल-
							सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।
							माँ है वह, इसी से हम बने हैं।
							किंतु हम हैं द्वीप।
							हम धारा नहीं हैं।
							स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के
							किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।
							हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
							पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे।
							और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?
							रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।
							अनुपयोगी ही बनाएँगे।
							द्वीप हैं हम।
							यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है।
							हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी के क्रोड़ में।
							वह बृहत् भूखंड से हमको मिलाती है।
							और यह भूखंड अपना पितर है।
							नदी, तुम बहती चलो।
							भूखंड से जो दाय हमको मिला है। मिलता रहा है,
							माँजती, संस्कार देती चलो :
							यदि ऐसा कभी हो
							तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से अतिचार-
							तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे
							यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा, कीर्तिनाशा, घोर कालप्रवाहिनी बन जाए
							तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर
							फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
							कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
							मात: उसे फिर संस्कार तुम देना।
						
							 
						
							काँगड़े की छोरिया
							
							काँगड़े की छोरियाँ कुछ भोरियाँ सब गोरियाँ
							लालाजी, जेवर बनवा दो खाली करो तिजोरियाँ
							काँगड़े की छोरियाँ।
							ज्वार-मका की क्यारियाँ हरियाँ-भरियाँ-प्यारियाँ
							धान खेतों में लहरें हवा की सुना रही हैं लोरियाँ
							काँगड़े की छोरियाँ।
							पुतलियाँ चंचल कलियाँ कानों झुमके बालियाँ
							हम चौड़े में खड़े लुट गए बनी न हमसे चोरियाँ-
							काँगड़े की छोरियाँ
							काँगड़े की छोरियाँ, कुछ भोरियाँ, सब गोरियाँ।
						
							 
						
							आज तुम शब्द न दो
							
							आज तुम शब्द न दो, न दो, कल भी मैं कहूँगा।
							तुम पर्वत हो अभ्रभेदी शिलाखंडों के गरिष्ठ पुंज
							चाँपे इस निर्झर को रहो, रहो।
							तुम्हारे रंध्र-रंध्र से तुम्हीं को रस देता हुआ फूटकर मैं बहूँगा।
							तुम्हीं ने दिया यह स्पंद।
							तुम्हीं ने धमनी में बाँधा है लहू का वेग यह मैं अनुक्षण जानता हूँ।
							गति जहाँ सब कुछ है, तुम धृति पारमिता, जीवन के सहज छंद
							तुम्हें पहचानता हूँ
							माँगो तुम चाहे जो, माँगोगे दूँगा; तुम दोगे जो मैं सहूँगा
							आज नहीं, कल सही
							कल नहीं, युग-युग बाद ही :
							मेरा तो नहीं है यह
							चाहे वह मेरी असमर्थता से बँधा हो।
							मेरा भाव यंत्र? एक मढ़िया है सूखी घास-फूस की
							उसमें छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान-
							साध्य नहीं मुझसे, किसी से चाहे सधा हो।
							आज नहीं, कल सही
							चाहूँ भी तो कब तक छाती में दबाए यह आग मैं रहूँगा?
							आज तुम शब्द न दो, न दो कल भी मैं कहूँगा।
						
							 
						
							यह दीप अकेला 
							
							यह दीप अकेला स्नेह भरा
							है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
							यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा?
							पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा?
							यह समिधा : ऐसी आग हठीला विरला सुलगाएगा।
							यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :
							यह दीप अकेला, स्नेह भरा
							है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
							यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युग संचय
							यह गोरस : जीवन कामधेनु का अमृत-पूत पय,
							यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकना निर्भय,
							यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्म, अयुत : इसको भी शक्ति को दे दो।
							यह दीप अकेला, स्नेह भरा
							है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
							यह वह विश्वास नहीं, जो अपनी लघुता में भी काँपा,
							वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा;
							कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
							यह सदा द्रवित, चिर जागरूक, अनुरक्त नेत्र।
							उल्लंब-बाहु, यह चिर अखंड अपनापा।
							जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भी भक्ति को दे दो :
							यह दीप अकेला, स्नेह भरा
							है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो
						
							 
						
