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कविता

नाम

हरीशचंद्र पांडे


चूँकि झाड़ी की ओट में नहीं छुपाई जा सकती थी आवाज
एक किलकारी उसका वहाँ होना बता ही गई

झाड़ी न होती तो कोई नाला होता या ताल
मिल ही जाता है ऐसे नवजातों को अपना कोई लहरतारा

क्रंदन करते
टुकुर-टुकुर ताकते
और कभी निष्पंद...

कयास ही लगाए जा सकते हैं ऐसे में केवल
जैसे लगाए जते रहे हैं समय अनंत से
अवैध आवेग की देन होगा
कुँवारे मातृत्व का फूल
किसी अमावस पल में रख गया होगा कोई चुपचाप यहाँ

होगा... होगा... होगा...

जो होता कोई बड़ा तो पूछ लिया जाता
कौन बिरादर हो भाई
कौन गाँव जवार के
कैसे पड़े हो यहाँ असहाय

बता देती उसकी बोली-बानी कुछ
कुछ केश बता देते कुछ पहनावा
होने को तो त्वचा तक में मिल जाती है पहचान

अब इस अबोध
लुकमान!
बचा लो यह चीख...

एक गोद में एक फल आ गिरा है
एक गिरा फूल एक सूखी टहनी से जा लगा है।

***

चार-पाँच घंटे एक शिशु को
दूध देने से पहले दे दिया गया है एक नाम

नाम - जैसे कोई उर्वर बीज
एक बीज को नम जमीन मिल गई है
धँस रहा है वह
अँकुरा रहा है वह

इस नाम को सुनते-सुनते वह समझ जाएगा यह मेरे लिए है
इस नाम को सुनते ही वह मुड़ पड़ेगा उधर
जिधर से आवाज आ रही है

अपने नाम के साथ एक बच्चा सयाना हो रहा है
और सयाना होगा और समझदार
इतना कि वह नफरत कर सकेगा दूसरे नामों से

नाम को सुनकर
आज उसने कई घर जलाए हैं
नाम को सुनकर आज उसने कई घर छोड़ दिए हैं

धुआँ है नाम
वह आग तक पहुँच रहा है

कोई है
जो नाम के पीछे चौबीसों घंटे पगलाए इस आदमी को
झाड़ी के पीछे के
अनाम-अगोत्र पाँच घंटों की याद दिला दे...

 


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