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कविता

कछार-कथा

हरीशचंद्र पांडे


कछारों ने कहा
हमें भी बस्तियाँ बना लो...
जैसे खेतों को बनाया, जैसे जंगलों को बनाया

लोग थे
जो कब से आँखों में दो-एक कमरे लिए घूम रहे थे
कितने-कितने घर बदल चुके थे फौरी नोटिसों पर
कितनी-कितनी बार लौट आए थे जमीनों के टुकड़े देख-देख कर

पर ये दलाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले कछारों की आवाज सुनी
और लोगों के हसरतों की भी थाह ली, उनकी आँखों में डूब कर

उन्होंने कछारों से कहा ये लो आदमी
और आदमियों से कहा ये लो जमीन

डरे थे लोग पहले-पहल
पर उन्हें निर्भय करने कई लोग आगे आ गए
बिजली वालों ने एकांत में ले जाकर कहा, यह लो बिजली का कनैक्शन
जल-कल ने पानी की लाइनें दौड़ा दीं
नगरपालिका ने मकान नंबर देते हुए पहले ही कह दिया था
...जाओ मौज करो

कछार एक बस्ती है अब

ढेर सारे घर बने कछार में
तो सिविल लाइंस में भी कुछ घर बन गए
लंबे-चौड़े-भव्य

यह कछार बस्ती अब गुलो-गुलजार है

बच्चे गलियों में खेल रहे हैं
दुकानदारों ने दुकानें खोल ली हैं
डाक विभाग डाक बाँट रहा है
राशन कार्डों पर राशन मिल रहा है
मतदाता सूचियों में नाम बढ़ रहे हैं

कछार एक सर्वमान्य बस्ती है अब

पर सावन-भादो के पानी ने यह सब नहीं माना
उसने न बिजली वालों से पूछा न जल-कल से ना नगरपालिका से न दलालों से
...हरहराकर चला आया घरों के भीतर

यह भी ना पूछा लोगों से
तुमने तिनके-तिनके जोड़ा था
या मिल गया था कहीं एक साथ पड़ा हुआ
तुम सपने दिन में देखा करते थे या रात में
लोगों ने चीख-चीख कर कहा, बार-बार कहा
बाढ़ का पानी हमारे घरों में घुस गया है
पानी ने कहा मैं अपनी जगह में घुस रहा हूँ
अखबारों ने कहा
जल ने हथिया लिया है थल
अनींद ने नींद हथिया ली है

अब टीलों पर बैठे लोग देख रहे हैं जल-प्रलय

औरतें जिन खिड़कियों को अवांछित नजरों से बचाने
फटाक से बंद कर देती थीं
लोफर पानी उन्हे धक्का देकर भीतर घुस गया है
उनके एकांत में भरपूर खुलते शावरों के भी ऊपर चला गया है
जाने उन बिंदियों का क्या होगा
जो दरवाजों दीवारों शीशों पर चिपकी हुई थीं जहाँ-तहाँ


पानी छत की ओर सीढ़ियों से नहीं बढ़ा बच्चों की तरह फलाँगते
न ही उनकी उछलती गेंदों की तरह टप्पा खाकर...
अजगर की तरह बढ़ा
रेंगते-रेंगते, मकान को चारों ओर से बाहुपाश में कसते
उसकी रीढ़ चरमराते

वह नाक, कान, मुंह, रंध्र-रंध्र से घुसा
इड़ा-पिंगला-सुष्मन्ना को सुन्न करते

फिलहाल तो यह टीला ही एक बस्ती है
यह चिंताओं का टीला है एक
खाली हो चुकी पासबुकों का विशाल जमावड़ा है
उऋणता के लिए छ्टपटाती आत्माओं का जमघट है
यहाँ से लोग घटते जलस्तर की कामना लिए
बढ़ता हुआ जलस्तर देख रहे हैं

वे बार-बार अपनी जमीन के अग्रीमेंट पेपर टटोल रहे हैं
जिन्हें भागते-भागते अपने प्राणों के साथ बचाकर ले आए थे

 


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