							साँप
							
							साँप! तुम सभ्य तो हुए नहीं-
							नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
							एक बात पूछूँ- (उत्तर दोगे?)
							तब कैसे सीखा डँसना-विष कहाँ पाया।
						
							 
						
							मैं वहाँ हू
							
							दूर-दूर-दूर... मैं वहाँ हूँ।
							यह नहीं कि मैं भागता हूँ :
							मैं सेतु हूँ-जो है और जो होगा दोनों को मिलाता हूँ-
							मैं हूँ, मैं यहाँ हूँ, पर सेतु हूँ इसलिए
							दूर-दूर-दूर... मैं वहाँ हूँ।
							यह तो मिट्टी गोड़ता है। कोदई खाता है और गेहूँ खिलाता है
							उसकी मैं साधना हूँ।
							यह जो मिट्टी फोड़ता है, मड़िया में रहता है और महलों को बनाता है
							उसकी मैं आस्था हूँ।
							यह जो कज्जलपुता खानों में उतरता है
							पर चमाचम विमानों को आकाश में उड़ाता है,
							यह जो नंगे बदन, दम साध, पानी में उतरता
							और बाजार के लिए पानीदार मोती निकाल लाता है।
							यह जो कलम घिसता है, चाकरी करता है पर सरकार को चलाता है
							उसकी मैं व्यथा हूँ।
							
							यह जो कचरा ढोता है
							यह जो झल्ली लिए फिरता है और बेघरा घूरे पर सोता है,
							यह जो गदहे हाँकता है, यह जो तंदूर झोंकता है।
							यह जो कीचड़ उलीचती है
							यह जो मनियार सजाती है
							यह जो कंधे पर चूड़ियों की पोटली लिए गली-गली झाँकती है,
							यह जो दूसरों का उतरन फींचती है
							यह जो रद्दी बटोरता है
							यह जो पापड़ बेलता है, बीड़ी लपेटता है, वर्क कूटता है
							धौंकनी फूँकता है, कलई गलाता है, रेढ़ी ठेलता है
							चौक लीपता है, बासन माँजता है, ईंटें उछालता है
							रुई धुनता है, गारा सानता है, खटिया बुनता है
							मशक से सड़क सींचता है
							रिक्शा में अपना प्रतिरूप लादे खींचता है
							जो भी जहाँ भी पिसता है, पर हारता नहीं, न मरता है-
							पीड़ित श्रमरत मानव
							अविजित, दुर्जेय मानव
							कमकर, श्रमकर, शिल्पी, स्रष्टा-
							उसकी मैं कथा हूँ।
							
							दूर-दूर-दूर... मैं वहाँ हूँ।
							यह नहीं कि मैं भागता हूँ :
							मैं सेतु हूँ-जो है और जो होगा, दोनों को मिलाता हूँ
							पर सेतु हूँ इसलिए
							दूर-दूर-दूर... मैं वहाँ हूँ।
							किंतु मैं वहाँ हूँ तो ऐसा नहीं है मैं यहाँ नहीं हूँ।
							मैं दूर हूँ, जो है और जो होगा उसके बीच सेतु हूँ
							तो ऐसा नहीं है कि जो है, उसे मैंने स्वीकार कर लिया है।
							
							मैं आस्था हूँ तो मैं निरंतर उठते रहने की शक्ति हूँ?
							मैं व्यथा हूँ, तो मैं मुक्ति का श्वास हूँ
							मैं गाथा हूँ तो मैं मानव का अलिखित इतिहास हूँ
							मैं साधना हूँ तो मैं प्रयत्न में कभी शिथिल न होने का निश्चय हूँ
							मैं संघर्ष हूँ जिसे विश्राम नहीं,
							जो है मैं उसे बदलता हूँ, जो मेरा कर्म है, उसमें मुझे संशय का नाम नहीं,
							वह मेरा अपनी साँस-सा पहचाना है,
							लेकिन घृणा/घृणा से मुझे काम नहीं
							क्योंकि मैंने डर नहीं जाना है।
							मैं अभय हूँ,
							मैं भक्ति हूँ,
							मैं जय हूँ।
							दूर-दूर-दूर... मैं सेतु हूँ
							किंतु शून्य से शून्य तक का सतरंगी सेतु नहीं,
							वह सेतु, जो मानव से मानव का हाथ मिलने से बनता है
							जो हृदय से हृदय को, श्रम की शिखा से श्रम की शिखा को
							कल्पना के पंख से कल्पना के पंख को,
							विवेक की किरण से विवेक की किरण को
							अनुभव के स्तंभ से अनुभव के स्तंभ को मिलाता है
							जो मानव को एक करता है
							समूह का अनुभव जिसकी मेहराबें हैं
							और जन-जीवन की अजस्र प्रवाहमयी नदी जिसके नीचे से बहती है
							मुड़ती, बल खाती, नए मार्ग फोड़ती, नए कगारे तोड़ती,
							चिर परिवर्तनशीला, सागर की ओर जाती, जाती, जाती...
							मैं वहाँ हूँ- दूर-दूर-दूर
						
							 
						
							सर्जना के क्षण 
							
							एक क्षण भर और रहने दो मुझे अभिभूत :
							फिर जहाँ मैंने सँजोकर और भी सब रखी हैं ज्योति:शिखाएँ
							वहीं तुम भी चली जाना-शांत तेजोरूप।
							एक क्षण भर और
							लंबे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते।
							बूँद स्वाती की भले हो, बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से
							वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को
							भले ही फिर व्यथा के तम में बरस कर बरस बीतें
							एक मुक्ता-रूप को पकते।
						
							 
						
							शब्द और सत्य 
							
							यह नहीं कि मैंने सत्य नहीं पाया था
							यह नहीं कि मुझको शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है
							दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं
							प्रश्न यही रहता है :
							दोनों अपने बीच जो दीवार बनाए रहते हैं
							मैं कब, कैसे उनके अनदेखे
							उसमें सेंध लगा दूँ
							या भर विस्फोटक
							उसे उड़ा दूँ?
							कवि जो होंगे, हों, जो कुछ करते हैं, करें,
							प्रयोजन बस मेरा इतना है
							ये दोनों जो
							सदा एक-दूसरे से तनकर रहते हैं,
							कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में,
							इन्हें मिला दूँ
							दोनों जो हैं बंधु, सखा, चिर सहचर मेरे।
						
							 
						
							पूनो की साँझ
							
							पति सेवारत साँझ
							उचकता देख पराया चाँद
							ललाकर ओट हो गई।
						
							 
						
							मानव अकेला 
							
							भीड़ों में
							जब-जब
							जिस-जिस से आँखें मिलती हैं
							वह सहसा दिख जाता है
							मानव
							अंगारे सा- भगवान्-सा
							अकेला।
							और हमारे सारे लोकाचार
							राख की युगों-युगों की परतें हैं।
						
							 
						
							चिड़िया की कहानी
							
							उड़ गई चिड़िया
							काँपी, फिर
							थिर-
							हो गई पत्ती।
						
							 
						
							नया कवि : आत्म-स्वीकार 
							
							किसी का सत्य था,
							मैंने संदर्भ से जोड़ दिया।
							कोई मधु-कोष काट लाया था,
							मैंने निचोड़ लिया।
							किसी की उक्ति में गरिमा थी,
							मैंने उसे थोड़ा-सा सँवार दिया
							किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था
							मैंने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया।
							कोई हुनरमंद था :
							मैंने देखा और कहा, 'यों!'
							थका भारवाही पाया-
							घुड़का या कोंच दिया, 'क्यों?'
							किसी की पौध थी,
							मैंने सींची और बढ़ने पर अपना ली,
							किसी की लगायी लता थी,
							मैंने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली
							किसी की कली थी :
							मैंने अनदेखे में बीन ली,
							किसी की बात थी।
							मैंने मुँह से छीन ली।
							यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ :
							काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ?
							चाहता हूँ आप मुझे
							एक-एक शब्द सराहते हुए पढ़ें।
							पर प्रतिमा- अरे वह तो
							जैसी आपको रुचे आप स्वयं गढ़ें।
						
							 
						
							इशारे  ज़िंदगी के
							
							ज़िंदगी हर मोड़ पर करती रही हमको इशारे
							जिन्हें हमने नहीं देखा।
							क्योंकि हम बाँधे हुए थे पट्टियाँ संस्कार की
							और हमने बाँधने से पूर्व देखा था-
							हमारी पट्टियाँ रंगीन थीं
							ज़िंदगी करती रही नीरव इशारे :
							हम छली थे शब्द के।
							'शब्द ईश्वर है, इसी में वह रहस्य है :
							शब्द अपने आप में इति है-
							हमें यह मोह अब छलता नहीं था।
							शब्द-रत्नों की लड़ी हम गूँथकर माला पिन्हाना चाहते थे
							नए रूपाकार को
							और हमने यही जाना था
							कि रूपाकार ही तो सार है।
							एक नीरव नदी बहती जा रही थी
							बुलबुले उसमें उमड़ते थे
							रह : संकेत के :
							हर उमडऩे पर हमें रोमांच होता था।
							फूटना हर बुलबुले का हमें तीखा दर्द होता था।
							रोमांच! तीखा दर्द!
							नीरव रह : संकेत-हाय।
							ज़िंदगी करती रही
							नीरव इशारे
							हम पकड़े रहे रूपाकार को।
							किंतु रूपाकार
							चोला है
							किसी संकेत शब्दातीत का,
							ज़िंदगी के किसी
							गहरे इशारे का।
							शब्द :
							रूपाकार :
							फिर संकेत
							ये हर मोड़ पर बिखरे हुए संकेत-
							अनगिनती इशारे ज़िंदगी के
							ओट में जिनकी छिपा है
							अर्थ।
							हाय, कितने मोह की कितनी दिवारें भेदने को-
							पूर्व इसके, शब्द ललके।
							अंक भेंटे अर्थ को
							क्या हमारे हाथ में वह मंत्र होगा, हम इन्हें संपृक्त कर दें।
							अर्थ दो अर्थ दो
							मत हमें रूपाकार इतने व्यर्थ दो।
							हम समझते हैं इशारा ज़िंदगी का-
							हमें पार उतार दो-
							रूप मत, बस सार दो।
							मुखर वाणी हुई : बोलने हम लगे :
							हमको बोध था वे शब्द सुंदर हैं-
							सत्य भी हैं, सारमय हैं।
							पर हमारे शब्द
							जनता के नहीं थे,
							क्योंकि जो उन्मेष हम में हुआ
							जनता का नहीं था,
							हमारा दर्द
							जनता का नहीं था
							संवेदना ने ही विलग कर दी
							हमारी अनुभूति हमसे।
							यह जो लीक हमको मिली थी-
							अंधी गली थी।
							चुक गई क्या राह! लिख दें हम
							चरम लिखतम् पराजय की?
							इशारे क्या चुक गए हैं
							ज़िंदगी के अभिनयांकुर में?
							बढ़े चाहे बोझ जितना
							शास्त्र का, इतिहास,
							रूढ़ि के विन्यास का या सूक्त का-
							कम नहीं ललकार होती ज़िंदगी।
							मोड़ आगे और है-
							कौन उसकी ओर देखो, झाँकता है?
						
							 
						
							नंदा देवी 
							
							नंदा,
							बीस-तीस-पचास वर्षों में
							तुम्हारी वनराजियों की लुगदी बनाकर
							हम उस पर
							अखबार छाप चुके होंगे
							तुम्हारे सन्नाटे को चीर रहे होंगे
							हमारे धुँधुआते शक्तिमान ट्रक,
							तुम्हारे झरने-सोते सूख चुके होंगे
							और तुम्हारी नदियाँ
							ला सकेंगी केवल शस्य-भक्षी बाढ़ें
							या आँतों को उमेठने वाली बीमारियाँ
							तुम्हारा आकाश हो चुका होगा
							हमारे अतिस्वन विमानों के
							धूम-सूत्रों का गुंझर।
							नंदा,
							जल्दी ही-
							बीस-तीस-पचास बरसों में
							हम तुम्हारे नीचे एक मरु बिछा चुके होंगे
							और तुम्हारे उस नदी धौत सीढ़ी वाले मंदिर में
							जला करेगा
							एक मरुदीप।
						
							 
						
							जियो, मेरे
							
							जियो, मेरे आज़ाद देश की शानदार इमारतो
							जिनकी साहिबी टोपनुमा छतों पर गौरव ध्वज तिरंगा फहरता है
							लेकिन जिनके शौचालयों में व्यवस्था नहीं है
							कि निवृत्त होकर हाथ धो सकें।
							(पुरखे तो हाथ धोते थे न? आज़ादी ही से हाथ धो लेंगे, तो कैसा?)
							
							जियो, मेरे आज़ाद देश के शानदार शासको
							जिनकी साहिबी भेजे वाली देशी खोपड़ियों पर
							चिट्टी दूधिया टोपियाँ फब दिखाती हैं,
							जिनके बाथरूम की संदली, अँगूरी, चंपई, फ़ाख्तई
							रंग की बेसिनी, नहानी, चौकी तक की तहज़ीब
							सब में दिखता है अँग्रेज़ी रईसी ठाठ
							लेकिन सफाई का कागज़ रखने की कंजूस बनिए की तमीज़...
							
							जियो, मेरे आज़ाद देश के सांस्कृतिक प्रतिनिधियो
							जो विदेश जाकर विदेशी नंग देखने के लिए पैसे देकर
							टिकट खरीदते हो
							पर जो घर लौटकर देसी नंग ढकने के लिए
							ख़ज़ाने में पैसा नहीं पाते,
							और अपनी जेब में-पर जो देश का प्रतिनिधि हो वह
							जेब में हाथ डाले भी
							तो क्या ज़रूरी है कि जेब अपनी हो?
							
							जियो, मेरे आज़ाद देश के रौशन ज़मीर लोक-नेताओ :
							जिनकी मर्यादा वह हाथी का पैर है जिसमें
							सबकी मर्यादा समा जाती है-
							जैसे धरती में सीता समा गई थी!
							एक थे वह राम जिन्हें विभीषण की खोज में जाना पड़ा,
							जाकर जलानी पड़ी लंका :
							एक है यह राम-राज्य, बजे जहाँ अविराम
							विराट् रूप विभीषण का डंका!
							राम का क्या काम यहाँ? अजी राम का नाम लो।
							चाम, जाम, दाम, ताम-झाम, काम- कितनी
							धर्म-निरपेक्ष तुकें अभी बाकी हैं।
							जो सधे, साध लो, साधो-
							नहीं तो बने रहो मिट्टी के माधो।
							 
						
							 
						
							देवता अब भी 
							
							
							देवता अब भी
							जलहरी को घेरे बैठे हैं
							पर जलहरी में पानी सूख गया है।
							देवता भी धीरे-धीरे
							सूख रहे हैं
							उनका पानी
							मर रहा है।
							यूप-यष्टियाँ
							रेती में दबती जा रही हैं
							रेत की चादर-ढँकी अर्थी में बँधे
							महाकाल की छाती पर
							काल चढ़ बैठा है।
							मर रहे हैं नगर-
							नगरों में
							मरु-थर-
							मरु-थरों में
							जलहरी में
							पानी सूख गया है
						
							 
						
							कहीं की ईंट 
							
							कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा
							भानमती ने कुनबा जोड़ा
							कुनबे ने भानमती गढ़ी
							रेशम से भाँड़ी, सोने से मढ़ी
							कवि ने कथा गढ़ी, लोक ने बाँची
							कहो-भर तो झूठ, जाँचो तो साँची
						
							 
						
							अपने प्रेम के उद्वेग में
							
							अपने प्रेम के उद्वेग में मैं जो कुछ भी तुम से कहता हूँ, वह सब पहले कहा जा चुका है।
							तुम्हारे प्रति मैं जो कुछ भी प्रणय-व्यवहार करता हूँ, वह सब भी पहले हो चुका है।
							तुम्हारे और मेरे बीच में जो कुछ भी घटित होता है उस से एक तीक्ष्ण वेदना-भरी अनुभूति मात्र होती है- कि यह सब पुराना है, बीत चुका है, कि यह अभिनय तुम्हारे ही जीवन में मुझ से अन्य किसी पात्र के साथ हो चुका है!
							यह प्रेम एकाएक कैसा खोखला और निरर्थक हो जाता है!
						
							 
						
							चुक गया दिन
							
							'चुक गया दिन'- एक लंबी साँस
							उठी, बनने मूक आशीर्वाद-
							सामने था आद्र्र तारा नील,
							उमड़ आयी असह तेरी याद!
							हाय, यह प्रतिदिन पराजय दिन छिपे के बाद!
							चंपानेर, 23 सितंबर, 1939
						
							 
						
							घृणा का गान
							
							सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
							तुम, जो भाई को अछूत कह वस्त्र बचा कर भागे,
							तुम, जो बहिनें छोड़ बिलखती, बढ़े जा रहे आगे!
							रुक कर उत्तर दो, मेरा है अप्रतिहत आह्वान-
							सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
							
							तुम, जो बड़े-बड़े गद्दों पर ऊँची दूकानों में,
							उन्हें कोसते हो जो भूखे मरते हैं खानों में,
							तुम, जो रक्त चूस ठठरी को देते हो जल-दान-
							सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
							
							तुम, जो महलों में बैठे दे सकते हो आदेश,
							'मरने दो बच्चे, ले आओ खींच पकड़ कर केश!'
							नहीं देख सकते निर्धन के घर दो मुट्ठी धान
							सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
							
							तुम, जो पा कर शक्ति कलम में हर लेने की प्राण-
							'नि:शक्तों' की हत्या में कर सकते हो अभिमान!
							जिनका मत है, 'नीच मरें, दृढ़ रहे हमारा स्थान'-
							सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
							
							तुम, जो मंदिर में वेदी पर डाल रहे हो फूल,
							और इधर कहते जाते हो, 'जीवन क्या है? धूल!'
							तुम, जिस की लोलुपता ने ही धूल किया उद्यान-
							सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
							
							तुम, सत्ताधारी, मानवता के शव पर आसीन,
							जीवन के चिर-रिपु, विकास के प्रतिद्वंद्वी प्राचीन,
							तुम, श्मशान के देव! सुनो यह रण-भेरी की तान-
							आज तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
						
							 
						
							अचरज 
							
							आज सवेरे
							अचरज एक देख मैं आया।
							
							एक घने, पर धूल-भरे-से अर्जुन तरु के नीचे
							एक तार पर बिजली के वे सटे हुए बैठे थे-
							दो पक्षी छोटे-छोटे,
							घनी छाँह में, जग से अलग; किंतु परस्पर सलग।
							और नयन शायद अधमीचे।
							और उषा की धुँधली-सी अरुणाली थी सारा जग सींचे।
							छोटे, इतने क्षुद्र, कि जग की सदा सजग आँखों की एक अकेली झपकी-
							एक पलक में वे मिट जाएँ, कहीं न पाएँ-
							छोटे, किंतु द्वित्व में इतने सुंदर, जग-हिय ईर्ष्या से भर जावे;
							भर क्यों-भरा सदा रहता है-छल-छल उमड़ा आवे!
							-सलग, प्रणय की आँधी में मानो ले दिन-मान,
							विधि का करते-से आह्वान।
							मैं जो रहा देखता, तब विधि ने भी सब कुछ देखा होगा-
							वह विधि, जिस के अधिकृत उन के मिलन-विरह का लेखा होगा-
							किंतु रहे वे फिर भी सटे हुए, संलग्न-
							आत्मता में ही तन्मय, तन्मयता में सतत निमग्न!
							और-बीत चुका जब मेरे जाने समय युगों का-
							आया एक हवा का झोंका-काँपे तार-झरा दो कण नीहार-
							उस समय भी तो उन के उर के भीतर
							कोई ख़लिश नहीं थी-कोई रिक्त नहीं था-
							नहीं वेदना की टीसों को स्थान कहीं था!
							तब भी तो वे सहज परस्पर पंख से पंख मिलाये
							वाताहत तम की झकझोर में भी अपने चारों ओर
							एक प्रणय का निश्चल वातावरण जमाये
							उड़े जा रहे थे, अतिशय निद्र्वन्द्व-
							और विधि देख रही-नि:स्पंद!
							लौट चला आया हूँ, फिर भी प्राण पूछते जाते हैं
							क्या वह सच था! और नहीं उत्तर पाते हैं-
							और कहे ही जाते हैं
							कि आज मैं
							अचरज एक देख आया।
						
							 
						
							मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!
							
							प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!
							बह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!
							
							तुम विमुख हो, किंतु मैंने कब कहा उन्मुख रहो तुम?
							साधना है सहसनयना-बस, कहीं सम्मुख रहो तुम!
							विमुख-उन्मुख से परे भी तत्त्व की तल्लीनता है-
							लीन हूँ मैं, तत्त्वमय हूँ अचिर चिर-निर्वाण में हूँ!
							मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!
							
							क्यों डरूँ मैं मृत्यु से या क्षुद्रता के शाप से भी?
							क्यों डरूँ मैं क्षीण-पुण्या अवनि के संताप से भी?
							व्यर्थ जिस को मापने में हैं विधाता की भुजाएँ-
							वह पुरुष मैं, मत्र्य हूँ पर अमरता के मान में हूँ!
							मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!
							
							रात आती है, मुझे क्या? मैं नयन मूँदे हुए हूँ,
							आज अपने हृदय में मैं अंशुमाली को लिए हूँ!
							दूर के उस शून्य नभ से सजल तारे छलछलाएँ-
							वज्र हूँ मैं, ज्वलित हूँ, बेरोक हूँ, प्रस्थान में हूँ!
							मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!
							
							मूक संसृति आज है, पर गूँजते हैं कान मेरे,
							बुझ गया आलोक जग में, धधकते हैं प्राण मेरे।
							मौन या एकांत या विच्छेद क्यों मुझ को सताये?
							विश्व झंकृत हो उठे, मैं प्यार के उस गान में हूँ!
							मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!
							
							जगत है सापेक्ष, याँ है कलुष तो सौंदर्य भी है,
							हैं जटिलताएँ अनेकों-अंत में सौकर्य भी है।
							किंतु क्यों विचलित करे मुझ को निरंतर की कमी यह-
							एक है अद्वैत जिस स्थल आज मैं उस स्थान में हूँ!
							मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!
							
							वेदना अस्तित्च की, अवसान की दुर्भावनाएँ-
							भव-मरण, उत्थान-अवनति, दु:ख-सुख की प्रक्रियाएँ
							आज सब संघर्ष मेरे पा गए सहसा समन्वय-
							आज अनिमिष देख तुम को लीन मैं चिर-ध्यान में हूँ!
							मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!
							
							बह गया जग मुग्ध-सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!
							प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!
						
							 
						
							आज थका हिय-हारिल मेरा! 
							
							इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा?
							शुभे! तुम्हारी स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा!
							
							दृढ़ डैनों के मार थपेड़े अखिल व्योम को वश में करता,
							तुझे देखने की आशा से अपने प्राणों में बल भरता,
							
							ऊषा से ही उड़ता आया, पर न मिल सकी तेरी झाँकी
							साँझ समय थक चला विकल मेरे प्राणों का हारिल-पाखी :
							
							तृषित, श्रांत, तम-भ्रांत और निर्मम झंझा-झोंकों से ताड़ित-
							दरस प्यास है असह, वही पर किए हुए उस को अनुप्राणित!
							
							गा उठते हैं, 'आओ आओ!' केकी प्रिय घन को पुकार कर
							स्वागत की उत्कंठा में वे हो उठते उद्भ्रांत नृत्य पर!
							
							चातक-तापस तरु पर बैठा स्वाति-बूँद में ध्यान रमाये,
							स्वप्न तृप्ति का देखा करता 'पी! पी! पी!' की टेर लगाये;
							
							हारिल को यह सह्य नहीं है- वह पौरुष का मदमाता है :
							इस जड़ धरती को ठुकरा कर उषा-समय वह उड़ जाता है।
							
							'बैठो, रहो, पुकारो-गाओ, मेरा वैसा धर्म नहीं है;
							मैं हारिल हूँ, बैठे रहना मेरे कुल का कर्म नहीं है।
							
							तुम प्रिय की अनुकंपा माँगो, मैं माँगूँ अपना समकक्षी
							साथ-साथ उड़ सकने वाला एकमात्र वह कंचन-पक्षी!'
							
							यों कहता उड़ जाता हारिल ले कर निज भुज-बल का संबल
							किंतु अंत संध्या आती है- आखिर भुज-बल है कितना बल?
							
							कोई गाता, किंतु सदा मिट्टी से बँधा-बँधा रहता है,
							कोई नभ-चारी, पर पीड़ा भी चुप हो कर ही सहता है;
							
							चातक हैं, केकी हैं, संध्या को निराश हो सो जाते हैं,
							हारिल हैं- उड़ते-उड़ते ही अंत गगन में खो जाते हैं।
							
							कोई प्यासा मर जाता है, कोई प्यासा जी लेता है
							कोई परे मरण-जीवन से कड़ुवा प्रत्यय पी लेता है।
							
							आज प्राण मेरे प्यासे हैं, आज थका हिय-हारिल मेरा
							आज अकेले ही उस को इस अँधियारी संध्या ने घेरा।
							
							मुझे उतरना नहीं भूमि पर तब इस सूने में खोऊँगा
							धर्म नहीं है मेरे कुल का- थक कर भी मैं क्यों रोऊँगा?
							
							पर प्रिय! अंत समय में क्या तुम इतना मुझे दिलासा दोगे-
							जिस सूने में मैं लुट चला, कहीं उसी में तुम भी होगे?
							
							इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा?
							शुभे! तुम्हारी स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा।
						
							 
						
							 आशी :
							(वसंत के एक दिन)  
							
							फूल काँचनार के,
							प्रतीक मेरे प्यार के!
							प्रार्थना-सी अर्धस्फुट काँपती रहे कली,
							पत्तियों का सम्पुट, निवेदिता ज्यों अंजली।
							आए फिर दिन मनुहार के, दुलार के
							-फूल काँचनार के!
							
							सुमन-वृंत बावले बबूल के!
							झोंके ऋतुराज के वसंती दुकूल के,
							
							बूर बिखराता जा पराग अंगराग का,
							दे जा स्पर्श ममता की सिहरती आग का।
							आवे मत्त गंध वह ढीठ हूल-हूल के
							-सुमन वृंत बावले बबूल के!
							
							कली री पलास की!
							टिमटिमाती ज्योति मेरी आस की
							या कि शिखा ऊध्र्वमुखी मेरी दीप्त प्यास की।
							
							वासना-सी मुखरा, वेदना-सी प्रखरा
							दिगंत में, प्रांतर में, प्रांत में
							खिल उठ, झूल जा, मस्त हो,
							फैल जा वनांत में-
							मार्ग मेरे प्रणय का प्रशस्त हो!
						
							 
						
							वीर-बहू
							
							एक दिन देवदारु-वन बीच छनी हुई
							किरणों के जाल में से साथ तेरे घूमा था।
							फेनिल प्रपात पर छाये इंद्र-धनु की
							फुहार तले मोर-सा प्रमत्त-मन झूमा था
							
							बालुका में अँकी-सी रहस्यमयी वीर-बहू
							पूछती है रव-हीन मखमली स्वर से :
							याद है क्या, ओट में बुरूँस की प्रथम बार
							धन मेरे, मैंने जब ओठ तेरा चूमा था?
						
							 
						
							पानी बरसा!
							
							ओ पिया, पानी बरसा!
							
							घास हरी हुलसानी
							मानिक के झूमर-सी झूमी मधु-मालती
							झर पड़े जीते पीत अमलतास
							चातकी की वेदना बिरानी।
							बादलों का हाशिया है आसपास-
							बीच लिखी पाँत काली बिजली की-
							कूँजों की डार, कि असाढ़ की निशानी!
							ओ पिया, पानी!
							मेरा जिया हरसा।
							
							खडख़ड़ कर उठे पात, फड़क उठे गात।
							देखने को आँखें घेरने को बाँहें।
							पुरानी कहानी?
							ओठ को ओठ, वक्ष को वक्ष-
							ओ पिया, पानी!
							मेरा हिया तरसा।
							ओ पिया, पानी बरसा!
						
							 
						
							राह बदलती नही
							
							राह बदलती नहीं- प्यार ही सहसा मर जाता है,
							संगी बुरे नहीं तुम- यदि नि:संग हमारा नाता है।
							स्वयंसिद्ध है बिछी हुई यह जीवन की हरियाली-
							जब तक हम मत बुझें सोच कर- 'वह पड़ाव आता है!'